Published on Jul 10, 2020 Updated 0 Hours ago

जिस तरह माध्यम के तौर पर भाषा के महत्व को बरकरार रखना ज़रूरी है, उसी तरह नये माध्यम की नई भाषा को भी समझना और सीखना ज़रूरी है.

कोविड-19 के बाद की दुनिया में क्या होगा क्षेत्रीय भाषाओं का भविष्य?

जनवरी से लगाए गए लॉकडाउन के अलग-अलग चरण में फंसी दुनिया में सबसे बड़ा बदलाव घर से काम और पढ़ाई के रूप में हुआ है. ये दोनों ऐसे काम हैं जो महामारी के फैलने से पहले तक घर में बैठकर लोग प्रमुखता से नहीं करते थे. घर से काम करने का चलन कुछ महीने पहले तक भी इतना ज़्यादा नहीं था जितना कि अब है. ऐसी ही बात स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई के साथ भी है.

ऑनलाइन गतिविधियों में इतनी ज़्यादा बढ़ोतरी कहीं से भी अस्थायी घटना नहीं लग रही. टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज़ (TCS) जैसी कंपनियों ने पहले ही एलान कर दिया है कि उसके 4.5 लाख कर्मचारियों में से 75 प्रतिशत कर्मचारी 2025 तक घर से काम जारी रखेंगे. स्कूल और यूनिवर्सिटी ने भी शिक्षा को ऑनलाइन करके ‘लर्न फ्रॉम होम’ के विचार को अपना लिया है. ये ऐसा रुझान है जो महामारी के ख़त्म होने के बाद भी जारी रहेगा.

जब दुनिया जीवनशैली में बड़े बदलाव के लिए ख़ुद को तैयार कर रही है, उस वक़्त उसे बातचीत के तौर-तरीक़ों में भी बड़ा बदलाव करना होगा. इस बदली हुई वैश्विक भाषाई संस्कृति में सिर्फ़ वही क्षेत्रीय भाषाएं ख़ुद को बचा पाएंगी जो बदलाव के मुताबिक़ ख़ुद को ढालेंगी

इस तरह कोविड के बाद की दुनिया में लोग अधिकतम समय घर पर गुज़ारेंगे और निकट भविष्य में ‘परिवार’ से और ज़्यादा जुड़े रहने की उम्मीद है. लेकिन घर पर परिवार के लोगों के बीच आपसी बातचीत के दौरान, छात्रों के लिए ऑनलाइन क्लासरूम शिक्षा के दौरान और कामकाजी लोगों के लिए घर से काम करने के दौरान संचार की भाषा पूरी तरह अलग होगी. इसलिए जब दुनिया जीवनशैली में बड़े बदलाव के लिए ख़ुद को तैयार कर रही है, उस वक़्त उसे बातचीत के तौर-तरीक़ों में भी बड़ा बदलाव करना होगा. इस बदली हुई वैश्विक भाषाई संस्कृति में सिर्फ़ वही क्षेत्रीय भाषाएं ख़ुद को बचा पाएंगी जो बदलाव के मुताबिक़ ख़ुद को ढालेंगी.

भविष्य के परिदृश्य में, जहां ऑनलाइन शिक्षा के और प्रमुखता हासिल करने की संभावना है, वहां अलग-अलग प्रकार के ऑनलाइन स्टडी मैटेरियल की रचना ज़रूरी है. सिर्फ़ टेक्स्ट बुक को PDF में बदलना काफ़ी नहीं होगा. क्षेत्रीय और स्थानीय भाषाओं में मज़ेदार डिजिटल कंटेंट बनाने पर भी उतना ही ध्यान देना होगा. ये कंटेंट इस तरह का होना चाहिए जो इंटरेक्टिव मल्टीमीडिया और गेम्स के ज़रिए छात्रों को आकर्षित कर सके. जो क्षेत्रीय भाषाएं नये तरह के कंटेंट के साथ आएंगी वो लोकप्रिय होंगी और माता-पिता के लिए ये इशारा होगा कि वो अपने बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाएं और बच्चों को भी इसके लिए प्रेरित कर सकें. लेकिन संचार के व्यापक माध्यम के तौर पर भाषा क्षेत्रीय स्कूल और क्षेत्रीय भाषा की किताबों के दायरे से काफ़ी आगे है.

वैश्विकरण और अंतर्राष्ट्रीय यात्रा में आसानी और रफ़्तार की वजह से महामारी कुछ ही महीनों में चीन से शुरू होकर पूरी दुनिया में फैल गई. यही वजह है कि महामारी पर रोकथाम की पहली कोशिश लोगों की आवाजाही रोककर हुई. लेकिन शारीरिक संचार में कमी जहां अभी भी बरकरार है, वहीं डिजिटल माध्यमों के ज़रिए सूचनाओं के फैलने की रफ़्तार अभूतपूर्व हो गई है. हालांकि ‘डाटा को नया तेल’ 2006 में ही बताया गया था लेकिन वास्तविक वैश्विक करेंसी के तौर पर इसकी क़ीमत 2020 की शुरुआत से ही समझी गई है. लेकिन इसकी असली क़ीमत तब तक नहीं समझ आएगी जब तक डिजिटल जानकारी या कंटेंट को अलग-अलग भाषाई माध्यमों के ज़रिए पेश नहीं किया जाता, अंग्रेज़ी के वर्चस्व के ज़रिए सीमित नहीं किया जाता.

गूगल और माइक्रोसॉफ्ट जैसी वैश्विक IT कंपनी, जिन्होंने भारत में कंटेंट के ‘स्थानीयकरण’ पर निवेश किया है, महामारी के बाद की बदली हुई दुनिया उनके निवेश को मुनाफ़ा कमाने के मक़सद से काफ़ी आगे ले जाएगी. इसलिए कंटेंट का विकास इस तर्क पर आधारित होगा कि एक भाषा को आगे किया जाए और दूसरी भाषाओं को उनके पीछे रखा जाए. 

भाषाई कार्यकर्ता और राज्य सरकारों को ये अच्छी तरह समझना चाहिए कि ऑक्सफोर्ड जैसे संस्थान सिर्फ़ खुलेपन और भाषाई स्वतंत्रता की वजह से सैकड़ों साल से बचे हुए हैं. वो हर साल गैर-अंग्रेज़ी शब्दों को स्वीकार करते हैं, उसे जगह देते हैं.

भाषा का माध्यम और माध्यम की भाषा

दो लोगों, दो परिवारों, दो समूहों और दो अलग-अलग भाषा बोलने वालों के बीच संचार में अलग-अलग तरह का अंतर होता है. अस्तित्व बचाने और विकास के लिए क्षेत्रीय भाषाओं का इंटरएक्टिव होना ज़रूरी है. दुख की बात ये है कि भाषा की राजनीति, जो अक्सर देश में हिंसक प्रदर्शन को  भड़काती है, ने विवेकशील विचार की जगह संकीर्णता और पूर्वाग्रह के साथ भाषा की शुद्धता की अनावश्यक मांग को तूल दिया है. भाषाई कार्यकर्ता और राज्य सरकारों को ये अच्छी तरह समझना चाहिए कि ऑक्सफोर्ड जैसे संस्थान सिर्फ़ खुलेपन और भाषाई स्वतंत्रता की वजह से सैकड़ों साल से बचे हुए हैं. वो हर साल गैर-अंग्रेज़ी शब्दों को स्वीकार करते हैं, उसे जगह देते हैं. 

भाषा प्रयोगशाला

ओडिशा की कलिंगा यूनिवर्सिटी ने ‘भाषा प्रयोगशाला’ के साथ अपने बहुसंख्यक आदिवासी छात्रों की मदद करने के लिए एक अनोखा प्रयोग किया है ताकि वो अपनी स्थानीय बोली से उड़िया और फिर उड़िया से अंग्रेज़ी में अपनी सीखने की क्षमता में बढ़ोतरी कर सकें. यूनिवर्सिटी अलग-अलग तरह के प्रयोग करती है ताकि अलग-अलग स्तर की भाषाई क्षमता वाले बच्चों को समझ सके और उनका संचार बढ़ा सके. सूचना बोर्ड से लेकर कम्प्यूटर तक कोशिश की जा रही है कि माध्यम के तौर पर भाषा को प्रभावशाली बनाया जा सके. ये प्रयोग दूसरी भारतीय भाषाओं के साथ भी होना चाहिए.

उदाहरण के तौर पर वीडियो सबसे लोकप्रिय डिजिटल फ़ॉर्मेट में से एक है. लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं में सबटाइटल और डबिंग जैसे बुनियादी काम के लिए भी संसाधनों की कमी है. इस कमी को भाषा प्रयोगशाला के ज़रिए पूरा किया जा सकता है. ये अलग-अलग भाषाओं के बीच फ़ासले को पाटेगा,  उनके बीच आसान संचार को सुगम बनाएगा और सही मायने में स्थानीयकरण के मक़सद को हासिल करेगा. ये भी महत्वपूर्ण है कि ज़्यादा इस्तेमाल होने वाले सभी डिजिटल भुगतान के माध्यमों, ऑनलाइन बैंकिंग प्लेटफ़ॉर्म, मोबाइस ऐप और ई-कॉमर्स में क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा दिया जाए. लेकिन मराठी, गुजराती और कई अन्य भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं में चल रही मौजूदा कोशिश अधूरी रहेगी जब तक कि पर्याप्त सरकारी सहायता न मिले. राज्य सरकारों और भाषाई संगठनों के लिए एक साथ मिलकर काम करने का वक़्त आ गया है.

ओडिशा की कलिंगा यूनिवर्सिटी ने ‘भाषा प्रयोगशाला’ के साथ अपने बहुसंख्यक आदिवासी छात्रों की मदद करने के लिए एक अनोखा प्रयोग किया है ताकि वो अपनी स्थानीय बोली से उड़िया और फिर उड़िया से अंग्रेज़ी में अपनी सीखने की क्षमता में बढ़ोतरी कर सकें

बढ़ती डिजिटलाइज़्ड दुनिया में क्षेत्रीय भाषाओं को टिकाऊ बनाना 

लॉकडाउन की वजह से काम-काज और पढ़ाई- दोनों के लिए ऑनलाइन स्रोत पर ज़ोर को एक अवसर की तरह देखना चाहिए ताकि भारत की समृद्ध क्षेत्रीय भाषाओं को न सिर्फ़ बचाया जा सके बल्कि उनका विकास भी किया जा सके. ये वो क़दम हैं जिनके ज़रिए हमें भारत के दीर्घकालीन फ़ायदे के लिए ऑनलाइन होने के मौजूदा रुझान का इस्तेमाल ज़रूर करना चाहिए:

‘डाटा’ की नई दुनिया में सबसे महत्वपूर्ण काम अलग-अलग फ़ॉर्मेट में क्षेत्रीय भाषा की जानकारी पैदा करना और उन्हें डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर लाना है. जितना ज़्यादा समृद्ध, प्रमाणिक और प्रासंगिक कंटेंट हम पैदा करेंगे, उतना ज़्यादा वो क्षेत्रीय भाषा कल की चुनौतियों से लड़ने के लिए तैयार होगी.

किसी क्षेत्रीय भाषा की सभी भिन्नता को सीखने या उसका फ़ायदा उठाने के लिए इंटरनेट पर मौजूद दिलचस्प और आकर्षक मैटेरियल बनाने पर ध्यान होना चाहिए. कोई भाषा सीखने के लिए अनूठे कंटेंट के साथ कोरसेरा जैसे डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म को ज़रूर स्थापित करना चाहिए. इससे भारत विभिन्न देशों के लोगों के बीच भारतीय भाषा सीखने की बढ़ती दिलचस्पी का फ़ायदा उठा सकेगा.

क्षेत्रीय भाषा के फोंट की कमी की समस्या को लंबे वक़्त से छिपा कर रखा गया है. यूनिकोड, जो मुख्य रूप से क्षेत्रीय भाषा के फोंट के लिए व्यापक रूप से इस्तेमाल होता है, प्रतिबंधात्मक है. प्रकाशन के कारोबार में इसका इस्तेमाल नहीं होता है. इसलिए क्षेत्रीय भाषा के नये फोंट को डिज़ाइन करने पर ज़ोर देना चाहिए. सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर एक जैसी जानकारी को समूह में डालने के लिए अलग-अलग विचारों का इस्तेमाल होता है. उदाहरण के तौर पर हैशटैग या ट्रेंड. स्थानीय भाषा के डाटा को भी इस तरह के विचारों का इस्तेमाल कर समूह में डालना चाहिए.

कोविड-19 के बाद डिजिटल मीडिया की ज़्यादा स्वीकार्यता के साथ जिस भाषा को परंपरागत तौर पर मौखिक, लिखित या ऑडियो-विज़ुअल अभिव्यक्ति के रूप में इस्तेमाल किया गया है उसे नये मीडिया की अनूठी ज़रूरत के अनुकूल फैलाना होगा. इमोजी और शॉर्ट फॉर्म को परंपरागत भाषाई संस्कृति के लिए अनुचित समझा जाता है लेकिन तेज़ी से बढ़ती डिजिटल दुनिया में उनके महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता.

संभावनाएं अनंत हैं लेकिन ऊपर लिखे गए किसी भी लक्ष्य को पाने के लिए भारत में कुशल लोगों की कमी है. हमारे पास ऐसे संगठन नहीं हैं जो इस तरह के कुशल लोगों को तैयार कर सकें. इसलिए पूरे देश की सरकारें भाषाई विकास के कल्याण के काम में लगे संस्थानों की मदद के लिए नीतियां बनाएं. जिस तरह माध्यम के तौर पर भाषा के महत्व को बरकरार रखना ज़रूरी है, उसी तरह नये माध्यम की नई भाषा को भी समझना और सीखना ज़रूरी है. जैसे दो अलग-अलग भाषाएं निश्चित रूप से एक-दूसरे पर असर डालने वाली होनी चाहिए, उसी तरह अलग-अलग माध्यम भी एक-दूसरे पर असर डालने वाले होने चाहिए. कम-से-कम जो राजनीतिक दल भाषाई एजेंडे के आधार पर सत्ता में आए हैं, वो भारत की भाषाई विविधता, जो भारत और ‘भारतीयता’ को संपूर्ण बनाती है, की रक्षा के लिए निर्णायक क़दम उठाना शुरू करें. दिग्गज कन्नड़ लेखक शिवराम कारंत ने कहा, “मातृभाषा रसोई की भाषा होगी.” उन्होंने शायद कभी कल्पना नहीं की होगी कि उनका बयान एक महामारी और उसके विनाशकारी नतीजे के संदर्भ में सच साबित होगा.

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