Published on Jun 30, 2020 Updated 0 Hours ago

हम इस महामारी के साथ लगभग छह महीने बिता चुके हैं. संभवत: अगले दो वर्षों तक सार्स सीओवी-2 का प्रकोप रह रहकर सामने आता रहेगा. इसीलिए, इस समय जब हम कोविड-19 की महामारी से जूझ रहे हैं, तो साथ ही साथ हमें मॉनसून के सीज़न में अन्य जीवों से फैलने वाली बीमारियों से निपटने के लिए भी तैयार रहना चाहिए.

क्या मॉनसून के कारण भारत में बढ़ सकती है कोविड-19 संक्रमण से पीड़ित मरीज़ों की संख्या?

कोविड-19 महामारी के लिए ज़िम्मेदार SARS-CoV-2 वायरस पूरी दुनिया को अपनी गिरफ़्त में ले चुका है. जून के आख़िरी हफ़्ते में दुनिया भर में क़रीब दस लाख लोगों में इस वायरस के संक्रमण की पुष्टि हो चुकी है. जबकि इस वायरस से दुनिया के दो सौ से ज़्यादा देशों में लगभग पांच लाख लोगों की जान जा चुकी है. दक्षिण अमेरिका और सहारा के अफ्रीकी देशों में इस वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या दोगुनी होने के दिन लगातार घटते जा रहे हैं. ये इस बात का साफ़ संकेत है कि कोरोना वायरस की महामारी और भयंकर रूप लेती जा रही है.

वुहान और चीन के अन्य इलाक़ों में कोविड-19 के संक्रमण के आंकड़ों के अध्ययन से ये निष्कर्ष निकाला गया था कि सूखे और ठंडे मौसम में नए कोरोना वायरस का प्रकोप ज़्यादा तेज़ी से फैलता है. लेकिन, ये निष्कर्ष जिन मॉडलों के आधार पर तैयार किए गए थे, वो उस समय के आंकड़े थे. तब, ये महामारी दुनिया में इतने बड़े पैमाने पर नहीं फैली थी

इस समय कोविड-19 की महामारी, अफ्रीका के कॉन्गो लोकतांत्रिक गणराज्य से लेकर लैटिन अमेरिका के पनामा और पैराग्वे जैसे देशों में तेज़ी से फैल रही है. इन देशों में आम तौर पर औसत तापमान 25 डिग्री सेल्सियस रहता है. दक्षिणी अमेरिका के देश इक्वेडोर में भी भारत से मिलता जुलता ही मौसम रहता है. हाल के कुछ हफ़्तों के दौरान इक्वेडोर, दक्षिणी अमेरिका में कोरोना वायरस की महामारी के बड़े केंद्र के रूप में सामने आया है. वहीं, गर्मी और नमी भरे मौसम के कारण, सिंगापुर में भी तमाम कोशिशों के बावजूद कोरोना वायरस के संक्रमण के नए मामले आने बंद नहीं हुए हैं. दुनिया के अलग-अलग देशों के इन उदाहरणों से बिल्कुल साफ़ है कि ज़्यादा तापमान से भी कोरोना वायरस की महामारी की रफ़्तार कम नहीं हो रही है.

क्या कोविड-19 के फैलने में मौसम की भी कोई भूमिका है?

वुहान और चीन के अन्य इलाक़ों में कोविड-19 के संक्रमण के आंकड़ों के अध्ययन से ये निष्कर्ष निकाला गया था कि सूखे और ठंडे मौसम में नए कोरोना वायरस का प्रकोप ज़्यादा तेज़ी से फैलता है. लेकिन, ये निष्कर्ष जिन मॉडलों के आधार पर तैयार किए गए थे, वो उस समय के आंकड़े थे. तब, ये महामारी दुनिया में इतने बड़े पैमाने पर नहीं फैली थी. इसके अलावा कोई महामारी किस तरह की जलवायु में ज़्यादा या कम फैलती है, इससे जुड़े अध्ययन पूरी तस्वीर नहीं पेश करते. क्योंकि, किसी भी महामारी से मौत का आंकड़ा हर क्षेत्र में बदल जाता है. चीन में इस वायरस के संक्रमण के आंकड़ों पर आधारित कम से कम एक स्टडी में ये चेतावनी दी गई थी कि, अगर जनता की सेहत बेहतर करने के लिए ज़रूरी क़दम नहीं उठाए जाते. तो, केवल बढ़ते तापमान और हवा में नमी बढ़ने के भरोसे कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या कम नहीं होगी.

भारत में कोविड-19 की महामारी का प्रकोप बसंत के दौरान शुरू हुआ था. लेकिन, गर्मी के महीनों में ये लगातार बढ़ती रही और अब ये सिलसिला मॉनसून में भी जारी रहने की आशंका है. ऐसे में इस महामारी के प्रकोप और जलवायु के बीच संबंध को और बेहतर ढंग से समझने के लिए हमें कुछ सवाल उठाने होंगे. जैसे कि इस महामारी के मौजूदा दौर में हम वायरस के प्रकोप पर बदलते मौसम के प्रभाव के बारे में क्या जानते हैं और कितना जानते हैं? और सवाल ये भी बनता है कि इस महामारी के बाद के दौर के हालात में आख़िर क्या हो सकता है?

महामारी पर क़ाबू पाने में मौसमों की भूमिका

कोविड-19 की महामारी के शुरुआती दौर में SARS Cov-2 वायरस पहले पहल इंसानों तक पहुंचा, और पहले दक्षिणी पूर्वी एशिया, और उसके बाद यूरोप और अमेरिका तक फैल गया. तब तक हमें इस वायरस के प्रकोप के किसी ख़ास सीज़न से संबंध के बारे में क़तई जानकारी नहीं थी. नए कोरोना वायरस और मौसम के ताल्लुक़ का पता लगाने के लिए दो पैमाने इस्तेमाल किए गए थे. पहले तो इसकी तुलना फ्लू के वायरस और सीज़न के बीच संबंध के साथ की गई. इसके अलावा कोरोना वायरस परिवार के दो अन्य विषाणुओं OC43 और HKU1 के मौसमी प्रकोप की तुलना, इस नए वायरस की बुनियादी प्रजनन क्षमता (R0) के साथ की गई. इन्हीं दो मॉडलों के आधार पर पूरी दुनिया के नौ देशों में नई महामारी के प्रकोप का आकलन किया गया था. इस मॉडल के आधार पर आने वाले समय में कोविड-19 के फैलने का जो अंदाज़ा लगाया गया था, उसमें दिल्ली, न्यूयॉर्क या लंदन में प्रकोप फैलने की आशंका का कोई फ़र्क़ नहीं देखा गया. नए कोरोना वायरस के मौसम से संबंध का आकलन करने वाले इस मॉडल ने केवल ये इशारा किया था कि उत्तरी और दक्षिणी गोलार्ध में इस महामारी के शिखर पर पहुंचने में थोड़ा बहुत अंतर रहेगा.

इस बात के कुछ सबूत ज़रूर मौजूद हैं कि अगर किसी ख़ास मौसम को आधार बना कर लॉकडाउन लगाया जाए या हटाया जाए, तो इससे कोविड-19 की महामारी के प्रकोप पर मौसम के प्रभाव का अंदाज़ा मिल सकता है

इसके अलावा वायरस के संक्रमण को लेकर जो शुरुआती कंप्यूटर मॉडल बनाए गए थे, उन्होंने ये निष्कर्ष निकाला था कि हवा में नमी से महामारी के सीमित या व्यापक होने पर असर पड़ सकता है. (ये आकलन न्यूयॉर्क में महामारी के प्रकोप के आंकड़ों के आधार पर लगाए गए थे.) हालांकि, बाद में महामारी के विस्तार को लेकर बनाए गए इन मॉडलों ने भी यही निष्कर्ष निकाला था कि नए कोरोना वायरस पर मौसम का बेहद मामूली असर पड़ता दिख रहा था. हालांकि, इस बात के कुछ सबूत ज़रूर मौजूद हैं कि अगर किसी ख़ास मौसम को आधार बना कर लॉकडाउन लगाया जाए या हटाया जाए, तो इससे कोविड-19 की महामारी के प्रकोप पर मौसम के प्रभाव का अंदाज़ा मिल सकता है. ये बात अतार्किक नहीं लगती. क्योंकि हर मौसम में लोगों के बीच आपसी संपर्क की संभावना घटती बढ़ती रहती है. ख़ास तौर से उन देशों में जहां गर्मी का मौसम रहता है. इस बारे में किए गए कुछ और अध्ययन ये इशारा करते हैं कि मौसम के साथ साथ अगर संक्रमण रोकने के उपाय किए जाएं, तो कोविड-19 की महामारी के दुष्प्रभाव को कम करने में मदद मिल सकती है. लेकिन, ध्यान देने वाली बात ये है कि केवल इन्हीं उपायों से इस महामारी को पूरी तरह से नियंत्रित कर पाना मुमकिन नहीं है.

महामारी के बाद के दौर में किसी ख़ास सीज़न में इस वायरस का संक्रमण दोबारा फैलने का ख़तरा कितना बड़ा है?

कोरोना वायरस के प्रकोप को लेकर कंप्यूटर मॉडल पर आधारित कुछ स्टडी का इशारा है कि सीमित स्तर पर फैलने वाले फ्लू जैसे वायरस और अन्य कोरोना वायरस के संक्रमण की तरह ही नए कोरोना वायरस के संक्रमण का संबंध भी मौसमों के बदलाव से हो सकता है. ये बात इस आधार पर तय होगी कि जो लोग इस वायरस से एक बार संक्रमित हो गए, क्या वो फिर इससे इम्यून हो जाएंगे या नहीं. और उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कब तक इस वायरस से मुक़ाबला कर सकेगी. और अगर आबादी के बीच में कोरोना वायरस से संक्रमित होने वाले लोग आबादी का हिस्सा बन जाएंगे, तब क्या होगा? जैसे कि नवजात बच्चे या किसी दूसरे इलाक़े से आकर लोग नए शहर में रहने लगे, तब क्या होगा? इस बारे में कंप्यूटर मॉडलों का आकलन है कि नया कोरोना वायरस अभी इंसानी सभ्यता का हिस्सा बना रहेगा. और वायरस के प्रकोप की भविष्यवाणी करने वाले ये कंप्यूटर मॉडल ये भी कहते हैं कि अगले कुछ वर्षों में कोविड-19 की महामारी दोबारा क़हर बरपा सकती है. कुछ कंप्यूटर मॉडलों के मुताबिक़, वर्ष 2025 में कोविड-19 की वापसी हो सकती है. और तब वायरस कुछ ख़ास सीज़न में ही लोगों को संक्रमित करेगा. वहीं, कुछ अन्य मौसमों में इसका प्रभाव न के बराबर होगा.

कुछ कंप्यूटर मॉडलों के मुताबिक़, वर्ष 2025 में कोविड-19 की वापसी हो सकती है. और तब वायरस कुछ ख़ास सीज़न में ही लोगों को संक्रमित करेगा. वहीं, कुछ अन्य मौसमों में इसका प्रभाव न के बराबर होगा

कोरोना वायरस के प्रकोप को समझने के लिए बनाए गए इन सभी मॉडलों की सबसे बड़ी कमी ये है कि ये आबादी के स्थानांतरण को अपने आकलन में शामिल नहीं करते. न ही नए कोरोना वायरस के प्रति लोगों की इम्युनिटी को इन मॉडल में शामिल किया गया है. जिस एक और बात की अनदेखी की गई है, वो ये है कि हर क्षेत्र की अपनी अलग विशेषता होती है. मगर कंप्यूटर म़ॉडल तो एक मानक पर आधारित होते हैं. इनमें इस समीकरण को शामिल नहीं किया जाता कि संक्रमण रोकने के लिए लोग नियमों का पालन करने के लिए किस हद तक तैयार हैं. जैसे कि सार्वजनिक स्थानों पर मास्क पहनना. आज दुनिया आपस में बेहद क़रीब से जुड़ी है. इसमें लोगों की एक देश से दूसरे देश को आवाजाही बेहद आम बात है. आबादी के इस स्थानांतरण से कोविड-19 पर किसी सीज़न के प्रभाव का अंदाज़ा बदल भी सकता है. क्योंकि, दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग मौसम होता है. मान लें कि किसी सर्द इलाक़े में वायरस फैलता है. और गर्म क्षेत्र में इसका प्रकोप घट जाता है. लेकिन, अगर ठंडे क्षेत्र में रहने वाला अगर गर्म देश में आएगा, तो शायद वो अपने साथ इस वायरस को भी ले आए. ऐसे में कोविड-19 को नियंत्रित करने के लिए मौसम पर निर्भर रहना ख़तरनाक भी हो सकता है.

भारत में नए कोरोना वायरस का संक्रमण फैलने पर मॉनसून का कितना असर?

सार्स सीओवी-2 एक नया वायरस है और हर इंसान के इससे संक्रमित होने का ख़तरा है. इस वायरस में लगातार उत्परिवर्तन हो रहा है. मतलब ये कि नए कोरोना वायरस का रंग रूप तेज़ी से बदल रहा है. हालांकि, नए कोरोना वायरस में ये उत्परिवर्तन या म्यूटेशन फ्लू के वायरस की तुलना में चार गुना कम है. कम से कम अब तक तो इस बात के सबूत नहीं मिले हैं कि वायरस का कोई भी नया रूप, दूसरे के मुक़ाबले लोगों को ज़्यादा संक्रमित करता है. इसका मतलब ये होता है कि अभी महामारी जिस दौर में है, वहां पर कोविड-19 का प्रकोप फैलने पर पर्यावरण, सामाजिक और बीमारी से लड़ने की क्षमता का अधिक असर पड़ता दिख रहा है. इन कारकों पर मॉनसून का भी असर पड़ सकता है. और इससे भारत में नए कोरोना वायरस के मरीज़ों की संख्या में बदलाव देखने को मिल सकता है.

अभी महामारी जिस दौर में है, वहां पर कोविड-19 का प्रकोप फैलने पर पर्यावरण, सामाजिक और बीमारी से लड़ने की क्षमता का अधिक असर पड़ता दिख रहा है. इन कारकों पर मॉनसून का भी असर पड़ सकता है. और इससे भारत में नए कोरोना वायरस के मरीज़ों की संख्या में बदलाव देखने को मिल सकता है

कंप्यूटर मॉडल पर आधारित अध्ययन ये अंदाज़ा लगाते हैं कि संक्रमण रोकने के सभी उपाय आज़माने के बावजूद, जून-जुलाई 2020 में कोरोना वायरस का प्रकोप अपने शीर्ष पर पहुंच सकता है.[1] हालांकि, इन कंप्यूटर मॉडलों में वायरस के संक्रमण पर सीज़न के प्रभाव का आकलन शामिल नहीं किया गया है. और ये अनुमान किसी भी बीमारी के क़ुदरती इतिहास पर ही आधारित हैं. फिलहाल तो भारत में कोविड-19 के मरीज़ों की संख्या में विस्फोटक वृद्धि नहीं देखी जा रही है. इसका मतलब यही है कि यहां पर कोविड-19 की महामारी अपने पीक पर नहीं पहुंची है.

भारत के संदर्भ में अभी ये पता नहीं है कि तापमान और हवा में नमी से इस वायरस का संक्रमण बढ़ता है या घटता है. बिना आंकड़ों के इस वक़्त ये अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल है कि अलग-अलग मौसमों का इस वायरस के प्रकोप पर कैसा असर पड़ता है.

क्या पर्यावरण और बीमारी संबंधी कुछ ऐसे कारण हैं, जो मॉनसून के सीज़न में वायरस के प्रकोप पर असर डाल सकते हैं?

नया कोरोना वायरस छोटी छोटी बूंदों और बड़ी बूंदों के ज़रिए एक दूसरे तक तब पहुंचता है, जब कोई ख़ांसता या छींकता है. एरोसोल या महीन बूंदें, वो छोटे छोटे गीले द्रव पदार्थ होते हैं, जिसमें वायरस पैबस्त होता है. ये इतने हल्के होते हैं कि कई घंटों तक हवा में रह सकते हैं. वहीं ड्रॉपलेट या बड़ी बूंदों का आकार ज़्यादा होता है और वो मिनटों में ज़मीन पर गिर पड़ती हैं. ज़मीन पर गिरी इन बूंदों में मौजूद वायरस कितनी देर ज़िंदा रहेगा, ये किसी जगह के तापमान और वहां मौजूद नमी पर निर्भर करता है. क्योंकि, वातावरण में अगर नमी है, तो ये ड्रॉपलेट इस नमी की वजह से बड़ी बूंद में भी तब्दील हो सकती है. और अगर मौसम बेहद गर्म है, तो ये बूंद सूख भी सकती है.

वायरस का संक्रमण फैलने का माध्यम, कपड़े, बर्तन या अन्य सामान भी हो सकते हैं, जिन्हें किसी संक्रमित व्यक्ति ने पहले छुआ हो और बाद में दूसरे लोग छू लें. किसी भी सतह पर वायरस कितनी देर ज़िंदा रहेगा, ये वहां के तापमान पर निर्भर करता है. लेकिन, हमें अभी ये नहीं पता है कि मॉनसून का इस पर क्या असर होगा. वातावरण में बहुत अधिक नमी होने, भाप के कणों के सघन होने के कारण किसी सतह से वायरस के ख़त्म होने की प्रक्रिया को मदद मिल सकती है.

नया कोरोना वायरस विष्ठा या मल से भी फैल सकता है. कोविड-19 के कई मरीज़ों के मल में कोरोना वायरस पाए गए हैं, जो सांस के साथ अंदर जा सकते हैं. पहले तो, वायरस के राइबो न्यूक्लिक एसिड (RNA) के ही मल में पाए जाने की बात सामने आई थी. लेकिन, अभी ये शुरुआती जानकारियां हैं. आगे चल कर नए आंकड़ों की मदद से, मल के माध्यम से वायरस के फैलने के बारे में तस्वीर और साफ़ होने की उम्मीद है. लेकिन, विकासशील देशों के जिन इलाक़ों में साफ़ सफ़ाई की कमी है, वहां पर इस ज़रिए से भी वायरस फैलने का ख़तरा तो है ही.

नए कोरोना वायरस के फैलने के इन अलग-अलग माध्यमों की कितनी अहमियत है, इसकी अभी दुनिया भर में जांच पड़ताल हो रही है. और ये सभी कारण मिल कर कोविड-19 का प्रकोप मॉनसून के दौरान बढ़ाने में कैसी भूमिका अदा करेंगे, ये बात अभी स्पष्ट नहीं है.

मॉनसून के मौसम में वायरस का संक्रमण इस बात पर भी निर्भर करेगा कि जिन लोगों के संक्रमित होने का डर है, वो कैसा सामाजिक बर्ताव करते हैं. हमारे सामने अब भी इस बात की तस्वीर साफ़ नहीं है कि महामारी के इस दौर में किसी क़ुदरती से इसके प्रकोप पर कैसा असर पड़ता है. लेकिन, समुद्री चक्रवात अम्फन के दौरान बनाए गए शरणार्थी शिविरों में भारी संख्या में लोगों के एक साथ रहने का माहौल किसी भी वायरस के फैलने की आदर्श जगह हो सकती है. अभी जो एक और बड़ी बात हमें नहीं पता, वो ये है कि अन्य बीमारियों जैसे डेंगू या मलेरिया का, कोविड-19 या कोविड-19 का अन्य बीमारियों पर कैसा प्रभाव पड़ता है.

और आख़िर में, मॉनसून की आमद के साथ ही पानी और अन्य जीवों से फैलने वाली बीमारियों में इज़ाफ़ा देखा जाता है. जैसे कि, मॉनसून के दौरान डेंगू, चिकनगुनिया, मलेरिया और टाइफॉइड जैसी बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाता है. इस साल, इन बीमारियों से निपटने के लिए हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था और तनाव की शिकार आबादी कितनी तैयार है, ये देखने वाली बात है. क्योंकि, हमारे यहां सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था का बुनियादी ढांचा पहले ही कमज़ोर है.

प्रमुख बिंदु

मॉनसून के सीज़न में कोविड-19 की महामारी कौन सा रुख़ लेगी, ये बात कई पेचीदा कारकों पर निर्भर करती है. और ये कारक एक दूसरे को या तो संतुलित करने का काम कर सकते हैं. या फिर एक दूसरे के बरक्स भी काम कर सकते हैं. तक नए कोरोना वायरस के बारे में हमें अब तक जितनी जानकारी है, उसके आधार पर ये अनुमान लगाना नामुमकिन है कि मॉनसून के कारण कोविड-19 के मरीज़ों की संख्या घटेगी या बढ़ेगी. अब तक के सभी मॉडल यही कहते हैं कि जुलाई में भारत में कोरोना वायरस का प्रकोप अपने शीर्ष पर होगा. या फिर शायद अगस्त में हमें ऐसा देखने को मिले. लेकिन, इन मॉडलों में मॉनसून या गर्मी के विशेष प्रभाव का आकलन शामिल नहीं किया गया है. इस महामारी के क़ुदरती रुख़ की बात करें तो अगले कुछ महीनों में इस वायरस के संक्रमित लोगों की संख्या बढ़ती ही रहेगी. अब हम इस महामारी के साथ लगभग छह महीने बिता चुके हैं. और तमाम मॉडल के साथ साथ अन्य देशों का अनुभव ये बताता है कि संभवत: अगले दो वर्षों तक सार्स सीओवी-2 का प्रकोप रह रहकर सामने आता रहेगा. इसीलिए, इस समय जब हम कोविड-19 की महामारी से जूझ रहे हैं, तो साथ ही साथ हमें मॉनसून के सीज़न में अन्य जीवों से फैलने वाली बीमारियों से निपटने के लिए भी तैयार रहना चाहिए. क्योंकि ये बीमारियां भी भारत में बड़ी संख्या में लोगों की बीमारी और मौत का कारण बनती हैं.


[1] From an ongoing study: INDSCI-SIM A state-level epidemiological model for India by Snehal Shekatkar, Bhalchandra Pujari, Mihir Arjunwadkar, Dhiraj Kumar Hazra, Pinaki Chaudhuri, Sitabhra Sinha, Gautam I Menon, Anupama Sharma VG

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