सारे संकेतक यही बता रहे हैं कि 2021 में एशिया के कई नगर ऊंची छलांग लगाते हुए मेगासिटी (1करोड़ या उससे अधिक आबादी वाले महानगर) में बदल जाएंगे. भारत में अगली जनगणना में बेंगलुरु निश्चित तौर पर एक मेगा सिटी का दर्जा हासिल कर लेगी और मुंबई और दिल्ली की श्रेणी में शामिल हो जाएगी. भारत के कई और शहर भी इसी रास्ते पर चलते दिखाई दे रहे हैं. हालांकि ये कोई आदर्श स्थिति नहीं है. जैसा कि कोविड-19 के ख़िलाफ़ लड़ाई में उभर कर सामने आया, भारत को इन्हीं विशाल महानगरों में सबसे कठिन चुनौतियों का सामना करना पड़ा. मुंबई और दिल्ली तो इस महामारी की मार से कराह उठी थी. ये बात बार-बार सामने आई है कि इस वायरस में फिर से प्रकट होने और भारी नुकसान पहुंचाने की काबिलियत है. इन विशाल महानगरों में महामारी को फलने-फूलने के पूरे अवसर मिलते हैं. ऐसे हालात और तमाम दूसरे कारकों की वजह से दो सवाल खड़े होते हैं- क्या मेगासिटी शहरी विकास के लिए सही मॉडल हैं? क्या उनका सकारात्मक पक्ष उनके नकारात्मक पहलुओं के सामने फीका पड़ जाता है?
मुंबई और दिल्ली तो इस महामारी की मार से कराह उठी थी. ये बात बार-बार सामने आई है कि इस वायरस में फिर से प्रकट होने और भारी नुकसान पहुंचाने की काबिलियत है.
जो मेगासिटी की चकाचौंध और सम्मोहन को पसंद करते हैं वो निश्चित तौर पर इनके सकारात्मक पक्ष की दुहाई देंगे: जैसे कि ये शहर बहुमुखी प्रतिभा वाले स्त्री-पुरुषों को आकर्षित करते हैं और उनमें अंतरराष्ट्रीय निवेश और धनसंपदा को अपनी ओर खींचने की पूरी काबिलियत होती है. ये कारक निर्विवाद हैं और अपेक्षाकृत छोटे नगर इन पैमानों पर विशाल महानगरों का मुक़ाबला नहीं कर सकते.
हालांकि, इन गुणों के बावजूद इन बड़े महानगरों का एक स्याह पक्ष है जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. अगर आधुनिक विकास सिद्धांतों में समानता को अहम परिकल्पना मान लिया जाए तो बड़े महानगर इस पैमाने पर पूरी तरह से फिसड्डी साबित होंगे. बड़े महानगरों में चारों ओर फैली झुग्गी बस्तियों में ग़रीब जनसंख्या अमानवीय रूप से घनी आबादी वाली परिस्थितियों में निवास करती है. आमतौर पर इन बस्तियों में बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव होता है. इसके चलते एक बड़ी आबादी को अमानवीय परिस्थितियों में गुज़र-बसर करना पड़ता है. ये शोषण का एक चरम रूप है जिसमें ये बड़े महानगर इन शहरी ग़रीबों द्वारा मुहैया कराए जा रहे श्रम और बाकी सेवाओं को तो खुशी से स्वीकारते हैं लेकिन बदले में उन्हें ज़िंदगी गुज़ारने के लिए साफ़-सुथरा और उचित माहौल उपलब्ध कराने को तैयार नहीं होते.
ग़रीब और मध्य वर्ग का जीवन कठिन
इन विशाल महानगरों में महंगाई और जीवनयापन से जुड़े खर्चे वहन करना दिनोंदिन कठिन होता जाता है. आमतौर पर भारत में शहरों की महंगाई यहां के गांवों के मुक़ाबले दोगुनी होती है. ये विशाल महानगर तो जीवनयापन से जुड़े खर्चों के मामले में सबसे आगे हैं. यहां आम जनजीवन के महंगे होने का सबसे बड़ा कारण ज़मीन की बढ़ती क़ीमत है. जैसे-जैसे ये शहर आकार, घनत्व और गतिविधियों के हिसाब से बड़े होते जाते हैं, यहां ज़मीन बेहद सीमित संसाधनों में तब्दील होती जाती है. इस परिदृश्य में एक बड़ी आबादी के लिए रिहाइश और उनके छोटे-छोटे कारोबार से जुड़े खर्चे दिन-ब-दिन बस के बाहर होते चले जाते हैं. ग़रीब और निम्न मध्यम वर्ग के लिए मुसीबतों के बीच जीवन गुज़ारना जैसे उनकी नियति बन जाती है.
अगर आधुनिक विकास सिद्धांतों में समानता को अहम परिकल्पना मान लिया जाए तो बड़े महानगर इस पैमाने पर पूरी तरह से फिसड्डी साबित होंगे. बड़े महानगरों में चारों ओर फैली झुग्गी बस्तियों में ग़रीब जनसंख्या अमानवीय रूप से घनी आबादी वाली परिस्थितियों में निवास करती है.
ऐसा प्रतीत होता है कि इन विशाल महानगरों का रुख़ पर्यावरण और खुली सार्वजनिक जगहों के प्रति कठोर होता है. यहां अनेक स्रोतों से प्रदूषण फैलता रहता है और उसमें लगातार बढ़ोतरी होती रहती है. यहां निर्माण गतिविधियां दिन-रात चलती रहती हैं और इनमें लगातार बढ़ोतरी होती रहती हैं ताकि इन विशाल महानगरों के भीतर ज़्यादा से ज़्यादा गतिविधियां समाहित की जा सके. यहां के खुले स्थान बदस्तूर जारी इन निर्माण गतिविधियों की भेंट चढ़ते रहते हैं, नतीजतन यहां जीवन स्तर और नीचे गिरता रहता है. इसके अलावा इन विशाल महानगरों का स्वभाव ही ऐसा होता है कि यहां बड़ी संख्या में आपराधिक गतिविधियां दिखाई देती हैं. अपराधियों को इन विशाल महानगरों का माहौल रास आता है. यहां बड़ी मात्रा में धन-संपत्ति तक उनकी पहुंच हो पाती है, उन्हें ख़ुद की पहचान छिपाकर अज्ञात बने रहने के पर्याप्त मौके मिलते हैं. और तो और इन बड़े महानगरों की भीड़ में उनके पकड़े जाने की भी कम संभावना होती है. अगर स्वास्थ्य क्षेत्र की बात करें तो हम पाते हैं कि इन विशाल महानगरों में जीवन की गति बेहद तेज़ होती है. लोगों को काम के सिलसिले में रोज़ाना दूर-दूर तक जाना-आना पड़ता है और उनके काम का समय अक्सर प्रतिकूल होता है. इससे तनाव भरा माहौल और खाने-पीने के अस्वास्थ्यकर परिणाम सामने आते हैं. इन विशाल महानगरों में जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों जैसे मोटापा, मधुमेह, उच्च रक्तचाप और मनोवैज्ञानिक विकारों के प्रसार के लिए सारी परिस्थितियां मौजूद होती हैं.
इन विशाल महानगरों का रुख़ पर्यावरण और खुली सार्वजनिक जगहों के प्रति कठोर होता है. यहां अनेक स्रोतों से प्रदूषण फैलता रहता है और उसमें लगातार बढ़ोतरी होती रहती है.
इन सारी बातों का निचोड़ ये है कि एक ओर तो इन विशाल महानगरों की अर्थव्यवस्था का दायरा बड़ा होता है और वहां बड़ी तादाद में धन-संपदा उत्पन्न होती है लेकिन दूसरी ओर जीने योग्य सुविधाओं से जुड़ी तमाम कसौटियों पर ये काफ़ी पीछे छूट गए हैं. ज़ाहिर तौर पर ये महानगर असमानता को बढ़ाने वाले, काफ़ी महंगे, पर्यावरण के प्रतिकूल और अस्वास्थ्यकर होते हैं. ऐसे में ये सतत और टिकाऊ विकास के पैमाने पर खरे नहीं उतर सकते. ऐसे में इस प्रवृति को पलटने का कोई न कोई तरीका ढूंढना ही पड़ेगा.
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