Published on Dec 28, 2016 Updated 0 Hours ago
उ0प्र0 चुनाव: समाजवादी पार्टी

क्रिसमस का सैंटा क्‍लॉज समाजवादी पार्टी के लिए विचित्र सौगातें लाया है। प्रत्‍याशियों की लिस्‍टें ही लिस्‍टें। समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्‍यक्ष शिवपाल सिंह यादव अपने जिताऊ उम्‍मीदवारों की सीटों के गुणा-भाग में ही मगन थे, तभी मुख्‍यमंत्री भतीजे अखिलेश ने अपनी 403 उम्‍मीदवारों की फेहरिश्‍त जारी कर दी। मजे की बात यह है कि उसमें बहुतेरे शिवपाल की लिस्‍ट के ‘जिताऊ’ महारथी नदारद हैं। अखिलेश यादव ने अपनी सूची ‘राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष’ पिता श्री मुलायम को सौंपी है। शिवपाल सिंह ने सूची बहैसियत प्रदेश अध्‍यक्ष जारी की है। अखिलेश ने अपनी सूची से दो शिकार किए है। एक तो अपनी बहु प्रचारित नीति का अनुसरण करते हुए आपराधिक छवि के प्रत्‍याशियों का पत्‍ता काट दिया है, वहीं दूसरी ओर अपने ‘वफादारों’ को टिकट देकर यह भी संदेश दिया है कि भले ही वे समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्‍यक्ष न हों, किन्‍तु पार्टी को अंतत: उन्‍हीं के चेहरे एवं उन्‍हीं की प्रत्‍याशी सूची के साथ चुनाव के समर में उतरना पड़ेगा।

समाजवादी पार्टी के मुखिया की गति सांप-छछूंदर वाली है। अगर शिवपाल का साथ देते हैं तो समाजवादी पार्टी की लुटिया डूबनी तय है। अगर अखिलेश की सुनतें हैं तो एक ओर भाई से विश्‍वासघात का आरोप तो लगेगा ही, शिवपाल के भितरघात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। मुलायम सिंह के अकेले के बूते चुनाव-प्रचार कितना बे-असर हो सकता है, इसकी बानगी अभी बरेली की जनसभा से स्‍पष्‍ट हो गया है। चाहे सत्‍ता का चुम्‍बक हो या मुख्‍यमंत्री के पद का आकर्षण, समाजवादी चुनाव-प्रचार बिना अखिलेश के श्रीहीन एवं अवसाग्रस्‍त दीखता है।

मुख्‍यमंत्री श्री अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी के नेतृत्‍व की कमजोरी से बखूबी वाकि़फ है। शायद इसीलिए वे उद्घाटन-शिलान्‍यास के आधे-अधूरे कार्यक्रमों में धुंआधार शिरकत कर रहे हैं। सरकारी व्‍यय पर आयोजित इन कार्यक्रमों के माध्‍यम से वे नोटबंदी की मार सह रहे विरोधी दलों के प्रचार पर फिलहाल भारी नज़र आ रहे हैं। परन्‍तु सरकारी प्रयोजित कार्यक्रमों की एक सीमा है। आधे-अधूरे उद्घाटनों से केवल हड़बड़ी एवं आगामी चुनाव-परिणामों को लेकर सत्‍तादल में व्‍याप्‍त अनिश्चितता ही ज्‍यादा उज़ागर हो रही है। इससे कहीं न कहीं समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं एवं नौकरशाहों के मन में भी सत्‍तारूढ़ दल के चुनावी भविष्‍य को लेकर आशंकाए उपज रही है।

प्रत्‍याशियों की लिस्‍टों को लेकर उपज़े इस जबाबी खेमेबन्‍दी का सबसे गहरा असर समाजवादी, कांग्रेस एवं लोकदल के संभावित गठबंधन पर पड़ रहा है। जब समाजवादी पार्टी में अपनी सीटों पर इतना सिरफुटौवल है, तो गठबंधन पर मोल-भाव की क्‍या परिणति  होगीॽ निश्‍चय ही, समाजवादी कुटुम्‍ब की रार कांग्रेस एवं लोकदल से गठबंधन के शुभ संकेत देती हुई तो नहीं दीखती है।

बसपा स्‍वाभाविक रूप से इस पारिवारिक कलह को प्रचारित करना चाहेगी। बसपा का ‘सर्वजन’ का नारा इस बार ‘‍दलित-मुस्लिम’ गठजोड़ तक सीमित है। दो खेमों में बंटी हुई समाजवादी पार्टी में बसपा को ‘मुस्लिम वोटों’  के बंटवारे की संभावना दिखाई देती है। ‘बसपा’ का आकलन बहुत हद तक सही लगता है कि अंतत: मुस्लिम मतदाताओं का ध्रुवीकरण उसी पार्टी के पक्ष में होगा, जो भाजपा को हराने में सक्षम दीखती हो। खेमों में बटी सपा एवं गठबंधन रहित कांग्रेस संभवत: बसपा के लिए आदर्श चुनावी स्थिति प्रदान करने वाले हो सकते हैं। शायद इसीलिए ‘बसपा’ सुप्रीमों सपा-कांग्रेस के संभावित गठबंधन को भी भाजपा प्रेरित बता रही है। ‘बसपा’ का यही प्रयास है कि येनकेन प्रकारेण मुस्लिम मतदाताओं के मन से सपा का मोहभंग किया जाय एवं चुनावी समर में स्‍वयं को सबसे बड़ा मुस्लिम हितैषी एवं भाजपा का सबसे प्रबल प्रतिद्वन्‍दी साबित किया जाए।

ऐसा नहीं है कि समजावादी नेतृत्‍व इस आकलन से वाकिफ नहीं है। किन्‍तु सत्‍ता का चरित्र ही ऐसा होता है। यदि सत्‍ता सबसे बड़ा चुम्‍बक है, तो सत्‍ता का मोह संघर्ष का सबसे बड़ा कारण भी स्‍वयं है। कुटुम्‍ब की कलह, समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह के सामने सम्‍भवत: उनके राजनैतिक जीवन की सबसे बड़ी चुनौती लेकर आया है। राजनैतिक विश्‍लेषकों का मानना है कि राजनैतिक अखाड़े के पहलवान मुलायम सिंह कोई न कोई दांव चल कर इस पारिवारिक समस्‍या का समाधान ढूंढ ही निकालेगें। संभव है कि चुनाव की घोषणा होने तक समाजवादी पार्टी में एका के सुर सुनाई पड़ने लगे, पर पांच साल तक सत्‍ता में रहने का आत्‍म विश्‍वास तो कतई नहीं दिखाई पड़ रहा है। सम्‍भव है कि सपा प्रमुख चाचा-भतीजे की लिस्‍टों से कांट–छांट करके कोई ‘कॉकटेल’ लिस्‍ट निकालें। पर इतना तो तय है कि वो लिस्‍ट अखिलेश की ‘ड्रीम लिस्‍ट’ से कोसो दूर होगी। उसमें ‘दागी’ भी होगें और ‘बागी’ भी। सपा निश्‍चय ही ‘अखिलेश’ के चहरे पर चुनाव लडे़गी। यह दीगर बात है कि ‘युवराज’ के ‘बगावती’ तेवर कुछ ‘नरम’ होंगे। चुनाव कुछ अखिलेश के ‘काम’ पर होगें तो कुछ ‘मौलाना मुलायम’ के नाम पर। समाजवादी पार्टी मुस्लिम वोटों की विरासत इतनी आसानी से तो छोड़ने से रही। सपा-कांग्रेस–लोकदल के गठबंधन की कुंजी भी शायद मुस्लिम मतदाता ही साबित हों।

गठबन्‍धन होने की स्थिति में सपा को मुख्‍य दल होने के कारण बड़ी कुर्बानी देनी पड़ सकती है। लोकदल के गढ़ में तो शायद यह समस्‍या उतनी बड़ी नहीं है, किन्‍तु असली समस्‍या कांग्रेस की सीटों को लेकर है। कांग्रेस द्वारा चाही गयी करीब 50 सीटों में से अधिकांश पर सपा ही पहले अथवा दूसरे नम्‍बर पर रही है। गठबंधन धर्म एवं कार्यकर्ताओं/प्रत्‍याशियों के मनोबल को एक साथ साधना आसान काम नहीं होगा। कांग्रेस भले ही उ0प्र0 में चौथे नम्‍बर की पार्टी हो, किन्‍तु उसका राष्‍ट्रीय दल होने का अहं उसे सहज ही इस तथ्‍य को मानने नहीं देगा। साथ ही राहुल-सोनिया के निर्वाचन  क्षेत्र भी उ0प्र0 में होने के कारण बात बनना और भी कठिन प्रतीत होती है। सपा प्रमुख मुलायम सिंह के लिए कुनबा एवं गठबंधन साधना टेढ़ी खीर से कम नहीं है। परन्‍तु किसी ने सच ही कहा कि ‘असम्‍भावनाओं’ को सम्‍भव बनाना ही राजनीति है।

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