Published on Jul 30, 2023 Updated 0 Hours ago

उत्तर प्रदेश के हालिया चुनाव में हमने ‘नए लोक कल्याणवाद’ को एक राजनीतिक रणनीति के तौर पर उभरते हुए देखा है.

#2022 उत्तर प्रदेश चुनाव: क्या जातीय राजनीति पर लोक कल्याणवाद की जीत होगी?
#2022 उत्तर प्रदेश चुनाव: क्या जातीय राजनीति पर लोक कल्याणवाद की जीत होगी?

उत्तर प्रदेश में मतदाता ने अपना फ़ैसला दे दिया है, जिसका ऐलान 10 मार्च को होगा. जब चुनाव के नतीजे आएंगे तो सबकी निगाहें उन कारणों पर होंगी, जो बहुत शोर-शराबे भरे इस चुनाव के आख़िरी परिणाम तय करेंगे. वैसे तो इस चुनाव में जातीय गठबंधनों और हिंदुत्व/ ध्रुवीकरण पर बहुत ज़्यादा ध्यान केंद्रित रहा. लेकिन, बाद में चुनावी परिचर्चा लोक कल्याणवाद की ओर मुड़ गई थी. निश्चित रूप से लोक-लुभावन वादों की इस रणनीति को पहले भी राजनीति में आज़माया जा चुका है. राजनीतिक दल और नेता अक्सर मुफ़्त के चुनावी वादे करने और फ्री में सुविधाएं देने के मामले में एक दूसरे से होड़ लगाते रहे हैं. चूंकि, भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा अभी भी ग़ुरबत भरी ज़िंदगी बसर करता है और यहां के समाज में आर्थिक ग़ैर बराबरी और ज़िंदगी जीने के बुनियादी संसाधनों तक पहुंच में भी काफ़ी असमानता देखने को मिलती है. ऐसे में इन लोकलुभावन और मुफ़्त सुविधाओं के लिए वोट करने वाला मतदाताओं का एक बड़ा तबक़ा मौजूद है. इसी वजह से केंद्र और राज्यों की सरकारें मुफ़्त की सेवाओं और संसाधनों के ज़रिए मतदाताओं के इस ख़ास तबक़े को साधने की कोशिश करते हैं. जिसमें दाता और याचक का रिश्ता क़ायम होता है. हालांकि, सामाजिक कल्याण को लेकर होने वाली राजनीतिक परिचर्चा, जात-पांत से ऊपर उठकर केवल विकास की तरक़्क़ीपसंद सोच वाली नहीं होती. इसमें जातीय और धार्मिक पहचान भी गहरे पैठ बनाए होती है, जो वंचित करने और ध्रुवीकरण की रणनीति पर आधारित होती है.

वैसे तो बीजेपी ने अपनी हुकूमत के ख़िलाफ़ एंटी-इनकंबेंसी की इन चुनौतियों से कई तरीक़ों से निपटने की कोशिश की है. इनमें हिंदुत्व को लेकर बयानबाज़ी को बढ़ाना भी शामिल है. फिर भी मौजूदा सत्ताधारी पार्टी का सबसे अहम सियासी हथियार ‘लोक कल्याणवाद की नई रणनीति’ ही है.

लोक कल्याण पर आधारित वोट बैंक

यूपी में हुए हालिया विधानसभा चुनावों में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (BJP) को मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी से कड़ी चुनौती मिल रही है. चुनाव के शुरुआती दिनों में बीजेपी जहां दोबारा सत्ता हासिल करने को लेकर आश्वस्त दिख रही थी, वहीं अचानक उसका सामना ज़बरदस्त प्रतिद्वंदी से होने लगा. इसके कई कारण हैं. बढ़ती बेरोज़गारी, महंगाईमहामारी से निपटने में ख़ास तौर से दूसरी लहर के दौरान की गईं गड़बड़ियां, किसानों का विरोध, छुट्टा जानवरों की समस्या और कुछ अन्य ऐसे मुद्दे जिन्होंने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली सत्ताधारी बीजेपी सरकार की चुनावी अपील को कमज़ोर कर दिया. ऐन चुनाव के मौक़े पर अन्य पिछड़े वर्ग (OBC) के कई कद्दावर नेताओं ने पार्टी छोड़कर बीजेपी की मुश्किलें और बढ़ा दीं. ये वो OBC नेता थे, जिन्होंने 2017 में बीजेपी की ज़बरदस्त जीत में बहुत अहम भूमिका निभाई थी.

वैसे तो बीजेपी ने अपनी हुकूमत के ख़िलाफ़ एंटी-इनकंबेंसी की इन चुनौतियों से कई तरीक़ों से निपटने की कोशिश की है. इनमें हिंदुत्व को लेकर बयानबाज़ी को बढ़ाना भी शामिल है. फिर भी मौजूदा सत्ताधारी पार्टी का सबसे अहम सियासी हथियार ‘लोक कल्याणवाद की नई रणनीति’ ही है. यहां ये बात याद रखने की ज़रूरत है कि भले ही 2017 में बीजेपी की बंपर जीत में हिंदुत्व की अगुवाई वाले ध्रुवीकरण ने बहुत अहम भूमिका अदा की हो. मगर, बीजेपी के नेता इस बात को मानते हैं कि इसमें मोदी सरकार द्वारा कल्याणकारी योजनाओं को कुशलता से लाभार्थियों तक पहुंचाने की उपलब्धि ने भी बहुत बड़ा रोल निभाया था. ख़ास तौर से उज्जवला योजना ने चुनाव के नतीजों पर बहुत गहरा असर डाला था. इस योजना के ज़रिए करोड़ों ग़रीब परिवारों को मुफ़्त में गैस कनेक्शन उपलब्ध कराया गया है. इसके अलावा मोदी सरकार ने ख़ुद भी इस नए लोक कल्याणवाद से चुनावी फ़ायदा उठाया है. आम चुनावों पर किए गए एक हालिया अध्ययन में पता चला कि 2019 में मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी के लगातार दूसरी बार ज़बरदस्त चुनावी जीत हासिल करने में इन कल्याणकारी योजनाओं ने बहुत अहम भूमिका निभाई थी.

आर्थिक संसाधनों को तकनीक के आधार पर नए सिरे से वितरित करने से न केवल मोदी सरकार, योजनाओं को आख़िरी लाभार्थी तक पहुंचाने की चुनौतियों से पार पाने में सफल रही है, बल्कि इससे वो भारत में लोक कल्याणवाद के ‘उपभोक्तावाद के उपरांत’ वाली परिचर्चा को स्थापित करने में भी सफल रही है

यहां ये बात ध्यान देने लायक़ है कि प्रधानमंत्री मोदी की अगुवाई में कल्याणवाद को लेकर बीजेपी का नज़रिया बुनियादी तौर पर बदल गया है. 2014 में प्रधानमंत्री पद संभालने के बाद नरेंद्र मोदी ने सबसे पहला क़दम तो ये उठाया कि उन्होंने बहुत आक्रामक तरीक़े से डिजिटल तकनीक को अपनाया है, ताकि लोगों के भले की सुविधाएं और सेवाएं तेज़ और असरदार तरीक़े से उन तक पहुंचाई जा सकें. वैसे तो मोदी ख़ुद कांग्रेस की अगुवाई वाली UPA सरकार द्वारा लाए गए आधार (लाभार्थियों की पहचान के लिए बायोमेट्रिक तरीक़े से पहचान करने) के ख़िलाफ़ थे. लेकिन, सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने केंद्र की कल्याणकारी योजनाओं के फ़ायदों को सीधे लाभार्थियों तक (DBT) ज़्यादा तेज़ी से पहुंचाने के लिए आधार को अपना लिया है. वैसे तो कांग्रेस की अगुवाई वाली UPA सरकार ने अपनी लोकप्रिय रोज़गार योजना मनरेगा (MNREGA) के ज़रिए शोहरत हासिल करने की कोशिश की थी. मगर, मोदी सरकार ने केंद्र सरकार की कई योजनाओं (जिनमें पिछली सरकारों की योजनाएं भी शामिल हैं) को चर्चा के केंद्र में ला दिया है. केंद्र की कुछ कल्याणकारी योजनाएं जैसे कि प्रधानमंत्री आवास योजना, उज्जवला योजना, पीएम किसान निधि योजना, मुद्रा क़र्ज़, पीएम जीवन सुरक्षा योजना और आयुष्मान भारत योजनाएं आज घर-घर जानी जाने वाले नाम बन चुकी हैं. दूसरी बात, राजनीतिक बिचौलियों और अफ़सरशाही के शिकंजे से बचते हुए, आर्थिक संसाधनों को तकनीक के आधार पर नए सिरे से वितरित करने से न केवल मोदी सरकार, योजनाओं को आख़िरी लाभार्थी तक पहुंचाने की चुनौतियों से पार पाने में सफल रही है, बल्कि इससे वो भारत में लोक कल्याणवाद के ‘उपभोक्तावाद के उपरांत’ वाली परिचर्चा को स्थापित करने में भी सफल रही है, जो कुशल और पारदर्शी प्रशासन पर आधारित है. जबकि इससे पहले हम कुछ क्षेत्रीय और जातीयता पर आधारित पार्टियों के कल्याणवाद की बुनियाद में कुछ तबक़ों को फ़ायदा पहुंचाने और कुछ के साथ भेदभाव वाला बर्ताव देखते रहे हैं. कल्याणकारी योजनों का ऐसा केंद्रीकरण और उनको इतनी कुशलता से जनता तक पहुंचाना सुनिश्चित किया जा सका. कल्याणकारी सामान पहुंचाने का श्रेय मोटे तौर पर केंद्र सरकार को दिया जाता है. क्योंकि इन योजनाओं का चेहरा प्रधानमंत्री मोदी हैं.

एंटी इन्कंबेंसी का असर कम करने के लिए कल्याणवाद की रणनीति का इस्तेमाल

उत्तर प्रदेश के चुनाव के दौरान हमने देखा कि बीजेपी ने ‘नए लोक कल्याणवाद’ के इस स्वरूप का जमकर इस्तेमाल किया. चुनाव की ग्राउंड रिपोर्ट ये संकेत दे रही हैं कि बढ़ती एंटी इन्कंबेंसी से निपटने के लिए मौजूदा योगी सरकार ने सरकार के पैसे से सस्ते घर बनाने वाली प्रधानमंत्री आवास योजना, स्वच्छ भारत मिशन के तहत शौचालय बनाने की योजना, प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के तहत किसानों की आमदनी में मदद, नक़द कोविड सहायता, आयुष्मान भारत के तहत स्वास्थ्य बीमा योजना, महिलाओं के जन-धन खाते में सीधे पैसा जमा करने जैसी योजनाओं का जमकर प्रचार किया. इसी तरह, केंद्र सरकार ने राज्य की मदद के लिए इलेक्ट्रिक मीटर, जल जीवन योजना के तहत नल से पानी के कनेक्शन, उज्जवला योजना के तहत गैस सिलेंडर देने की योजनाओं को शुरू किया है. इसने मतदाताओं के बीच इनके फ़ायदे उठाने वालों (पीएम किसान निधि और पीएम उज्जवला योजना के कुल मिलाकर 3.9 करोड़ लाभार्थी हैं) का एक बड़ा तबक़ा तैयार किया है, जिन्हें ‘लाभार्थी वर्ग’ कहा जाता है. इसी आधार पर योगी सरकारा ने मुफ़्त अनाज देने, कोविड राहत के नाम पर नक़द मदद और बच्चों को किताबों के साथ स्कूल की पोशाक देने की नई योजनाएं शुरू कीं.

ऐसे बहुत से लोग हैं जो सरकार से रोज़गार, आमदनी बढ़ाने और अन्य कई मांगें कर रहे हैं. जैसा कि हमने अन्य राज्यों में देखा है कि कल्याणवाद निश्चित रूप से सत्ताधारी सरकारों को चुनाव जीतने में मदद करता है. लेकिन सिर्फ़ इसी के आधार पर जीत तय नहीं की जा सकती है.

इसके अलावा, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को केंद्र सरकार की योजनाओं से भी बहुत फ़ायदा हुआ है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राह पर चलते हुए, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी वैसी ही केंद्रीकृत तकनीक का इस्तेमाल करते हुए कल्याणकारी योजनाओं का लाभ सीधे आम लोगों तक पहुंचाया है, जिससे कि अपनी सरकार के ख़िलाफ़ नाराज़गी से पार पा सकें. इसी वजह से जनता के बीच एक बार फिर से ‘डबल इंजन’ की सरकार बनाने का माहौल बना जो मोदी और योगी द्वारा मिलकर चलाई जा रही पारदर्शी और कुशल लोक कल्याणकारी योजनाओं को जारी रखे.

तो क्या, कल्याणकारी योजनाओं को कुशलता और तेज़ी से पहुंचाने वाला ये नया लोक कल्याणवाद, एंटी इन्कंबेंसी को कम करके, सत्ताधारी पार्टी के सामने खड़े अन्य ख़तरों को भी कम करेगा? ऐसे कई शुरुआती सबूत हैं जिससे ये पता चलता है कि आबादी का एक हिस्सा, इस सरकार द्वारा ज़रूरत की योजनाओं का फ़ायदा कुशलता से उन तक पहुंचाने से ख़ुश है. फिर भी ऐसे बहुत से लोग हैं जो सरकार से रोज़गार, आमदनी बढ़ाने और अन्य कई मांगें कर रहे हैं. जैसा कि हमने अन्य राज्यों में देखा है कि कल्याणवाद निश्चित रूप से सत्ताधारी सरकारों को चुनाव जीतने में मदद (जैसे कि पश्चिम बंगाल और ओडिशा) करता है. लेकिन सिर्फ़ इसी के आधार पर जीत तय नहीं की जा सकती है. मिसाल के तौर पर वर्ष 2018 में बीजेपी ने तीन अहम राज्यों (मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़) को गंवा दिया था. जबकि इन तीनों ही राज्यों में कल्याणकारी योजनाओं को बख़ूबी लागू करने का बीजेपी का शानदार रिकॉर्ड रहा था. 10 मार्च को आने वाले नतीजे ही बताएंगे कि उत्तर प्रदेश में जातीय राजनीति की पहचान पर इस ‘नए लोक कल्याणवाद’ की जीत होगी, या फिर जातीय पहचान की राजनीति का पलड़ा भारी पड़ेगा.

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Authors

Niranjan Sahoo

Niranjan Sahoo

Niranjan Sahoo, PhD, is a Senior Fellow with ORF’s Governance and Politics Initiative. With years of expertise in governance and public policy, he now anchors ...

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Ambar Kumar Ghosh

Ambar Kumar Ghosh

Ambar Kumar Ghosh is an Associate Fellow under the Political Reforms and Governance Initiative at ORF Kolkata. His primary areas of research interest include studying ...

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