Published on Nov 15, 2016 Updated 7 Days ago
उत्‍तर प्रदेश चुनाव एवं नोटबंदी

8 नवम्‍बर की रात को प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अत्‍यन्‍त नाटकीय तरीके से 500 एवं 1000 हजार रूपये के नोटों को तत्‍काल प्रभाव से प्रचलन से हटा लेने से देश सकते में आ गया। कुछ चतुर-सुजान घर में उपलब्‍ध हरे-लाल नोटों को लेकर बाजारों एवं एटीएम मशीनों की ओर भागे। भागना स्‍वाभाविक था, एटीएम मशीनें अगले दो दिनों तक बन्‍द जो रहने वाली थी। लोग चैनल बदल-बदल प्रधानमंत्री के भाषण का निहितार्थ समझ रहे थे। राष्‍ट्रीय दलों के प्रवक्‍ता असमंजस में दिखे। क्षेत्रीय दलों ने प्रतिक्रिया देने से परहेज किया। सभी चाहते थे कि पहले जन प्रतिक्रिया देख ली जाये, तद्नुसार ही सुविचारित प्रतिक्रिया दी जाये।

आम जनता की प्रतिक्रिया अप्रत्‍याशित रूप से सकारात्‍मक रही। कालेधन को लेकर लगभग हर दल द्वारा किए गए वायदों, सौ दिन में स्विस बैंकों से देश में कालेधन लाने के संकल्‍पों को जनता ने चुनावी वायदों से अधिक कभी कुछ नहीं समझा था। भ्रष्‍टाचार, कालाधन एवं राजनैतिक सत्‍ता के गठजोड को आम जनता ने पिछले लगभग 70 वर्षो में खूब देखा-समझा था। अत: कालाधन का सफाया करने के चुनावी जुमलों के प्रति वह उदासीन थी। कम से कम 1974 के जय प्रकाश नारायण की सम्‍पूर्ण क्रान्ति के आन्‍दोलन के बाद सत्‍ता में आयी जनता पार्टी या उसके अंश से बनी पार्टियों की गति से वह सबक ले चुकी थी। सत्‍ता तंत्र से भ्रष्‍टाचार एवं कालाधन के विरूद्ध उसे किसी सार्थक एवं प्रभावी मुहिम की आशा भी नहीं थी।

प्रधानमंत्री मोदी का ‘’नोटबंदी’’ का फैसला सभी को हैरतअंगेज करने वाला लगा। काला-बा‍जारियों, करवंचकों एवं अवैध धन के कारोबारियों पर यह वज्रपात सरीखा ही था। लेकिन आश्‍चर्यजनक रूप से अल्‍प आय, निम्‍न मध्‍यम वर्ग, मजदूर, छोटे-मझोले किसान, फुटकर व्‍यापारी मोदी के इस निर्णय से प्रसन्‍न एवं अभिभूत नजर आये। जिनकी कुल जमा-पूँजी महज एक बार बैंक/एटीएम यात्रा भर की थी, वे उत्‍साहित थे। उन्‍हें एक क्षण भी नहीं लगा मोदी के इस साहसिक कदम की सराहना करने में। 56 इंची छाती फिर एक बार सुर्खियां बटोर रही थीं। अब सभी के मन में प्रसंशा का भाव था।

उत्‍तर प्रदेश के आगामी विधान सभा चुनाव पर इस नोटबंदी का व्‍यापक एवं दूरगामी परिणाम होना तय है। कुछ परिणाम जरूरत से जल्‍दी सामने आने लगे हैं। ‘’एकला चलो’’ की राह की हठ लगाए अखिलेश यादव के पैरों में बेडियां डालने के लिए फेंका गया ‘’गठबन्‍धन’’ का ‘’मोहपाश’’ ‘’नोटबंदी’’ के अगले दिन ही छिन्‍न-भिन्‍न हो गया। गठबन्‍धन के लगभग सर्वमान्‍य नेता मुलायम सिंह ने गठबन्‍धन के घटक दलों के सामने ‘’विलय’’ जैसा असम्‍भव प्रस्‍ताव रख दिया। तिलमिलाए कांग्रेसी प्रवक्‍ता ने यहॉं तक कह दिया कि क्‍या समुद्र भी कभी नालों से जाकर मिलता है। समाजवादी पार्टी के दुखों का सिलसिला यही नहीं समाप्‍त होता दिख रहा है। चाचा शिवपाल के हाथ में संगठन की कमान है, भतीजे अखिलेश सरकार के निर्विवाद नेता हैं। पिता मुलायम सिंह सर्वमान्‍य होने के बावजूद भी मध्‍यस्‍थता कर पाने में असमर्थ दिख रहे हैं। एक समीक्षक ने सपा की चुनावी तैयारियों पर टिप्‍पणी की कि सपा तो ‘’हिट-विकेट’’ हो गयी है।

बहुजन समाज पार्टी भी नोटबंदी से आहत दिख रही है। यह सत्‍य है कि बसपा का कोर समर्थक दलित मतदाता बहन जी के प्रति निष्‍ठावान है एवं धन-बल के प्रलोभन से अछूता रहता है। परन्‍तु बसपा की विडम्‍बना यह है कि आरक्षित सीटों के अलावा सामान्‍य सीटों से लडने वाले अधिकांश प्रत्‍याशी जो मूलरूप से गैर राजनैतिक पृष्‍ठभूमि से आते हैं, उन्‍हें धन-बल के अलावा चुनाव जीतने का कोई गुर ही नहीं आता है। उनके पास न कोई संगठनात्‍मक कौशल है एवं न ही चुनाव लडने का अनुभव। अगर कुछ है तो चुनावों में झोंकने के लिए अन्‍धाधुन्‍ध धनबल एवं बहन जी के नाम का सहारा। जाहिर है कि इस तरह के मौसमी प्रत्‍याशियों के लिए ‘’नोटबंदी’’ आने का इससे खराब समय शायद और कोई नहीं हो सकता है।

राष्‍ट्रीय दल कांग्रेस के अधिकांश प्रत्‍याशी पार्टी की अस्मिता एवं सम्‍मान के खातिर लडते हैं। उन्‍हें यह भरोसा रहता है कि इस ‘’बे-मेल संघर्ष’’ में पार्टी का नेतृत्‍व उन्‍हें नैतिक के साथ-साथ आर्थिक मदद भी करेगा। ‘’नोटबंदी’’ का आदेश उनकी आशाओं पर पानी फेर सकता है। 27 वर्ष से उत्‍तर प्रदेश में सत्‍ता से बाहर रह रही कांग्रेस के कार्यकर्ता बिना धन के उम्‍मीदवारों का कितना समर्थन कर पायेंगे, यह भी देखने की बात है। कमोवेश यह राष्‍ट्रीय लोकदल एवं अन्‍य क्षेत्रीय एवं मण्‍डल/जनपद स्‍तरीय गैर मान्‍यता प्राप्‍त दलों के बारे में भी सत्‍य है।

भाजपा की स्थिति निश्चित रूप से भिन्‍न दिख रही है। उरी हमले के बाद पाकिस्‍तान सीमा में घुसकर किए गए सर्जिकल स्‍ट्राइक ने देश को आहलादित कर दिया है। पाकिस्‍तान को उसी की भाषा में जबाब देने की यह अदा देश-वासियों को भायी है। अब हमें इजरायल के साहस या दुस्‍साहस की मिसाल देने की आवश्‍यकता नहीं है। रही सही कसर मोदी की ‘’नोटबंदी’’ ने पूरी कर दी है। ‘’नोटबंदी’’ निश्चित रूप से विश्‍व के किसी भी देश में किसी भी राजनेता द्वारा उठाया गया सबसे बडा कदम है। यह आर्थिक सुधार लाने, भ्रष्‍टाचार के विरूद्ध लडने, जाली नोट की समानान्‍तर व्‍यवस्‍था तथा सीमा पार से पोषित आतंकवाद को समाप्‍त करने की दिशा में उठाया गया एक क्रान्तिकारी कदम है।

यह सच है कि आज पूरा भारत गरीब हो या अमीर, बूढे हो या जवान, बैंकों एवं एटीएम के सामने लम्‍बी लाइनों में खडे हैं। शादी-विवाह एवं कटाई-बुआई का समय है। नये नोटों की किल्‍लत से अफरा-तफरी है। किन्‍तु राजनैतिक विश्‍लेषक/समीक्षक आश्‍चर्यचकित हैं। अर्थ शास्‍त्री भौंचक्‍के है। बमुश्किल दिन भर में 300-400 रूपये कमाने वाला दिहाडी मजदूर, आटो रिक्‍शा/टैक्‍सी वाला, लाइन में घन्‍टों से खडा हुआ आम आदमी तमाम कठिनाईयों के बावजूद भी ‘’नोटबंदी’’ से खुश है। शायद मन ही मन आहलादित है। पूछिये तो बेबाक राय देगा, ‘’मोदी देश के लिए कर रहे हैं, क्‍या हम कुछ देर लाइन में नहीं खडे रह सकते है’’। यह दर्शन एवं फलसफा सुनकर अर्थ शास्‍त्री चिहॅुंक उठता है। समीक्षक बिलबिला रहे हैं। मोदी को ‘’पाखण्‍डी एवं ड्रामेबाज’’ बताने वाले प्रवक्‍ता बगले झॉक रहे हैं। जनता की सकारात्‍मक प्रतिक्रिया एवं उत्‍साह देख कर मोदी ने 50 दिन की मोहलत भी मांग ली। विश्‍वास है कि जनता को प्रधानमंत्री की यह मांग बेजा नहीं लगेगी।

प्रश्‍न उठता है कि ‘’नोटबंदी’’ में ऐसा क्‍या है कि जिसकों तमाम आर्थिक, शारीरिक कठिनाईयों के बावजूद देश के गरीब-गुरबा, किसानों, मजदूरों ने हाथो-हाथ लिया है। उत्‍तर सहज है। कश्‍मीर से कन्‍या कुमारी, सुदूर पूर्व से लेकर पश्चिमी भारत तक, कालेधन की एक अपसंस्‍कृति आजादी के बाद तेजी से बढी है। पूँजी-पतियों ने धन उद्योगों से कम लाइसेन्‍स, परमिट एवं टैक्‍स की चोरी से अधिक धन बटोरा है। नौकरशाहों एवं राजनेताओं ने तो केवल भ्रष्‍टाचार एवं ‘’पैट्रोनेज पावर’’ का दुरूपयोग करके अकूत सम्‍पत्ति अर्जित की। देश में आयकर, वाणिज्‍य कर, केन्‍द्रीय उत्‍पाद शुल्‍क, आयात/निर्यात शुल्‍क की चोरी से देश गरीब हुआ है। आर्थिक असमानता बढी है। मंहगे विद्दयालय, कालेज, विश्‍वविद्दयालय, नर्सिंग होम, प्राइवेट हास्पिटल, हवाई सेवाएं तथा विलासिता की वस्‍तुएं इसी नवधनाढ्य वर्ग के लिए उपलब्‍ध है। सरकारी अस्‍पताल की चरमराती स्‍वास्‍थ्‍य सेवाएं, शिक्षक विहीन शिक्षण संस्‍थाएं, ट्रेन की छतों पर यात्रा करने का अभिशाप अधिसंख्‍य गरीबों के लिए है। गरीब अपनी बदहाली का जिम्‍मेदार राजनेताओं, नौकरशाहों, बिचौलिए-ठेकेदारों के अपवित्र गठबंधन को मानता है। ‘’नोटबंदी’’ ने इसी वर्ग को सर्वाधिक चोट पहुंचायी है। गॉंवों में छुट-भइया ठेकदार-नेता की बोलेरो अब बेकार खडी है। जोर-जबरदस्‍ती, घूस-पात देकर मिले ठेके अचानक आये ‘’नोटबंदी’’ के चलते बन्‍द हैं। ‘’खनन माफिया,’’ ‘’हरे-लाल’’ नोटों की सहसा आयी बन्‍दी से हतप्रभ हैं। कदम-कदम पर आयी बाधाओं को दूर करने में सक्षम ‘’हरे-लाल’’ नोट अब बोझ स्‍वरूप हैं। जो गड्डियां, बैग एवं ब्रीफकेश या खोखे शक्तिपुंज थे, वह महज कागज की लुगदी भर रह गए हैं। उत्‍तर प्रदेश के चुनावों में राजनैतिक दलों को ‘’नोटबंदी’’ का यह आयाम सर्वाधिक भयावह दिख रहा है।

आम जनता इन्‍हीं नवधनाढ्यों की दुर्दशा से आहलादित है। ऐसे नवधनाढ्यों को 4000 रूपये के लिए लाइन में लगता देख कर वह प्रकारान्‍तर से खुश है। अचानक से उसके जनधन खातों का महत्‍व बढा है। अपने बदहाली के प्रतीक छुट-भइये नेताओ, भ्रष्‍ट नौकरशाहों, माफिया-गुण्‍डों तथा स्‍थानीय दबंगों की बदहाली उसे भा रही है। ‘’नोटबंदी’’ से मोदी ने गरीबों, मजदूरों तथा समाज के वंचितों के मर्म को छू लिया है। ‘’सबका विकास’’ करने के लिए शायद उन्‍हें कुछ वक्‍त के दरकार हो, पर इस नोटबंदी से उन्‍हें अनायास ही ‘’सबका साथ’’ मिल गया है। ममता एवं केजरीवाल की बौखलाहट इसी का परिणाम है। सपा-बसपा के शीर्ष नेताओं की बेचैनी भी यही बयॉ करती है। अपवाद स्‍वरूप ही सही, ‘’नोटबंदी’’ मोदी का ‘’सेक्‍यूलर’’ कदम है। उन्‍होंने भाजपा के परम्‍परागत वोट बैंक व्‍यापारियों-उच्‍च आय वर्ग को भी एक सुविचारित झटका दिया है। पर इसी के साथ ही पूरे भारत के गरीब, मजदूर, किसान, सैनिक, केवल वेतनजीवी नौकर पेशा वर्ग, चाहे हिन्‍दू हो या मुसलमान उनके साथ खडे दिख रहे हैं। एक धनहीन-साधनहीन उत्‍तर प्रदेश का चुनावी परिदृश्‍य निश्‍चय ही रोचक सम्‍भावनाएं लिए है। आगे-आगे देखिए होता है क्‍या।

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