Author : John C. Hulsman

Published on Apr 24, 2024 Updated 0 Hours ago
अमेरिका-चीन संबंध: दो महाशक्तियों के बीच चल रहे शीत युद्ध का ‘बर्लिन’ ताइवान है

दुनिया में ऐसे तमाम लोग हैं जो सच में ये समझ नहीं पाते हैं या ये कहते हैं कि उन्हें नहीं पता कि मुक्त दुनिया (फ्री वर्ल्ड) और कम्युनिस्ट दुनिया के बीच बड़ा फ़र्क और मुद्दे क्या हैं… मैं कहूंगा कि ऐसे लोगों को बर्लिन आना चाहिए.”

-जॉन एफ कैनेडी, बर्लिन, 22 जून, 1963

प्रस्तावना: आखिर कहां से हुई शुरुआत

अमेरिका और तत्कालीन सोवियत रूस के बीच शीत युद्ध के दौरान ऐसा लगता था कि बर्लिन धरती की सबसे अहम जगह थी, जहां टकराव को अनिवार्य रूप से देखा जा सकता था. इस टकराव में वहां रणनीतिक मुद्दा क्या था, वह कोई मायने नहीं रखता था. कोयले की ख़दान में केनरी पक्षी की तरह आर्थिक रूप से समृद्ध लेकिन रणनीतिक रूप से संकटग्रस्त पश्चिम बर्लिन के किले की सफ़लता या विफ़लता ने एक भूराजनीतिक थर्मामीटर की तरह काम किया. इसने समयसमय पर यह दिखाने का काम किया कि पूंजीवादी पश्चिम को फ़ायदा हो रहा है या फिर पूरब के कम्युनिस्टों को

सालों के संघर्ष और टकराव के बाद नतीजा स्पष्ट हो गया. वर्ष 1958 तक एक अंतहीन, निर्मम, दमनकारी व कठोर अर्थव्यवस्था, जो एक अस्पष्ट और मायूसी भरी प्रणाली बन चुकी थी उसके ख़िलाफ़, अब तक दबी हुई जनता बग़ावत पर उतारू हुई और अपने पूरी ताक़त के साथ इसके ख़िलाफ़ मतदान किया जिसे लेनिन के शब्दों में वोटिंग विद देयर फीट कहा गया है. दो करोड़ से अधिक लोग पश्चिम के स्वर्ग को अपनाने का फैसला करते हुए पूर्वी बर्लिन से भाग गए. इसमें बड़ी संख्या अच्छे खासे पढ़े-लिखे लोगों और युवाओं की थी. वास्तविक दुनिया की इस शर्मिंदगी को रोकने के लिए तत्कालीन सोवियत नेता निकिता ख्रुश्चेव ने 13 अगस्त 1961 को बर्लिन की दीवार का निर्माण करवाया, लेकिन तबतक जो क्षति होनी थी वह हो चुकी थी. 

व्यापक दुनिया तक उसकी मुक्त पहुंच को रोकने के लिए बीजिंग को एक या दूसरे मार्ग को निश्चित तौर पर नियंत्रित करना होगा या फिर भू-आर्थिक या भू-राजनीतिक दृष्टि से इन रास्तों को बंद करने की क्षमता वाली विरोधी शक्तियों के निरंतर भय में रहना होगा.

लोगों को पलायन करने से रोकने के लिए उन्हें घेरना उस समाज के लिए अच्छा नहीं दिख रहा था जो खुद भविष्य का अग्रदूत होने का दावा करता है. आने वाले कुछ दशकों में पूर्वी और पश्चिमी बर्लिन के बीच बढ़ती असमानता शीत युद्ध के नतीजे के रूप में सामने आई. यह स्पष्ट तौर पर दमनकारी और अकल्पनीय सोवियत कम्युनिस्ट व्यवस्था पर पश्चिम की श्रेष्ठता का अकाट्य प्रमाण बन गया. आज के ‘दूसरे शीत युद्ध’ की शुरुआत के वक़्त में ताइवान ने अब ‘बर्लिन’ की जगह ले ली है. आज के इस ‘दूसरे शीत युद्ध’ का आशय सुपर पावर अमेरिका और चीन के बीच की प्रतिद्वंद्विता से है. ताइवान इस वक्त का सबसे अहम हॉट स्पॉट है. बात भूराजनीतिक, माइक्रोइकॉनॉमिक्स यानी सूक्ष्मअर्थशास्त्र  या फिर लोकतंत्र की हो, सभी रास्ते ताइवान की ओर ही जाते हैं. यह वह मंच बन गया है जहां दूसरे शीत युद्ध का नाटक खेला जाएगा.

ताइवान का अपरिवर्तनीय भू-रणनीतिक महत्

इस बात में कोई आशंका नहीं है ताइवान आज भी मुख्य चीन (मेनलैंड चाइना) को घेरने के दो तरीक़ों में से एक का मह्त्व रखता है, जैसा कि भौगोलिक रूप से होता भी आया है. कम्युनिस्ट चीन की कल्पना एक ऐसी बोतल के रूप में कीजिए जिसके दोनों किनारों पर दो संकीर्ण मार्ग हैं. दक्षिण किनारे पर मलक्का का जलडमरूमध्य (Strait of Malacca) है जिसकी हिंद प्रशांत क्षेत्र तक नियंत्रणकारी पहुंच है. दूसरी तरफ उत्तर में ताइवान है, जो मुख्य एशिया के पहले द्वीप समूह को पकड़े हुए है. व्यापक दुनिया तक उसकी मुक्त पहुंच को रोकने के लिए बीजिंग को एक या दूसरे मार्ग को निश्चित तौर पर नियंत्रित करना होगा या फिर भू-आर्थिक या भू-राजनीतिक दृष्टि से इन रास्तों को बंद करने की क्षमता वाली विरोधी शक्तियों के निरंतर भय में रहना होगा.

मौजूदा समय में बीजिंग का इन दो रास्तों में से किसी पर नियंत्रण नहीं है और न ही उसकी नौ सेना, जो काफ़ी तेज़ी से अपनी क्षमता बढ़ा रही है, वह अमेरिकी के समुद्री वर्चस्व की बराबरी करने में सक्षम है. यह भू-राजनीतिक वास्तविकता बीजिंग के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के बारे में काफ़ी कुछ बताती है. यह पुरानी व लगभग चिढ़ पैदा करने वाली भू-रणनीतिक बाधाओं को खत्म करने का ज़मीनी प्रयास है. हालांकि, परियोजना लागत में वृद्धि, स्थानिक भ्रष्टाचार और चूस लेने वाली (कुछ मामलों में) ऋण प्रथाओं के कारण चीन द्वारा खेला गया बीआरआई का दांव अब अपनी चमक खो चुका है.

इस साल मार्च से अप्रैल के बीच अमेरिका में कारों की कीमत में आग लग गई और यह 10 फीसदी तक बढ़ गई. अस्थिर व एकल औद्योगिक इनपुट के रूप में यह कीमती चिप अब वैश्विक अर्थव्यवस्था की धुरी से कम नहीं है, और इसमें प्रभुत्व अब ताइवान का है. 

ताइवान अब भी एक न डूबने वाले अमेरिकी समर्थक विमानवाहक के तौर पर स्थापित है, जिसने उत्तर में बीजिंग को रोका हुआ है. हालांकि, अगर शी जिनपिंग का शासन ताइवान पर नियंत्रण स्थापित कर लेता है तो अमेरिका की फर्स्ट आईलैंड चेन डिफेंस (first island chain defence) नीति तबाह हो जाएगी और बीजिंग रणनीतिक रूप से बेलग़ाम हो जाएगा. ताइवान, कम्युनिस्ट चीन को नियंत्रित करने के अहम ज़रिए के रूप में बेहद महत्वपूर्ण है.

अपरिहार्य चिप निर्माता

यदि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में ताइवान अमेरिका के भू-राजनीतिक गणित के केंद्र में है तो दूसरी तरफ वह वैश्विक अर्थव्यवस्था में भी अहम भूमिका निभा रहा है. ताइवान की कंपनी ताइवान सेमिकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग कंपनी (Taiwan Semiconductor Manufacturing Company) यानी टीएसएमसी दुनिया की सबसे बड़ी एकमात्र सेमिकंडक्टर निर्माता कंपनी है. वह अकेले 84 फीसदी के साथ सबसे एडवांस कंप्यूटर चिप का निर्माण करती है. कोरोना महामारी की वजह से हाल के दिनों में हुई चिप की कमी ने दुनिया को यह अहसास करा दिया है कि आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था में ताइवान की क्या भूमिका है. आजकल चिप केवल कंप्यूटर में ही इस्तेमाल नहीं किए जा रहे हैं, बल्कि ये तमाम ऐसे उत्पादों में इस्तेमाल हो रहे हैं, जिसमें क्रत्रिम बुद्धि (artificial intelligence) की ज़रूरत होती है. 

उदाहरण के लिए, कार उत्पादन को ही देखें तो ये चिप अब सबसे बड़ी ज़रूरत हैं, क्योंकि गाड़ियां अब इंटरनल सिस्टम पर निर्भर हो गई हैं जहां ड्राइवर के सोचने से जुड़े कामों की संख्या बड़ी है और यह सभी काम अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के ज़रिए किए जाते हैं. अप्रैल 2021 की बात है, जब फोर्ड ने घोषणा की कि वैश्विक स्तर पर चिप की कमी की वजह से वह जून तक सामान्य की तुलना में केवल आधी संख्या में गाड़ियों का निर्माण करेगी. इसका सीधा असर यह हुआ कि इस साल मार्च से अप्रैल के बीच अमेरिका में कारों की कीमत में आग लग गई और यह 10 फीसदी तक बढ़ गई. अस्थिर व एकल औद्योगिक इनपुट के रूप में यह कीमती चिप अब वैश्विक अर्थव्यवस्था की धुरी से कम नहीं है, और इसमें प्रभुत्व अब ताइवान का है. 

प्रतीकवाद की ताकत भी एक चीज़ होती है. यह एक ऐसी सच्चाई है जो बर्लिन के साथ भी जुड़ी हुई थी. चीनी कम्युनिस्ट तर्क का एक हिस्सा सांस्कृतिक है. उसका कहना है कि जातीय हान लोग चीनी राष्ट्रवाद का अहम बिंदू हैं, जो लोकतंत्र की पश्चिमी धारणाओं के साथ असंगत है

इससे सचेत होते हुए वाशिंगटन और बीजिंग दोनों ने चिप के एकल स्रोत पर निर्भरता को कम करने के लिए तेज़ी से कोशिशें शुरू कर दी हैं, लेकिन सप्लाई चेन को बदलने में समय लगता है. खुद टीएसएमसी राजनीतिक जोखिम को कम करने की कोशिश के तहत एरिज़ोआना में एक नया सेमिकंडक्टर प्लांट लगा रही है. साथ ही वह मुख्य चीन के नांशिंग (Nanjing) में नए संयंत्र लगाने के लिए 2.8 अरब अमेरिकी डॉलर निवेश करने की योजना पर काम कर रही है. लेकिन इन सभी से फ़ायदा मिलने में वर्षों लगेंगे. अमेरिकी प्लांट के 2024 से पहले संचालित होने की उम्मीद नहीं है. दूसरी तरफ़, इस वक्त बीजिंग भी ताइवान पर सेमी-कंडक्टर को लेकर अपनी निर्भरता कम करने की स्थिति में नहीं है.

ताइवान के सेमी-कंडक्टर उत्पादन में किसी भी रूप में कोई भी व्यवधान पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को तेज़ी से प्रभावित करेगा. बीजिंग को इस बात का डर रहता है कि अगर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भू-रणनीतिक रूप से शीत युद्ध की तपिश बढ़ती है, तो भू-आर्थिक रूप से अमेरिका-ताइवान का गठबंधन निश्चित रूप से अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने में जुटेगा. 

प्रतीक के रूप में लोकतंत्र का प्रदर्शन

प्रतीकवाद की ताकत भी एक चीज़ होती है. यह एक ऐसी सच्चाई है जो बर्लिन के साथ भी जुड़ी हुई थी. चीनी कम्युनिस्ट तर्क का एक हिस्सा सांस्कृतिक है. उसका कहना है कि जातीय हान लोग चीनी राष्ट्रवाद का अहम बिंदू हैं, जो लोकतंत्र की पश्चिमी धारणाओं के साथ असंगत है. यह ताइवान की वास्तविकता को एक फलते-फूलते पश्चिमी बर्लिन से मिले पुराने सबक का रूप देता है और ख़ासकर कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व के लिए यह दुखद है. बग़ल में बैठे ताइवान (जिसकी आबादी में 95 फीसदी हान हैं) ने 1949 के बाद चियांग काई-शेक के सत्तावादी तरीक़े से खुद को एक उदंड लोकतंत्र के रूप में स्थापित किया है. वर्ष 2000 से यहां क्योमिंतांग (केएमटी) और डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (डीपीपी) के बीच नियमित और शांतिपूर्ण तरीके से सत्ता का हस्तांतरण होता रहा है, जो काफ़ी हद तक विकसित लोकतांत्रिक देशों में देखने को मिलता है.

इस तरह कम्युनिस्ट पार्टी के सिद्धांत के पूरी तरह उलट आज ताइवान के पास वैश्विक अर्थव्यवस्था और एक स्थापित लोकतंत्र है, जो जातीय हान लोगों की लोकतांत्रिक सरकार की चाहत को झूठा साबित करता है. यह एक पहेली के अवयवों से भी अधिक रूप में ताइवान को नए ‘बर्लिन’के रूप में स्थापित करता है और शी जिनपिंग लंबी अवधि के लिए इससे अछूते नहीं रह सकते.

निष्कर्ष: रणनीतिक स्पष्टता की जरूरत

इन मूलभूत भू-राजनीतिक, मैक्रो-इकॉनॉमिक और भू-रणनीतिक कारणों की वजह से ख्रुश्चेव की तरह शी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह एक अमेरिकी समर्थक, स्वतंत्र और लोकतांत्रिक ताइवान के निरंतर अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर सकते. राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने ज़ोर देकर कहा है कि बीजिंग भले ही ताइवान और चीन के बीच शांतिपूर्ण एकीकरण की इच्छा रखता है, लेकिन इसे लागू करने के लिए वह हर संभव कोशिश करेंगे और किसी भी रूप में इसे हासिल करेंगे. यह देखते हुए बीजिंग की एक देश दो व्यवस्था की कल्पना हॉन्गॉन्ग में की गई क्रूर कार्रवाई से उजागर हो गई है और इस बात की संभावना अब बेहद कम है कि चीन की इस चेतावनी को हल्के में लिया जाए.  

कम्युनिस्ट पार्टी में ताइवान के विलय की कल्पनाओं पर रोक लगने के साथ अमेरिका के लिए अब वह समय आ गया है कि वह बीजिंग के सामने पूरी तरह से यह स्पष्ट कर दे कि अगर वह ताइवान को धमकी देता है, उस पर प्रभुत्व दिखाने की कोशिश करता है या फिर उस पर हावी होने का प्रयास करता है तो वह सीधे तौर पर अपने साथी देश ताइवान के बचाव में उतरेगा. बिना किसी संदेश के चीन और अमेरिका के बीच शीत युद्ध में ताइवान नया बर्लिन है. अब यह अमेरिका पर निर्भर करता है कि जिस तरह से जॉन एफ कैनेडी ने बर्लिन को लेकर मज़बूती और जोश दिखाया था, वैसा कुछ कर पाता है या नहीं. कैनेडी ने इस रूप में बर्लिन के साथ ही पूरी ‘मुक्त दुनिया’ का बचाव किया था. 

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