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Published on Mar 10, 2025 Updated 0 Hours ago

ट्रंप प्रशासन ने ताइवान की स्वतंत्रता का विरोध करने के बजाय अब उसके साथ रक्षा संबंधों को आगे बढ़ाने का संकेत दिया है जिससे बीजिंग और अमेरिका का आपसी तनाव बढ़ा दिया है.

ताइवान पर बदले-बदले से ट्रंप – सौदेबाज़ी की नई चाल या एशिया की ओर झुकाव

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अमेरिकी विदेश विभाग ने अपनी वेबसाइट से अमेरिका ‘ताइवान की आज़ादी का समर्थन नहीं करता’ शब्दों को हटा लिया है और वह ‘ताइपे के अंतरराष्ट्रीय संगठनों में प्रवेश का समर्थन करेगा’ वाक्य को शामिल किया है, जिसके बाद बीजिंग में तीखी प्रतिक्रिया हुई है. वेबसाइट ने चीन की मुख्य भूमि को भी ‘चीन’ कहकर संबोधित किया है, न कि पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना (PRC) कहकर. इसे ट्रंप प्रशासन द्वारा किया गया बड़ा नीतिगत बदलाव माना जा रहा है. चूंकि नए विदेश मंत्री मार्को रुबियो की पहचान ‘चाइना हॉक’ (चीन विरोधी) की है, इसलिए भी अमेरिका के इस कदम से चीन में गहरी नाराज़गी पैदा हुई है. वेबसाइट पर लिखा गया है कि अमेरिका किसी भी पक्ष द्वारा (ताइवान की) मौजूदा स्थिति में एकतरफा बदलाव का विरोध करता है और ताइवान जलसंधि के आर-पार के मतभेदों को शांतिपूर्ण तरीके से, बिना किसी दबाव के और जलसंधि क्षेत्र के दोनों तरफ के लोगों द्वारा स्वीकार्य रास्ते से हल किया जाना चाहिए. विदेश विभाग ने रक्षा और सेमीकंडक्टर के क्षेत्र में ताइवान से अधिक सहयोग की उम्मीद भी जताई है और लिखा है कि ताइवानी राष्ट्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी परिषद ने पेंटागन के सहयोग से साल 2024 में माइक्रोचिप के दो हब शुरू किए हैं. 

अमेरिकी विदेश मंत्रालय द्वारा ताइवान को अंतरराष्ट्रीय संगठनों में शामिल करने का समर्थन देने से इस द्वीप पर उत्साह फैल गया है, जो अभी बीजिंग के दबाव से बुरी तरह जूझ रहा है.

अमेरिकी विदेश मंत्रालय द्वारा ताइवान को अंतरराष्ट्रीय संगठनों में शामिल करने का समर्थन देने से इस द्वीप पर उत्साह फैल गया है, जो अभी बीजिंग के दबाव से बुरी तरह जूझ रहा है. ताइवान के विदेश मंत्री लिन चिया-लंग ने ताइवान के प्रति अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबिया की प्रतिबद्धता का स्वागत किया है. बीते कुछ वर्षों में, चीन ने ताइवान को अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से बाहर रखने के लिए लगातार अभियान चलाया है, फिर चाहे महामारी में सहयोग जैसी वैश्विक जनहित के कामों में उसकी भागीदारी ही क्यों न रही हो. उल्लेखनीय है कि साल 2021 में जब कोरोना महामारी अपने शीर्ष पर थी, तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अंतरराष्ट्रीय सहयोग बढ़ाने की बात कही थी, तब सदस्य देशों ने बीजिंग की नाराज़गी से बचने के लिए ताइवान की ऐसी किसी हिस्सेदारी पर चर्चा नहीं की. ऐसा तब हुआ था, जब स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने संक्रमण को रोकने और उसका मुकाबला करने में ताइपे की सफलता को सराहा था. इन आधारों पर, कुछ देशों ने शुरू में ताइवान को पर्यवेक्षक के रूप में शामिल करने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन बाद में वे भी पीछे हट गए.

इसी तरह, एक द्वीप होने के नाते, ताइवान यात्रा और व्यापार के लिए हवाई संपर्क पर बहुत अधिक निर्भर है. ताइवान का ताओयुआन अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा तो आठवां सबसे व्यस्त कार्गो टर्मिनल है. यहां के 17 हवाई अड्डों पर साल 2019 में क़रीब 7.2 करोड़ यात्रियों ने यात्राएं कीं. बावजूद इसके, ताइपे को विमानन नियम बनाने वाले अंतरराष्ट्रीय नागरिक उड्डयन संगठन से बाहर रखा गया है. इस संगठन से ताइपे के बहिष्कार का मतलब है कि एक-दूसरे देश के साथ तकनीकी सहयोग करने, मिलकर काम करने, हरित मानक बनाने, नशा-विरोधी व आतंकवाद विरोधी सहयोग बढ़ाने जैसे अंतरराष्ट्रीय अभियानों से अलग-थलग कर देना. यहां तक कि मानवरहित विमानों जैसी नई विमानन प्रौद्योगिकी से भी ताइवान को दूर रखा गया है. 

 

चीन का संदेह

ताइवानी राष्ट्रपति साई इंग-वेन ने जब ‘एक देश, दो व्यवस्थाओं’ को मानने से इंकार कर दिया, तो चीन ने ताइवान की कूटनीतिक मान्यता को भी ख़त्म करने का प्रयास किया. जनवरी 2024 में राष्ट्रपति लाई चिंग-ते के शपथ ग्रहण के दिनों में प्रशांत क्षेत्र के देश नाउरू ने चीन के पक्ष में ताइपे के साथ अपने राजनयिक संबंध तोड़ भी लिए. इसी तरह, चीन ने ताइपे में विदेशी गणमान्य लोगों की यात्राओं या राष्ट्रीय और राजनीतिक महत्व के दिवसों के आसपास (राष्ट्रपति लाई के शपथ ग्रहण और अक्टूबर 2024 में राष्ट्रीय दिवस के क़रीब) ताइवान के नज़दीक सैन्य अभ्यास के माध्यम से भी बार-बार दबाव डाला. राष्ट्रीय दिवस पर दिए गए अपने पहले संबोधन में ताइवानी राष्ट्रपति लाई चिंग-ते ने जोर देकर कहा था कि देश की संप्रभुता का उल्लंघन नहीं किया जा सकता और बीजिंग के पास ताइपे के प्रतिनिधित्व का अधिकार नहीं है. बीजिंग को शक है कि लाई ‘दो-राष्ट्र के सिद्धांत’ को आगे बढ़ा रहे हैं. उसने चेतावनी दी है कि यदि ताइवान की आज़ादी के लिए काम किया जाएगा, तो उसका नतीजा संघर्ष के रूप में निकलेगा. ‘पीपुल्स डेली’ में छपे एक लेख में ताइवान के कुलीन वर्ग (प्रभावशाली व धनी लोग) में आज़ादी की बढ़ रही भावना को तेज़ करने में वाशिंगटन की भूमिका को संदेहास्पद माना गया है और अमेरिका पर ताइवान कार्ड का उपयोग करके मुख्य भूमि को नियंत्रित करने की साज़िश रचने का आरोप लगाया गया है. 

 राष्ट्रीय दिवस पर दिए गए अपने पहले संबोधन में ताइवानी राष्ट्रपति लाई चिंग-ते ने जोर देकर कहा था कि देश की संप्रभुता का उल्लंघन नहीं किया जा सकता और बीजिंग के पास ताइपे के प्रतिनिधित्व का अधिकार नहीं है.

राष्ट्रपति लाई के इस बयान का हवाला देकर कि ताइवान ‘शतरंज का खिलाड़ी है, न कि मोहरा’, चाइनीज कल्चरल यूनिवर्सिटी (ताइवान) के प्रोफेसर किउ यी ने चीनी राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने वाली वेबसाइट ‘गुआंचा’ में ताइवानी महत्वाकांक्षा के बारे में लिखा है. किउ का कहना है कि 1960 के दशक से ही ताइपे का राजनीतिक प्रभुत्व वर्ग ताइवान को पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका का ऐसा विमानवाहक जहाज मानता है, जो डूब नहीं सकता. उनके मुताबिक, ताइवान मुख्य भूमि पर क़ब्ज़ा करने का पश्चिमी मोहरा है. उनका यह भी मानना है कि ताइवान में सत्तारूढ़ वर्ग ‘yǒu qián néng shǐ guǐ tuī mó’ की साज़िश में विश्वास करता है, जिसका अर्थ है कि वे अपने लगभग 576 अरब अमेरिकी डॉलर के विशाल मुद्रा भंडार का उपयोग ताक़तवर विदेशी गणमान्यों व छोटे देशों को अपने पक्ष में करने और संयुक्त राष्ट्र में ताइवान के हित में आवाज़ उठाने में कर सकते हैं. 

अन्य देशों से सेमीकंडक्टर सहयोग बढ़ाने की ताइवानी नीति पर भी चीन की गहरी नज़र है. किउ का कहना है कि ताइपे में प्रभुत्व वर्ग यही मानता है कि चिप उद्योग पर दबदबा उसे shén shān या पवित्र पर्वत की तरह बाहरी ख़तरों से बचाएगा. इस तरह की सोच ने चीन के कूटनीतिक हमले को बढ़ाने का काम किया है, जिसके कारण लगभग 70 देशों ने ताइवान पर चीनी संप्रभुता का समर्थन किया है. इनमें से कई देश, जिन्होंने बीजिंग की राह पर चलने का फ़ैसला किया है, कहते हैं कि ताइवान को फिर से खुद में मिलाने का अधिकार चीन के पास है. यही कारण है कि चौतरफा घिरे ताइवानियों को आश्वस्त करने वाले ट्रंप प्रशासन के नए बोल इससे बेहतर समय पर शायद ही आ सकते थे.

चीन ने विशेष रूप से मांग की थी कि वाशिंगटन ताइपे पर अपना रवैया बदले और यह याद दिलाया था कि अमेरिका स्वतंत्रता का समर्थन करने के बजाय ‘ताइवान की आज़ादी का विरोध’ करता है.

विदेश विभाग ने मुख्य भूमि को लेकर अपने तथ्यों को भी अपडेट किया है और चीन को औपचारिक रूप से ‘पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना’ के बजाय केवल ‘मुख्य भूमि’ कहा है. नए वेबपेज में बीजिंग के संबंध में वाशिंगटन की प्राथमिकताएं भी बताई गई हैं और लिखा गया है कि चीन के साथ अमेरिका अपने संबंधों को ‘जैसे को तैसा और निष्पक्षता के सिद्धांतों’ के अनुरूप आगे बढ़ाएगा. अमेरिकी सरकार के खिलाफ चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) की ‘दुर्भावनापूर्ण साइबर गतिविधि’ का सख़्ती से मुकाबला करने की बात भी कही गई है. चीन और वहां की कम्युनिस्ट पार्टी के बीच यह अंतर ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान शुरू हुआ था. उस वक्त के विदेश मंत्री माइकल पोम्पिओ ने जुलाई 2020 में रिचर्ड निक्सन प्रेसिडेंशियल लाइब्रेरी में अपने भाषण के दौरान बार-बार ‘कम्युनिस्ट चीन’ शब्द का इस्तेमाल किया था. इसने यह साफ़ कर दिया कि अमेरिकी कार्रवाई के निशाने पर चीन की सत्ता है, न कि उसके आम लोग. दिलचस्प बात है कि अमेरिकी प्रतिष्ठान ने 1930 के दशक में नाज़ी जर्मनी को लेकर भी ऐसा ही अंतर किया था.

निष्कर्ष

संक्षेप में कहें, तो 2023 के सैन फ्रांसिस्को शिखर सम्मेलन के दौरान, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने तब के अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के सामने ताइवान पर वाशिंगटन के रुख़ का मुद्दा उठाया था. चीन ने विशेष रूप से मांग की थी कि वाशिंगटन ताइपे पर अपना रवैया बदले और यह याद दिलाया था कि अमेरिका स्वतंत्रता का समर्थन करने के बजाय ‘ताइवान की आज़ादी का विरोध’ करता है. हालांकि, बाइडन प्रशासन इस मुद्दे पर नहीं झुका और अब ट्रंप प्रशासन ने ताइवान की ‘आज़ादी’ का समर्थन न करने वाला वाक्य बदल दिया है. इतना ही नहीं, म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन के दौरान अलग से अमेरिका, जापान और कोरिया ने मिलकर यह घोषणा भी की कि ताइवान जलडमरूमध्य में शांति और स्थिरता बनाए रखने पर जोर दिया जाएगा, क्योंकि यह अंतरराष्ट्रीय समुदाय की सुरक्षा और समृद्धि का एक अनिवार्य हिस्सा है. ऐसे में, सवाल यही है कि ताइवान और चीन को लेकर अमेरिकी विदेश विभाग की वेबसाइट पर शब्दों में किए गए फेरबदल का क्या अर्थ निकाला जाए- क्या वाशिंगटन इसका फ़ायदा बीजिंग के साथ बातचीत में उठाना चाहता है या फिर इसे यूक्रेन मुद्दे को छोड़ने के साथ जोड़कर देखा जाए और ट्रंप का अब एशिया की ओर झुकाव का संकेत माना जाए?


(कल्पित ए मनकीकर ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में स्ट्रैटिजिक स्टडीज प्रोग्राम के फेलो हैं)

 

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Author

Kalpit A Mankikar

Kalpit A Mankikar

Kalpit A Mankikar is a Fellow with Strategic Studies programme and is based out of ORFs Delhi centre. His research focusses on China specifically looking ...

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