Author : Abhishek Sharma

Expert Speak Raisina Debates
Published on Feb 07, 2025 Updated 0 Hours ago

अपने दूसरे कार्यकाल में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की अमेरिका फर्स्ट नीति और ट्रंप प्रशासन के उत्तर कोरिया के साथ कूटनीतिक जुड़ाव की रणनीति से अमेरिका के पूर्वोत्तर एशिया के सहयोगी राष्ट्रों के अलग-थलग पड़ने की आशंका है.

ट्रंप की सत्ता वापसी और अमेरिका-दक्षिण कोरिया-जापान गठबंधन का भविष्य

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डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका का 47वां राष्ट्रपति बनने के बाद से अमेरिका के सहयोगी राष्ट्र खासे फिक्रमंद हैं. अमेरिका के इन सहयोगी देशों को सबसे अधिक चिंता ट्रंप के उस एजेंडे की वापसी से है, जिसमें अमेरिका फर्स्ट की बात कही गई है. इन देशों को लगता है कि ट्रंप के इस एजेंडे में सबसे अधिक प्रमुखता अमेरिका के अपने सुरक्षा हितों को सर्वोपरि रखने को दी गई है और इसमें कहीं न कहीं सहयोगियों की सुरक्षा चिंताओं को दरकिनार किया गया है. ऐसे में जहां अमेरिका के यूरोपीय सहयोगी देशों को लगता है कि आने वाले दिनों में यूक्रेन-रूस युद्ध और उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के भविष्य पर ट्रंप के इसी नज़रिए का प्रभाव देखने को मिलेगा, वहीं अमेरिका के पूर्वोत्तर एशियाई सहयोगी देशों को लगता है कि भविष्य में ट्रंप के इन विचारों और नीतियों का असर त्रिपक्षीय सुरक्षा सहयोग (TSC) पर पड़ेगा. दक्षिण कोरिया और जापान जैसे राष्ट्रों में अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रंप की वापसी से भय और चिंता का माहौल है. इन देशों को लगता है कि ट्रंप की अगुवाई में अमेरिकी विदेश नीति फिर से ऐसी हो सकती है, जिसमें एक हाथ दो और दूसरे हाथ लो वाली रणनीति पर अमल किया जाएगा. यानी यह एक ऐसी रणनीति होगी में, जिसमें अगर सहयोगी देशों की सुरक्षा या दूसरी कोई मदद की भी जाएगी, तो दूसरी तरफ उन पर दबाव भी बनाया जाएगा. हालांकि, यह भी एक सच्चाई है कि आज ट्रंप के पिछले कार्यकाल जैसी वैश्विक परिस्थितियां मौजूद नहीं हैं. वर्तमान में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में भू-राजनीतिक उठापटक चल रही है. ज़ाहिर तौर पर ऐसे में तमाम रणनीतिक, राजनीतिक और आर्थिक चुनौतियों सामने खड़ी हुई हैं. यानी मौजूदा वक्त में वैश्विक स्तर पर हालात बहुत पेचीदा हैं और ट्रंप को अपने दूसरे कार्यकाल में अपने हिसाब से चीज़ों को ढालना इतना आसान भी नहीं होगा.

 वर्तमान में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में भू-राजनीतिक उठापटक चल रही है. ज़ाहिर तौर पर ऐसे में तमाम रणनीतिक, राजनीतिक और आर्थिक चुनौतियों सामने खड़ी हुई हैं.

त्रिपक्षीय सुरक्षा सहयोग कैसे आगे बढ़ा

अगर अमेरिका, दक्षिण कोरिया और जापान के त्रिपक्षीय सुरक्षा सहयोग की बात की जाए, तो पिछले चार वर्षों में बाइडेन प्रशासन के दौरान इसमें उल्लेखनीय प्रगति हुई है. गौरतलब है कि 1994 में बिल क्लिंटन के अमेरिकी राष्ट्रपति रहते हुए इस त्रिपक्षीय सुरक्षा सहयोग से संबंधित सहमति प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए गए थे और उसी के आधार पर इसे आगे बढ़ाया गया. वर्ष 2003 तक अस्तित्व में रहे ट्राई लेटरल कोऑर्डिनेशन ओवरसाइट ग्रुप यानी त्रिपक्षीय समन्वय निरीक्षण समूह (TCOG) के ज़रिए अमेरिका ने इस बात को बखूबी समझा कि उत्तर कोरिया के परमाणु मसले का समाधान निकालने के लिए पूर्वोत्तर एशिया के सहयोगी देशों के साथ नीतिगत स्तर पर गठजोड़ और समन्वय कितना आवश्यक है. हालांकि, जब जॉर्ज बुश ने राष्ट्रपति के रूप में अमेरिका की बागडोर संभाली, तो उन्होंने इस मुद्दे का समाधान निकालने के लिए बहुपक्षीय प्रक्रियाओं को तवज्जो दी, क्योंकि वे इसको लेकर द्विपक्षीय और त्रिपक्षीय सहयोग (TCOG) के नतीज़ों से संतुष्ट नहीं थे. उन्होंने इस मुद्दे पर थ्री-पार्टी और सिक्स-पार्टी यानी तीन-पक्षीय और छह-पक्षीय बातचीतों में मध्यस्थता के लिए बीजिंग को शामिल किया. इस तरह की वार्ताएं वर्ष 2007 तक चलीं, लेकिन इनका कोई मुकम्मल नतीज़ा नहीं निकल पाया.

 

बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने पर अमेरिका ने अपने एशिया-प्रशांत के सहयोगी राष्ट्रों के साथ अपने संबंधों को मज़बूत करने के लिए पुनर्संतुलन रणनीत को अपनाया और ऐसा करके ओबामा ने त्रिपक्षीय सुरक्षा सहयोग को एक हिसाब से फिर जीवित किया. इस टीएससी में टोक्यो और सियोल के साथ त्रिपक्षीय जुड़ाव शामिल था. इतना ही नहीं, जो बाइडेन ने अपने कार्यकाल के दौरान डिप्लोमेसी-फर्स्ट यानी कूटनीति को प्राथमिकता देने वाली रणनीति को अपनाकर और लैटिस-फेंस स्ट्रक्चर फ्रेमवर्क यानी पारस्परिक संबंधों को अलग-अलग सेक्टरों तक फैलाने और उन्हें मज़बूती के साथ आगे बढ़ाने वाली नीति को अपनाकर टीएससी की संभावनाओं और ताक़त को सशक्त करने का काम किया. इसके अलावा बाइडेन प्रशासन ने त्रिपक्षीय सुरक्षा सहयोग को सिर्फ उत्तर कोरिया तक ही सीमित नहीं रखा और देखा जाए तो इसका संस्थागतकरण केवल उत्तर कोरिया के इर्द-गिर्द नहीं किया, बल्कि टीएससी के फोकस को अधिक व्यापक बनाया और इस प्रकार से कहीं न कहीं दो महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की. ज़ाहिर है कि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अपने कार्यकाल की समाप्ति तक हिंद-प्रशांत क्षेत्र में मिनीलेटरल यानी पारस्परिक तौर पर जुड़े हुए छोटे-छोटे सहयोगों का ऐसा ताना-बाना बुना, उनका विस्तार किया और सशक्त किया जो बेहद महत्वपूर्ण हैं. बाइडेन प्रशासन द्वारा जिन मिनीलेटरल को मज़बूत किया गया, उनमें क्वाड (द क्वाड्रीलेटरल सिक्योरिटी डायलॉग यानी ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान और अमेरिका का एक समूह), TSP, स्क्वाड (अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और फिलीपींस), IPEF (इंडो-पैसिफिक इकोनॉमिक फ्रेमवर्क फॉर प्रोस्पेरिटी) और AUKUS (ऑस्ट्रेलिया, यूनाइटेड किंगडम और अमेरिका) शामिल हैं. यह छोटे-छोटे सहयोगी गठजोड़ कहीं न कहीं क्षेत्रीय स्तर पर बदले हालातों में अमेरिका की सशक्त भागीदारी सुनिश्चित करते हैं. बाइडेन के कार्यकाल के दौरान सहयोगी देशों की सुरक्षा और आर्थिक हितों को ध्यान में रखते हुए अमेरिका की विदेश नीति में ये सारे बदलाव किए गए थे.

 बाइडेन प्रशासन द्वारा जिन मिनीलेटरल को मज़बूत किया गया, उनमें क्वाड , TSP, स्क्वाड, IPEF और AUKUS शामिल हैं.

जहां तक राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बात है, तो बाइडेन की तरह उन्हें मल्टीलेटरल व्यवस्था के अंतर्गत काम करना रास नहीं आता है. ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान देखा गया था कि उनके लिए अमेरिकी हितों की रक्षा सबसे ऊपर है और इस बार भी उन्होंने अमेरिका फर्स्ट को सर्वोपरि रखा है. ट्रंप का मानना है कि इसे बहुपक्षवाद से हासिल नहीं किया जा सकता है, बल्कि इसके लिए देशों के साथ द्विपक्षीय रिश्ते बनाना ज़रूरी हैं और इसके ज़रिए ही अमेरिकी हितों का बेहतर तरीक़े से संरक्षण किया जा सकता है. ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान अमेरिका के सहयोगी देशों दक्षिण कोरिया और जापान के लिए उनका यह दृष्टिकोण कारगर नहीं रहा था. इसी को देखते हुए बाइडेन ने अपने कार्यकाल के दौरान दक्षिण कोरिया एवं जापान के साथ अपने त्रिपक्षीय सुरक्षा सहयोग के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की और इस पर तीनों देशों में होने वाली राजनीतिक ऊंच-नीच का असर नहीं पड़ने दिया. यानी अमेरिका, दक्षिण कोरिया और जापान का टीएससी मज़बूत है और संस्थागत भी है, बावज़ूद इसके ट्रंप के दृष्टिकोण और उनकी फितरत की वजह से इस त्रिपक्षीय सुरक्षा सहयोग का भविष्य अनिश्चित बना हुआ है.

 

ट्रंप, ट्राइलेटरल और उत्तर कोरिया को लेकर अमेरिकी नीति

अमेरिका, जापान और दक्षिण कोरिया के त्रिपक्षीय सुरक्षा सहयोग की सफलता में पिछले एक दशक में तीन प्रमुख चीज़ों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है. पहली है अमेरिकी नेतृत्व की प्रकृति, दूसरी है दक्षिण कोरिया-जापान संबंधों की स्थिति और तीसरी है उत्तर कोरिया को ख़तरा मानने वाला अमेरिकी नज़रिया. इन तीनों बातों में से देखा जाए तो पहली दो चीज़ों में बदलाव से इस त्रिपक्षीय सुरक्षा सहयोग का भविष्य निर्धारित होता आया है. जहां तक तीसरे कारण की बात है, यह अमेरिका में राष्ट्रपति के ऊपर निर्भर करता आया है और राष्ट्रपति बदलने के साथ बदलता रहा है, जैसा कि ट्रंप के मामले में भी देखा जा रहा है. ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद समीकरण बदल चुका है, क्योंकि उत्तर कोरिया को लेकर अमेरिकी नज़रिया बदल चुका है, इस वजह से इस टीएससी का यह तीसरा कारक फिर से चर्चा के केंद्र में आ गया है.

 

यही वजह है कि ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में इस त्रिपक्षीय सुरक्षा सहयोग के भविष्य को लेकर अनिश्चितता बनी हुई हैं, क्योंकि ट्रंप की अगुवाई में उत्तर कोरिया के साथ अमेरिका के रिश्तों में सुधार की पूरी संभावना है. ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या अमेरिका एक महत्वपूर्ण भागीदार होने के नाते इस त्रिपक्षीय सहयोग का विश्वास जीत पाएगा. यह अलग बात है कि अपने पहले कार्यकाल के दौरान उत्तर कोरिया को अपने पाले में लाने में ट्रंप को ज़्यादा कामयाबी नहीं मिली थी. लेकिन यह सच्चाई है कि वर्तमान में अमेरिका अगर फिर ऐसा करता है, तो टीएससी की सफलता खटाई में पड़ सकती है और इसका सीधा असर सहयोगी राष्ट्र दक्षिण कोरिया की राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी पड़ेगा. यही वजह है कि टीएससी के भविष्य के लिए ट्रंप की अगुवाई में अमेरिकी नेतृत्व की भूमिका एक महत्वपूर्ण मुद्दा बनकर उभरी है. इस सब बातों को देखते हुए, अमेरिका की सत्ता में ट्रंप की वापसी के साथ ही उत्तर कोरिया को लेकर अमेरिकी नीति चर्चा में आ गई है. अमेरिका के सहयोगी देशों के लिए तो विशेष रूप से यह एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरी है.

 ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में इस त्रिपक्षीय सुरक्षा सहयोग के भविष्य को लेकर अनिश्चितता बनी हुई हैं, क्योंकि ट्रंप की अगुवाई में उत्तर कोरिया के साथ अमेरिका के रिश्तों में सुधार की पूरी संभावना है. ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या अमेरिका एक महत्वपूर्ण भागीदार होने के नाते इस त्रिपक्षीय सहयोग का विश्वास जीत पाएगा.

मीडिया रिपोर्ट्स और ट्रंप की ओर से दिए गए भाषणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि राष्ट्रपति ट्रंप अपने दूसरे कार्यकाल में समिट डिप्लोमेसी को दोबारा शुरू करेंगे. इतना ही नहीं, ट्रंप उत्तर कोरिया को परमाणु हथियार संपन्न देश के रूप में मान्यता देने पर भी विचार कर रहे हैं. ज़ाहिर है कि यह अमेरिका की लंबे वक़्त से चली आ रही विदेश नीति के ठीक विपरीत है. वर्ष 2024 के रिपब्लिकन नेशनल कन्वेंशन में अपने भाषण के दौरान ट्रंप ने किम जोंग उन के साथ अपने प्रगाढ़ रिश्तों के बारे में गर्व के साथ बताया था. उन्होंने कहा था कि "उत्तर कोरिया द्वारा किए जा रहे मिसाइल परीक्षणों और मिसाइल हमलों को हमने रोक दिया है. अब, उत्तर कोरिया फिर से यह सब कर रहा है. लेकिन जब हम अमेरिकी सत्ता में वापस आएंगे, तो मैं किम जोंग उन साथ अच्छे रिश्ते बनाकर रहूंगा." ट्रंप के इस भाषण से साफ हो जाता है कि राष्ट्रपति बनते ही वे किम के साथ फिर से बातचीत करेंगे और अपनी तरफ से इसके लिए क़दम बढ़ाएंगे. ट्रंप ने दोबारा राष्ट्रपति बनने के बाद जिस प्रकार से उत्तर कोरिया को "परमाणु शक्ति" बताया है और उत्तर कोरिया के साथ राजनयिक संबंधों को फिर से शुरू करने की अपनी इच्छा ज़ाहिर की है, इससे स्पष्ट हो जाता है कि राष्ट्रपति बनने से पहले उन्होंने उत्तर कोरिया के बारे में जो बातें कहीं हैं, उन पर तेज़ी से अमल कर रहे हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति के इन बयानों के विरोध में दक्षिण कोरिया ने कड़ी प्रतिक्रिया जताई है.

 

अमेरिका में सिर्फ़ ट्रंप ही नहीं हैं, जो उत्तर कोरिया के पक्ष में बयानबाज़ी कर रहे हैं, बल्कि उनकी सरकार में शामिल कई वरिष्ठ मंत्री भी उन्हीं की भाषा बोल रहे हैं और उत्तर कोरिया की तरफदारी करते दिखाई दे रहे हैं. अमेरिकी सीनेट में कन्फर्मेशन हियरिंग के दौरान ट्रंप सरकार में विदेश मंत्री मार्को रूबियो ने उत्तर कोरिया को लेकर अमेरिका की वर्तमान नीति में बदलाव का प्रस्ताव रखा. उन्होंने अपने प्रस्ताव में कहा, "मुझे लगता है कि व्यापक उत्तर कोरियाई नीतियों पर बहुत गंभीरता से विचार किए जाने की ज़रूरत है." उत्तर कोरिया को लेकर मार्को रूबियो का ताज़ा रुख न सिर्फ़ इस मुद्दे पर छह साल पहले के उनके नज़रिए में परिवर्तन को दिखाता है, उत्तर कोरिया को परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र के रूप में मान्यता नहीं देने के अमेरिका के एक दशक पुराने रुख में बदलाव को भी प्रदर्शित करता है. इसी प्रकार से ट्रंप सरकार में अमेरिकी रक्षा मंत्री पीट हेगसेथ ने भी उत्तर कोरिया को "परमाणु ताक़त" बताया है. उनका यह वक्तव्य उत्तर कोरिया को लेकर अमेरिका की नीति में होने वाले बदलाव को दिखाता है. इसके अलावा, जिस प्रकार से अमेरिका सरकार ने रिचर्ड ग्रेनेल (विशेष मिशन के लिए ट्रंप के राष्ट्रपति के दूत), एलेक्स वोंग (उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार) और एल्ब्रिज कोल्बी (रक्षा नीति के लिए उपमंत्री) को नियुक्त किया है, उससे इस बात के स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि अमेरिका आने वाले दिनों में उत्तर कोरिया के साथ कूटनीति संबंधों को बहाल करना चाहता है. साथ ही इससे यह भी पता चलता है कि ट्रंप प्रशासन की अमेरिका-दक्षिण कोरिया संबंधों में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं है और वो कहीं न कहीं त्रिपक्षीय सुरक्षा सहयोग से भी अलग होने का इरादा रखता है.

 

उत्तर कोरिया को लेकर अमेरिका के इस नीतिगत परिवर्तन से इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि किन जोंग उन के साथ रिश्ते अच्छे हो जाएंगे और सब कुछ ट्रंप प्रशासन की रणनीति के अनुसार होगा. लेकिन इससे एक बात तय है कि उत्तर कोरिया को लेकर अमेरिका की नीति में इस बदलाव से सहयोगी राष्ट्रों की चिंताएं बढ़ गई हैं, क्योंकि अगर ऐसा होता है, तो इन देशों की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गंभीर ख़तरा पैदा हो सकता है. गौरतलब है कि ये हालात न तो सहयोगी राष्ट्रों के साथ द्विपक्षीय रिश्तों के लिहाज़ से अच्छे हैं और न ही त्रिपक्षीय सुरक्षा सहयोग के लिहाज़ से अच्छे हैं. इतना ही नहीं, अमेरिका और सहयोगी राष्ट्रों के बीच व्यापार असंतुलन, रक्षा बजट और स्टेटस फोर्सेज एग्रीमेंट पर द्विपक्षीय असहमति पारस्परिक सहयोग एवं गठजोड़ की गुंजाइश को और पेचीदा बना देती है. इस सबके अलावा, जिस तरह से ट्रंप प्रशासन का चीन विरोधी एजेंडा है, उससे भी इस त्रिपक्षीय सुरक्षा सहयोग के देशों यानी दक्षिण कोरिया और जापान के सामने असहज स्थित पैदा होगी और यह विवाद की भी वजह बनेगी. ऐसा इसलिए है, क्योंकि इस बार सियोल और टोक्यो चीन के मुद्दे पर अमेरिका के पिछलग्गू नहीं बनेंगे, यानी अमेरिका के कहने पर चीन के साथ अपने हितों से समझौता करने से पहले सौ बार सोचेंगे.

 

राष्ट्रपति ट्रंप के कार्यकाल में त्रिपक्षीय सुरक्षा सहयोग का भविष्य क्या है?

राष्ट्रपति ट्रंप के सत्ता संभालने के बाद पहली बड़ी बैठक क्वाड देशों के विदेश मंत्रियों की मीटिंग थी. इससे इस बात का साफ संकेत मिलता है कि ट्रंप प्रशासन अमेरिका के इंडो-पैसिफिक सहयोगी देशों और साझेदारों के साथ काम करने को लेकर प्रतिबद्ध है और पूर्ववर्ती बाइडेन प्रशासन द्वारा बनाए गए रास्ते पर आगे चलना चाहता है. लेकिन अभी इसको लेकर अनिश्चितता का माहौल बना हुआ है कि इस दिशा में ट्रंप प्रशासन किस प्रकार आगे बढ़ेगा और क्या रणनीति अपनाएगा. कुछ इसी तरह की अनिश्चितता का माहौल जापान और दक्षिण कोरिया के साथ त्रिपक्षीय सुरक्षा सहयोग को लेकर भी बना हुआ है. ज़ाहिर है कि जिस प्रकार से दक्षिण कोरिया में राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण है, जापान का चीन को लेकर रुख नरम बना हुआ है और सबसे बड़ी बात ट्रंप का अमेरिका फर्स्ट का एजेंडा है, ये कुछ ऐसी चुनौतियां हैं, जो इन तीनों देशों के बीच त्रिपक्षीय सुरक्षा सहयोग की कार्यप्रणाली को कहीं न कहीं और ज़्यादा उलझा देंगी.

 

इतना ही नहीं, कई और मामलों में राष्ट्रपति ट्रंप का नज़रिया अपने पूर्ववर्ती जो बाइडेन एकदम जुदा है. बाइडेन ने अमेरिका के पूर्वोत्तर एशिया के सहयोगी देशों की सुरक्षा चिंताओं को दूर करने के लिए काफ़ी कुछ किया था. जैसे कि बाइडेन प्रशासन ने मल्टीलेटरल सैंक्शन मॉनिटरिंग टीम यानी बहुपक्षीय प्रतिबंध निगरानी दल के ज़रिए बहुपक्षीय कोशिश की. उत्तर कोरियाई प्रतिबंधों की निगरानी के लिए बनाए गए बहुपक्षीय प्रतिबंध निगरानी दल में 11 सदस्य थे. इसके अलावा बाइडेन ने त्रिपक्षीय सुरक्षा सहयोग को भी संस्थागत रूप प्रदान किया था. बाइडेन प्रशासन की इन दोनों पहलों का उद्देश्य उत्तर कोरिया के विरुद्ध प्रतिरोध को एकजुट व सशक्त करना था. भविष्य में अमेरिका की इन पहलों का अंज़ाम क्या होगा, ये आगे बढ़ेंगी या फिर दम तोड़ देंगी, यह इस पर निर्भर करता है कि राष्ट्रपति ट्रंप का प्रशासन उत्तर कोरिया को लेकर क्या नीति अपनाता है, ज़ाहिर है कि इसमें बदलाव की उम्मीद है. उत्तर कोरिया को लेकर ट्रंप प्रशासन की नीति के बारे में अनिश्चितता के बावजूद, सियोल और टोक्यो दो बातों पर पैनी नज़र रखेंगे. पहली यह कि क्या राष्ट्रपति ट्रंप आधिकारिक तौर पर उत्तर कोरिया को परमाणु हथियार संपन्न देश के रूप में मान्यता देंगे या नहीं और दूसरी यह कि क्या ट्रंप अपने पूर्वोत्तर एशियाई सहयोगियों के सुरक्षा हितों को तवज्जो देना जारी रखेंगे या नहीं. 

 

राष्ट्रपति ट्रंप के पहले कार्यकाल की बात की जाए, तो उन्होंने इन दोनों ही मुद्दों पर सिर्फ़ अपनी मनमानी की थी और सहयोगियों के हितों को दरकिनार करते हुए अमेरिका के हितों को सबसे ऊपर रखा था. लेकिन ट्रंप का दूसरा कार्यकाल पहले से कहीं अलग होगा. इसकी वजह यह है कि इस बार वैश्विक स्तर पर भू-राजनीतिक परिस्थितियां भिन्न हैं और अमेरिका के सहयोगियों का काफ़ी कुछ दांव पर लगा हुआ है. इतना ही नहीं, वर्तमान में रूस और उत्तर कोरिया पहले की तुलना में कहीं ज़्यादा नज़दीक हैं और दोनों देशों के बीच कहीं न कहीं एक मज़बूत अनौपचारिक गठजोड़ है. ऐसे में प्योंगयांग आज ट्रंप के साथ अपनी शर्तों पर बातचीत करने के लिहाज़ से ज़्यादा मज़बूत स्थिति में है. इसके अलावा, जिस प्रकार ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में प्रतिबंधों के ज़रिए रूस और चीन पर दबाव बनाया था, अब ये देश उनकी मनमानी के सामने दबने को तैयार नहीं दिख रहे हैं. इससे भी किम जोंग उन को राहत है और वो खुद को अमेरिका से तालमेल की स्थिति में पाते है. कहने का मतलब है कि मौज़ूदा हालातों में किम और ट्रंप के बीच कोई संभावित समझौता परवान चढ़ेगा, इसकी गुंजाइश बहुत कम दिखाई दे रही है. इन वास्तविकताओं के बावज़ूद अगर राष्ट्रपति ट्रंप प्योंगयांग के साथ अपने राजनयिक संबंधों को बढ़ाने की कोशिश बनाए रखते हैं, तो निसंदेह तौर पर यह बेहद ख़तरों से भरा क़दम होगा. इतना ही नहीं, अगर फिर भी ट्रंप अपने इरादों को अमली जामा पहनाते हैं, तो उन्हें चीन-अमेरिका के बीच मची होड़ में अपने विश्वसनीय सहयोगी देशों के समर्थन से हाथ धोना पड़ सकता है. ज़ाहिर है कि वर्तमान हालातों में यह काफ़ी जोख़िम भरा होगा और अमेरिका के लिए अपने सहयोगियों को खोना बहुत ग़लत फैसला होगा.

 अगर फिर भी ट्रंप अपने इरादों को अमली जामा पहनाते हैं, तो उन्हें चीन-अमेरिका के बीच मची होड़ में अपने विश्वसनीय सहयोगी देशों के समर्थन से हाथ धोना पड़ सकता है. ज़ाहिर है कि वर्तमान हालातों में यह काफ़ी जोख़िम भरा होगा और अमेरिका के लिए अपने सहयोगियों को खोना बहुत ग़लत फैसला होगा.

ऐसे में यह ज़रूरी है कि राष्ट्रपति ट्रंप और उनके प्रशासन को उत्तर कोरिया को लेकर अपनी नीति को फिर से लागू करने से पहले, ज़ल्द से ज़ल्द से यह सुनिश्चित करना होगा कि उसे एक ऐसी राजनीतिक क़वायद को आगे बढ़ाने में माथापच्ची करनी चाहिए, जिसका विफल होना और बेनतीज़ा साबित होना तय है, या फिर अपने सहयोगी राष्ट्रों को साथ लेकर क्षेत्रीय सुरक्षा मुश्किलों का समाधान करने के लिए उनके साथ विश्वास की डोर को मज़बूत करने का प्रयास करना चाहिए. ज़ाहिर है कि ट्रंप प्रशासन का इसके बारे में समय रहते किया गया उचित फैसला न केवल त्रिपक्षीय सुरक्षा सहयोग के भविष्य के लिए, बल्कि पूर्वोत्तर एशिया में अमेरिका के गठजोड़ और सहभागिता के लिए भी बेहद अहम होगा.


अभिषेक शर्मा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्डजीज़ प्रोग्राम में रिसर्च असिस्टेंट हैं.

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Abhishek Sharma

Abhishek Sharma

Abhishek Sharma is a Research Assistant with ORF’s Strategic Studies Programme. His research focuses on the Indo-Pacific regional security and geopolitical developments with a special ...

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