Author : Sameer Patil

Expert Speak Raisina Debates
Published on Nov 26, 2024 Updated 1 Days ago

ट्रंप के नए कार्यकाल में तकनीकी नीतियां नियमन कम करने और आविष्कार कम करने पर ज़ोर देने वाली होगी, ताकि अमेरिका के तकनीकी उद्योग को चीन से मुक़ाबला करने के लिए ताक़तवर बनाया जा सके.

ट्रंप 2.0: दूसरे कार्यकाल में कैसी होगी तकनीकी नीतियां?

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ये लेख "#Trump 2.0, "एजेंडे की बहाली: ट्रंप की वापसी और दुनिया पर इसका असर" सीरीज़ का हिस्सा है. 


चुनाव जीतने के बाद ट्रंप की व्हाइट हाउस में वापसी से अमेरिका के तकनीकी मंज़र और इससे जुड़ी नीतियों में बहुत बड़ा बदलाव आने जा रहा है. इस बदलाव के पीछे अमेरिका के तकनीकी उद्योग को लेकर ट्रंप का रवैया, सिलिकॉन वैली के अधिकारियों के साथ उनके रिश्ते और चीन के साथ अमेरिका की तकनीकी प्रतिद्वंदिता का बहुत बड़ा योगदान होगा. अमेरिका के तकनीकी उद्योग के साथ ट्रंप के रिश्ते बहुत उठा-पटक भरे रहे हैं. ट्रंप ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर इल्ज़ाम लगाया था कि वो उनके मैसेज को सेंसर करने के मामले में पूर्वाग्रह के शिकार हैं. इसके बाद ट्रंप ने बड़ी तकनीकी कंपनियों के ख़िलाफ़ एकाधिकारवादी नीतियों की जांच शुरू करा दी थी. हालांकि इस बार हालात अलग दिख रहे हैं. इस बार चुनाव जीतने के बाद ट्रंप नियम क़ायदों में ढील देने पर ज़ोर दे रहे हैं. वहीं, ‘एक्स’ (ट्विटर) के मालिक अरबपति एलन मस्क के साथ उनके अभूतपूर्व रिश्ते हैं.

 अमेरिका की तकनीकी नीतियां बनाने में इन बातों की भी अहम भूमिका होगी. उनकी तकनीकी नीतियां मोटे तौर पर ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ के नारे के अनुरूप ही रहने वाली हैं.

चीन को लेकर ट्रंप का आक्रामक रवैया रहा है. वो राष्ट्रीय सुरक्षा पर ज़ोर देने और चीन से दूरी बनाने की बातें करते रहे हैं. अमेरिका की तकनीकी नीतियां बनाने में इन बातों की भी अहम भूमिका होगी. उनकी तकनीकी नीतियां मोटे तौर पर ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ के नारे के अनुरूप ही रहने वाली हैं. चीन की दूरसंचार कंपनियों पर अमेरिका ने 2019 में उस वक़्त शिकंजा कसना शुरू किया था, जब ट्रंप राष्ट्रपति थे. उस समय अमेरिका की दूरसंचार कंपनियों के चीन के टेलीकॉम उपकरण इस्तेमाल करने पर रोक लगा दी गई थी. इस बार भी ट्रंप का ऐसा ही कड़ा रवैया जारी रहने और इसमें तेज़ी आने की उम्मीद है. दोनों को मिला लें, तो ये आयाम न केवल अमेरिका के तकनीकी इकोसिस्टम को नए सिरे से ढालने का काम करेंगे, बल्कि, वैश्विक तकनीकी मंज़र में भी ख़लल पैदा करेंगे.

 

क्या होगा अमेरिका के तकनीकी उद्योग पर असर?

 

राष्ट्रपति चुनाव के लिए अपने प्रचार अभियान के दौरान ट्रंप अक्सर सरकार की ज़रूरत से ज़्यादा दख़लंदाज़ी की बातें करते थे. उनका संकेत संघीय एजेंसियों और उनके नियम क़ायदों की तरफ़ होता था. दोबारा राष्ट्रपति चुने जाने पर ट्रंप ने अमेरिका के इतिहास में ‘नियमों में ढील देने का सबसे आक्रामक अभियान चलाने’ का वादा किया है. ऐसा करके ट्रंप, अपने पूर्ववर्ती जो बाइडेन से अलग दिखना चाहते हैं. क्योंकि बाइडेन ने अपनी तकनीकी और आर्थिक नीतियों की धुरी विनियमन को ही बनाया था (ये बात गूगल और एपल के ख़िलाफ़ एकाधिकार निरोधक जांचों से जाहिर होती है). इसी तरह, बाइडेन के कार्यकाल में संघीय व्यापार आयोग (FTC) ने तकनीकी कंपनियों के दबदबे पर बार-बार क़ाबू पाने की कोशिश की और इसके लिए बड़ी कंपनियों के विलय और अधिग्रहण में बाधाएं डालीं, जिससे बड़ी तकनीकी कंपनियां बहुत नाख़ुश रही थीं.

 भले ही ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान कुछ बड़ी तकनीकी कंपनियों के ख़िलाफ़ एंटी-ट्रस्ट की जांच शुरू कराई थी. लेकिन, इस बार अपने दूसरे कार्यकाल में ट्रंप को इस मामले में कुछ बदलाव लाने होंगे. 

बाइडेन प्रशासन ने आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के मामले में अधिक निगरानी और जवाबदेही तय करने वाले क़दम भी लागू किए. ख़ास तौर से अक्टूबर 2023 में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस को लेकर राष्ट्रपति के आदेश (EO) के ज़रिए AI के बड़े सिस्टम डेवेलपर्स के लिए सुरक्षा के परीक्षण की ज़रूरतों को अनिवार्य बना दिया गया था, ताकि यूज़र्स को एल्गोरिद्म के पूर्वाग्रह और कारोबारी आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस व्यवस्थाओं से होने वाले दूसरे नुक़सानों से बचाया जा सके. रिपब्लिकन पार्टी के नेताओं ने बाइडेन प्रशासन के इन क़दमों की ये कहते हुए आलोचना की थी कि इनसे आविष्कारों का गला घोंटा जा रहा है और कट्टर वामपंथी विचारों को थोपा जा रहा है. तकनीकी समुदाय के बहुत से लोगों की नज़र में भी बाइडेन प्रशासन के ये उपाय, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की संभावनाओं से ज़्यादा ख़तरों पर ज़ोर देने वाले हैं.

 

संभावना है कि ट्रंप इन मसलों पर काफ़ी बदलाव लाने वाले क़दम उठाएंगे. इसकी शुरुआत उनके प्रशासन द्वारा रिपब्लिकन पार्टी के नेताओं की आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस को लेकर बाइडेन के एक्जीक्यूटिव ऑर्डर को वापस लेकर इससे जुड़ी चिंताओं को दूर करने से हो सकती है. चिंता इस बात की भी है कि ऐसा बेलग़ाम तरीक़ा आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के ख़तरों से बचाव करने वाले कवच को भी कमज़ोर कर देगा. फिर भी, चीन से मुक़ाबला कर रहे तकनीकी उद्योग की तरफ़ से ट्रंप के क़दमों का व्यापक तौर पर स्वागत किया जाने की उम्मीद है.

 

ट्रंप का ध्यान सिर्फ़ आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से जुड़े विनियमन पर नहीं है. वो तकनीकी क्षेत्र से जुड़े नियम क़ायदों में व्यापक तौर पर रियायतें देने का इरादा रखते हैं, ताकि सरकार के बेवजह के ख़र्च पर क़ाबू पा सकें. विवेक रामास्वामी और एलन मस्क की अगुवाई में सरकारी कुशलता के विभाग की स्थापना इसी दिशा में उठाया गया क़दम है. हालांकि अभी इस विभाग की ज़िम्मेदारियों को लेकर तस्वीर पूरी तरह से साफ़ नहीं है.

 सिलिकॉन वैली का डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रति झुकाव अभी भी बना हुआ है. इसके बावजूद, बड़े तकनीकी कारोबारियों ने ट्रंप के साथ संपर्क साधने की कोशिश की है. एलन मस्क और ट्रंप के बीच तो अभूतपूर्व साझेदारी देखने को मिली ही थी.

हम शायद तकनीकी नीति के अन्य क्षेत्रों में ऐसे ही तौर तरीक़ों पर अमल होते देखें, इनमें एकाधिकारवादी नीतियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई भी शामिल होगी. भले ही ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान कुछ बड़ी तकनीकी कंपनियों के ख़िलाफ़ एंटी-ट्रस्ट की जांच शुरू कराई थी (जो बाइडेन प्रशासन के दौरान जारी रही और उसमें तेज़ी भी आ गई). लेकिन, इस बार अपने दूसरे कार्यकाल में ट्रंप को इस मामले में कुछ बदलाव लाने होंगे. उन्हें बाइडेन प्रशासन के बड़ी तकनीकी कंपनियों के प्रति सख़्ती वाले रवैये से अलग दिखने की कोशिशों के साथ साथ ये भी सुनिश्चित करना होगा कि बड़ी तकनीकी कंपनियां एकाधिकार न क़ायम कर सकें और उद्योग का दायरा सिमट न जाए (जो बात निर्वाचित उपराष्ट्रपति जेडी वैंस के रुख़ में नज़र आती है). ख़बरों के मुताबिक़ मैकेन डेलरहीम, जो ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान न्याय विभाग के एंटीट्रस्ट डिवीज़न की कमान संभाल रहे थे, वो अब संघीय व्यापार आयोग (FTC) की कमान पाने की कोशिश कर रहे हैं. अगर ऐसा होता है, तो भले ही उनका इतिहास विवादों वाला रहा हो. क्योंकि उन्होंने कुछ बड़ी कंपनियों के विलय में टांग अड़ाई थी और कुछ को हरी झंडी भी दे दी थी. मगर उनकी अगुवाई में ट्रंप प्रशासन तकनीकी उद्योग के प्रति थोड़ा नरम रवैया अपना सकता है.

 

सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म और सिलिकॉन वैली

 

सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म्स और सिलिकॉन वैली के अधिकारियों के साथ संबंध के मामले में भी ट्रंप ऐसे विचारों के साथ आगे बढ़ेंगे. हाल के वर्षों में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स और उनके अधिकारियों के साथ ट्रंप के रिश्तों में बदलाव आते देखे जा रहे हैं. पहले कार्यकाल के दौरान कई तकनीकी कंपनियों के अधिकारियों ने अप्रवासियों को लेकर ट्रंप की नीतियों की आलोचना की थी. इसी तरह ट्रंप भी सोशल मीडिया कंपनियों को डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थक के तौर पर देखते थे और उन्होंने आरोप लगाया था कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म रिपब्लिकन पार्टी के विचारों और रूढ़िवादी आवाज़ों का गला घोंटते हैं. 2024 में भी उनकी ये शिकायतें बनी हुई हैं. इसी साल की शुरुआत में ट्रंप ने फ़ेसबुक को ‘जनता का दुश्मन’ क़रार दिया था और कहा था कि चीन के सोशल मीडिया ऐप टिकटॉक पर पाबंदी लगाने से फ़ेसबुक और ताक़तवर हो जाएगा (हालांकि, 2020 में ख़ुद ट्रंप ने ही टिकटॉक पर पाबंदी लगाने की शुरुआत की थी).

 

यही नहीं, सिलिकॉन वैली का डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रति झुकाव अभी भी बना हुआ है. इसके बावजूद, बड़े तकनीकी कारोबारियों ने ट्रंप के साथ संपर्क साधने की कोशिश की है. एलन मस्क और ट्रंप के बीच तो अभूतपूर्व साझेदारी देखने को मिली ही थी. इसके अलावा भी कई तकनीकी कंपनियों के अधिकारियों ने खुलकर आने वाले प्रशासन के साथ नज़दीकी बढ़ाने के इरादे दिखाए थे. एलन मस्क ने तो ट्रंप के प्रचार अभियान में 11.8 करोड़ डॉलर का योगदान दिया. अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स’ को ट्रंप का सियासी लाउडस्पीकर बना दिया. दूसरे तकनीकी मालिक भी मस्क के नक़्श-ए-क़दम पर चलते दिखाई दिए. इनमें जेफ बेज़ोस (अमेज़न) और सुंदर पिचाई (गूगल) से लेकर मार्क ज़करबर्ग (मेटा) और टिम कुक (एपल) तक शामिल हैं. चूंकि इन सबको पता है कि ट्रंप लेन-देन में यक़ीन रखते हैं. यानी इस हाथ ले और उस हाथ दे. इसीलिए इन तकनीकी कंपनियों ने अपने हितों की हिफ़ाज़त के लिए अपने रुख़ में बदलाव किए हैं. ट्रंप प्रशासन से नज़दीकी बढ़ाने के ये प्रयास ज़रूरी हैं. ख़ास तौर से एपल के लिए (ताकि ट्रंप ने चीन पर जो टैरिफ थोपने की धमकी दी है, उसके नुक़सान से ख़ुद को बचा सके) और गूगल के लिए भी (ताकि वो एंटीट्रस्ट उपायों से अपने कारोबार को हो रहे नुक़सान को कम कर सके).

 

चीन के साथ तकनीकी प्रतिद्वंदिता

 

अमेरिका से इतर ट्रंप, अमेरिका के तकनीकी इकोसिस्टम को चीन के ख़िलाफ़ एक अहम सुरक्षा कवच के तौर पर देखते हैं. उनकी नज़र में चीन, अमेरिका का सबसे बड़ा दुश्मन है. उभरती हुई तकनीकों के मामले में चीन की हालिया सफलताएं- अभी 44 क्रिटिकल टेक्नोलॉजी में से 37 में चीन आगे है- और डिजिटल सिल्क रोड पर चीन के ज़ोर देने की वजह से पूरी दुनिया में उसे ज़बरदस्त बढ़त हासिल हो रही है, और दुनिया में चीन एक समानांतर तकनीकी साम्राज्य खड़ा कर रहा है. अमेरिका और पूरे पश्चिमी जगत के लिए इसके भयावाह परिणाम हो सकते हैं.

 

ट्रंप इस बात का मज़बूत इरादा रखते हैं कि वो चीन को दंड़ देने और अमेरिकी उद्योगों को संरक्षण देने वाले उपाय लागू करेंगे. ट्रंप ने पहले ही चीन से अमेरिका के सभी तरह के निर्यातों पर 60 प्रतिशत व्यापार कर लगाने की धमकी दी है. उनसे ये उम्मीद भी है कि वो चीन की दूरसंचार कंपनियों पर अतिरिक्त पाबंदियां और उनके कारोबार को सीमित करने वाले उपाय लागू करके दबाव और बढ़ाएंगे और चीनी कंपनियों को नए बाज़ारों तक पहुंच बनाने से रोकेंगे. चीन के प्रति बेहद आक्रामक रवैया रखने वाले मार्को रूबियो को विदेश मंत्री के तौर पर चुनना ट्रंप के इसी नज़रिए से मेल खाता हुआ क़दम है.

 ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में ये अपेक्षा की जा सकती है कि वो भारत को तरज़ीह देते रहेंगे. चीन के साथ चल रहे तकनीकी मुक़ाबले में, ट्रंप उसके जवाब के तौर पर भारत की महत्ता की तारीफ़ करते रहे हैं और शायद वो भारत को लेकर और सहयोगात्मक रवैया अपनाएं.

हालांकि, चीन से मुक़ाबले के लिए अमेरिकी तकनीकी उद्योग की क्षमताएं बढ़ाने को लेकर ट्रंप की नीतियां क्या रहने वाली हैं, ये अभी स्पष्ट नहीं है. उम्मीद है कि ट्रंप क्रिटिकल तकनीकों (आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और क्वांटम तकनीक) के रिसर्च में निवेश बढ़ाएंगे, जो उन्होंने अपने पहले कार्यकाल में भी किया था. हालांकि, ट्रंप ने बाइडेन प्रशासन की बड़ी पहल चिप्स ऐंड साइंस एक्ट की भी आलोचना की थी. जबकि उसका मक़सद भी सेमीकंडक्टर की घरेलू आप्रित बढ़ाना और विदेशी आपूर्ति पर निर्भरता को घटाना था. इसी संदर्भ में ट्रंप ने अमेरिका के ‘चिप कारोबार’ की चोरी का आरोप लगाकर ताइवान पर भी तीखा हमला बोला था. इसी वजह से दूसरे कार्यकाल में ट्रंप की नीतियों को लेकर अनिश्चितता का माहौल है. हालांकि, कुछ लोगों को ये उम्मीद है कि वो चिप्स ऐंड साइंस एक्ट को रद्द नहीं करेंगे. 

 

भारत पर असर

 

अप्रवास के ख़िलाफ़ ट्रंप ने अपने प्रचार अभियान में बहुत आक्रामक रुख़ दिखाया था. ऐसे में माना ये जा रहा है कि वो H1-B वीज़ा को लेकर अमेरिकी नीति को सख़्त बनाएंगे. अमेरिका में काम कर रहे या करने की आकांक्षा रखने वाले भारत के तकनीकी पेशेवरों पर इसका नकारात्मक असर होगा. ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ के उनके नारे का मतलब है कि वो कारोबार को अमेरिका में बढ़ावा देंगे, न कि दूसरे देशों में. अब इसका भारत के उच्च तकनीकी निर्माण पर क्या असर होगा, वो देखने वाली बात होगी.

 

इससे इतर, ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में ये अपेक्षा की जा सकती है कि वो भारत को तरज़ीह देते रहेंगे. चीन के साथ चल रहे तकनीकी मुक़ाबले में, ट्रंप उसके जवाब के तौर पर भारत की महत्ता की तारीफ़ करते रहे हैं और शायद वो भारत को लेकर और सहयोगात्मक रवैया अपनाएं. दोनों देशों के आपसी रिश्ते को आगे बढ़ाने में तकनीकी सहयोग एक प्रमुख स्तंभ का काम करेंगे. बाइडेन के दौर का इनिशिएटिव ऑन क्रिटिकल एंड इमर्जिंग टेक्नोलॉजीज (iCET) समझौता आगे भी जारी रहने की संभावना है. हो सकता है कि इसमें कुछ सुधार किए जाएं. लेकिन, लेन देन को तरज़ीह देने वाले ट्रंप के व्यक्तित्व को देखते हुए, भारत के साथ उनका कुछ लेन-देन का सौदा हो सकता है. इसके अलावा, क्वाड भी अपना तकनीकी सहयोग और बढ़ाएगा.

 

कुल मिलाकर, अमेरिका की तकनीकी नीति के मामले में ट्रंप एक नए युग की शुरुआत करेंगे. इसका बुनियादी उसूल नियम क़ायदों में ढील देना होगा. निगरानी के बजाय आविष्कार को तरज़ीह देकर, ट्रंप का मक़सद तकनीकी क्षेत्र में अमेरिका का दबदबा दोबारा क़ायम करने का होगा.

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