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शहरों को रहने योग्य और मृत आत्माओं के अनुकूल बनाने के लिए शहरी श्मशानों और क़ब्रिस्तानों से जुड़ी नीतियों, उनकी संरचनाओं और क्रियाकलापों पर दोबारा विचार करना बेहद ज़रूरी है
विश्व भर के शहर अपनी बढ़ती आबादी को समायोजित करने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं. अजीब विडंबना है कि शहरों के ये समूह अपने मृतकों को स्थान नहीं दे सकते! इसके अलावा, मृत्यु के बाद के रीति-रिवाज़ों और ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त सुविधाओं और सार्वजनिक स्थानों की मांग बढ़ती जा रही है. नतीजतन दाह संस्कार और दफ़नाने की लागत में बढ़ोतरी देखने को मिल रही है. ऐसे में शहरों को जीवित लोगों की रिहाइश और मृतकों के लिए स्थान के बीच निरंतर चयन करने की प्रक्रिया जारी रखनी होगी.
मृतकों के लिए शहरी स्थानों के अभाव के साथ-साथ श्मशानों और क़ब्रिस्तानों के निर्माण और रखरखाव के लिए रकम की कमी, ख़ासतौर से घनी आबादी वाले इलाक़ों और कम आय वाले क्षेत्रों को प्रभावित करती है. इसके बावजूद, शहरी मास्टर प्लान सार्वजनिक भूमि के ऐसे अहम उपयोगों को शायद ही ध्यान में रखते हैं. इसके नतीजतन शहरों का अनियोजित विकास सामने आता है और शहरी ज़मीन के नवीकरण में विलंब होता है. इनके चलते आख़िरकार शहर का बजट ख़त्म हो जाता है, जिससे शहरी क्षेत्र की पूरी क्षमता का उपयोग करने में योजनाकारों के हाथ बंध जाते हैं.
मृतकों के लिए शहरी स्थानों के अभाव के साथ-साथ श्मशानों और क़ब्रिस्तानों के निर्माण और रखरखाव के लिए रकम की कमी, ख़ासतौर से घनी आबादी वाले इलाक़ों और कम आय वाले क्षेत्रों को प्रभावित करती है.
इतना ही नहीं, कोविड-19 महामारी ने इंसानों के मृत शरीरों के निपटान को लेकर कई गंभीर चुनौतियां पेश कर दीं. दुनिया के नगर, इन गंभीर चिंताओं को कैसे दूर कर सकते हैं और दाह संस्कार और क़ब्रिस्तानों की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त सुविधाएं सुनिश्चित करके इन चिंताओं के दीर्घकालिक परिणामों का आकलन कैसे कर सकते हैं? शहर, सभी के लिए अधिक सुलभ, सुगम और किफ़ायती बनने के लिए बेहतर समाधान कैसे पेश कर सकते हैं?
श्मशान और क़ब्रिस्तान अपने किसी प्रियजन की मृत्यु के बाद शोक मनाने वालों के लिए भौतिक रूप से अंतिम मिलन स्थल के रूप में काम करते हैं. मृत शरीर के निपटान से जुड़ी प्रक्रिया, मानव जाति के लिए पवित्रता, भावनात्मकता और दार्शनिक रूप से ऊंचा मूल्य रखती है. ये साझा सामूहिक अनुभव हैं, जो अक्सर तनावों और वर्जनाओं से जुड़े होते हैं. लिहाज़ा, मृत आत्माओं के लिए शहरी स्थान, शहर के सांस्कृतिक भूगोल और सामाजिक बुनियादी ढांचे का एक हिस्सा बन जाते हैं, जहां अंतिम तौर पर प्यार और सम्मान जताए जाते हैं. दूसरी ओर, मृतकों के लिए शहरी स्थान, ऐसे क्षेत्र भी होते हैं जिन्हें अक्सर भेदभाव और विरोध का सामना करना पड़ता है. इन सबके बावजूद, ये स्थान, शहरी परिवेश में सबसे ज़्यादा उपेक्षित भूक्षेत्रों में से एक हैं.
इस सिलसिले में हम सिंगापुर की मिसाल ले सकते हैं. वहां घरों और राजमार्गों के लिए रास्ता बनाने को लेकर दर्ज़नों क़ब्रिस्तानों को साफ़ कर दिया गया था. इसकी वजह से वहां नागरिकों का भारी विरोध-प्रदर्शन हुआ. सिंगापुर की नई दफ़न नीति या न्यू बेरियल पॉलिसी, क़ब्रिस्तानी ज़मीन के इस्तेमाल को अधिकतम रूप से अनुकूलित करने के लिए अब किसी मृतक शरीर को दफ़न रखने की मियाद को 15 साल तक सीमित करती है. ज़ोनिंग को लेकर कठोर क़ानूनों, किराए की मियाद को लेकर जटिल और सख़्त नियमों, बोझिल नीतियों या अन्य नियामक चुनौतियों के चलते योजना बनाना और कठिन हो सकता है. बर्लिन में क़ब्रिस्तानों को पार्कों, खेल के मैदानों और आवासीय क्षेत्रों में बदला जा रहा है. इसी तरह, पेरिस में मेहराबदार क़ब्रें (ossuaries), ज़ोनिंग और निर्माण से जुड़े कार्यों के सामने चुनौतियां पेश कर रही हैं. इसी तरह, मुंबई की विकास योजना 2034 में एक ही भूखंड को क़ब्रिस्तान और बगीचे के लिए आरक्षित रख दिया गया, नतीजतन ऐसी स्पष्ट ग़लतियों के लिए इस योजना को आलोचनाओं का सामना करना पड़ा.
बेंगलुरु की झीलों को श्मशान भूमि में बदला जाना, जगह और वित्त की इसी कमी को दर्शाता है. इसके अलावा, दाह संस्कार और दफ़नाने की क्रियाओं का शहरी पर्यावरण पर भारी असर पड़ता है, जहां वायु और पानी का प्रदूषण पहले से ही बड़ी चिंता के सबब बने हुए हैं.
भारत में आवास और शहरी मामलों का मंत्रालय, भौगोलिक और सामाजिक चिंताओं पर विचार करते हुए क़ब्रिस्तानों और श्मशान भूमियों के स्थान और क्षेत्रफल संबंधी सीमाओं को विनियमित करने को लेकर तमाम आवश्यकताएं सामने रखता है. हालांकि ज़मीनी हक़ीक़तों से ऐसे दिशानिर्देश बेकार साबित हो सकते हैं. मिसाल के तौर पर मृतकों के लिए भूमि अधिग्रहण करने में लापरवाह और लेट-लतीफ़ी भरे दृष्टिकोण से नागपुर के योजना विभाग की असंवेदनशीलता उभरकर सामने आई. इसी तरह, तेज़ रफ़्तार शहरीकरण ने अमृतसर की श्मशान भूमियों पर ज़बरदस्त दबाव डाला है. इतना ही नहीं, मुंबई में मछुआरों के गांव के निवासी ने शिकायत की कि शहर की घनी आबादी वाले मछुआरा गांवों में श्मशान भूमि की ग़ैर-मौजूदगी के चलते मछुआरा समुदाय के लोगों को दाह संस्कार करने के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ती है. किसी प्रियजन की मृत्यु के बाद के लम्हे बेहद पीड़ादायक होते हैं. उस वक़्त मृतक शरीर के निपटान में सामने आने वाली ऐसी चुनौतियां, दाह-संस्कार और दफ़नाने की क्रिया को महंगा, असुविधाजनक और लंबा खिंचने वाला मसला बना देती हैं.
चालू अवस्था वाले शवदाह गृहों और दफ़न स्थलों का निर्माण और रखरखाव, उन स्थानीय शहरी निकायों पर बोझ डाल सकता है जिनके पास पहले से ही कोष की कमी है. अपर्याप्त संसाधनों के चलते वहां काम करने वाले कर्मचारियों को बेहद मामूली और अनियमित वेतन मिलते हैं. बेंगलुरु की झीलों को श्मशान भूमि में बदला जाना, जगह और वित्त की इसी कमी को दर्शाता है. इसके अलावा, दाह संस्कार और दफ़नाने की क्रियाओं का शहरी पर्यावरण पर भारी असर पड़ता है, जहां वायु और पानी का प्रदूषण पहले से ही बड़ी चिंता के सबब बने हुए हैं.
दुनिया भर के शहरों को अपने मृत नागरिकों को सम्मान देने और उन्हें याद रखने के लिए वैकल्पिक और पारिस्थितिक रूप से अनुकूल तरीक़ों की तलाश करनी चाहिए. मिसाल के तौर पर हॉन्गकान्ग, मृतकों की अस्थियों को रखने के लिए एक सार्वजनिक स्थान (कोलंबेरियम) का विकल्प प्रदान करता है. यहां अंतिम संस्कार के बाद मृतकों की अस्थियों के कलश जमा किए जाते हैं. हालांकि, इस परिसर में एक छोटा स्थान प्राप्त करने के लिए पांच साल की प्रतीक्षा अवधि है. मांग को ध्यान में रखते हुए, हॉन्गकॉन्ग ने तट से दूर खुले समुद्र में कोलंबेरियम द्वीप का एक प्रोटोटाइप भी विकसित किया है. इसे फ्लेटिंग इटरनिटी का नाम दिया गया है, जिसमें समुद्र में 370,000 कलश रखने की क्षमता होगी. इन चुनौतियों से शहरों में मृत्यु संस्कार करने के लिए चालू अवस्था वाले, नागरिक-अनुकूल, टिकाऊ और किफ़ायती तौर-तरीक़ों पर विचार करने की आवश्यकता उभरकर सामने आती है.
भारतीय समेत अनेक अंतरराष्ट्रीय रूपरेखाओं में श्मशानों और क़ब्रिस्तानों की प्रभावशीलता और स्थायित्व के लिए राजकीय और स्थानीय अधिकारियों को उत्तरदायी बताया गया है. तमाम नियमन इस बात पर ज़ोर देते हैं कि मृत व्यक्तियों (दावा किया गया या लावारिस) के लिए स्थानों का सम्मान हो, उन्हें साफ़-साफ़ चिन्हित किया जाए और उनका समुचित रूप से रखरखाव किया जाए. भले ही भारत के मामले में, मृतकों के अधिकारों की रक्षा के लिए कोई विशिष्ट क़ानून नहीं है, लेकिन भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21, मृतक की गरिमा पर ज़ोर देता है.
गुजरात के अमलसाड में एक निजी ट्रस्ट द्वारा संचालित उड़ान श्मशान शहरी जीवंतता को दोबारा पटरी पर ले आया है. ये नागरिकों के दैनिक उपयोग के लिए सार्वजनिक स्थानों को शामिल करता है.
हाल के वर्षों में, शहर के श्मशानों और क़ब्रिस्तानों को शहरी सार्वजनिक स्थानों में बदलने का विचार लोकप्रिय हुआ है. योजनाकार और आर्किटेक्ट्स अपने डिज़ाइंस और कार्यों को बदलकर उन्हें ऐसे जीवंत सार्वजनिक स्थानों का रूप दे रहे हैं, जो अनेक उद्देश्यों को पूरा कर सकें. श्मशान और क़ब्रिस्तान जैसे स्थानों की निराशाजनक और असुविधाजनक प्रकृति से आगे बढ़ते हुए, योजनाकार इन क्षेत्रों का मूल्यांकन उन स्थानों के रूप में कर रहे हैं जो सांस्कृतिक रूप से अधिक सुलभ हो सकें, और शहर के हरित बुनियादी ढांचे का हिस्सा बन सकें! ऐसे आकलन, शहरी योजनाओं को उभरते रुझानों के साथ एकीकृत करते हुए भूमि के रणनीतिक रूप से उपयोग की बाधाओं और अवसरों का विश्लेषण करने में मदद कर सकते हैं.
गुजरात के अमलसाड में एक निजी ट्रस्ट द्वारा संचालित उड़ान श्मशान शहरी जीवंतता को दोबारा पटरी पर ले आया है. ये नागरिकों के दैनिक उपयोग के लिए सार्वजनिक स्थानों को शामिल करता है. पूरी डिज़ाइन में इसके कार्यात्मक उद्देश्य की भावनाओं और दर्शन को ध्यान में रखते हुए एक प्रवेश द्वार, बच्चों के खेलने का स्थान और एक आध्यात्मिक पार्क को शामिल किया गया है. इसके साथ ही, जामनगर के मानिकभाई मुक्तिधाम (1940 में बनाया गया श्मशान पार्क) में स्वच्छ और शांत वातावरण में अच्छी तरह से डिज़ाइन किया गया बगीचा, पेंटिंग्स, मूर्तियां और भित्ति चित्र या मूरल्स मौजूद हैं. साथ ही, रूस के स्पेस ऑफ साइलेंस कॉन्सेप्ट प्रोजेक्ट में अंतिम संस्कार समारोह हॉल, एक स्मारक संग्रहालय और एक पार्क शामिल है.
इसके अलावा, नॉर्वे की राजधानी ओस्लो और डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में अपनाए जा रहे तौर-तरीक़ों के अध्ययन से शहरी पर्यावरण में अनेक उपयोगों वाले साझा स्थानों के रूप में क़ब्रिस्तानों के योगदान सामने आते हैं. ऐसी मिसालें, शहरी वास्तुकला और योजना के लिए समकालीन ढांचा अपनाने की क़वायदों को प्रेरित कर सकते हैं. इस तरह मृत इंसानों के लिए निर्धारित स्थानों को शहरी सार्वजनिक स्थानों के रूप में नए सिरे से सोचा जा सकता है: एक ऐसा स्थान जो समावेशी, खुला और आसानी से सुलभ हो!
शहरी श्मशान भूमियों और क़ब्रिस्तानों के हालात से जुड़ी मौजूदा परिस्थितियां, इस दिशा में गहराई से अध्ययन और शोध पर बल देती हैं. इस कड़ी में जीवन चक्र बनाए रखने को लेकर विस्तार के लिए नए स्थानों और वैकल्पिक तरीक़ों का प्रस्ताव भी ज़रूरी है.
शहर के श्मशानों और क़ब्रिस्तानों की नीति, संरचना और क्रियाकलाप पर पुनर्विचार करना भले ही कठिन और जटिल हो, लेकिन मृतकों को उचित सम्मान देने और अनेक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आत्मीय, समावेशी स्थलों का निर्माण करना अनिवार्य हो जाता है. खुले, हरे स्थान, शहरी परिदृश्य का अहम हिस्सा हैं. शहर को स्वस्थ, गतिशील, आत्मीय, रहने योग्य और मृत आत्माओं के अनुकूल बनाने के लिए ऐसे स्थान बेहद महत्वपूर्ण हैं.
अनुशा केसरकर गावनकर ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर इकोनॉमी एंड ग्रोथ में सीनियर फेलो हैं
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Anusha is Senior Fellow at ORF’s Centre for Economy and Growth. Her research interests span areas of Urban Transformation, Spaces and Habitats. Her work is centred ...
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