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स्वच्छ भारत मिशन की कामयाबी के बावजूद मुंबई की मलिन बस्तियों की स्वच्छता से जुड़े दृष्टिकोण में आमूलचूल बदलाव लाने की ज़रूरत है.
अक्टूबर 2021 में जब भारत ने स्वच्छ भारत मिशन (SBM) 2.0 की घोषणा की थी, तब वो मिशन के अधिकांश लक्ष्यों को पार कर गया था. भारत ने 58.99 लाख के लक्ष्य की तुलना में 62.88 लाख व्यक्तिगत घरेलू शौचालयों (IHHL) का निर्माण कर लिया था, और 5.08 लाख के लक्ष्य के मुक़ाबले 6.37 लाख सामुदायिक और सार्वजनिक शौचालय तैयार किए जा चुके थे. कामयाबी की एक असाधारण कहानी में भारत के हज़ारों शहर खुले में शौच से मुक्त, यानी ODF, ODF+, ODF++ हो गए, और 14 शहरों ने “वाटर पॉजिटिव” होने का सम्मान हासिल किया.
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इकलौते स्वच्छ भारत मिशन ने लोगों तक स्वच्छता की पहुंच बढ़ा दी है और भारत को काफ़ी हद तक स्वच्छ बनाया है.
बहरहाल, ज़मीनी हक़ीक़त देखते हुए इन दावों पर सवाल खड़े किए जा सकते हैं. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2019-21 (NFHS-5) ने इन वास्तविकताओं को बेपर्दा किया है. हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इकलौते स्वच्छ भारत मिशन ने लोगों तक स्वच्छता की पहुंच बढ़ा दी है और भारत को काफ़ी हद तक स्वच्छ बनाया है.
बहरहाल, मुंबई में झोपड़पट्टियों के हालात देखने पर NFHS-5 से सामने आई वास्तविकताओं का विस्तार हो जाता है. बृहन्मुंबई महानगरपालिका (BMC) के ताज़ा वार्ड आधारित आंकड़ों के मुताबिक मुंबई में क़रीब 8,000 सामुदायिक और सार्वजनिक शौचालय खंड हैं, जिनमें तक़रीबन 80,000 टॉयलेट सीट्स हैं. हालांकि इस अनुपात का ज़्यादा झुकाव पुरुषों की ओर है.
ये सुविधाएं शहर की झुग्गी बस्तियों की लगभग 56 लाख आबादी के काम आती है. 8,000 खंडों में से 14 प्रतिशत का निर्माण मुंबई सीवेज डिस्पोज़ल प्रोजेक्ट के तहत BMC ने किया है, और इन पर उसी का स्वामित्व है. 5 प्रतिशत सुविधाओं ऐसी हैं जिनका निर्माण तो BMC ने किया है, लेकिन उनका प्रबंधन समुदाय आधारित संगठनों (CBOs) द्वारा किया जाता है. विश्व बैंक द्वारा शुरू किए गए मलिन बस्ती स्वच्छता कार्यक्रम (SSP) के तहत इस क़वायद को अंजाम दिया जा रहा है. शौचालय खंडों का विशाल 65 प्रतिशत हिस्सा राज्य के आवास प्राधिकरण यानी महाराष्ट्र आवास और क्षेत्र विकास प्राधिकरण (म्हाडा) द्वारा तैयार किया गया है, जिस पर किसी का मालिक़ाना हक़ नहीं है. इनमें से सिर्फ़ 28 प्रतिशत शौचालय ही म्यूनिसिपल सीवरेज सिस्टम से जुड़े हुए हैं. म्हाडा के 70 प्रतिशत शौचालय मानवीय मल के निपटारे के लिए पुराने ज़माने के सेप्टिक टैंक/सोक पिट मॉडल पर निर्भर हैं, जबकि 78 प्रतिशत को जलापूर्ति की कोई गारंटी नहीं होती. वैसे तो म्हाडा के सभी शौचालय कमज़ोर तरीक़े से तैयार किए गए भार उठाने वाले ढांचे हैं जिसमें संरचना के हिसाब से जलापूर्ति नहीं होती, 3 प्रतिशत शौचालय टैंकर्स पर निर्भर करते हैं जबकि अन्य 3 प्रतिशत में कुओं से पानी हासिल किया जाता है. मलिन बस्तियों में मौजूद सभी सामुदायिक शौचालयों में से 58 प्रतिशत में बिजली नहीं है. सुरक्षा से जुड़ी इस चिंता की वजह से ये शौचालय ख़ासतौर से महिलाओं और बच्चों के लिए रात में उपयोग लायक़ नहीं रह जाते हैं.
स्वच्छ भारत मिशन में शहरी झोपड़पट्टियों में 35 पुरुषों और 25 महिलाओं पर एक टॉयलेट सीट की नीति तय की गई है. ऐसे में मुंबई को फ़िलहाल 33,000 से ज़्यादा टॉयलेट सीट्स की कमी का सामना करना पड़ रहा है.
मलिन बस्ती स्वच्छता कार्यक्रम के तक़रीबन 750 सामुदायिक शौचालय खंडों में टॉयलेट सीट और उपयोगकर्ता के बीच का अनुपात एक टॉयलेट सीट के मुक़ाबले 190 उपयोगकर्ताओं का है. इस ज़बरदस्त बोझ में कमी उन लोगों के चलते आती है जो मुफ़्त इस्तेमाल वाले तक़रीबन 30,000 म्हाडा शौचालयों का प्रयोग करते हैं, या जो पे-एंड-यूज़ वाली निजी सुविधाओं का उपयोग करने लायक़ हैं; या जो अब भी खुले में शौच करना जारी रखे हुए हैं, हालांकि इनकी तादाद में भारी गिरावट आई है. स्वच्छ भारत मिशन में शहरी झोपड़पट्टियों में 35 पुरुषों और 25 महिलाओं पर एक टॉयलेट सीट की नीति तय की गई है. ऐसे में मुंबई को फ़िलहाल 33,000 से ज़्यादा टॉयलेट सीट्स की कमी का सामना करना पड़ रहा है.
लिहाज़ा, इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है कि मुंबई की झुग्गियों में रहने वाले 40 प्रतिशत से ज़्यादा परिवारों के पास व्यक्तिगत शौचालय नहीं हैं. हालांकि जो बात चिंता का सबब बनी हुई है वो ये है कि भारत में सामुदायिक शौचालयों पर निर्भर सभी शहरी परिवारों में से 23 प्रतिशत मुंबई में हैं. महाराष्ट्र में स्वच्छता की साझा सुविधाओं पर निर्भर सभी शहरी परिवारों में से 40 प्रतिशत परिवार मुंबई में निवास करते हैं.
मलिन बस्ती स्वच्छता कार्यक्रम जैसी सहभागिता परियोजना ने शुरुआती दौर में भारी संभावनाएं दिखाई थीं, लेकिन अब ये स्पष्ट रूप से अपने बोझ तले मुरझाने लगी है. ये कार्यक्रम समुदाय आधारित संगठनों, झुग्गी बस्तियों के निवासी और उपयोगकर्ताओं और नगर पालिका अधिकारियों के सहजीवी हिस्सेदारी से सामुदायिक शौचालयों के “स्वामित्व” पर वादे के मुताबिक़ नतीजा देने में नाकाम रहा है. नतीजतन मलिन बस्ती स्वच्छता कार्यक्रम के तहत शौचालय खंडों में बढ़ोतरी, समुदायों के लिए पर्याप्त लाभ में तब्दील नहीं हुई है.
मौजूदा नीतियों और स्वच्छता मॉडलों ने फलती-फूलती टॉयलेट इकोनॉमी तैयार कर दी है, और इस प्रक्रिया में उनके कार्यान्वयन पर ज़बरदस्त सियासी दख़लंदाज़ी और भ्रष्टाचार की मार पड़ी है.
ये कार्यक्रम समुदाय आधारित संगठनों, झुग्गी बस्तियों के निवासी और उपयोगकर्ताओं और नगर पालिका अधिकारियों के सहजीवी हिस्सेदारी से सामुदायिक शौचालयों के “स्वामित्व” पर वादे के मुताबिक़ नतीजा देने में नाकाम रहा है.
मुंबई के संदर्भ में तो ये और भी बदतर है. यहां सवाल सिर्फ़ स्वच्छता तक पहुंच का नहीं, यहां सवाल जिंदगी और मौत से जुड़ा है.
2013 से मुंबई में शौचालय से जुड़ी आपदाएं 27 मासूमों की जान ले चुकी है, जिनमें 6 बच्चे शामिल हैं. अगर मुंबई महानगरीय क्षेत्र में शौचालय से जुड़ी मौतों का लेखा-जोखा लें तो ये आंकड़ा और ऊंचा हो जाता है. इनमें से ज़्यादातर मौतें ढांचों के टूटने से हुई है. सेप्टिक टैंक में डूबने से भी कई लोगों की जान गई है. सालों से जारी ख़राब रखरखाव और जमा हुए गाद को नहीं हटाए जाने के कारण अनेक सामुदायिक शौचालय खंड ज़िंदा टाइम बम की तरह हो गए हैं, जिनमें धमाके होते रहते हैं.
अनुमानित रूप से बार-बार हो रही ऐसी अमानवीय त्रासदियां संकेत करती हैं कि ये अब दुर्घटना नहीं रह गई हैं. ये मानवता के प्रति व्यवस्थागत अपराध हैं जिन्हें आगे कतई बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए.
मुंबई के संदर्भ में स्वच्छ भारत मिशन का व्यक्तिगत घरेलू शौचालयों (IHHL) पर ज़ोर, अप्रासंगिक नीतिगत दिशानिर्देश बनकर रह गया है. भारत में व्यक्तिगत घरेलू शौचालयों तक बड़ी पहुंच के सवाल को मुंबई की झुग्गियों में सिर्फ़ घरों के अंदर व्यक्तिगत शौचालय पहुंचाने तक ध्यान देकर सुलझाया जा सकता है. विडंबना ये है कि महाराष्ट्र ने स्वच्छ भारत मिशन के तहत जनवरी 2020 तक क़रीब 7 लाख IHHL का निर्माण कर लिया था जो देश में इनकी दूसरी सबसे ऊंची तादाद है. 9 लाख IHHL के साथ उत्तर प्रदेश इस सूची की अगुवाई कर रहा है.
इन राजनीतिक कोषों द्वारा तैयार शौचालयों की हालत बदतर और हादसों को दावत देने वाली है, और ये जनता की ज़रूरतों को पूरा नहीं करती हैं. निर्वाचित प्रतिनिधियों के स्थानीय क्षेत्र विकास कोष को स्वच्छता के क्षेत्र में उपयोग में लाने के लिए राज्य सरकार को एक नियामक तंत्र स्थापित करना चाहिए.
वैसे तो सामुदायिक शौचालयों से जुड़े प्रावधान, मुंबई की झुग्गी बस्तियों में रहने वाली विशाल आबादी की ज़रूरतों को पूरा कर पाने में अपर्याप्त साबित हुए हैं, इस मॉडल पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता बुज़ुर्गों और महिलाओं के लिए तकलीफ़ों भरा सबब साबित हुई है.
इससे भी बदतर बात ये है कि मुंबई में गंदी बस्तियों में स्वच्छता की क़वायद में महिलाओं और बच्चों की ख़ास ज़रूरतों का ध्यान नहीं रखा गया है. क़रीब-क़रीब आदतन बच्चों को झुग्गियों में उनके घरों के आगे खुले में शौच करने के लिए छोड़ दिया जाता है. इस हालात ने स्वास्थ्य से जुड़ी गंभीर चुनौतियां पैदा की हैं. 2015-16 में झुग्गियों में कुपोषण पर ORF के एक अध्ययन से इसका ख़ुलासा हुआ था. खुले में शौच करने वाले बच्चों में कुपोषण और अल्प-पोषण की ऊंची प्रवृति देखी गई है.
स्पष्ट तौर पर स्वच्छता का अभाव ग़रीबी का लक्षण ना होकर उसको बढ़ावा देने वाला प्रमुख कारक है.
मुंबई में स्वच्छ भारत मिशन की अप्रासंगिकता को देखते हुए शहर में झुग्गी बस्तियों की स्वच्छता में आमूलचूल बदलाव लाए जाने की दरकार है.
सर्वप्रथम, BMC और राज्य सरकार को झुग्गियों में व्यक्तिगत प्रयोग के लिए शौचालयों के निर्माण को प्रोत्साहित, प्रेरित, प्रचारित करते हुए प्राथमिकता देनी चाहिए. यही इकलौता टिकाऊ और सीधा-सरल समाधान है. भले ही BMC ने सितंबर 2015 में “एक घर-एक शौचालय” योजना का ऐलान किया था, लेकिन ये वादा अब भी अधूरा है. इसके कार्यान्वयन में सबसे बड़ी ख़ामी तकनीकी अव्यावहारिकता है, जो नाकाफ़ी स्थान और भीड़ भाड़ की वजह से पैदा होती है. इसके चलते जगहों के दौरे के बिना भी सीवर लाइनें बिछाना मुश्किल हो जाता है.
ORF द्वारा किए गए व्यापक अध्ययन ‘जाएं तो जाएं कहां: महानगर में शौच जाने से जुड़े सवालों के जवाब की तलाश’ का ब्योरा फरवरी 2017 में जारी किया गया. संयोगवश इसमें शहर की झोपड़पट्टियों में रहने वाले 83 प्रतिशत लोगों ने ये ख़ुलासा किया कि अगर सरकार सीवेज के निपटारे की सुविधा मुहैया करा दे तो वो बिना किसी वित्तीय सहायता या सब्सिडी के भी शौचालय का निर्माण करने के लिए तैयार हैं.
व्यक्तिगत शौचालयों की बढ़ती इच्छा और मांग को देखते हुए बृहन्मुंबई महानगर पालिका को सीवेज निपटारे की नई-नई और विशिष्ट ज़रूरतों के हिसाब से तैयार सीवेज निपटारा तंत्रों की खोज करनी चाहिए. ये क़वायद शौचालयों को लेकर जारी गतिरोध को दूर कर सकती है, क्योंकि ये उसका अनिवार्य कर्तव्य है. देश की सबसे अमीर नगरपालिका के कंधों पर लाखों मेहनतकश लोगों के प्रति मानवतावादी रुख़ दिखाने की ज़िम्मेदारी है. ये तमाम लोग शहर की अर्थव्यवस्था और वृद्धि में भारी योगदान देते हैं.
दूसरा, सरकार को तत्काल म्हाडा की भूमिका ख़त्म कर देनी चाहिए. शहर के 65 प्रतिशत शौचालयों के लिए ज़िम्मेदार इस संस्था ने इन्हें गंदगी और सड़ांध के गड्ढे बनाकर छोड़ दिया है.
इसके अलावा, सामुदायिक शौचालयों के निर्माण के लिए राजनीतिक फंडिंग, सियासी पैंतरेबाज़ी के अलावा कुछ और नहीं है. इन राजनीतिक कोषों द्वारा तैयार शौचालयों की हालत बदतर और हादसों को दावत देने वाली है, और ये जनता की ज़रूरतों को पूरा नहीं करती हैं. निर्वाचित प्रतिनिधियों के स्थानीय क्षेत्र विकास कोष को स्वच्छता के क्षेत्र में उपयोग में लाने के लिए राज्य सरकार को एक नियामक तंत्र स्थापित करना चाहिए. निर्माण के बाद 10 साल तक इन सुविधाओं की देखरेख के लिए संबंधित निर्वाचित प्रतिनिधि को जवाबदेह बनाया जाना चाहिए.
अंतिम, लेकिन एक अहम बात ये है कि पूरे मुंबई की झोपड़पट्टियों में घरेलू व्यक्तिगत शौचालयों के निर्माण को प्राथमिकता देने के लिए स्वच्छता सेवाओं को महाराष्ट्र आवश्यक सेवा अनुरक्षण (मेंटेनेंस) अधिनियम में शामिल किया जाना चाहिए.
धवल देसाई ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सीनियर फेलो और वाइस प्रेसिडेंट हैं
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Dhaval is Senior Fellow and Vice President at Observer Research Foundation, Mumbai. His spectrum of work covers diverse topics ranging from urban renewal to international ...
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