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वैसे इस वक़्त अगर सरकारें सब्सिडी देकर टीके को सस्ता कर दें या उसे मुफ़्त भी कर दें तब भी निर्धन और मध्यम आय वाले देशों की एक बड़ी आबादी के टीकाकरण के लिए पर्याप्त टीके उपलब्ध ही नहीं हैं.
अब ये बात साफ़ हो चुकी है कि सार्वभौम रूप से टीके की पहुंच सस्ती क़ीमतों और तेज़ गति से बड़े पैमाने पर वैक्सीन के उत्पादन पर निर्भर है. वैसे इस वक़्त अगर सरकारें सब्सिडी देकर टीके को सस्ता कर दें या उसे मुफ़्त भी कर दें तब भी निर्धन और मध्यम आय वाले देशों की एक बड़ी आबादी के टीकाकरण के लिए पर्याप्त टीके उपलब्ध ही नहीं हैं. इस समय अमेरिका की लगभग 30 फ़ीसदी आबादी को टीका लग चुका है जबकि अब तक भारत में 2 प्रतिशत से भी कम लोगों का टीकाकरण हो सका है. टीकाकरण की गति भी समान रूप से महत्वपूर्ण है. टीकाकरण में सुस्ती से आगे भी वायरस के अपना रूप बदलने का ख़तरा बना रहेगा.
एस्ट्राज़ेनेका की कोविड-19 वैक्सीन बनाने वाली कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया आपूर्ति से जुड़ी अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए जूझ रही है. भारत के कई राज्य आज 18 साल से अधिक आयु वाले लोगों के टीकाकरण हेतु ज़रूरी वैक्सीन के पर्याप्त डोज़ जुटाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. वैसे तो एस्ट्राज़ेनेका ने महामारी के दौरान मुनाफ़ा न कमाने का वचन दिया है लेकिन इतने भर से ही टीके की उपलब्धता सुनिश्चित नहीं की जा सकेगी. एस्ट्राज़ेनेका का अनुमान है कि वो 2021 के अंत तक टीके के तीन अरब डोज़ तैयार करने में सफल रहेगा. लेकिन ये डोज़ दुनिया की आबादी के केवल 20 प्रतिशत हिस्से के लिए ही पर्याप्त होगा.
वैसे तो एस्ट्राज़ेनेका ने महामारी के दौरान मुनाफ़ा न कमाने का वचन दिया है लेकिन इतने भर से ही टीके की उपलब्धता सुनिश्चित नहीं की जा सकेगी. एस्ट्राज़ेनेका का अनुमान है कि वो 2021 के अंत तक टीके के तीन अरब डोज़ तैयार करने में सफल रहेगा. लेकिन ये डोज़ दुनिया की आबादी के केवल 20 प्रतिशत हिस्से के लिए ही पर्याप्त होगा.
मौजूदा समय में बड़े पैमाने पर और तेज़ गति से वैक्सीन निर्माण के रास्ते में वैक्सीन विकसित करने वालों और उनके उत्पादकों के बीच के समझौते का विशिष्ट स्वरूप सबसे बड़ी बाधा बनकर खड़ा है. यहां ये याद दिलाना ज़रूरी है कि शुरुआत में तो ऑक्सफ़ोर्ड ने अपनी वैक्सीन से जुड़ी जानकारियों और बौद्धिक संपदा (आईपी) को सबके लिए सर्वसुलभ बनाने की योजना बनाई थी लेकिन आगे चलकर उसने एस्ट्राज़ेनेका के साथ एक एक्सक्लूसिव समझौता कर लिया. इसके बाद एस्ट्राज़ेनेका ने एसआईआई के साथ उत्पादन को लेकर एक एक्सक्लूसिव करार कर लिया.
वैक्सीन उत्पादक कमोबेश एकाधिकारवादी बन गए हैं. लेकिन हम इस हालात तक पहुंचे कैसे? ये हालात इसलिए और भी विचित्र लगते हैं क्योंकि कुछ उत्पादकों ने अमेरिकी सरकार से करदाताओं द्वारा भरे गए 2.5 अरब अमेरिकी डॉलर हासिल किए हैं. फ़ाइज़र को जर्मन सरकार से 4 अरब 55 करोड़ अमेरिकी डॉलर का अनुदान मिला है. इसके साथ ही अमेरिका और यूरोपीय संघ से इसे करीब 6 अरब डॉलर की ख़रीदी के वायदे हासिल हुए हैं. एस्ट्राज़ेनेका को शोध और ख़रीदी से जुड़े वायदों के लिए अमेरिका और यूरोपीय संघ से कुल मिलाकर 2 अरब डॉलर से भी ज़्यादा की रकम मिली है
अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम और यूरोपीय संघ के समृद्ध देशों ने वैक्सीन के विकास के लिए आर्थिक सहायता उपलब्ध करवाई, लेकिन वो इसके उत्पादन में केंद्रीकरण की रोकथाम करने में नाकाम रहे हैं. अपने लिए वैक्सीन की सुचारू उपलब्धता सुनिश्चित करने की होड़ में इन अमीर देशों ने निर्धन देशों के लिए बौद्धिक संपदा अधिकारों की छूट को लेकर कोई सौदेबाज़ी नहीं की. यहां ग़ौरतलब है कि वैक्सीन के लिए शोध और विकास के काम के लिए ज़्यादातर सार्वजनिक वित्त का ही इस्तेमाल हुआ है.
अब ऐसा लग रहा है कि जैसे जैसे कोविड संकट गहरा होता जा रहा है पश्चिमी देशों पर अपने रुख़ पर फिर से विचार करने का दबाव बढ़ता जा रहा है.
समृद्ध देशों ने कोवैक्स पहल को लेकर अपने स्तर से योगदान देने का वचन दिया है. इसके ज़रिए ग़रीब देशों के लिए निशुल्क टीकाकरण सुनिश्चित किया जाएगा. अमेरिकी प्रशासन ने कोवैक्स के मद में चार अरब अमेरिकी डॉलर देने का वादा किया है. यूरोपीय संघ ने करीब एक अरब अमेरिकी डॉलर की सहायता दी है. हालांकि ये मदद ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर हैं. कोवैक्स का लक्ष्य इस साल दुनिया के निर्धनतम देशों की सिर्फ़ 20 प्रतिशत आबादी का टीकाकरण करने का है. इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भी 2 अरब अमेरिकी डॉलर के बराबर की रकम कम पड़ रही है.
दुनिया में टीके की आपूर्ति में समानता सुनिश्चित करने में नाकामी की दूसरी मिसाल पिछले साल विश्व व्यापार संगठन में देखने को मिली. तब भारत और दक्षिण अफ्रीका ने कोविड-19 वैक्सीन और दवाइयों के मामले में बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार संबंधी पहलुओं से जुड़े कुछ प्रावधानों में अस्थायी तौर पर छूट दिए जाने की मांग की थी. उस वक़्त इस मांग का कुछ दूसरे देशों के साथ-साथ अमेरिका और यूरोपीय संघ ने कड़ा विरोध किया था.
अब ऐसा लग रहा है कि जैसे जैसे कोविड संकट गहरा होता जा रहा है पश्चिमी देशों पर अपने रुख़ पर फिर से विचार करने का दबाव बढ़ता जा रहा है. वॉल स्ट्रीट जर्नल की ख़बर के मुताबिक भारत और दक्षिण अफ्रीका की अगुवाई में करीब 60 विकासशील देश विश्व व्यापार संगठन के बौद्धिक संपदा नियमों में छूट को लेकर एक मसौदा तैयार कर रहे हैं.
ज़रूरी और प्रासंगिक प्रावधान होने के बावजूद ट्रिप्स जैसा बहुपक्षीय समझौता भारत के काम नहीं आ सका है. ऐसे में न्याय सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रीय क़ानून ही आख़िरी उपाय के रूप में बच जाते हैं. भारत की सर्वोच्च अदालत ने कोविड से बचाव सुनिश्चित करने वाली औषधियों तक सबकी समान रूप से पहुंच सुनिश्चित करने के लिए अनिवार्य लाइसेंसिग जैसे प्रावधानों के इस्तेमाल का सुझाव दिया है.
अक्टूबर 2020 में बौद्धिक संपदा में छूट से जुड़े प्रस्ताव का विरोध करते हुए यूरोपीय संघ ने कुछ तथ्यों की निशानदेही की थीं जो निम्नलिखित हैं.
अगर तमाम स्वैच्छिक समाधान कारगर नहीं होते और बौद्धिक संपदा से जुड़े मामले कोविड-19 के इलाज या टीके के रास्ते की बाधा बनकर सामने आते हैं तो इससे निपटने के लिए ज़रूरी उपायों का तंत्र भी पहले से ही उपलब्ध है. यूरोपीय संघ ने हमेशा ही, जहां ज़रूरी और न्यायोचित हो, ट्रिप्स समझौते और दोहा घोषणा के तहत उपलब्ध लचीलेपन के इस्तेमाल का समर्थन किया है. इसका लक्ष्य दवाइयों तक प्रभावी पहुंच सुनिश्चित करना है.
विशेष रूप से ट्रिप्स समझौता कुछ ख़ास मामलों में दवाइयों के स्थानीय उपभोग के लिए अनिवार्य लाइसेंस जारी किए जाने की संभावनाएं उपलब्ध कराता है. इसके साथ ही स्वास्थ्य से जुड़ी आपातकालीन परिस्थितियों में प्रक्रियागत मामलों में तेज़ी लाने के भी प्रावधान हैं. ट्रिप्स काउंसिल सचिवालय ने आर्टिकल 31बीआईएस की प्रक्रियाओं के प्रबंधन के लिए मदद की ज़रूरत बताने वाले डब्ल्यूटीओ के किसी भी सदस्य को सतत और नियमित रूप से अपनी सेवाएं उपलब्ध कराने का प्रस्ताव किया है. हमने जो प्रजेंटेशन देखा उससे इसकी पुष्टि भी हो चुकी है.
कोविड वैक्सीन के पेंटेट पर अनिवार्य लाइसेंस जारी करने के दो तरीके हो सकते हैं.
राष्ट्रीय आपातकाल में या सार्वजनिक रूप से ग़ैर-वाणिज्यिक इस्तेमाल को सुलभ बनाने के लिए भारतीय पेटेंट अधिनियम के तहत पेटेंट की जा चुकी दवाइयों के अनिवार्य लाइसेंसिंग (सीएल) के तरीकों पर काफी चर्चा हो चुकी है. 2011 में भारत ने बाएर द्वारा पेटेंट कराए गए एक कंपाउंड (sorafenib tosylate) पर अनिवार्य लाइसेंस प्रदान किया था. इसके ज़रिए किडनी और लिवर के कैंसर के इलाज में मदद मिली है.
जैसा कि स्पष्ट है मई 2021 में हालात बेहद अवसादपूर्ण हैं. इससे पहले ऐसी परिस्थितियों का अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल था. स्पष्ट रूप से वैक्सीन तक पहुंच से जुड़े तर्क को बौद्धिक संपदा अधिकारों से जुड़ी व्यवस्था को संरक्षित करने के दीर्घकालिक प्रभावों के ऊपर तवज्जो दी जानी चाहिए.
अनिवार्य लाइसेंस प्रदान किए जाने को लेकर एक अप्रत्याशित मदद प्रतिस्पर्धा क़ानून के रूप में आई. कुछ लोग ये तर्क दे सकते हैं कि चूंकि भारत में एक से ज़्यादा वैक्सीन आपूर्तिकर्ता मौजूद हैं (कोविशील्ड, कोवैक्सीन और अब स्पूतनिक वी) लिहाजा कोई भी एक कंपनी अपना दबदबा नहीं बना सकती. साधारण परिस्थितियों में तो किसी बाज़ार में किसी एक फ़र्म का दबदबा दिखाई दे सकता है लेकिन असाधारण परिस्थितियों में एक ही वक़्त पर एक-दूसरे से स्वतंत्र रूप से काम कर रहे एक से ज़्यादा फ़र्म अपना दबदबा दिखाते हुए पाए जा सकते हैं. जब अलोचदार मांग आपूर्ति से आगे निकल जाती है तो फ़र्म क़ीमतों को लेकर एक-दूसरे के बर्ताव पर लगाम नहीं लगाते हैं.
ऐसे में जब कोई वैक्सीन निर्माता अपने टीके के लिए अनुचित रूप से ऊंची क़ीमतें मांगता है तो उसे अनिवार्य लाइसेंसिंग के दायरे में लाया जा सकता है.
अनिवार्य लाइसेंसिंग के ख़िलाफ़ कई तर्क हैं. हालांकि जैसा कि हम नीचे देखेंगे तजुर्बे और ज़मीनी हक़ीक़त से परखे जाने पर ये तर्क कहीं भी नहीं ठहरते हैं.
कोविड वैक्सीन के विशेष संदर्भ में निवेश की सुरक्षा से जुड़ा तर्क भी फिसड्डी साबित होता है. इसकी वजह ये है कि ज़्यादातर वैक्सीनों की खोज में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सार्वजनिक वित्त की मदद मिली है. जॉनसन एंड जॉनसन, मोडेर्ना, एस्ट्राज़ेनेका और भारत बायोटेक को स्पष्ट रूप से सार्वजनिक कोष से लाभ मिला है. हो सकता है कि कई दूसरी कंपनियों को परोक्ष रूप से मदद मिली हो. यहां ये स्पष्ट करना ज़रूरी है कि अनिवार्य लाइसेंसिंग रॉयल्टी से मुक्त लाइसेंस नहीं हैं. वैक्सीन के खोजकर्ताओं को उपयुक्त न्यायिक अधिकारी द्वारा तार्किक रूप से तय की गई रॉयल्टी की रकम अदा की जाती है. इतना ही नहीं वास्तविक विनिर्माता भी कारोबार में बना रहता है.
इतिहास ने हमें ये दिखाया है कि बड़ी दवा कंपनियों द्वारा स्वैच्छिक रूप से साझा की जाने वाली जानकारियों के अभाव में भी कई छोटे फ़र्मों ने अपने तरीकों से विभिन्न औषधि उत्पादों का उत्पादन करने में सफलता पाई है.
कोविड वैक्सीन के संदर्भ में मोटे तौर पर एक तर्क दिया जा रहा है. ये कहा जा रहा है कि बड़े पैमाने पर वैक्सीन का उत्पादन शुरू किए जाने के रास्ते में निर्माण प्रक्रियाओं से जुड़ी जानकारियां हासिल करना एक बड़ी चुनौती साबित हो सकता है. लेकिन इतिहास ने हमें ये दिखाया है कि बड़ी दवा कंपनियों द्वारा स्वैच्छिक रूप से साझा की जाने वाली जानकारियों के अभाव में भी कई छोटे फ़र्मों ने अपने तरीकों से विभिन्न औषधि उत्पादों का उत्पादन करने में सफलता पाई है. इतना ही नहीं इतिहास में हमें ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं जब अमेरिका के फेडरल ट्रेड कमीशन ने जानकारियां साझा करने के आदेश जारी किए.
लेखक उपयोगी परिचर्चा के लिए प्रो. (डॉ.) वी सी विवेकानंदन के आभारी हैं. सारी त्रुटियां हमारी अपनी हैं.
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Arul Scaria is an Associate Professor at National Law School Delhi and Co-Director of the Centre for Innovation Intellectual Property and Competition (CIIPC).
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