समस्त देशवासियों को गहरे अचम्भे में डालने वाली घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘काले धन’ पर नकेल कसने, भ्रष्टाचार का खात्मा करने और आतंकवादियों को धन प्रवाह रोकने के लिए नवंबर महीने में 500 रुपये और 1,000 रुपये के भारतीय करेंसी नोटों के चलन को बंद करने का आदेश दिया था। यह वाकई एक ऐसा कदम है जो नीति के मामले में बिल्कुल लीक से अलग हटकर है और निश्चित तौर पर इसके दूरगामी निहितार्थ भी हैं। बहरहाल, गंभीर चिंता की बात यह है कि फिलहाल देश भर में हो रही तमाम चर्चाओं में नोटबंदी के संभावित नतीजों का मसला ही छाया हुआ है, इसलिए ऐसी स्थिति में अन्य सभी महत्वपूर्ण मुद्दों की साफ तौर पर अनदेखी की जा रही है जिनमें सीमा पार से घुसपैठ, राजनीतिक वार्तालाप शुरू करना और जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा व्यवस्था को नए सिरे से चाक-चौबंद करना जैसे मसले भी शामिल हैं। हालांकि, जम्मू-कश्मीर में आतंकी अंजामों के लिए धन प्रवाह करने वाले मॉड्यूल पर नोटबंदी का कोई खास असर पड़ने की संभावना नहीं है, क्योंकि इस कदम के बावजूद आतंकी संगठन किसी कामचलाऊ व्यवस्था के जरिए अपनी गतिविधियों को जारी रखने से बाज नहीं आएंगे। इस शोध पत्र में यह दलील दी गई है कि नोटबंदी नीति ने जम्मू-कश्मीर में कार्यरत भारत के सुरक्षा तंत्र अथवा प्रतिष्ठान को गहरी चिंता में डाल दिया है क्योंकि यह आतंकवादी संगठनों पर प्रभावी ढंग से प्रहार करने में विफल साबित हो रहा है।
परिचय
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 8 नवंबर 2016 को बगैर किसी पूर्व सूचना के 500 रुपये और 1,000 रुपये के भारतीय करेंसी नोटों का चलन बंद करने की घोषणा की थी। उसके बाद से ही इस नीतिगत घोषणा को लेकर देश की जनता में भारी मतभेद देखने को मिल रहे हैं। दरअसल, मोदी सरकार ‘सुरक्षा’ के अपने स्वयं के विशेष सिद्धांत को ही बढ़ावा देने की नई जिद कर बैठी है, जिसमें इस निर्णय की साफ झलक दिखाई देती है। यह भारत के सुरक्षा उपायों और आंतरिक माहौल की रक्षा सुनिश्चित करने के लिए हरसंभव साधन को अपनाए जाने संबंधी प्रधानमंत्री की मंशा की ओर इशारा करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि अब नए सुरक्षा सिद्धांत के तहत ‘काले धन’ पर अंकुश लगा कर और आतंकवादियों को पैसा भेजने वाले चैनलों को अवरुद्ध करके ही तमाम सुरक्षा उद्देश्यों की पूर्ति सुनिश्चित करने की कोशिश की जाने लगी है। जैसा कि अक्सर इस तरह के प्रमुख नीतिगत बदलावों के मामले में देखने को मिलता है, नव परिभाषित ‘सुरक्षा’ के तहत भी भारत की सुरक्षा एवं सामरिक नीति को संभवत: एक उल्लेखनीय नई दिशा देने की पुरजोर कोशिश की जा रही है, जिसके दूरगामी निहितार्थ हैं। बहरहाल, प्रधानमंत्री मोदी के इस कदम के खिलाफ सबसे बड़ी चुनौती ‘नकदी’ ही है जो भारत में आतंकवादियों को धन का प्रवाह करने वाले और काले धन को ‘सफेद’ बनाने वाले (मनी लांड्रिंग) नेटवर्कों का एक महत्वपूर्ण घटक है।
सरकार संभवत: यह मानकर चल रही है कि परंपरागत तौर-तरीकों के मुकाबले वैकल्पिक आर्थिक तरीके राष्ट्रीय सुरक्षा को सुनिश्चित करने में कहीं ज्यादा कारगर साबित हो सकते हैं। यह सच है कि अभूतपूर्व आर्थिक उपायों का उद्देश्य आर्थिक गतिविधियों में तेजी लाना नहीं होता है, बल्कि इसके बजाय इनके जरिए सुरक्षा लक्ष्य के अहम हित को साधने की ठोस कोशिश की जाती है। हालांकि, प्रधानमंत्री के इरादे चाहे कितने भी नेक और अपनाई गई चाल चाहे कितनी भी गहरी क्यों न हो, लेकिन दुर्भाग्यवश भारत के लिए आगे की राह अब भी विभिन्न बाधाओं से भरी पड़ी है। यही कारण है कि नोटबंदी नीति कश्मीर में नकदी के सहारे संचालित किए जा रहे इस्लामी जिहाद के आतंकवादी अभियानों और पूर्वी एवं मध्य भारत में विद्रोहियों की गतिविधियों पर करारा प्रहार करने में समर्थ साबित नहीं हो पाई है।
यही नहीं, नोटबंदी से राजनीतिक और आर्थिक भ्रम की जो स्थिति बन गई है उससे काले धन को बाहर निकालने, भ्रष्टाचार का खात्मा करने और आतंकवादियों को धन प्रवाह पर रोक लगाने से संबंधित इसके घोषित उद्देश्यों की प्राप्ति का अवसर सरकार को मिलने के बजाय भारत की आंतरिक सुरक्षा तेजी से खतरे में पड़ती जा रही है। देश के व्यापक सुरक्षा लक्ष्य घरेलू राजनीति और दबाव के कारण पूरी तरह से विचलित होते जा रहे हैं। फिलहाल देश भर में हो रही तमाम चर्चाओं में नोटबंदी के संभावित नतीजों का मसला ही छाया हुआ है, इसलिए ऐसी स्थिति में सीमा पार से घुसपैठ, राजनीतिक वार्तालाप शुरू करने और जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा व्यवस्था को नए सिरे से चाक-चौबंद करने जैसे अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों की साफ तौर पर अनदेखी की जा रही है।
अत्यधिक संवेदनशीलता और चोटिल अहं वाले इस क्षेत्र में केंद्र सरकार को बेहद सावधानी से आवश्यक रणनीतिक कदम उठाने चाहिए, ताकि कश्मीर में रहने वाले लोगों के जेहन में भय और आशंका को पनपने से बचाया जा सके।
दुर्भाग्यवश, वर्तमान में काफी जोर पकड़ रहे ध्रुवीकरण वाले राजनीतिक माहौल की वजह से अनेक आवश्यक पहल अपना प्रभाव छोड़ने में पूरी तरह से नाकाम रही हैं। इतना ही नहीं, आतंकवादियों और उग्रवादियों के नापाक मंसूबों पर पानी फिर जाने जैसी स्थिति भी देखने को नहीं मिल रही है।
यह एक सर्वविदित तथ्य है कि सीमा पार से आतंकवादियों को मिल रहे पैसे के बल पर ही कश्मीर में उग्रवादी गतिविधियों को निरंतर अंजाम दिया जाता है। पाकिस्तान में स्थापित आतंकवाद का विशाल अड्डा ही कश्मीर में अपना डेरा जमाए हुए आतंकवादी समूहों को प्रशिक्षण के साथ-साथ हथियार और धन भी मुहैया कराता है। हवाला रूट का इस्तेमाल मुख्यत: बेहद आसानी से काले धन को सफेद करने एवं कश्मीर में आतंकवादियों को धन का प्रवाह जारी रखने के एक साधन के रूप में किया जाता है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आतंकवादियों को लंबे समय से धन मुहैया करा रहे मॉड्यूल पर नोटबंदी की मार आखिरकार कैसे पड़ेगी। बेशक यह सच है कि बड़े करेंसी नोटों के रूप में आतंकवादी गुर्गों के पास संग्रहीत रकम अब कागज के टुकड़े से ज्यादा कुछ भी नहीं है, लेकिन उन्हें फिर से पैसा इकट्ठा करने में ज्यादा वक्त कतई नहीं लगेगा। नोटबंदी के बाद समस्त लेन-देन को कैशलेस मोड में परिवर्तित करने की चुनौतियों को देखते हुए आतंकवादी संगठनों द्वारा अपने नापाक मंसूबों को किसी कामचलाऊ व्यवस्था के जरिए आगे भी बदस्तूर जारी रखे जाने की प्रबल संभावना है। यही नहीं, कुछ समय के बाद भारतीय बैंकिंग प्रणाली में नकली नोटों को फिर से झोंका जा सकता है। इससे यह साफ जाहिर होता है कि ऐसा कोई भी उपाय जिसके तहत विशुद्ध रूप से आर्थिक आयाम पर ही ध्यान केंद्रित किया जाता है, वह संबंधित नीतियों और परिणामों दोनों को ही बेवजह कमजोर, सीमित एवं प्रभावित कर देगा।
सरकारी सुरक्षा तंत्र
3,323 किलोमीटर लंबी भारत-पाकिस्तान सीमा में से उसका 1,225 किमी हिस्सा जम्मू-कश्मीर में पड़ता है जिसमें नियंत्रण रेखा (एलओसी) भी शामिल है। इसी तरह इस सीमा का 553 किलोमीटर हिस्सा पंजाब में पड़ता है। अंतरराष्ट्रीय सीमा (आईबी) दरअसल कठुआ-पंजाब सीमा पर अवस्थित पहाड़पुर से लेकर जम्मू के उत्तर में अवस्थित अखनूर के चिकन्स नेक क्षेत्र तक फैली हुई है। जहां एक ओर सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) अंतरराष्ट्रीय सीमा का प्रहरी है, वहीं दूसरी ओर सेना एवं बीएसएफ 744 किलोमीटर लंबी एलओसी की रखवाली करते हैं, जो वास्तव में जम्मू-कश्मीर और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) के बीच की सीमा है।
लगभग सात लाख सुरक्षाकर्मी जम्मू-कश्मीर में तैनात किए गए हैं। वहीं, दूसरी ओर सेना की कुल सैन्य ताकत इसकी आधी है। पुलिस संबंधी बुनियादी जिम्मेदारियां अब भी राज्य की पुलिस के पास ही हैं, जिसे भारत के सबसे बड़े अर्धसैनिक बल अर्थात केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) की ओर से व्यापक सहयोग मिलता है। राष्ट्रीय राइफल्स, जो सेना का विशेष आंतरिक सुरक्षा और उग्रवाद रोधी बल है, का काम भी राज्य पुलिस को सहयोग देना है। आतंकवाद से मुकाबला करने की मुख्य जिम्मेदारी सेना और अर्धसैनिक बलों की है। बीएसएफ और सीआरपीएफ को उन शहरों एवं कस्बों में बड़ी संख्या में तैनात किया जाता है जो उग्रवादी और आतंकवादी गतिविधियों के केंद्र हैं। इनका उपयोग राजमार्गों को खुला रखने के लिए भी किया जाता है।
सैन्य अड्डों की लोकेशन
पंजाब और जम्मू-कश्मीर में अवस्थित भारतीय सैन्य अड्डों पर बार-बार होने वाले हमले गंभीर चिंता का विषय है। इनमें से ज्यादातर शिविर उग्रवाद से पहले के दौर के हैं। इसी वजह से ये शिविर हमलों और घुसपैठ की चपेट में आ जाते हैं। [1] उदाहरण के लिए, जहां एक ओर पठानकोट में एक सुरक्षा दीवार थी, वहीं दूसरी ओर ज्यादातर अड्डों में केवल एक आधारभूत बाड़ है। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि यहां तक कि काफी अच्छी तरह से संरक्षित सैन्य अड्डे पर भी आतंकवादी निष्क्रियता की लंबी अवधि के दौरान सुरक्षा व्यवस्था ढीली पड़ जाती है। ज्यादा आतंकी घटनाओं वाली अवधि के दौरान सुरक्षा व्यवस्था भी सुदृढ़ कर दी जाती है। वहीं, जब इस तरह का खतरा कम हो जाता है तो सुरक्षा के प्रति चौकन्नापन भी कम हो जाता है। आतंकवादी गुर्गे इस तरह के मौकों की ताक में रहते हैं।
जब भी इस तरह की घटना को अंजाम दिया जाता है तो इन कमजोर ठिकानों पर नए सिरे से कड़ी निगरानी रखने का क्रम फिर से शुरू हो जाता है। हालांकि, इस तरह की स्थिति पर काबू पाने के लिए कुछ खास नहीं किया जाता है। आतंकवादियों ने नियंत्रण रेखा पर अवस्थित उरी से अपना ध्यान हटाकर अब और ज्यादा गहराई में स्थित नगरोटा पर निशाना साधना शुरू कर दिया है। आतंकी हमले के लिए एक कोर मुख्यालय का चयन इस ओर इशारा करता है और इसके साथ ही यह इस बात का एक स्पष्ट संकेत है कि पाकिस्तान के जिहादी नेटवर्क ने अब अपने हमलों का दायरा काफी बढ़ा दिया है। पठानकोट, उरी और नगरोटा में घुसपैठियों को स्थानीय लोगों की ओर से मदद के साथ-साथ छिपने के लिए आश्रय मिलने के भी पर्याप्त सबूत हैं। यह भी भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों का एक और चिंताजनक पहलू है, जो हथियारों, नशीली दवाओं और नकली नोटों की तस्करी के लिए कुख्यात हैं। सीमावर्ती क्षेत्रों पर निगरानी की जो व्यवस्था फिलहाल है, उससे कहीं बेहतर चौकसी एवं प्रबंधन की आवश्यकता है।
नगरोटा पर हमला: बदलते पैंतरे
भारतीय सेना द्वारा सीमा पार ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ करने के ठीक दो महीने बाद 29 नवंबर 2016 को भारी हथियारों से लैस आतंकवादियों ने नगरोटा में 16वीं कोर के मुख्यालय और जम्मू में सांबा के निकट चमलियाल स्थित एक बीएसएफ सीमा चौकी पर एक साथ हमला किया था। आतंकवादी वर्दी में थे और वे नगरोटा शिविर में अधिकारियों के भोजनगृह में उस समय प्रवेश कर गए थे जब महिलाएं और बच्चे भी वहां मौजूद थे। वैसे तो महिलाओं और बच्चों को बंधक बनाए जाने की स्थिति को टालने में सैनिक कामयाब हो गए थे, लेकिन इसकी भारी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी थी। [2] यह 18 सितंबर को उरी में हुए हमले के बाद सबसे बड़ा आतंकी हमला था। यही नहीं, नगरोटा हमले ने एक बार फिर बड़े पैमाने पर क्षति पहुंचाने संबंधी आतंकवादियों के नापाक मंसूबे को रेखांकित कर दिया है। इन आतंकवादियों को इस बात की कतई चिंता नहीं थी कि वे अपनी जान बचाने में सफल होंगे या नहीं।
हाल ही में, सीमा पार से आए आतंकवादियों ने पंजाब में अंतरराष्ट्रीय सीमा या जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर अवस्थित भारत के महत्वपूर्ण रक्षा प्रतिष्ठानों को निशाना बनाना शुरू कर दिया है। गुरदासपुर, पठानकोट, उरी और अब नगरोटा में आतंकी हमलों को अंजाम देने का तरीका कमोबेश एक जैसा रहा है। इस विशेष तरीके के तहत आतंकवादी सबसे पहले सुरक्षा बलों के शिविरों में प्रवेश करते हैं और फिर अंधाधुंध गोलियां बरसाना शुरू कर देते हैं, ताकि ज्यादा-से-ज्यादा संख्या में सैनिक हताहत हों। हालांकि, उग्रवाद के तौर-तरीकों में एक उल्लेखनीय तब्दीली देखने को मिल रही है क्योंकि अब असैन्य अशांति को नियंत्रित करने के लिए पुलिस और अर्धसैनिक बलों को एक साथ तैनात करना पड़ता है। ये सभी घटनाएं कश्मीर में आतंकवाद संचालित उग्रवाद के मिले-जुले स्वरूप में अब एक अत्यंत खतरनाक हालात की ओर इशारा कर रही हैं।
उभरता स्वरूप खतरनाक है: कश्मीर में विद्रोहियों के समर्थक एवं हमदर्द अपने सतत विरोध और अवज्ञा के जरिए पुलिस एवं अर्धसैनिक बलों को हमेशा उलझाए रखते हैं। गुपचुप तरीकों से लोगों की भावनाओं को भड़काने वाले आतंकी गुटों (स्लीपर सेल) को सक्रिय कर दिया गया है और उनके सदस्यों को माहौल हमेशा अशांत रखने का निर्देश दिया गया है। साजिश के तहत ‘विरोध’ के बैनर तले जताए जा रहे आक्रोश और सविनय अवज्ञा का उद्देश्य संपत्ति को भारी नुकसान पहुंचाना, परिवहन व्यवस्था और सरकारी कामकाज में बाधा पहुंचाना है। उग्रवादी गड़बडि़या फैलाने के लिए देश के भीतर पनपे इन आतंकी गुटों से निरंतर नापाक संपर्क बनाए रखते हैं। [3] आम जनता को भड़काने का काम हमेशा जारी रखा जाता है और इसके साथ ही पुलिसकर्मियों एवं उनके परिवारों पर ज्यादा से ज्यादा हमले करने का सिलसिला बदस्तूर जारी रखा जाता है। आंदोलनकारियों और प्रदर्शनकारियों की ढाल के पीछे छिपे ये विद्रोही बगैर किसी कड़ी कार्रवाई के अपने नापाक इरादों को अंजाम देते रहते हैं।
एक और मोर्चे को खुला रखते हुए पाकिस्तान स्थित आतंकवादी भारतीय सेना के शिविरों पर अक्सर हमले करते रहते हैं और इसके साथ ही उन्हें आत्मरक्षा में भी उलझाए रखते हैं। पिछले वर्ष आतंकवादियों ने चुनिंदा लक्ष्यों को निशाना बनाया, ताकि ज्यादा से ज्यादा संख्या में लोग हताहत हो सकें। पठानकोट, उरी और नगरोटा में जिस तरह से आतंकी हमलों को अंजाम दिया गया है, उससे उनके कुटिल इरादे साफ तौर पर जाहिर हो रहे हैं। वैसे तो इन रक्षा प्रतिष्ठानों में सुरक्षा परिधि और प्रहरियों के साथ-साथ पैनी निगाह रखने वाले उपकरण भी लगे हुए थे, लेकिन अचानक हमला करके सुरक्षा बल को एकदम से सकते में डाल देने का शातिर तरीका अपनाया गया जिससे कि वे अपने बचाव में कुछ भी न कर सकें।
विद्रोहियों के नापाक मंसूबों पर नोटबंदी का कोई खास असर दिखाई नहीं आ रहा है। विद्रोहियों के बदलते पैंतरों पर नजरें दौड़ाने से यह एकदम साफ हो जाता है।
केंद्र सरकार द्वारा नोटबंदी का कदम उठाए जाने के साथ ही कश्मीर घाटी में बैंकों पर हमले भी अचानक काफी बढ़ गए हैं। 15 दिसंबर, 2016 को आतंकवादियों ने दक्षिण कश्मीर के पुलवामा जिले में स्थित जम्मू-कश्मीर बैंक की एक शाखा से ₹10 लाख रुपये से भी ज्यादा की रकम लूट ली। [4] इससे महज एक सप्ताह पहले आतंकवादियों ने ₹13 लाख रुपये से ज्यादा की राशि श्रीनगर से तकरीबन 30 किमी दूर पुलवामा के अरिहल गांव में स्थित जम्मू-कश्मीर बैंक की एक शाखा से लूट ली थी। पुलिस इस डकैती को नोटबंदी के कदम से जोड़कर देख रही है। [5] इससे पहले, 21 नवंबर 2016 को लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) ने मध्य कश्मीर के बडगाम जिले में जम्मू-कश्मीर बैंक की मलपोरा शाखा से ₹14 लाख रुपये लूट लिए थे। [6] इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए अब पुलिस बल को ही बैंकों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी होगी, जो पहले से ही बेहद कम संख्या में यहां-वहां फैले हुए हैं।
असर और सरकार की प्रतिक्रिया
पाकिस्तानी रणनीतिकार लंबे समय से जम्मू-कश्मीर में जिहाद को भारत में खून बहाने के एक साधन के रूप में देखते रहे हैं। वे अपने नए संयुक्त हाइब्रिड मॉडल के तहत उग्रवाद के साथ-साथ आतंकवाद को भी हवा दे रहे हैं जिस वजह से भारत सरकार कश्मीर में शांति बनाए रखने के अपने प्रयासों के तहत वहां अतिरिक्त सैन्य और अर्द्धसैनिक बलों को तैनात करने पर विवश हो गई है। वे अपने इस रणनीतिक बदलाव के बल पर कश्मीर में कई आतंकी घटनाओं को अंजाम देने में कामयाब रहे हैं। इस बदलाव के उद्देश्य संभवत: ये हैं:
- सुरक्षा बलों को अपने सैन्य ठिकानों तक ही सीमित रखकर जवाबी कार्रवाई करने संबंधी उनकी क्षमता को कमतर कर देना;
- और ज्यादा आतंकवादी घुसपैठ में आसानी के लिए नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर सुरक्षा बलों की निगरानी में कमी सुनिश्चित करना;
- दूरदराज के इलाकों, पहाड़ी क्षेत्रों और विद्रोहियों के संदिग्ध ठिकानों में सुरक्षा बलों के तलाशी अभियानों को रोकना;
- कश्मीर में तैनात सुरक्षा बलों के कर्मियों को हताश करना एवं उनका मनोबल गिराना;
- पूरी मुस्लिम आबादी को कश्मीर में भारतीय राज्य के अस्तित्व के खिलाफ करना।
पाकिस्तानी सेना अब एक सामरिक लक्ष्य हासिल करने के लिए नहीं लड़ रही है, बल्कि उसका मकसद एक ऐसा अशांत माहौल बनाना है, जिससे कि समान लक्ष्य की पूर्ति अन्य तरीकों से हो सके। दुर्भाग्यवश, ये सभी बदलाव मीडिया का पर्याप्त ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने में नाकाम साबित हो रहे हैं।
उग्रवाद के इस मिले-जुले तौर-तरीके को अपनाए जाने से भ्रमित होकर कश्मीर के अनभिज्ञ सुरक्षा बल कोई भी कदम निर्णायक ढंग से नहीं उठा पा रहे हैं। दरअसल, इस आशय का कोई भी संकेत नहीं है कि नीति निर्माता उग्रवाद के इस बदलते पैटर्न पर गंभीरतापूर्वक विचार कर रहे हैं। इसके बजाय, कश्मीर में सुरक्षा प्रतिष्ठान कुछ इस तरह से कार्रवाई करते हुए प्रतीत हो रहे हैं जो न केवल नियमित रूप से हो रहे आतंकी हमलों को रोकने में अप्रभावी साबित हो रही हैं, बल्कि यह तैनात सैनिकों के साथ-साथ रक्षा के लिए भेजे जाने वाले सैनिकों के लिए भी खतरनाक सिद्ध हो रही है। इसके अलावा, जम्मू-कश्मीर पुलिस की परिचालन और खुफिया क्षमताओं को उन्नत करने के लिए भी कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया है। खुफिया अधिकारियों के अनुसार, हाल ही में चलन में लाई गई नई मुद्रा के नकली नोटों का उपयोग शुरू होने में भी लंबा समय नहीं लगेगा। [7] कश्मीर मसले के समाधान से जुड़ी समस्त सरकारी एजेंसियों को इस उभरती वास्तविकता से अच्छी तरह अवगत हो जाना चाहिए।
कश्मीर की राजनीति में निरंतर बदलाव
जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक गतिशीलता जिस तेज गति से नई करवट ले रही है, उतनी ही चौंकाने वाली गति से यह सब कुछ हो रहा है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ निरंतर सहयोग की वजह से लोगों की नजरों में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की विश्वसनीयता तेजी से कम होती जा रही है। ऐसी स्थिति में इस राज्य में नए राजनीतिक गठजोड़ होने लगे हैं। नेशनल कांफ्रेंस (नेकां) अब हुर्रियत के करीब आ रही है। नेकां के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला ने सार्वजनिक रूप से अलगाववादियों का समर्थन किया है और इसके साथ ही हुर्रियत से अपने आंदोलन में एकजुट होने का आग्रह किया है। यही नहीं, उन्होंने अपने पार्टी कैडर से हुर्रियत का समर्थन करने को भी कहा है। अब्दुल्ला ने इससे पहले एक विवादास्पद बयान जारी कर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर पर भारत के दावे पर सवाल उठाया था। [8] पीडीपी और भाजपा को एक ऐसे राजनीतिक माहौल में एक साथ काम करने में भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है, जहां निरंतर बदलाव हो रहे हैं। हाल ही में, मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती राज्य पुलिस सेवा के पुनर्गठन के मुद्दे पर भाजपा के एक मंत्री के साथ मतभेद उभरने पर मंत्रिमंडल की बैठक बीच में ही छोड़ कर चली गई थीं। [9]
कश्मीर विवाद को हल करने के लिए अपनाए जाने वाले दृष्टिकोण पर तमाम तरह के मतभेद उभरने के बावजूद असली चुनौती यह है कि इस दिशा में केंद्र सरकार सतत और ध्यान केंद्रित प्रयास नहीं कर रही है।
ये सिर्फ बेकार में ही वाद-विवाद के मुद्दे नहीं हैं। दरअसल, इनका वास्ता उस राजनीतिक माहौल से है जो भारत सरकार जम्मू-कश्मीर में बनाना चाहती है।
दरअसल, राजनीतिक जड़ता की वजह से कश्मीर मसले पर कोई भी प्रगति नहीं हो पा रही है। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण होगा अगर केंद्र सरकार यह धारणा बना लेती है कि बल प्रयोग ही इस क्षेत्र की रक्षा करने का एकमात्र तरीका है। भारत को कश्मीर में जिहादी ताकतों की आक्रामक महत्वाकांक्षा से अपने क्षेत्र और लोकतंत्र की रक्षा अवश्य ही करनी चाहिए। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि अब नैतिक भ्रम की स्थिति बन गई है क्योंकि आगे की राह को लेकर अब कुछ भी स्पष्ट नहीं है। कश्मीर समस्या को लेकर ध्रुवीकृत धारणा भारत में नीति निर्माण में नजर आ रहे अनिर्णय का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। वे समरसता के बजाय पूर्वाग्रहों का समर्थन करते हैं और खुद भी इससे प्रेरित होते रहते हैं। वे सुरक्षा का जिम्मा संभालने वालों को इस बात के लिए प्रवृत्त करते हैं कि किन-किन खास प्राथमिकताओं और नीतियों पर विशेष जोर देना है और किनको हल्के में लेना है।
आतंकवाद का मुकाबला करने की कारगर रणनीति के तहत आर्थिक मुद्दों के बजाय राजनीतिक मसलों को सुलझाने पर ही ज्यादा ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए। जैसा कि अर्थशास्त्री एलन क्रूएजर और जिटका मलेकोवा कहते हैं, “आतंकवाद को राजनीतिक हालात के साथ-साथ अपमान एवं हताशा को लेकर लंबे समय से कायम भावनाओं (या तो कथित या वास्तविक) की एक प्रतिक्रिया के रूप में ही कहीं ज्यादा सही ढंग से देखा जाता है और इसका अर्थशास्त्र से कोई खास लेना-देना नहीं होता है।” [10] अब उच्चतम स्तर पर कुछ गंभीर आत्मनिरीक्षण करने का समय आ गया है। सेना के शिविरों पर हो रहे आतंकवादी हमलों के चक्र को सैन्य तरीके से तोड़ने में सक्षम होने के अलावा सरकार के लिए यह भी जरूरी है कि वह पिछले चार महीनों से अपनी विश्वसनीयता खोते जा रहे राजनीतिक प्रतिनिधियों के साथ-साथ सभी कश्मीरी नेताओं से भी सार्थक वार्तालाप करके इस समस्या को जड़ से खत्म करे।
‘सर्जिकल स्ट्राइक’ पाकिस्तान का हौसला पूरी तरह से पस्त नहीं कर पाई है। यही नहीं, उसके बाद से लगभग 30 सैनिक अपनी जान गंवा चुके हैं। अतीत के अनुभव से यही पता चला है कि भारत की सैन्य जवाबी कार्रवाई का प्रतिकार पाकिस्तान की ओर से समान नुकसान के रूप में हमेशा से ही लिया जाता रहा है और एक खास बात यह भी है कि दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ने से पाकिस्तान में खुशी की लहर फैल जाती है। नगरोटा हमले के बाद नीति निर्माताओं को इस सवाल का जवाब ढूंढ़ना चाहिए कि क्या पाकिस्तान को काबू में रखने के लिए भारत को आपसी तनाव को और ज्यादा बढ़ा देना चाहिए अथवा इसके बजाय किसी अन्य उपलब्ध विकल्प को अपनाना चाहिए। दुर्भाग्यवश, नोटबंदी के बाद इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर अपेक्षित बहस नीतिगत एजेंडे के हाशिये पर चली गई है।
यह स्पष्ट है कि कश्मीर समस्या से पाकिस्तान फैक्टर को अलग रखकर देखने की कामना नहीं की जा सकती है। एक और बात यह है कि सैन्य शक्ति का उपयोग करके पाकिस्तान को पूरी तरह से नेस्तनाबूद भी नहीं किया जा सकता है।
नोटबंदी से पहले सरकार और मीडिया इस हद तक व्यग्र हो गए थे कि उन्होंने पाकिस्तान को ‘सबक सिखाने’ के लिए विभिन्न तरीकों पर बाकायदा चर्चाएं भी शुरू कर दी थीं। आज पाकिस्तान को राजनयिक दृष्टि से अलग-थलग करने के बारे में कुछ अस्पष्ट जिक्र करने के अलावा पाकिस्तान से निपटने पर शायद ही कोई चर्चा हो रही है। पाकिस्तान के साथ संवाद के सभी चैनलों को पूरी तरह से बंद करके भारत क्या एक निर्वात पैदा नहीं कर रहा है जिससे आगे चलकर जिहादियों के साथ-साथ चीन भी और ज्यादा फायदा उठा सकता है?
निष्कर्ष
प्रधानमंत्री मोदी ने नीतिगत निर्णय लेने के मामले में अपने पूर्ववर्ती की तुलना में निश्चित रूप से एक अलग दृष्टिकोण अपनाने के वादे के साथ वर्ष 2014 में सत्ता संभाली थी। वैसे तो उनकी अपरंपरागत शैली कई मुद्दों पर कारगर साबित हुई है, लेकिन कश्मीर में असफल नीति से ज्यादा महत्वपूर्ण कोई और ऐसा उदाहरण नहीं है जो उनके दृष्टिकोण के नकारात्मक पहलू पर खुलकर प्रकाश डालता है। नीति के मामले में इसके महत्वपूर्ण निहितार्थ हैं: सैन्य कार्रवाई को कश्मीर में आतंकवाद संचालित उग्रवाद के खिलाफ एक जादुई समाधान के रूप में कतई नहीं देखा जाना चाहिए। दरअसल, जटिल चुनौतियों से निपटने के लिए एक बारीक, व्यापक और राजनीतिक काबिलियत का होना अत्यंत जरूरी है। जहां एक ओर नोटबंदी के कारण सरकार के अगले और छह महीनों तक इसी में उलझे रहने की संभावना है, वहीं दूसरी ओर कश्मीर में चुनौती और ज्यादा गंभीर होती जा रही है।
इस तरह की संकीर्ण रणनीति से भारत की सुरक्षा संबंधी अपेक्षाओं और अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा पर आंच आने का अंदेशा है। भारत के भीतर कुछ आत्मघाती आतंकवादियों को मार गिराना अथवा सीमा पार सर्जिकल स्ट्राइक करना दरअसल कश्मीर की स्थानीय आबादी से सहर्ष समर्थन हासिल किए जाने का विकल्प नहीं है।
पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के खिलाफ भारत की जंग के तहत कश्मीर पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है। हालांकि, भारत सरकार इस समय भारतीयों के लिए एक ‘बेहतर’ भविष्य बनाने हेतु अर्थव्यवस्था के ‘पुनर्वास’ से जुड़े ठोस प्रयास में पूरी तरह से व्यस्त नजर आ रही है। ऐसी स्थिति में सरकार अन्य उद्देश्यों की पूर्ति की दिशा में आगे बढ़ने की बात तभी सोचेगी जब नोटबंदी से उपजी आर्थिक कठिनाइयों से लोगों को निजात मिल जाएगी। हालांकि, इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि उभरती सुरक्षा चुनौतियों और बढ़ती आर्थिक आवश्यकताओं के बीच समुचित तालमेल बैठाकर ही भारत अपने राष्ट्रीय उद्देश्यों की पूर्ति की दिशा में और आगे बढ़ सकता है। यकीनन, नोटबंदी के मार्ग पर चलकर अपराध, भ्रष्टाचार एवं टकराव की मौजूदा बहुमुखी, आपस में जुड़ी और तेजी से बदलती चुनौतियों से निपटा नहीं जा सकता है। नोटबंदी आतंकवादियों को पैसा मुहैया कराए जाने की समस्या से निजात दिलाने वाली प्रक्रिया का एक हिस्सा हो सकती है, लेकिन यह अपने-आप में सर्वग्राही एवं व्यापक ध्येय नहीं है।
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आर.के. अरोड़ा जयपुर स्थित शांति और आपसी संघर्ष अध्ययन केंद्र (सीपीसीएस) में एक कमांडेंट एवं कार्यक्रम समन्वयक हैं। उन्हें पुलिस प्रोफेशनल के रूप में इस क्षेत्र में कार्य करने का दो दशकों से भी अधिक अवधि का अनुभव है। उन्हें कश्मीर में उग्रवाद रोधी कार्रवाइयों के तहत नौ वर्षों का कार्य अनुभव है। वह बनस्थली में सीमा सुरक्षा में एक डॉक्टरेट शोधकर्ता हैं, उन्हें सीमा सुरक्षा और आतंकवाद का मुकाबला करने से जुड़े कार्यों में काफी दिलचस्पी है। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।
विनय कौरा, (पीएचडी) जयपुर स्थित शांति और आपसी संघर्ष अध्ययन केंद्र (सीपीसीएस) में एक सहायक प्रोफेसर और समन्वयक हैं। वह भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति पर व्यापक लेखन कार्य करते रहे हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।
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