Author : Aparna Roy

Expert Speak Health Express
Published on Apr 09, 2024 Updated 0 Hours ago

पहले से ही बदहाल स्वास्थ्य  तंत्र पर जलवायु परिवर्तन की वजह से और अधिक दबाव पड़ रहा है. ऐसे में इस दिशा में सार्थक प्रगति के लिए स्वास्थ्य के मुद्दे को जलवायु न्याय आंदोलन के केंद्र में रखना बेहद ज़रूरी है. 

स्वास्थ्य को लेकर वैश्विक लक्ष्य हासिल करने के लिए इसे जलवायु कार्रवाई के केंद्र में रखना ज़रूरी!

यह लेख विश्व स्वास्थ्य दिवस 2024: मेरा स्वास्थ्य, मेरा अधिकार श्रृंखला का हिस्सा है.


हाल ही में भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (MeT) ने भविष्यवाणी की है कि इस बार प्रचंड गर्मी पड़ेगी, साथ ही अगले तीन महीनों के दौरान देश के ज़्यादातर हिस्सों में असामान्य रूप से तेज़ गर्म हवाएं चलेंगी. मानवीय गतिविधियों की वजह से होने वाला जलवायु परिवर्तन वातावरण में गर्मी में अत्यधिक बढ़ोतरी का कारण बन रहा है. यानी मानव दख़ल की वजह से जलवायु में होने वाला बदलाव सूर्य की तपिश को और बढ़ाने का काम कर रहा है और कहीं न कहीं इस तपिश के कारण एक ऐसा पर्यावरणीय ख़तरा पैदा हो रहा है, जिसे टाला नहीं जा सकता है. वर्ष 2023 में वायुमंडल में मौज़ूद कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 425 पीपीएम के एक नए रिकॉर्ड पर पहुंच गया था. वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की बढ़ोतरी की वजह से वर्ष 2014 से 2023 तक के दशक को अब तक के सबसे गर्म दशक के रूप में दर्ज़ किया गया है.

स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन पर लैंसेट काउंटडाउन की वर्ष 2023 में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक़ 2022 में गर्मी के कारण 191 बिलियन संभावित श्रम घंटे यानी काम के घंटे बर्बाद हो गए थे. वर्ष 1991-2000 तक के आंकड़ों से इसकी तुलना करें, तो बर्बाद होने वाले काम के घंटों में यह 54 प्रतिशत की वृद्धि दिखाता है.

देखा जाए तो भारत में इस भीषण गर्मी का असर बहुत अधिक पड़ा है. स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन पर लैंसेट काउंटडाउन की वर्ष 2023 में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक़ 2022 में गर्मी के कारण 191 बिलियन संभावित श्रम घंटे यानी काम के घंटे बर्बाद हो गए थे. वर्ष 1991-2000 तक के आंकड़ों से इसकी तुलना करें, तो बर्बाद होने वाले काम के घंटों में यह 54 प्रतिशत की वृद्धि दिखाता है. इतना ही नहीं, हाल के वर्षों में जलवायु परिवर्तन की वजह से पैदा वाली लू और लपट ने मानव स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर डाला है.

बढ़ती गर्मी के लिहाज़ से देखें, तो भारत कोई अकेला ऐसा देश नहीं हैं, जहां इस तरह से हालात पैदा हो रहे हैं. अगर गौर से देखा जाए तो उन्हीं देशों पर जलवायु परिवर्तन का सबसे गंभीर असर पड़ता है, जिनका ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में योगदान सबसे कम होता है. ख़ास तौर पर निम्न और मध्यम आय वाले देशों को समुचित स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं होने का नतीज़ा भुगतना पड़ता है. वर्तमान में जलवायु परिवर्तन की वजह से पैदा होने वाली जो स्वास्थ्य समस्याएं सामने आ रही हैं, अगर उन पर काबू नहीं पाया गया और हालात को बदला नहीं गया, तो समाज के सबसे कमज़ोर समूहों के लोगों, यानी महिलाओं, स्थानीय आबादी, बुजुर्गों और पहले से ही बीमारियों से जूझ रहे लोगों को इसका सबसे अधिक दुष्परिणाम भुगतना पड़ेगा.

कुछ दिनों पहले ही कॉप-28 सम्मेलन का आयोजन किया गया था, और इसमें भी जलवायु कार्रवाई के एजेंडे में स्वास्थ्य के मुद्दे पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित करने की बात कही गई थी. दरअसल, इस सम्मेलन में कोविड-19 महामारी के पश्चात पैदा हुई तमाम स्वास्थ्य चुनौतियों एवं बुजुर्गों, महिलाओं व बीमारियों से पीड़ित वर्गों जैसे कमज़ोर समूहों पर भीषण गर्मी और चरम मौसमी घटनाओं के प्रभाव से पैदा होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं पर चर्चा के दौरान हेल्थ के विषय पर ख़ास ज़ोर दिया गया था. इसमें जो ‘जलवायु एवं स्वास्थ्य पर कॉप-28 घोषणापत्र’ जारी किया गया था, उसमें भी इस विषय को ज़ोरशोर से उठाया गया है. इस घोषणापत्र में “ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में तेज़ी के साथ कमी करके, हरित ऊर्जा की ओर परिवर्तन, वायु प्रदूषण में कमी, सक्रिय गतिशीलता एवं टिकाऊ व स्वास्थ्यवर्धक आहार को बढ़ावा देने जैसे क़दमों को अमल में लाकर बेहतर स्वास्थ्य की दिशा में बढ़ने का आह्वान किया गया है.” हालांकि कॉप-28 के दौरान जो प्रस्ताव लाए गए हैं, वो सराहना करने योग्य हैं, लेकिन जिस प्रकार से वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर असमानता व्याप्त है, उसे दूर करने के लिए अधिक व्यापक नज़रिए को अपनाने की ज़रूरत है. कहने का तात्पर्य है कि ग्लोबल क्लाइमेट गवर्नेंस यानी वैश्विक स्तर पर जलवाय परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए जो देश और संस्थाएं उत्तरदायी हैं, उन्हें कोरी बातें करने के बाजए, इस दिशा में अब ठोस कार्रवाई करना चाहिए.

जलवायु परिवर्तन की वजह से पैदा होने वाले हालातों के चलते खाद्य पदार्थों और पानी की आपूर्ति में रुकावट पैदा हो रही है एवं साफ-सफाई पर भी असर पड़ रहा है और इन सबका कहीं न कहीं लोगों की सेहत पर हानिकारक प्रभाव पड़ रहा है.

जलवायु परिवर्तन की वजह से वैश्विक स्तर पर पहले से ही तमाम क्षेत्रों में दुष्प्रभाव दिखाई दे रहे हैं और इसके कारण पहले से ही बदहाल स्वास्थ्य क्षेत्र और ज़्यादा प्रभावित हो रहा है. जलवायु परिवर्तन के चलते जहां एक और गर्म हवाएं चलने में इज़ाफा हो रहा है, वहीं इससे होने वाली बाढ़ एवं चक्रवात जैसी चरम मौसमी घटनाएं तेज़ी के साथ संक्रामक बीमारियों को फैला रही हैं. इसके अतिरिक्त, जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों की वजह से स्वास्थ्य सुविधाओं और व्यवस्थाओं पर ख़ासा असर पड़ रहा है, विशेष रूप से जो क्षेत्र पहले से ही इसको लेकर संवेदनशील हैं, वहां तो स्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैं. जलवायु परिवर्तन की वजह से पैदा होने वाले हालातों के चलते खाद्य पदार्थों और पानी की आपूर्ति में रुकावट पैदा हो रही है एवं साफ-सफाई पर भी असर पड़ रहा है और इन सबका कहीं न कहीं लोगों की सेहत पर हानिकारक प्रभाव पड़ रहा है. इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन टिकाऊ आजीविका के साधनों, बराबरी और स्वास्थ्य देखभाल से संबंधित सुविधाओं एवं सामुदायिक सहायता नेटवर्क तक लोगों की पहुंच में बाधाएं पैदा कर रहा है. ज़ाहिर है कि यह सभी सामाजिक कारक अच्छी सेहत सुनिश्चित करने के लिए बेहद आवश्यक हैं.

हालात बदलने का वक्त़

अब इन विपरीत परिस्थितियों को बदलने का वक़्त आ गया है. वैश्विक स्वास्थ्य प्रशासन को अब जलवायु समानता के सिद्धांतों को हर हाल में अपनाना चाहिए. अर्थात विकास के लिए मानव केंद्रित नज़रिए को अपनाना चाहिए, ताकि समाज के कमज़ोर वर्गों पर पड़ने वाले घातक प्रभावों को दूर किया जा सके. कहने का मतलब है कि जलवायु परिवर्तन से प्रभावित ऐसी आबादी, जिसकी स्वास्थ्य सेवाओं और संसाधनों तक समुचित पहुंच नहीं है, उस तक बराबरी के आधार पर स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचानी चाहिए. इस दिशा में बेहतर प्रगति हासिल करने के लिए क्लाइमेट जस्टिस मूवमेंट यानी जलवायु संकट को सामाजिक, जातीय एवं पर्यावरणीय मुद्दों से जोड़ने के दौरान स्वास्थ्य को केंद्र में रखना चाहिए. ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन द्वारा हाल ही में "कन्वर्जिंग पाथ्स: ग्लोबल गवर्नेंस फॉर क्लाइमेट जस्टिस एंड हेल्थ इक्विटी", शीर्षक के नाम से एक अध्ययन का प्रकाशन किया गया है, जिसमें वैश्विक स्वास्थ्य और जलवायु प्रशासन दोनों ही के लिए दिशा-निर्देशों का निर्धारण करने एवं इन दोनों विषयों के मेलजोल के लिए विकल्प तलाशने हेतु अहम कार्य बिंदुओं को प्रस्तुत किया गया है.

  1. WHO महामारी समझौते में जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण अधिकारों के मुद्दे को विस्तृत तरीक़े से संबोधित किया जाना चाहिए: विश्व स्वास्थ्य संगठन के अंतर-सरकारी वार्ता निकाय ने अक्टूबर 2023 में WHO महामारी समझौते का एक मसौदा प्रस्तुत किया था. इस मसौदे में भविष्य में सामने आने वाली महामारियों का मुक़ाबला करने के लिए देशों के समक्ष एक संयुक्त विकल्प का प्रारूप प्रस्तावित किया गया था. गौरतलब है कि वर्तमान में महामारियों से निपटने के लिए सशक्त पारस्परिक सहयोग की सबसे अधिक ज़रूरत महसूस की जा रही है. यानी अब एक ऐसे समझौते को मूर्तरूप देने की ज़रूरत है, जो न केवल संक्रामक बीमारियों एवं पब्लिक हेल्थ से जुड़े ख़तरों का मुक़ाबला करने के लिए तत्परता के साथ कार्रवाई करने वाला हो, बल्कि आसपी सहयोग को बढ़ाता हो और इस पूरी प्रक्रिया को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों के मुताबिक़ ढालने वाला हो. जिस समझौते की बात की जा रही है हालांकि वह ‘वन हेल्थ’ की अवधारणा का पालन करता है, साथ ही जलवायु परिवर्तन के फ्रेमवर्क के तहत स्वास्थ्य के मुद्दे को समाहित करता है. हालांकि, यह आपसी सहयोग इस प्रकार का होना चाहिए, जो जलवायु परिवर्तन के कारण पैदा होने वाली स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौतियों का प्रभावी तरीक़े से समाधान करने वाला हो, यानी इसमें 'वन हेल्थ' से संबंधित पर्यावरणीय पहलुओं पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए. इतना ही नहीं इस तरह के समझौते में बराबरी का हर हाल में ध्यान रखा जाना चाहिए, अर्थात महज आंकड़ों और मानकों में नहीं उलझना चाहिए, बल्कि सभी वर्गों के बीच लाभों के एक समान बंटवारे को प्रमुखता देनी चाहिए. 
  1. जलवायु संकट को पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी घोषित करना और अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य विनियमन (IHR) 2005 के कार्यक्षेत्र का विस्तार: वैश्विक स्वास्थ्य प्रशासन संस्थानों का प्रभाव देखा जाए तो IHR 2005 के संकुचित कार्यक्षेत्र और ढांचे के कारण सीमित बना हुआ है. अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य विनियमन के प्रावधान स्वास्थ्य प्रशासन से जुड़े संस्थानों को सिर्फ स्वास्थ्य आपातकाल एवं संचारी रोगों तक ही सीमित कर देते हैं. ऐसे में IHR 2005 का विस्तार किए जाने की आवश्यकता है, ताकि वैश्विक स्वास्थ्य ख़तरों की बहुआयामी प्रकृति के मद्देनज़र जलवायु परिवर्तन की वजह से पैदा होने वाले स्वास्थ्य संकटों को भी इसमें शामिल किया जा सके. उल्लेखनीय है कि IHR 2005 में स्वास्थ्य से जुड़े ख़तरों की रोकथाम के लिए पर्याप्त प्रावधान नहीं किए गए हैं. पर्यावरण में उथल-पुथल एवं जलवायु परिवर्तन की वजह से पैदा होने वाली आपतकालीन स्वास्थ्य परिस्थितियों का सामना करने के लिए तो इस विनियमन में कुछ भी नहीं किया गया है.
  1. जलवायु अनुकूलन को लेकर निर्धारित वैश्विक लक्ष्य में स्वास्थ्य को स्पष्ट रूप से संबोधित करना और स्वास्थ्य देखभाल के लिए जलवायु अनुकूलन राशि में वृद्धि करना: मौज़ूदा वक़्त में जो जलवायु नीति है, उसका फोकस ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में कमी लाना है. इस नज़रिए में व्यापक स्तर पर परिवर्तन लाने की ज़रूरत है. जलवायु अनुकूलन के लिए जो फंडिंग की जाती है, उसमें समग्रता का नितांत अभाव है, ख़ास तौर पर हेल्थकेयर जैसे महत्वपूर्ण विषय की इसमें अनदेखी की गई है. जिस तरह से महामारी ने चिकित्सा प्रणाली पर अतिरिक्त बोझ डाला है, उस परिस्थिति में पहले से ही वित्तपोषण की कमी से जूझ रहे स्वास्थ्य तंत्र की मुश्किलें और बढ़ गई हैं. ज़ाहिर है कि जलवायु परिवर्तन के कारण पैदा होने वाले स्वास्थ्य संकटों का सामना करने के लिए और क्षमता बढ़ाने के लिए चिकित्सा प्रणाली में पर्याप्त वित्तीय निवेश की ज़रूरत है.
  1. वैश्विक जलवायु प्रशासन को 'लॉस एंड डैमेज’ फंडिंग में बदलाव करना चाहिए: जलवायु परिवर्तन की वजह से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर, ख़ास तौर पर ऐसे प्रभाव, जो घातक नहीं हैं और जो मानसिक स्वास्थ को प्रभावित करते हैं, उन्हें मौद्रिक दृष्टि से निर्धारित करने यानी इनसे कितना वित्तीय नुक़सान होता है, उसका निर्धारण करना बेहद चुनौतीपूर्ण है. स्वास्थ्य के नुक़सान को झेल रहे कमज़ोर वर्गों के लिए समुचित मुआवज़े और सहायता का निर्धारण करना करना बेहद अहम है, तभी ऐसे लोगों की पर्याप्त मदद की जा सकती है. ऐसे में यह ज़रूरी हो जाता है कि 'लॉस एंड डैमेज' के इस मुद्दे पर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों के मुताबिक़ अनुकूलन और शमन के मुद्दे की तरह ही तत्काल प्रभाव से कार्य किया जाना चाहिए. ऐसा करने पर ही विकसित देशों को अपने वित्तीय दायित्वों को पूरा करने के लिए जवाबदेह ठहराया जा सकता है. इन चुनौतियों का प्रभावी तरीक़े से समाधान करने के लिए एक प्रगतिशील लॉस एंड डैमेज फंड की स्थापना बहुत ज़रूरी है. यह फंड ऐसा होना चाहिए, जो स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन के पारस्परिक संबंधों को ध्यान में रखे और उसी के मुताबिक़ आगे कार्य करे.

इन चुनौतियों का प्रभावी तरीक़े से समाधान करने के लिए एक प्रगतिशील लॉस एंड डैमेज फंड की स्थापना बहुत ज़रूरी है. यह फंड ऐसा होना चाहिए, जो स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन के पारस्परिक संबंधों को ध्यान में रखे और उसी के मुताबिक़ आगे कार्य करे. 

ज़ाहिर है कि अगर जलवायु से जुड़ी पहलों में स्वास्थ्य के मुद्दे को प्रमुखता दी जाती है और जलवायु परिवर्तन को लेकर स्वास्थ्य के लिहाज़ से विचार-विमर्श किया जाता है, तो निसंदेह तौर पर जलवायु अनुकूलन और शमन के लिए न केवल नीतियां बनाने में मदद मिल सकती है, बल्कि लोगों का भी ख़ासा समर्थन हासिल हो सकता है. जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों के शमन से जुड़े प्रयासों में स्वास्थ्य का विषय केंद्र में बना हुआ है. देखा जाए तो जलवायु परिवर्तन के स्वास्थ्य पर असर को लेकर अभी सिर्फ़ और सिर्फ़ डरावने नतीज़ों की ही चर्चा की जाती रही है. अगर इसकी जगह स्वास्थ्य केंद्रित जलवायु कार्रवाई एवं टिकाऊ व कम कार्बन उत्सर्जन वाली जीवनशैली की ओर परिवर्तन के बारे में चर्चा की जाए और इस दिशा में क़दम बढ़ाए जाएं, तो यह न केवल मूल्यों को फिर से निर्धारित कर सकता है, बल्कि यह जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को समाप्त करने की दिशा में सामाजिक एवं व्यावहारिक बदलाव लाने के लिए भी प्रेरित कर सकता है.


अपर्णा रॉय ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में फेलो और जलवायु परिवर्तन एवं ऊर्जा पहल की प्रमुख हैं.

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