देश की आज़ादी के बाद बनने वाली एक के बाद एक सरकारों और संबंधित अन्य पक्षों की दिलचस्पी सिविल सेवा सुधार (सिविल सर्विसेज रिफ़ॉर्म) में रही है. पिछले सात दशक में देश के नौकरशाही के ढांचे में बदलाव पर विचार करने के लिए कई समितियां बनीं. सिविल सेवा सुधार पर चर्चा हुई और इन समितियों ने दर्जनों रिपोर्ट्स दीं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर अब तक इस मामले में बहुत कम प्रगति हुई है. सिविल सेवा में बदलाव की कुछ कोशिश ज़रूर हुईं, लेकिन उनसे नौकरशाही के ढांचे की बुनियाद नहीं बदली.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के पहले कार्यकाल में भी कुछ सिविल सेवा सुधार हुए. इनमें भ्रष्टाचार निरोधक कानून (प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट) में संशोधन, फ़ाउंडेशन कोर्स के बाद सर्विस का एलोकेशन और सिविल सेवा में बाहर से नियुक्तियां शामिल हैं. भ्रष्टाचार निरोधक कानून, 1988 (पीसी एक्ट) में दो महत्वपूर्ण संशोधन किए गए. इसमें पहला बदलाव यह हुआ कि आधिकारिक फ़ैसलों के लिए किसी नौकरशाह पर तब तक मुकदमा नहीं चलाया जा सकता, जब तक कि यह साबित न हो कि वह फैसला गलत नीयत से लिया गया था. इतना ही नहीं, कार्यरत और रिटायर्ड नौकरशाह के ख़िलाफ़ जांच शुरू करने के लिए भी सरकार से मंजूरी लेनी होगी. पिछली यूपीए सरकार के दौरान कार्यरत या रिटायर्ड नौकरशाहों के खिलाफ फ़ैसलों को जनहित में न मानकर कुछ केस दर्ज किए गए थे, लेकिन उनमें गलत नीयत या भ्रष्टाचार की बात साबित नहीं हुई थी. इससे नौकरशाही में भारी गुस्सा था और इसका नीति-निर्माण पर बुरा असर पड़ा था. इस समस्या को सुलझाने के लिए मोदी सरकार ने भ्रष्टाचार निरोधक कानून में इन बदलावों के जरिये नौकरशाहों को वह सुरक्षा दी, जिनकी उन्हें ज़रूरत थी.
मोदी सरकार ने भ्रष्टाचार निरोधक कानून में इन बदलावों के जरिये नौकरशाहों को वह सुरक्षा दी, जिनकी उन्हें ज़रूरत थी.
एक बड़ा और अरसे से लटका हुआ रिफ़ॉर्म सिविल सेवा में बाहर से पेशेवरों को लाने की इजाज़त है. गहन विचार-विमर्श और महीनों की देरी के बाद अप्रैल 2019 में एनडीए सरकार ने 9 गैर-सरकारी पेशेवरों की संयुक्त सचिव के पद पर नियुक्ति की. इनमें वित्त, वाणिज्य, सड़क परिवहन और हाइवे मंत्रालय के संयुक्त सचिव भी शामिल थे. ब्यूरोक्रेसी को निजी क्षेत्र के पेशेवरों के लिए खोलने के इस कदम का कई लोगों ने स्वागत किया, लेकिन इसे लागू करने के तरीके पर कुछ सवाल भी खड़े किए गए. हालांकि, इनमें से किसी भी कदम से सिविल सेवा में बुनियादी सुधार नहीं हुआ. यहां तक कि यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन (यूपीएससी) और फ़ाउंडेशन कोर्स में मिले नंबरों को मिलाकर खास सर्विस में भेजे जाने के सरकार के विवादास्पद प्रस्ताव से भी वे बुनियादी मसले हल नहीं हुए, जिनका नौकरशाहों के प्रदर्शन पर ख़राब असर पड़ता है.
सिविल सेवा में सुधार पर बनी समितियों ने जो सख़्त सुझाव दिए हैं, सरकार अब तक उन्हें लागू करने से बचती आई है. यह बात खासतौर पर सिविल सेवा में स्वायत्तता, प्रशासनिक विकेंद्रीकरण और हायरार्की पर जोर न देने, किसी ख़ास क्षेत्र में विशेषज्ञता (डोमेन स्पेशलाइजेशन), स्थानीय संस्थानों के सशक्तीकरण (73वें और 74वें संविधान संशोधन), नौकरशाही की क्षमता बढ़ाने और सिविल सेवा का आकार घटाने से जुड़ी है.
सुझाव
सिविल सेवा को और सक्षम, पारदर्शी और जवाबदेह बनाने के लिए अगले पांच साल में तीन बड़े बदलाव करने होंगे. पहले तो विकेंद्रीकरण पर जोर देना होगा. देश में गुड गवर्नेंस की राह में सबसे बड़ी बाधा यह रही है कि कुछ संस्थानों के हाथों में बहुत अधिक ताकत है. यह अंग्रेजों के राज से चली आ रही समस्या है, जो आज़ादी के सात दशक के बाद भी बनी हुई है. लोकतांत्रिक सुशासन (गुड डेमोक्रेटिव गवर्नेंस) की बुनियाद यह है कि केंद्रीय इकाई सिर्फ वही काम करे, जिसे स्थानीय स्तर पर अच्छी तरह से न किया जा सके. इसके लिए सत्ता का विकेंद्रीकरण जरूरी है. इसकी ख़ातिर केंद्र से राज्यों को अधिक अधिकार दिया जाना चाहिए और राज्यों को यही काम जिला स्तर पर करना होगा. जिला स्तर से स्थानीय निकायों को अधिक अधिकार मिलने चाहिए. इसमें सत्ता के ऊपरी स्तर से जिला और स्थानीय स्तर पर अधिक राजनीतिक, वित्तीय और प्रशासनिक शक्तियां देनी होंगी. इसके लिए संसद ने संविधान में 73वां और 74वां संशोधन कर दिया है, लेकिन राज्य लापरवाही बरतते आए हैं. इसी वजह से आज भई ऊपरी स्तर पर कई फैसले लिए जा रहे हैं, जिन्हें निचले या स्थानीय स्तर पर लिए जाने की ज़रूरत है. विकेंद्रीकरण से लोकतंत्र का विस्तार होता है. इससे उसी स्तर पर फैसले लिए जाते हैं, जहां से कोई समस्या संबंधित है. इससे संबंधित क्षेत्र के विकास की प्रक्रिया में स्थानीय लोगों की सीधी, नियमित और अर्थपूर्ण भागीदारी होती है. इससे स्थानीय लोग खुद को विकास की प्रक्रिया से जोड़कर देखते हैं और लोकतंत्र के प्रति उनकी प्रतिबद्धता बढ़ती है. इसलिए हर स्तर पर सत्ता के विकेंद्रीकरण की कोशिश होनी चाहिए.
लोकतांत्रिक सुशासन (गुड डेमोक्रेटिव गवर्नेंस) की बुनियाद यह है कि केंद्रीय इकाई सिर्फ वही काम करे, जिसे स्थानीय स्तर पर अच्छी तरह से न किया जा सके.
दूसरा महत्वपूर्ण रिफ़ॉर्म सिविल सेवा के अपने संवैधानिक दायित्व के निर्वाह से जुड़ा है. नई सरकार को इस मामले में ऐसा एजेंडा तय करना चाहिए, जिससे सिविल सेवा किसी राजनीतिक दल या शख़्स के हाथ की कठपुतली न बने बल्कि वह कानून के मुताबिक और जनहित में काम करे. जब तक नौकरशाही ऐसा नहीं करती, तब तक न्याय, समानता और पारदर्शिता को हासिल करना मुश्किल होगा. मौजूदा व्यवस्था में इसका अभाव है. इसलिए राजनीतिक ताकत का इस्तेमाल करके नौकरशाहों को झुकाया जाता है. भारत के संघीय ढांचे के मुताबिक राज्यों के स्तर पर अधिक काम होते हैं और वहां यह समस्या काफी बड़ी है. फैसले न लेने और डोमेन एक्सपर्टाइज की कमी के कारण अधिकारियों के अक्सर ट्रांसफर होते हैं, बेमतलब की पोस्टिंग होती है और उन पर ख़ास राजनीतिक सोच को बढ़ावा देने के लिए दबाव बनाया जाता है. यह समस्या समय के साथ बढ़ती गई है. इस वजह से कुछ राज्य में बहुत कम नौकरशाह किसी एक जगह तीन साल तक टिक पाते हैं, जो कि पोस्टिंग की सामान्य अवधि होती है. नौकरशाही तभी सक्षम, पेशेवर और प्रतिबद्ध होगी, जब राजनीतिक वर्ग कामकाजी माहौल को पवित्र बनाए रखे. इसलिए गवर्नेंस के सिद्धांतों में आ रही गिरावट को रोकना होगा और नौकरशाही की स्वायत्तता को बहाल करना होगा.
नौकरशाही तभी सक्षम, पेशेवर और प्रतिबद्ध होगी, जब राजनीतिक वर्ग कामकाजी माहौल को पवित्र बनाए रखे. इसलिए गवर्नेंस के सिद्धांतों में आ रही गिरावट को रोकना होगा और नौकरशाही की स्वायत्तता को बहाल करना होगा.
सिविल सेवा में स्वायत्तता बढ़ाने के साथ नौकरशाहों को उनके दायित्व का अहसास भी दिलाना होगा. उन्हें जनता के प्रति अपनी जवाबदेही समझनी होगी. इसके लिए सांस्थानिक स्वायत्तता के साथ जवाबदेही भी बढ़ानी होगी. आधुनिक तकनीक की मदद से यह काम आसानी से किया जा सकता है. तकनीक के इस्तेमाल से पारदर्शिता सुनिश्चित की जा सकती है. इससे संस्थान और उन्हें चलाने वाले अपने कामकाज को सही तरीके से अंजाम दे रहे हैं या नहीं, इसका आसानी से पता लगाया जा सकता है.
सिविल सेवा में तीसरा बड़ा सुधार मोटे तौर पर इसकी दो बड़ी इकाइयां बनाकर किया जा सकता है. इसमें से एक पर सुरक्षा, टैक्स कलेक्शन, रेगुलेशन और नीति-निर्माण जैसे पारंपरिक कामकाज और दूसरे पर सरकारी योजनाओं, विकास और सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों को लागू करने का जिम्मा दिया जा सकता है. इसमें से पहले वर्ग में सिविल सेवा के पारंपरिक काम हैं, जिन्हें नौकरशाहों को जारी रखना चाहिए. हालांकि, विकास योजनाओं को लागू करने के तरीके में बड़े बदलाव की ज़रूरत है. यह काम ठेके की व्यवस्था के जरिये कराया जा सकता है. इसमें बाहरी एजेंसियों और संबंधित पक्षों को इसकी ज़िम्मेदारी दी जा सकती है. सिविल सेवा के स्थायी सदस्यों को पारंपरिक भूमिकाओं से विकास कार्यों से जुड़ी योजनाओं में शिफ्ट होने की छूट दी जानी चाहिए. इस व्यवस्था का एक फायदा यह होगा कि प्रोसेस और रेगुलेशंस पर बहुत अधिक जोर खत्म हो जाएगा, जिससे इन योजनाओं को लागू करने और एफिशिएंसी बढ़ाने में दिक्कत होती है. स्थायी सिविल सेवा को पहले वर्ग के कामकाज में आने वाली बाधाओं को हटाने का जिम्मा दिया जाना चाहिए. उसे ज़मीनी स्तर पर मदद और सहयोग करना होगा. इससे देश के गवर्नेंस से जुड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए हमारे पास खास लोग और संस्थान होंगे. नई सरकार को ऐसा एजेंडा बनाना होगा, जिसमें विकास योजनाओं के लक्ष्य, समयसीमा, जवाबदेही तय हो. इन योजनाओं के लिए सरकार को जुर्माने और इनाम के कॉन्सेप्ट को भी जोड़ना होगा. इस रणनीति से बाहरी समूहों के साथ मेलजोल के जरिये पेशेवरों को सिविल सेवा में लाने के सवाल का भी जवाब मिल सकता है.
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