Published on Nov 20, 2023 Updated 28 Days ago

युद्ध एक हिसाब से प्रतिस्पर्धी राष्ट्रवादों के बीच का संघर्ष होता है. इसीलिए, चाहे वर्तमान दौर के युद्ध हों, या फिर अतीत में लड़ी गई जंग, किसी में भी नैतिकता और आनुपातिकता नहीं दिखाई दी है.

युद्ध में नैतिकता नहीं, बल्कि राष्ट्रवाद और आक्रामकता का बोलबाला!

रूस-यूक्रेन युद्ध के पश्चात और ख़ास तौर पर हाल ही में हमास-इज़राइल की जंग छिड़ने के बाद से मुख्यधारा की मीडिया और सोशल मीडिया के तमाम मंचों पर आनुपातिकता (proportionality) के बारे में ज़ोरदार बहस छिड़ी हुई है. आनुपातिकता का मतलब है कि किसी विशेष अपराध के लिए सज़ा का संबंध इस बात से तय होना चाहिए कि अपराध कितना गंभीर है. हमास और इज़राइल के बीच चल रहे युद्ध में जिस प्रकार से ख़ूनख़राबा हुआ है, उसने पूरी दुनिया के लोगों को उद्वेलित कर दिया है और विश्व के हर कोने से लोगों की प्रतिक्रिया सामने आई है. हालांकि, युद्ध में आनुपातिकता एक कपोलकल्पित कल्पना है, जिसका यथार्थ से कोई लेनादेना नहीं है. उदाहरण के तौर पर नॉर्वे के प्रधानमंत्री ने गाजा में इज़राइल की जवाबी सैन्य कार्रवाई के बारे में स्पष्ट तौर पर कहा है कि इज़राइल की गाजा में हमास पर कार्रवाई “मेरे अनुसार अनुपातिकता से बहुत अधिक है”. कुछ इसी तरह की बात भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) संसदीय दल के अध्यक्ष ने कही है. उन्होंने कहा, “इज़राइल पर हमास के क्रूर हमलों ने हम सबको झकझोर दिया था. अब इज़राइल ने जिस तरह से इसके जवाब में समान रूप से निर्मम आक्रमण किया है, उससे हम और अधिक शर्मिंदा हो गए हैं… इज़राइल की सरकार हमास के कृत्यों की सज़ा आम फिलिस्तीनियों को देकर एक बड़ी ग़लती कर रही है.”

आनुपातिकता का मतलब है कि किसी विशेष अपराध के लिए सज़ा का संबंध इस बात से तय होना चाहिए कि अपराध कितना गंभीर है.

इतना ही नहीं, एक दावा यह भी किया जाता है कि अंतर्राष्ट्रीय मानवतावादी क़ानून (International Humanitarian Law) (IHL) ख़ास तौर पर समस्याग्रस्त इलाक़ों में नागरिकों के विरुद्ध ताक़त के इस्तेमाल पर अंकुश लगा सकता है. जबकि सच्चाई यह है कि IHL स्वैच्छिक है और इसे किसी भी संप्रभु देश पर थोपा नहीं जा सकता है. ज़ाहिर है कि अंतर्राष्ट्रीय क़ानून का समर्थन और अनुपालन भी “गुड फेथ यानी विश्वास” का मामला है. ऐसी स्थिति इसलिए है, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों को लागू करने के लिए दुनिया के सभी राष्ट्रों से ऊपर कोई सुप्रा-नेशनल संस्था नहीं है. युद्ध के दौरान संयम बरतना या फिर सख़्ती से पेश आना कई बातों पर निर्भर करता है. जैसे कि जिन देशों या गुटों के बीच युद्ध हो रहा है उनकी क्षमताएं कैसी हैं, दुश्मन कितना ताक़तवर है, युद्धरत पक्षों के द्वारा किस प्रकार की रणनीति को अमल में लाया गया है, किस क्षेत्र में या भू-भाग पर युद्ध लड़ा जा रहा है, युद्ध लड़ने वालों का मकसद क्या है, किस बात ने युद्ध को भड़काने का काम किया है. इसके अलावा युद्ध के दौरान संयम और सख़्ती इस पर भी निर्भर करती है कि लड़ने वाले दोनों पक्षों की दुश्मनी का इतिहास कैसा रहा है और आख़िर में यह इस पर निर्भर पर करता है कि दोनों पक्षों के साथ युद्ध में सहयोग करने वाले या भागीदार कौन हैं. इतना ही नहीं, युद्ध के दौरान कितनी आक्रमकता दिखाई जाएगी यह भी प्रतिद्वंदी पर निर्भर करता है, जो कि राष्ट्र-दर-राष्ट्र और समूह-दर-समूह बदलती रहती है.

ऐसा माना जाना कि लोगों के सहयोग और सहमति के बग़ैर युद्ध लड़े जाते हैं, यह एक बहुत बड़ा भ्रम है. देखा जाए तो युद्ध कहीं न कहीं राष्ट्रवादों का टकराव होता है, या फिर सामूहिक मानवीय इच्छाओं का ही टकराव होता है.

दरअसल, कोई देश युद्ध के दौरान जिस तरह की रणनीति अपनाता है, वो कहीं न कहीं वहां की सरकार और सरकारी संस्थाओं के साथ-साथ वहां की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर निर्भर होती है. संक्षेप में कहा जाए तो प्रत्येक युद्ध के पीछे कोई न कोई वजह होती है, यानी कि कुछ न कुछ राजनीतिकि परिस्थितियां अवश्य होती हैं, जिनमें युद्ध लड़ा जाता है. इसके अलावा युद्ध की आक्रामकता भी एक सी नहीं रहती है, बल्कि बदलती रहती है. नतीज़तन, युद्ध कभी भी राजनीतिक शून्यता में नहीं होते हैं, अर्थात ब़गैर राजनीतिक कारणों के युद्ध नहीं होते हैं. ऐसा माना जाना कि लोगों के सहयोग और सहमति के बग़ैर युद्ध लड़े जाते हैं, यह एक बहुत बड़ा भ्रम है. देखा जाए तो युद्ध कहीं न कहीं राष्ट्रवादों का टकराव होता है, या फिर सामूहिक मानवीय इच्छाओं का ही टकराव होता है. सच्चाई यह है कि आम लोगों को एकजुट किए बग़ैर कोई भी देश और यहां तक कि हमास जैसा समूह भी, जिसका कि गाजा के एक हिस्से पर अच्छा-ख़ासा दबदबा है, युद्ध को नहीं छेड़ सकता है. 7 अक्टूबर 2023 को हमास के अचानक हुए हमले के बाद इज़राइल ने जो आक्रामक जवाबी कार्रवाई की है, वो भी देश की अधिसंख्य आबादी के समर्थन पर ही आधारित है. इसके साथ ही यह दावा किया जाना कि गाजा के आम लोग बहुत अच्छे हैं, लेकिन गाजा पर शासन करने वाले हमास के नेता बहुत ख़राब हैं, यह भी एक बहुत बड़ी भ्रांति है. जो लोग इस तरह का दावा करते हैं, उन्होंने कभी भी इस बारे में विचार नहीं किया कि अगर गाजा के लोग “अच्छे” होते, तो वे “ख़तरनाक” आतंकी समूह हमास को अपने इलाक़े में शासन करने की इज़ाजत कैसे देते. हालांकि, इजराइलियों का दावा है कि उनकी सैन्य कार्रवाई आतंकी समूह हमास के ख़िलाफ़ है, न कि गाजा के “आम नागरिकों” के विरुद्ध. हमास-इज़राइल युद्ध के अलावा, लंबे वक़्त से चल रहा रूस-यूक्रेन युद्ध भी कोई अपवाद नहीं है. इन युद्धों के अलावा भी पूरी दुनिया में इस तरह के संघर्षों के उदाहरण भरे पड़े हैं और उनमें से कई उदाहरण भारतीय उपमहाद्वीप में भी हैं.

कारगिल युद्ध के दौरान भारत का मकसद भले ही सीमित था, यानी घुसपैठियों को भारतीय सीमा से बाहर खदेड़ने का मकसद था, लेकिन इसके लिए भारत द्वारा इस्तेमाल की गई सैन्य ताक़त सीमित नहीं थी.

भारत का नज़रिया

जहां तक भारत की बात है तो उसने कभी भी युद्धों के दौरान विरोधियों के ख़िलाफ़ अत्यधिक आक्रामकता का प्रदर्शन नहीं किया है. पाकिस्तान के साथ हुए तमाम युद्धों में भी भारत ने कभी पूर्ण आनुपातिकता नहीं दिखाई है. भारत-पाक युद्धों की सूची बहुत लंबी है, यहां पर कारगिल लड़ाई की चर्चा करते हैं. भारत और पाकिस्तान के बीच कारगिल की लड़ाई वर्ष 1999 की गर्मियों में शुरू हुई थी. यह लड़ाई तब शुरू हुई थी, जब द्रास-कारगिल सेक्टर में नियंत्रण रेखा के पास भारत की ओर पाकिस्तान की नॉर्दर्न लाइट इन्फैंट्री (NLI) के सैनिक जमा हो गए थे और भारत को इसके बारे में पता चला था. पाकिस्तानी आर्मी (PA) ने तब उन्हें अपना सैनिक मानने से ही इनकार कर दिया था और कहा था कि ये मुज़ाहिदीन लड़ाके हैं. लेकिन नई दिल्ली ने इसे गंभीरता से लिया और मई 1999 के आख़िरी में व्यापक स्तर पर तोपों और पैदल सेना के ज़रिए हमला बोल दिया था, साथ ही हवाई हमले भी किए गए थे. पाकिस्तान कारगिल युद्ध के दौरान भारत के ज़ोरदार हमलों को देख रहा था, लेकिन भारत द्वारा पाकिस्तानी घुसपैठियों के विरुद्ध व्यापक पैमाने पर सैन्य ताक़त का इस्तेमाल करने के बावज़ूद कुछ नहीं कर सका. इसके अलावा रावलपिंडी की ओर से न तो भारत के ख़िलाफ़ बड़े स्तर पर हवाई हमले किए गए और न ही सेना का उपयोग किया गया. कारगिल युद्ध के दौरान भारत का मकसद भले ही सीमित था, यानी घुसपैठियों को भारतीय सीमा से बाहर खदेड़ने का मकसद था, लेकिन इसके लिए भारत द्वारा इस्तेमाल की गई सैन्य ताक़त सीमित नहीं थी. यहां तक कि उस दौरान पाकिस्तानी सरकार द्वारा संघर्ष विराम की अपील को भी तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार ने ख़ारिज कर दिया था. अगर उस वक़्त युद्ध विराम किया जाता, तो निश्चित तौर पर भारत का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तानियों के कब्ज़े में रह जाता और इससे उस इलाक़े पर भारत की पकड़ और भी अधिक कमज़ोर हो जाती. इसके अलावा, बहुत आगे बढ़ चुके भारतीय सैन्य बल भी हतोत्साहित हो जाते और सीज़फायर के दौरान पाकिस्तानियों को दोबारा से एकजुट होने का अवसर मिल जाता. संक्षेप में कहा जाए, तो भारत द्वारा कारगिल युद्ध के दौरान ज़रूरत से अधिक सैन्य ताक़त का उपयोग किया गया था. देखा जाए तो कारगिल युद्ध के दौरान भारतीय सेना की तरफ से की गई गोलाबारी के कारण पाकिस्तानी सीमा में लाइन ऑफ कंट्रोल के पास बड़ी संख्या में नागरिक हताहत हुए थे. इतना ही नहीं भारतीय गोलाबारी के चलते कई पाकिस्तानी गांव बर्बाद हो गए थे. हालांकि, भारत और पाकिस्तान को विभाजित करने वाली नियंत्रण रेखा के दोनों और नागरिकों की आबादी बहुत कम है, इस वजह से कारगिल युद्ध के दौरान नागरिकों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाना बहुत आसान था. निसंदेह तौर पर भारत और पाकिस्तान के बीच अतीत में हुए तमाम युद्धों की भांति ही यह लड़ाई भी दोनों देशों के राष्ट्रवाद के बीच ही एक जंग थी.

नागरिकों की सुरक्षा

उपरोक्त उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि युद्ध के दौरान आम नागरिकों के हताहत होने की संख्या कम होगी या अधिक, यह इस बात पर निर्भर करता है कि दो देशों के बीच युद्ध किस तरह के इलाक़े में लड़ा जा रहा है. ज़ाहिर है कि अगर युद्ध शहरी क्षेत्र में लड़ा जाता है, तो हमेशा बड़ी संख्या में नागरिकों की मौत होती है, क्योंकि लड़ाई में शामिल लोग नागरिकों के बीच छिप जाते हैं, जैसा कि हमास के लड़ाकों द्वारा वर्तमान में इज़राइली हमलों के दौरान किया जा रहा है. हमास के लड़ाकों द्वारा जिस प्रकार से नागरिकों को अपनी ढाल बनाया जा रहा है, उसका स्पष्ट मकसद यह है कि वैश्विक समुदाय का ध्यान आकर्षित किया जाए और इसके ज़रिए इज़राइल पर आक्रामक सैन्य कार्रवाई रोकने का दबाब बनाया जाए. ज़ाहिर है कि अगर गाजा में युद्धविराम होता है, तो वहां के आम नागरिकों को ज़रूरी मदद मुहैया कराई जा सकती है, साथ ही उन्हें सुरक्षित स्थानों पर विस्थापित किया जा सकता है. लेकिन, यदि इज़राइली सेना के नज़रिए से देखें, तो युद्धविराम होने पर हमास को एक बार फिर से एकजुट होने और अपनी ताक़त को बढ़ाने का मौक़ा मिलेगा और जब सीज़फायर खत्म होगा तो वो फिर हमला करेगा. जो लोग इज़राइल से यह मांग कर रहे हैं कि वो आक्रामकता नहीं दिखाए और युद्ध में नैतिकता का प्रदर्शन करे, शायद उन लोगों को कभी इस बात का विचार नहीं आता है कि इसकी ज़िम्मेदारी हमास पर भी समान रूप से है. हमास समूह द्वारा गाजा के इलाक़ों में कई वर्षों में जो भूमिगत सुरंगों का नेटवर्क बनाया गया है, उसका उपयोग इज़राइली हवाई, समुद्री और ज़मीनी हमलों से गाजा के नागरिकों को बचाने के लिए नहीं किया जाता है, बल्कि हमास के लड़ाकों के लिए सैन्य, चिकित्सा और रसद की आपूर्ति को सुगम बनाने के लिए किया जाता है. हमास के लड़ाके इन्हीं सुरंगों के नेटवर्क का इस्तेमाल करके इज़राइली सैनिकों के विरुद्ध घात लगाकर हमला करते हैं और जब जवाबी हमला होता है, तो अपनी हिफ़ाजत के लिए इन्हीं सुरगों में छिप जाते हैं. हमास के इस भूमिगत नेटवर्क का दूसरा मक़सद इज़राइली डिफेंस फोर्सेज (IDF) के जवानों को इस भूल-भुलैया में फंसाकर उन्हें मारना भी है. हमास द्वारा जिस प्रकार से अपनी नागरिक आबादी को हमलों की स्थिति से बचाने के लिए सुरंगों का उपयोग करने के बजाए, युद्ध के लिए किया जा रहा है, उससे साबित होता है कि वो किस क्रूर प्रकृति का है. इज़राइल द्वारा हमास की इसी क्रूरता के विरुद्ध कार्रवाई की जा रही है. ज़ाहिर है कि जो हमास अपने नागरिकों के विरुद्ध इतना क्रूर और निर्मम रहा है, तो वह अपने दुश्मन के विरुद्ध किस हद तक जा सकता है, इसके बारे में कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं है.

ऐसे युद्धों के और भी उदाहरण हैं, जो शहरी इलाक़ों में लड़े गए और बड़ी संख्या में आम नागरिक इनमें मारे गए. जैसे कि वर्ष 2017 में अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने इस्लामिक स्टेट (IS) पर ज़बरदस्त हवाई हमला किया था.

अब राष्ट्रों के बीच जंग के ताज़ा उदाहरणों की चर्चा करते हैं. लंबे वक़्त से चल रहा रूस-यूक्रेन युद्ध भी कहीं न कहीं दो प्रतिद्वंदी देशों के राष्ट्रवादों के बीच टकराव है. दोनों ही देशों द्वारा इस लड़ाई में हर तरह का हथकंडा अपनाया जा रहा है और घातक हथियारों का इस्तेमाल किया जा रहा है, ख़ास तौर पर रूस के मामले में तो यह बाद शत-प्रतिशत सच है. रूस द्वारा इस युद्ध के दौरान कई बार यूक्रेन पर आक्रामक तरीक़े से हमला किया गया है, जिनमें बड़ी संख्या में यूक्रेनी नागरिकों की मौत भी हुई है. इसके अलावा ऐसे युद्धों के और भी उदाहरण हैं, जो शहरी इलाक़ों में लड़े गए और बड़ी संख्या में आम नागरिक इनमें मारे गए. जैसे कि वर्ष 2017 में अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने इस्लामिक स्टेट (IS) पर ज़बरदस्त हवाई हमला किया था. यह अंधाधुंध हवाई हमले सीरिया के रक्क़ा और इराक़ के मोसुल जैसे शहरों में किए गए थे, जिनमें कई नागरिक मारे गए थे.

इसलिए, इस बात को समझना बेहद अहम है कि राष्ट्रवाद युद्ध का अभिन्न हिस्सा है, यानी युद्धों में राष्ट्रवाद प्रमुखता से हावी रहता है. यह भी एक सच्चाई है कि आज के दौर में जो भी युद्ध लड़े जा रहे हैं, न तो उनमें कोई नैतिकता दिखाई दे रही है और न ही पहले जो युद्ध हुए हैं, उनमें ऐसा दिखाई दिया था. कहने का मतलब यह है कि मानव इतिहास में जितने भी युद्ध हुए हैं, उनमें अलग-अलग स्तर की असमानता रही है और प्रतिद्वंद्वियों द्वारा एक दूसरे के विरुद्ध ज़बदरदस्त आक्रामकता का प्रदर्शन किया गया है.


कार्तिक बोम्माकांति ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में सीनियर फेलो हैं.

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