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अफ़सोस की बात ये है कि पर्यावरणीय अर्थशास्त्र के द्वारा प्रोत्साहित निर्देशात्मक चिंताएं और वैचारिक बनावट पृष्ठभूमि में कहीं छिप कर रह जाती हैं और अक्सर “सकारात्मक अर्थशास्त्र” की प्रमुखता के द्वारा ढंक दी जाती हैं
“सेसिल ग्राहम: निराशावादी कौन है?
लॉर्ड डार्लिंगटन: ऐसा व्यक्ति जो हर चीज़ की क़ीमत जानता है लेकिन मोल किसी चीज़ का नहीं.
सेसिल ग्राहम: मेरे प्रिय डार्लिंगटन, और भावुक व्यक्ति वो होता है जो हर चीज़ में अनर्गल मोल देखता है लेकिन किसी भी चीज़ का बाज़ार भाव नहीं जानता.”
―ऑस्कर वाइल्ड, लेडी विंडरमेयर्स फैन
“निराशावाद” और “भावुकता” के बीच एक बड़े संघर्ष को(ऊपर की पंक्तियों में जिस तरीक़े से बयान किया गया है) प्रकृति और प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र का मोल समझने की चिंता से ज़्यादा किसी ने देखा नहीं होगा. कई लोग पारिस्थितिकी तंत्र के महत्व(या प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र के द्वारा मानव समुदाय को जैविक रूप से मुहैया कराई जाने वाली सेवा)को पर्यावरणीय अर्थशास्त्र के क्षेत्र में बहुत बड़े काम के लिए सबसे महत्वपूर्ण योगदान के तौर पर देखते हैं. इससे ज़्यादा सच से दूर चीज़ कुछ भी नहीं हो सकती. मूल्य निर्धारण के अभ्यास के चर्चा पाने के बावजूद,ख़ासतौर पर नीति निर्माण में उनके महत्व की वजह से, पर्यावरणीय अर्थशास्त्र सकारात्मक सिद्धांत और न्यूनतावाद में प्रस्तुत नवशास्त्रीय आर्थिक मान्यताओं के द्वारा उत्पन्न सीमाओं से आगे निकल गया है,उन्हें चुनौती देता है,संस्थाओं के काम-काज को सकारात्मक और निर्देशात्मक दृष्टिकोण से घोषित करता है,और समुचित कारणों से पाखंडपूर्ण आर्थिक विचार में योगदान करने वाले विषय के रूप में वर्गीकृत किया गया है. इस प्रक्रिया में ये एक स्वतंत्र विचारों वाले क्षेत्र के रूप में उभरा है, जिस पर अक्सर “असली अर्थशास्त्र” के रूप में नहीं सोचा जाता है बल्कि समाजशास्त्र, मानव विज्ञान, इतिहास, राजनीति के एक मिश्रण के रूप में और कभी-कभी राजनीतिक सोच और नीति शास्त्र के निर्देशात्मक सिद्धांतों की वैचारिक बनावट पर आधारित होता है. अफ़सोस की बात ये है कि पर्यावरणीय अर्थशास्त्र के द्वारा प्रोत्साहित निर्देशात्मक चिंताएं और वैचारिक बनावट पृष्ठभूमि में कहीं छिप कर रह जाती हैं और अक्सर “सकारात्मक अर्थशास्त्र” की प्रमुखता के द्वारा ढंक दी जाती हैं. इसको पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं के मूल्य निर्धारण पर अध्ययन की भरमार से देखा जा सकता है.
कई मामलों में विकास के लक्ष्य को बढ़ाने वाला बुनियादी ढांचा प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र को बर्बाद करता है और इस तरह पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाएं मुहैया कराने में अपनी क्षमता में बाधा डालता है.
जो लोग फ़ैसला लेने में मदद के लिए पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं के मूल्यांकन के अनगिनत फ़ायदों और नीति बनाने के लिए एक निर्णय समर्थन प्रणाली पर इसके व्यापक असर की वक़ालत करते हैं, वो आम तौर पर अपनी दलीलें निम्नलिखित बिंदुओं पर देते हैं. पहली बात ये कि इस तरह के मूल्यांकन मानवीय समाज के लिए पारिस्थितिकी तंत्र के महत्व को समझने में मदद करते हैं. दूसरा, पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं का मूल्यांकन संरक्षण के लक्ष्य को हासिल करने में निवेश की प्राथमिकता का आधार मुहैया कराते हैं. तीसरा, प्रकृति से जुड़ा मौद्रिक मूल्यांकन संरक्षण और विकास के बीच सामंजस्य समझने में मदद करता है. कई मामलों में विकास के लक्ष्य को बढ़ाने वाला बुनियादी ढांचा प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र को बर्बाद करता है और इस तरह पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाएं मुहैया कराने में अपनी क्षमता में बाधा डालता है. मूल्यांकन मानवीय समुदाय को इन नुक़सानों को पैसे के संदर्भ में समझने में मदद करता है. चौथी बात, मुआवज़े की नीतियों से उचित ढंग से निपटने के लिए पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं में हानि की वजह से आर्थिक मूल्य में नुक़सान का आकलन करने की ज़रूरत है ताकि नकारात्मक बाहरीपन के विस्तार को हासिल किया जा सके. मूल्यांकन से इस प्रक्रिया में मदद मिलती है. पांचवां, मूल्यांकन से निवेश (बुनियादी ढांचे का विकास) के निर्णय में मदद मिलती है जो अन्यथा पर्यावरण पर असर को नज़रअंदाज़ कर सकते हैं. छठा, मूल्यांकन कुशल प्रबंधन प्रणाली (आर्थिक उपकरण, नियंत्रण, इत्यादि) और संस्थानों (पीईएस) को डिज़ाइन करने में मदद करता है.
पूरे विश्व भर में (ख़ासतौर से विकासशील देशों में) नीति निर्माण का ढांचा तेज़ी से यक़ीन कर रहा है कि इस तरह के मूल्यांकन की क़वायद सर्वोपरि है, वो भी उस मान्यता के बावजूद कि ये ज्ञान संबंधी सिद्धांतों और कार्यप्रणाली से जुड़े दृष्टिकोण की शाखाएं हैं. एरिल्ड वत्न और डैनियल ब्रामले ने 1994 के अपने दस्तावेज़ “बिना क़ीमत बिना माफ़ी की पसंदें” में गंभीर समस्याओं के बारे में बात की है. इसके लिए उन्होंने पर्यावरणीय सामानों और सेवाओं के मूल्य का सहारा लिया जो विचाराधीन संसाधनों की विशेषताओं के बारे में अलग-अलग सूचनाओं को दबाती है. हालांकि, वत्न और ब्रॉमले की दलील ज़्यादातर कार्यप्रणाली से जुड़े दृष्टिकोण से उभरी क्योंकि 1990 के दौरान ज़्यादातर अध्ययन घोषित प्राथमिकता दृष्टिकोण जिसे लोकप्रिय रूप से आकस्मिक मूल्यांकन पद्धति (सीवीएम) कहा जाता है, से की गई. यहां जवाब देने वालों से पूछा गया कि वो हवा या पानी की क्वॉलिटी में सुधार या एक ख़ास पारिस्थितिकी तंत्र के अस्तित्व के लिए क्या क़ीमत चुकाने को तैयार हैं.
पर्यावरणीय संसाधनों और पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं के लिए कामकाजी बाज़ार भी योग्य भाव तलाशने में सक्षम नहीं हो पाए हैं जो कि ऐसे सामानों और सेवाओं की उपयोगिता के बारे में पर्याप्त जानकारी जुटा सकें.
अलग-अलग महत्वपूर्ण साहित्यों (यहां उसका सर्वे मिल सकता है) ने पहले ही सीवीएम की कमियों के बारे में बताया है जो मूल्यांकन के अभ्यास और आकलन की अक्षमता के दृष्टिकोण से जिसका स्वभाव ज़्यादातर कार्यप्रणाली से जुड़ा है. सीवीएम के आकलन में इस तरह के अलग-अलग पक्षपात ऐसे उभरते हैं: ए) रणनीतिक पक्षपात जो जवाब देने वाले के द्वारा मूल्य के सुनियोजित गलतबयानी से निकलता है; बी) काल्पनिक पक्षपात क्योंकि जवाब देने वाले वास्तविक बाज़ार के लेनदेन में शामिल नहीं हैं; सी) विषय क्षेत्र के पक्षपात जो घोषित मूल्य के विचाराधीन पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं की मात्रा और गुणवत्ता से आनुपतिक मेल नहीं खाने से उभरते हैं; डी) बनावट के पक्षपात जो इंटरव्यू लेने वाले या उपकरण के पक्षपात से होते हैं; और ई) काल्पनिक मांग की स्थिति के एक ख़ास बिंदु पर स्वीकार करने की इच्छा और पैसे देने की इच्छा के बीच अंतर पर.
सीवीएम के ख़िलाफ़ इस लेख में तर्क एक क़दम और आगे जाता है. जहां सीवीएम अनुचित और पक्षपाती आकलन दे सकता है क्योंकि ये बाज़ार में एक व्यक्ति के वास्तविक व्यवहार पर आधारित नहीं है, लेकिन पर्यावरणीय संसाधनों और पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं के लिए कामकाजी बाज़ार भी योग्य भाव तलाशने में सक्षम नहीं हो पाए हैं जो कि ऐसे सामानों और सेवाओं की उपयोगिता के बारे में पर्याप्त जानकारी जुटा सकें. कार्बन बाज़ारों का उदय और नाकामी इसकी काफ़ी गवाही देती हैं. जिस मूल उद्देश्य से कार्बन बाज़ारों की संकल्पना की गई थी वो था कार्बन उत्सर्जन कम करना, वो नहीं जो आख़िर में ये बन गया है: पैसे बनाने के लिए डेरिवेटिव हिस्से में अटकलों का केंद्र. मूल विचार था कि ऐसे बाज़ार कार्बन क्रेडिट की क़ीमत वसूलने में मदद करेंगे और कार्बन क्रेडिट कार्बन के एक अतिरिक्त यूनिट के उत्सर्जन की लागत के रूप में दिखेगा. इस तरह कार्बन बाज़ार का व्यापक उद्देश्य अच्छी क़ीमत की वसूली में मदद है जो एक तरफ़ पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं के दुर्लभता मूल्य (यानी कार्बन स्टॉकिंग और सालाना रोक) को बताएगा और दूसरी तरफ़ इससे जुड़े कार्बन उत्सर्जन की सामाजिक सीमांत लागत.
मानव समाज को पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं के मूल्य को समझाना और उसकी तारीफ़ करना महत्वपूर्ण है ताकि बाज़ार पर उसका असर दिख सके.
ये दोहराने में कोई नुक़सान नहीं है कि मांग-आपूर्ति की ताक़तों की परस्पर प्रभाव डालने वाली गतिशीलता बाज़ार में क़ीमत की खोज की वजह बनती है. अब चिंता ये है कि क्या बाज़ार इतने सक्षम हैं कि क़ीमत में पूरी जानकारी को बता सकें. 1970 में जॉर्ज अकेरलोफ ने दुनिया को दिखाया कि कैसे उत्पाद की अधूरी जानकारी बाज़ार में “ख़राब चयन” की वजह बनती है. सक्षम क़ीमत की खोज के लिए उपभोक्ता को ये जानकारी रखना ज़रूरी है कि सामान की “उपयोगिता” क्या है.
हालांकि, सामान के तौर पर पर्यावरणीय संसाधन या पारिस्थितिकी तंत्र की सेवा के लिए परिस्थिति थोड़ी मुश्किल है. पर्यावरणीय बाज़ार के लिए सूचना लापता तत्व है. इस प्रक्रिया में ये मान्यता कि क़ीमत सामाजिक लागत और समायोजन के तौर-तरीक़े के दुर्लभता मूल्य को दिखाती हैं, वो कार्बन बाज़ार के लिए अवैध है. ऐसे में प्राकृतिक विज्ञानों पर साहित्य की संस्था ने भी अभी तक उन पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं के विभिन्न प्रकारों की व्याख्या नहीं की है जो प्रकृति मानव को मुहैया कराती है. सीमापार वायु या जल प्रदूषण से नकारात्मक असर की सीमा के बारे में मौजूदा जानकारी में कमी के साथ प्रदूषण के बाज़ार भाव के लिए ये संभव नहीं है कि असली दुर्लभता मूल्य के बारे में बता सके. इसके बदले यहां क़ीमत वास्तविक मांग-आपूर्ति गतिशीलता के बदले मौजूदा वृहत अर्थशास्त्र की स्थिति पर ज़्यादा निर्भर है. इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण प्रमाणित उत्सर्जन कटौती (सीईआर) बाज़ार हैं. 2007-08 के वित्तीय संकट के बाद प्रमाणित उत्सर्जन कटौती (सीईआर) की क़ीमत में कमी आई क्योंकि औद्योगिक गतिविधियों में गिरावट के बाद सीईआर के लिए मांग कम हो गई. अगर सीईआर क़ीमतों ने कार्बन अधिग्रहण के दुर्लभता मूल्य को दिखाया होता तो इसका ये मतलब होता कि कार्बन की एक अतिरिक्त इकाई के जारी होने से होने वाले नुक़सान का मूल्य कम हो गया है. ये निश्चित तौर पर असंभव है. प्रदूषण मंदी के दौरान भी उसी तरह का नुक़सान पहुंचाता है जैसा कि अच्छे हालात के दौरान और मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र कार्बन को मंदी के दौरान भी उसी तीव्रता से अलग करता है जिस तीव्रता के साथ आर्थिक तेज़ी के दौरान.
सीमापार वायु या जल प्रदूषण से नकारात्मक असर की सीमा के बारे में मौजूदा जानकारी में कमी के साथ प्रदूषण के बाज़ार भाव के लिए ये संभव नहीं है कि असली दुर्लभता मूल्य के बारे में बता सके.
आर्थिक सामान से अलग प्रकृति मौद्रिक हालात से निष्पक्ष है. प्रकृति बाज़ार की क़ीमत का जवाब नहीं देती है. इसके बदले पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं का प्रवाह गैस नियमन, कूड़ा प्रशोधन, जलवायु नियंत्रण, जैविक नियंत्रण, पानी नियमन, परागण, खाद्यान्न उत्पादन, मिट्टी की बनावट, पोषण चक्र और दूसरे चक्र में जारी रहता है. इस पर बाज़ार क़ीमत का फ़र्क़ नहीं पड़ता है.
इसका मतलब ये है कि “मूल्य” और “क़ीमत” एक दूसरे से अलग हैं. आपूर्ति में उतार-चढ़ाव नहीं होने के साथ ज़्यादातर पर्यावरणीय बाज़ारों में क़ीमत मांग के हिसाब से तय होती हैं. तब भी मांग संसाधन या सेवा की उपयोगिता के बारे में बहुत कम जानकारी से बनती है. यहां लेडी विंडरमेयर्स फैन में “निराशावादी” और “भावुक व्यक्ति” के बीच द्वंद युद्ध सामने आता है: इसको सकारात्मक सिद्धांत (बाज़ार में क़ीमत की खोज का) और निर्देशात्मक चिंताओं (पर्यावरण संरक्षण का)के बीच ज्ञान की खोच की प्रतिस्पर्धा भी कहा जा सकता है. अफ़सोस की बात है कि विविधता की ये महत्वपूर्ण समस्या पूरी तरह हल नहीं की जा सकती लेकिन अगर दो शर्तें लागू हों तो इस समस्या का आंशिक समाधान किया जा सकता है. पहली शर्त है सर्वश्रेष्ठ मूल्यांकन की तकनीक का सामने आना ताकि मानवता प्रदूषण या कमज़ोर होती पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं की असली क़ीमत को समझ सके. कार्बन अधिग्रहण लाभ के आकलन में मूल्य आकलन को लेकर कुछ प्रगति दर्ज की गई है. मूल्य आकलन के लिए कार्बन क्रेडिट की बाज़ार क़ीमत को मानने के बदले कार्बन की सामाजिक क़ीमत को आधार बनाया गया है. दूसरी शर्त है कि मानव समाज को पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं के मूल्य को समझाना और उसकी तारीफ़ करना महत्वपूर्ण है ताकि बाज़ार पर उसका असर दिख सके. ऐसा नहीं होने पर हम जहां हैं,वहीं रहेंगे: पर्यावरणीय बाज़ार में गिरावट आती रहेगी, “निराशावाद” और “भावुकता” के दो वैचारिक तौर पर चरम हालात के बीच पिसते रहेंगे.
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Dr Nilanjan Ghosh heads Development Studies at the Observer Research Foundation (ORF) and is the operational head of ORF’s Kolkata Centre. His career spans over ...
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