Author : Amandeep Gill

Published on Mar 25, 2021 Updated 0 Hours ago

सच कहें तो, गुट-निरपेक्ष आंदोलन की ऊंचे आदर्शों वाली इस राजनीति का एक पहलू ऐसा भी था, जहां हित साधने के लिए ऊंचे आदर्शों को तिलांजलि दे दी जाती थी

यूरोप एक नया गुट-निरपेक्ष गठबंधन है!

दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब सोवियत संघ और अमेरिका के बीच शीत युद्ध छिड़ा तब, साम्राज्यवाद से हाल ही में आज़ाद हुए देशों ने ख़ुद को दोनों ही ख़ेमों से दूर रखने की कोशिश की थी. इन देशों ने एक अलग समूह बनाकर ख़ुद को ‘गुट-निरपेक्ष’ कहा था. मिस्र के नेता कर्नल नासिर, भारत के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू, इंडोनेशिया के सुकर्णो और युगोस्लाविया के मार्शल टीटो के नेतृत्व में गुट-निरपेक्ष आंदोलन यानी NAM ने नस्लवाद से लेकर परमाणु परीक्षण जैसे कई विषयों पर नैतिक रूप से ऊंचे आदर्श पेश करने की कोशिश की थी. नए देशों के धमकाने के इस अंदाज़ से अमेरिका को कुछ ज़्यादा ही नाराज़गी हुई थी. अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन फॉस्टर डल्स का वो बयान बहुत चर्चित हुआ था, जब उन्होंने गुट-निरपेक्ष आंदोलन को, ‘अनैतिक’ क़रार दिया था.

सच कहें तो, गुट-निरपेक्ष आंदोलन की ऊंचे आदर्शों वाली इस राजनीति का एक पहलू ऐसा भी था, जहां हित साधने के लिए ऊंचे आदर्शों को तिलांजलि दे दी जाती थी. ख़ुद को गुट-निरपेक्ष कहने वाले देश, दोनों ही महाशक्तियों से अपने विकास के लिए मदद लेते थे. उनके नेता अक्सर महाशक्तियों के शीत युद्ध की प्रतिद्वंदिता का फ़ायदा उठाकर अपने देश में ख़ुद के शासन को मज़बूत बनाया करते थे. कई देश तो ऐसे थे, जो गुट-निरपेक्षता का नारा बुलंद करने के साथ साथ किसी न किसी महाशक्ति के ख़ेमे का हिस्सा भी बन जाते थे. महत्वपूर्ण बात ये है कि, ऐसे बहुत कम ही गुट-निरपेक्ष देश थे, जिनके पास ऐसी ताक़त रही हो, जिससे वो गुट-निरपेक्ष आंदोलन के नरम प्रभाव और संयुक्त राष्ट्र में मतदान के बहुमत से आगे भी अपना असर दिखा सकें.

आज जबकि अमेरिका और चीन के बीच नए शीत युद्ध की शुरुआत हो चुकी है, तो ऐसा लगता है कि यूरोप आज गुट-निरपेक्ष आंदोलन वाली भूमिका में आ गया है. जो अपने मूल्यों की बात तो करता है. लेकिन, जहां उसका हित सधता है, वो उसके साथ हो जाता है. 

इतिहास ख़ुद को दोहराता है. आज जबकि अमेरिका और चीन के बीच नए शीत युद्ध की शुरुआत हो चुकी है, तो ऐसा लगता है कि यूरोप आज गुट-निरपेक्ष आंदोलन वाली भूमिका में आ गया है. जो अपने मूल्यों की बात तो करता है. लेकिन, जहां उसका हित सधता है, वो उसके साथ हो जाता है. वो व्यापार, तकनीक और दक्षिणी चीन सागर में समुद्री परिवहन की स्वतंत्रता जैसे मसलों पर, अमेरिका और चीन के बीच टकराव में किसी एक मोर्चे का हिस्सा बनने से भी इनकार करता है.

अमेरिका-चीन के बीच शीतयुद्ध की शुरुआत

इसका सबसे बड़ा उदाहरण, यूरोप की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति कहा जाने वाला जर्मनी है. लेकिन, यही बात यूरोप के पूरब और दक्षिण में स्थित देशों के बारे में भी कही जा सकती है. ये देश, चीन द्वारा यूरोपीय उद्योग और बुनियादी ढांचे में किए जाने वाले निवेश का लाभ लेना चाहते हैं. इसी वजह से ये यूरोपीय देश, अमेरिका के सुर में सुर मिलाते हुए चीन की दूरसंचार कंपनी हुआवेई को अपने यहां 5G नेटवर्क लगाने देने से रोकते नहीं. वो ऐसी वार्ता करने में भी कोई नुक़सान नहीं देखते, जिससे चीन के बाज़ार तक उनकी पहुंच बढ़े. ये यूरोपीय देश इसके बदले में चीन को निवेश संबंधी रियायतें देने के लिए भी तैयार हैं. तब वो चीन द्वारा मानव अधिकारों के उल्लंघन पर बस नाम के लिए विरोध जताते हैं.

हो सकता है कि यूरोप का सत्ताधारी वर्ग अभी भी दिल में अमेरिका के लिए हमदर्दी रखता हो. लेकिन, वो आज के दौर के अमेरिका को एक कमज़ोर महाशक्ति के तौर पर देखते हैं, जो अपनी नैतिक धुरी से भटकता नज़र आता है. 1950 और 1960 के देश में गुट-निरपेक्ष देशों के शासक वर्ग में से कई ने अमेरिका में पढ़ाई की थी और और अमेरिकी विचारों, उसके संविधान और लोकतंत्र से प्रभावित भी थे. लेकिन, अमेरिका ने जिस तरह अपने यहां के नागरिक अधिकार आंदोलन को कुचलने की कोशिश की और वियतनाम युद्ध के दौरान भयानक ज़ुल्म ढाए, उससे अमेरिका के ख़िलाफ़ उनकी सोच और मज़बूत होती गई. आज के दौर में हम यूरोप के शासक वर्ग पर भी ऐसा ही असर देखते हैं, जो डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों से चिढ़ गए. जवाहर लाल नेहरू, अमेरिकी शक्ति से अपने पहले संपर्क से ही परेशान हो गए थे. कहा जाता है कि अमेरिका के बारे में उन्होंने कहा था कि: किसी को पहली बार अमेरिका नहीं आना चाहिए! आज अगर माइक खुला रह जाए, तो शायद ऐंजेला मर्केल और इमैन्युअल मैक्रों भी ऐसी ही बात कहते सुनाई दें. आज यूरोप के लोगों के मन में ऐसी ही बात घर करती जा रही है, जब वो अमेरिका में ब्लैक लाइव्स मैटर का आंदोलन और चीन द्वारा वीगरों और तिब्बतियों को मानव अधिकारों से वंचित करते हुए देखते हैं. या फिर वो अमेरिका की शक्तिशाली तकनीकी कंपनियों और चीन की तकनीकी कंपनियों के बर्ताव को देखते हैं

आज के दौर में हम यूरोप के शासक वर्ग पर भी ऐसा ही असर देखते हैं, जो डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों से चिढ़ गए. जवाहर लाल नेहरू, अमेरिकी शक्ति से अपने पहले संपर्क से ही परेशान हो गए थे.

गुट-निरपेक्ष आंदोलन कभी भी वास्तविक अर्थों में गुट-निरपेक्ष नहीं रहा. इसी तरह यूरोप भी, चीन और अमेरिका के बीच टकराव में निष्पक्ष और स्वतंत्रत आवाज़ बनी रहने में सफल नहीं होगा. पहले शीत युद्ध के दौरान चूंकि आशंका इस बात की थी कि युद्ध हुआ तो, बात परमाणु हथियारों के इस्तेमाल तक पहुंच सकती है. इसीलिए, सोवियत संघ और अमेरिका एक दूसरे से सीधे तौर पर भिड़ने से परहेज़ किया करते थे. वो एक दूसरे के ख़ेमे वाले देशों के साथ सैन्य गठबंधन (NATO या वार्सा समझौता) करने से भी बचते थे. ये विडंबना ही है कि सीधे टकराने के बजाय दोनों महाशक्तियां किसी तीसरे देश को माध्यम बनाकर अपने अपने हित की लड़ाइयां लड़ती थीं. इसी वजह से पहले शीत युद्ध के दौरान, गुट-निरपेक्ष देश न केवल दिल दिमाग़ जीतने का अखाड़ा बने, बल्कि दोनों महाशक्तियां इन देशों में अपने सैनिक अड्डे बनाने, वहां के ऊर्जा संसाधनों पर क़ब्ज़ा करने और खनिज हासिल करने के लिए होड़ लगाते थे. आज के मंज़र को समझना हो, तो इन फ़ायदों को आप कई गुना और बढ़ा दें. अमेरिका की सिलीकॉन वैली की बड़ी डिजिटल कंपनियों के लिए यूरोप एक बहुत बड़ा बाज़ार है. चीन के निर्माताओं और इलेक्ट्रॉनिक कारोबार कंपनियों की नज़र में भी यूरोप महत्वपूर्ण है. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि चीन की कंपनियों को आज ग़ैर यूरोपीय देशों में अक्सर कारोबार करने से रोका जा रहा है.

यूरोप की दुविधा

आज जबकि अमेरिका, भारत और जापान जैसे देशों में राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंताओं के चलते चीन द्वारा किए जाने वाले निवेश की बारीक़ी से समीक्षा हो रही है, तो चीन की नज़र में यूरोप एक उत्पादक बाज़ार बन गया है. यहां वो अपने निवेश पर अच्छा रिटर्न हासिल करने की संभावना तो देखते ही हैं. साथ ही साथ उन्हें लगता है कि यूरोप से उन्हें महत्वपूर्ण तकनीक और कुशल कामगार भी मिल जाएंगे. जहां तक अमेरिका की बात है, तो वो यूरोपीय देशों के बीच अपने उस दर्ज़े को बचाने में पूरी ताक़त लगाएगा, जो उसने दूसरे विश्व युद्ध के बाद हासिल की थी. अमेरिका की कोशिश है कि वो हिंद-प्रशांत क्षेत्र में संघर्ष के नए मोर्चे में अटलांटिक पार के यूरोपीय साझेदारों के लिए कोई न कोई भूमिका तलाश सके. चीन और अमेरिका के बीच ये विरोधाभासी खींचतान यूरोपीय देशों पर ज़बरदस्त दबाव डालेगी.

अमेरिका की कोशिश है कि वो हिंद-प्रशांत क्षेत्र में संघर्ष के नए मोर्चे में अटलांटिक पार के यूरोपीय साझेदारों के लिए कोई न कोई भूमिका तलाश सके. चीन और अमेरिका के बीच ये विरोधाभासी खींचतान यूरोपीय देशों पर ज़बरदस्त दबाव डालेगी.

यूरोप की दुविधा को अच्छे से समझने के लिए हम आसियान (ASEAN) देशों के प्रयोग का उदाहरण देख सकते हैं. 1990 और 2000 के दशक में दक्षिणी पूर्वी एशिया के दस देशों ने ये सोचा था कि वो बड़ी ताक़तों को अपने इलाक़े में आकर भू-सामरिक खेल खेलने का मौक़ा दे सकते हैं. इसके ज़रिए वो इन देशों से निवेश भी हासिल कर सकेंगे और कई विवादित विषयों पर ईमानदार वार्ता भी कर सकेंगे. आसियान देशों को लगा था कि बड़ी ताक़तें उनके इलाक़े में आएंगी, तो वो उन्हें अपने विकास में निवेश करने का भी लालच दे सकते हैं, क्योंकि उनके पास 60 करोड़ से ज़्यादा लोगों का विशाल बाज़ार है. महाशक्तियों को अपने साथ कारोबार की इजाज़त देकर वो इस क्षेत्र में वित्तीय स्थिरता स्थापित करने का सपना देख रहे थे. लेकिन, आज आसियान देशों का इन शक्तियों के साथ व्यापारिक संतुलन, आंखें खोल देने वाला है. महत्वपूर्ण राजनीतिक विषयों जैसे कि अंतररराष्ट्रीय क़ानून और संप्रभुता के मसले पर आज आसियान देश आपस में बंटे हैं. वहीं आर्थिक और भू-राजनीतिक केंद्र अब कहीं और मुड़ गए हैं. यूरोप की बात करें, तो दोनों में से किसी एक ख़ेमे को चुनने के मुश्किल सवाल तो अभी उठने ही शुरू हुए हैं.

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