Published on Aug 03, 2021 Updated 0 Hours ago

आज जब भारत 1991 के आर्थिक सुधारों की 30वीं सालगिरह मना रहा है, तो ओआरएफ़ सुधारों से जुड़े सबसे पहले प्रकाशन को दोबारा प्रकाशित कर रहा है.

आर्थिक सुधारों का एजेंडा: पी. एन. धर, एम. नरसिम्हन, आई. जी. पटेल और आर. एन. मल्होत्रा का साझा बयान
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ये बयान जो सबसे पहले जुलाई 1991 में प्रकाशित किया गया था, वो अब हम अपनी सीरीज़ 30 साल बाद: आर्थिक सुधार के एजेंडे की समीक्षा और नवीनीकरण के तहत दोबारा प्रकाशित कर रहे हैं.


आज़ादी के बाद आज भारत अपने सबसे भयंकर वित्तीय संकट का सामना कर रहा है. देश की अर्थव्यवस्था को स्थिर बनाने और फिर उसे तेज़ विकास दर की राह पर ले जाने के लिए, सबसे पहले एक राजनीतिक और सामाजिक आम सहमति, और एक राष्ट्रीय प्रतिबद्धता की भी ज़रूरत है, जिससे बाधाओं से पार पाया जा सके. इस संदर्भ में हम प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्र के नाम अपने पहले संदेश में घोषित किए गए व्यापक नीतिगत ढांचे का स्वागत करते हैं. इन नीतिगत फ़ैसलों के बारे में वित्त मंत्री ने विपक्षी दलों के साथ सलाह मशविरे के बाद अपनी प्रेस कांफ्रेंस में और विस्तार से बताया था.

इस संकट के लक्षण तो सबको पता हैं. संतोषजनक औद्योगिक उत्पादन और लगातार तीन बंपर फसलों के बावजूद महंगाई बढ़ गई है. वित्तीय घाटा उस ऐसे स्तर पर पहुंच चुका है, जिसका बोझ अब और नहीं उठाया जा सकता. देश के सामने भुगतान का भयंकर संकट खड़ा है. विदेशी मुद्रा भंडार अपने सबसे निचले स्तर पर हैं. चालू खाते का घाटा बहुत अधिक है और पिछले कई वर्षों से इसमें इज़ाफ़ा ही होता जा रहा है, इससे देश पर विदेशी क़र्ज़ का बोझ बहुत बढ़ गया है. इस विदेशी क़र्ज़ में से भी एक बड़ा हिस्सा कम अवधि का कारोबारी ऋण है. इस क़र्ज़ को चुकाना बहुत बड़ी चुनौती बन चुका है. अर्थव्यवस्था के अन्य बड़े असंतुलन काफ़ी लंबे समय से बने हुए हैं और अब इन्होंने अर्थव्यवस्था को ऐसी स्थिति की ओर पहुंचा दिया है, जहां पर विकास ख़तरे में पड़ सकता है. महंगाई अनियंत्रित रूप से बढ़ सकती है, और इससे देश की आबादी के एक बड़े हिस्से के रहन सहन पर बहुत बुरा असर पड़ने की आशंका है.

हमारा लक्ष्य वित्तीय घाटे को GDP के 8.5 से 9 प्रतिशत के मौजूदा स्तर से कम करके अगले तीन वर्षों में 4 प्रतिशत से नीचे लाने का होना चाहिए. संरचनात्मक सुधारों के ज़रिए वित्तीय स्थिरता लाने वाली एक व्यापक रणनीति ही अंतरराष्ट्रीय समुदाय में भारत के प्रति भरोसा जगा सकती है.

आसान शब्दों में कहें तो ऐसे हालात इसलिए बने क्योंकि एक देश के तौर पर हम अपनी क्षमता से ज़्यादा ख़र्च करके जीने के आदी बन गए हैं. हमारे वित्तीय घाटे और चालू खाते के घाटे की ऊंची दरें ये दिखाती हैं कि हमारे देश में लोगों को इस बात का यक़ीन है कि सामाजिक और आर्थिक ग़ैरज़िम्मेदाराना रवैये के लिए उन्हें कोई दंड नहीं मिलेगा. लेकिन, इतिहास किसी को माफ़ नहीं करता. हम अब सिर्फ़ दूसरों पर आरोप लगाकर नहीं बच सकते हैं.

संरचनात्मक सुधार बेहद ज़रूरी

हमें जितनी जल्दी मुमकिन हो उतनी तेज़ी से, भुगतान के संतुलन को हासिल करना होगा. इसके साथ साथ मध्यम अवधि में इस असंतुलन को दूर करने के लिए ज़रूरी क़दम उठाने होंगे. इन बुनियादी कमियों को दूर करना ज़रूरी है, जो स्थायी विकास और तरक़्क़ी की राह में रोड़े अटका रही हैं. दोनों घाटों के पीछे संरचनात्मक कमियां और वो जड़ताएं हैं, जो अकुशलता, धीमे विकास और अंत में हमारी जनता की भलाई में बहुत धीमी गति से सुधार के लिए ज़िम्मेदार हैं. इसीलिए हम इन समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए ज़रूरी हो चुके संरचनात्मक सुधारों को अब और नहीं टाल सकते हैं. आज हमें विकास आधारित बदलाव करने की ज़रूरत है क्योंकि केवल तालमेल बनाए रखने के लिए विकास की क़ुर्बानी नहीं दी जा सकती है.

अपने ऊपर ख़ुद से लादी गई सीमाओं के चलते, अर्थव्यवस्था की उत्पादक ताक़तों को ज़्यादा उत्पादन करने और रोज़गार पैदा करने की इजाज़त नहीं दी जा रही है. अगर इन बाधाओं को जल्द से जल्द और असरदार तरीक़े से दूर  किया गया, तो आने वाले समय में हमें बार बार गंभीर संकटों का सामना करना पड़ेगा. मौजूदा संकट से निपटने के नुस्खे हमारे पास हैं. हमारी अर्थव्यवस्था बुनियादी तौर पर मज़बूत है. हमें इस ताक़त का इस्तेमाल करके बेहतर भविष्य का निर्माण करना चाहिए.

मौजूदा वित्त वर्ष में प्रत्यक्ष करों को कम करना शायद संभव न हो. लेकिन, आने वाले वर्षों में आयकर को मौजूदा 56 प्रतिशत (जिसमें सरचार्ज भी शामिल है) से घटाकर 45 प्रतिशत तक लाया जाना चाहिए वो भी टैक्स भरने की न्यूनतम सीमा बढ़ाए बिना. अप्रत्यक्ष करों के ढांचे में सुधार की और VAT व्यवस्था को लागू करने की ओर तेज़ी से क़दम बढ़ाने की ज़रूरत है.

मौजूदा संकट का सामना एक अच्छी तरह से सोच समझकर तैयार किए गए सुधार के कार्यक्रम से किया जा रहा है. निश्चित रूप से ऐसे कार्यक्रम का केंद्रबिंदु महंगाई रोकने के लिए वित्तीय संतुलन स्थापित करना होना चाहिए, क्योंकि महंगाई ख़ास तौर से समाज के ग़रीब तबक़े को तकलीफ़ दे रही है. इसके अलावा इस कार्यक्रम से भुगतान के संतुलन का दबाव कम भी कम करना चाहिए. हमारा लक्ष्य वित्तीय घाटे को GDP के 8.5 से 9 प्रतिशत के मौजूदा स्तर से कम करके अगले तीन वर्षों में 4 प्रतिशत से नीचे लाने का होना चाहिए. संरचनात्मक सुधारों के ज़रिए वित्तीय स्थिरता लाने वाली एक व्यापक रणनीति ही अंतरराष्ट्रीय समुदाय में भारत के प्रति भरोसा जगा सकती है. इससे हमें बाहर से वो वित्तीय मदद मिल सकेगी, जिसकी सख़्त ज़रूरत है. घरेलू और बाहरी खाते की स्थिति सुधारने के लिए जो उपाय किए जा रहे हैं, उनके असर से बचने के लिए विदेशी सहायता काफ़ी मददगार होगी. पर्याप्त विदेशी वित्त के बिना, सुधारों के बोझ का एक बड़ा हिस्सा ग़रीबों के कंधे पर पड़ जाएगा. फौरी तौर पर हमारे पास अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से 5 से 7 अरब डॉलर का क़र्ज़ लेने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की शर्तों से हमें चिंतित नहीं होना चाहिए. निश्चित रूप से हमें तीन क्षेत्रों में ख़ुद पर ऐसा अनुशासन लाने की ज़रूरत है, जिसने सुधारों की मांग अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के करने की भी उम्मीद है. ये हैं वित्तीय घाटे को कम करना, उचित और दूसरों से मुक़ाबला कर सकने वाली रुपए की विनियम दर और खुली अर्थव्यवस्था की ओर क़दम बढ़ाना.

योजनागत व्यय और सब्सिडी को धीरे धीरे कम करने की योजना पर काम करके सरकार के ख़र्च को घटाया जा सकता है. उर्वरक की सब्सिडी में भारी कटौती करने की ज़रूरत है. खाद्य सब्सिडी को भी संतुलित बनाकर इस तरह देने की ज़रूरत है, जिससे समाज के उन तबक़ों को मदद मिल सके, जिन पर महंगाई की मार सबसे ज़्यादा पड़ती है. इससे ग़रीबों पर महंगाई का बोझ कम किया जा सकेगा. निर्यात को बजट के बजाय उचित विनिमय दर के ज़रिए वित्तीय प्रोत्साहन दिए जाने की ज़रूरत है. ये तो साफ तौर पर दिखने वाली सब्सिडी हैं. वहीं, बिजली की दरों, सिंचाई की दर और उच्च शिक्षा में भी काफ़ी सब्सिडी दी जा रही है, जिनकी समीक्षा किए जाने की ज़रूरत है. रक्षा व्यय को फिलहाल मौजूदा स्तर पर ही सीमित कर दिया जाना चाहिए और आने वाले समय में उसे घटाया जाना चाहिए. योजना संबंधी व्यय में इस तरह से संतुलन बनाया जाना चाहिए, जिससे बर्बादी  हो और इसका ज़ोर ग़रीबी हटाने  रोज़गार पैदा करने के साथ साथ मौजूदा योजनाओं को पूरा करने पर हो. इन सुधारों का बोझ फौरी तौर पर उन पर ही पड़ेगा, जिन्हें तयशुदा आमदनी होती है. ख़र्च पर क़ाबू पाना तो ज़रूरी है, लेकिन हमें ज़रूरी मूलभूत ढांचे में निवेश से जुड़ी बेवजह की वित्तीय कटौती से भी बचना चाहिए.

राजस्व व्यय में पर्याप्त मात्रा में कटौती करना इसलिए ज़रूरी है, ताकि मूलभूत ढांचे में सरकार का निवेश बढ़ाया जा सके और ग़रीबों को स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण और ग़रीबी उन्मूलन के अन्य कार्यक्रमों का फ़ायदा मिल सके. कृषि और ऊर्जा क्षेत्र में निवेश को ऐसे स्तर पर बनाए रखना होगा, जिससे विकास की पर्याप्त दर हासिल की जा सके.

राजस्व को कैसे बढ़ाया जाए

राजस्व को बढ़ाना भी बेहद ज़रूरी है. बेहतर तरीक़ा तो यही है कि टैक्स की दरों से छेड़छाड़  की जाए. लेकिन, करदाताओं की संख्या बढ़ाकर, रियायतों को ख़त्म करके, टैक्स व्यवस्था की कमियों को दुरुस्त करके और टैक्स को लागू करने में सुधार करके ये लक्ष्य हासिल किया जा सकता है. मौजूदा वित्त वर्ष में प्रत्यक्ष करों को कम करना शायद संभव न हो. लेकिन, आने वाले वर्षों में आयकर को मौजूदा 56 प्रतिशत (जिसमें सरचार्ज भी शामिल है) से घटाकर 45 प्रतिशत तक लाया जाना चाहिए वो भी टैक्स भरने की न्यूनतम सीमा बढ़ाए बिना. अप्रत्यक्ष करों के ढांचे में सुधार की और VAT व्यवस्था को लागू करने की ओर तेज़ी से क़दम बढ़ाने की ज़रूरत है.

तजुर्बे ने हमें बताया है कि केंद्रीकृत योजनाएं बनाने की व्यवस्था से बर्बादी, अकुशलता और रुकावट आती है. हमारा ये राष्ट्रीय तजुर्बा ये बताता है कि हमें इसमें सुधार लाने की ज़रूरत है

भुगतान के मौजूदा संकट से उबरने के लिए वित्तीय सुधार ज़रूरी हैं. लेकिन, जैसा कि हमने पहले भी कहा कि ये मध्यम अवधि के संरचनात्मक सुधारों का हिस्सा होना चाहिए. ये ज़रूरी है कि योजना की परिकल्पना को नया स्वरूप देने की ज़रूरत है. योजना के नाम पर हर काम में सरकारी नियम और दख़लंदाज़ी से  तो तेज़ विकास दर हासिल हुई है और  ही इससे स्वायत्त तकनीकी विकास हो सका है.  ही इससे सामाजिक और आर्थिक असमानता को कम करने में कोई ख़ास मदद मिल सकी है, और  ही इससे हमारे समाज के ग़रीब तबक़े के लोगों का कोई भला हुआ है. विकास के अगले दौर की मांग निश्चित रूप से ये चाहती है कि हम योजना को देखने के अपने नज़रिए में बुनियादी बदलाव लाएं. योजनाओं को केवल एक व्यापक संकेत के तौर पर बनाया जाना चाहिए, जो बाज़ार के संकेतों के अनुसार हों. तजुर्बे ने हमें बताया है कि केंद्रीकृत योजनाएं बनाने की व्यवस्था से बर्बादी, अकुशलता और रुकावट आती है. हमारा ये राष्ट्रीय तजुर्बा ये बताता है कि हमें इसमें सुधार लाने की ज़रूरत है.

औद्योगिकनीति में हमारा लक्ष्य

ज़्यादा खुली अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ने के क़दम असल में तमाम क्षेत्रों में एक दूसरे के साथ तालमेल के साथ किए जाने वाले सुधार से ही उठ सकते हैं. औद्योगिक नीति में हमारा लक्ष्य ये होना चाहिए कि हम हर तरह की लाइसेंस व्यवस्था को ख़त्म कर दें और केवल पर्यावरण और औद्योगिक सुरक्षा से जुड़े क़ानून रहने दें. छोटे स्तर के ग्रामीण उद्योग और छोटे सेक्टर को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. लेकिन, ये काम वित्तीय उपायों और तय समयसीमा के ज़रिए ही किया जाना चाहिए,  कि किसी उत्पाद को आरक्षित व्यवस्था के तहत संरक्षण देकर. उद्योगों में प्रवेश का उदारीकरण तो होना ही चाहिए. साथ साथ ये भी ज़रूरी है कि हम उद्योगों को समेटने के अधिकार भी दें. औद्योगिक उत्पादन पर से नियंत्रण ख़त्म करना अंतरराष्ट्रीय मुक़ाबले के लिए अर्थव्यवस्था को खोलने की पहली शर्त है. क्योंकि, घरेलू स्तर पर मुक़ाबला न होने से अर्थव्यवस्था के पूरी तरह से विदेशी पूंजी के हमले की शिकार होने का डर है.

घरेलू औद्योगिक प्रतिद्वंदिता बढ़ाने के लिए ख़ूब सोच समझकर तैयार की गई विदेशी निवेश को बढ़ावा देने वाली नीति का भी इस्तेमाल हो सकता है. विदेशी निवेश हमारे औद्योगिक ढांचे की कई कमियों को दूर कर सकता है और इसे वित्त और तकनीक दोनों हासिल करने के विकल्प के रूप में तब तक बढ़ावा दिया जाना चाहिए, जब तक विदेशी निवेश का प्रभाव हमें फ़ायदा पहुंचाने वाला हो. यहां ये मानना पड़ेगा कि विदेशी निवेश के भय को कुछ ज़्यादा ही बढ़ा चढ़ाकर पेश किया गया है और भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का निवेश बढ़ाने के लिए हमें विदेशी पूंजी का खुले दिल से स्वागत करना चाहिए. अगले कुछ वर्षों के दौरान हमें 2 से 3 अरब डॉलर का विदेशी निवेश हासिल करने का लक्ष्य रखना चाहिए. ये लक्ष्य हासिल करना संभव भी है और ज़रूरी भी. लेकिन, इस समय सबसे बड़ा लक्ष्य घरेलू स्तर पर कारोबारी प्रतिद्वंदिता को बढ़ावा देना है. इस समय जो भी नीतियां और नियम क़ायदे घरेलू औद्योगिक मुक़ाबले की राह में रोड़े बनें हैं, उन सब को निश्चित रूप से ही ख़त्म कर देना होगा. उस दिशा में एक क़दम ये हो सकता है कि एमआरटीपी एक्ट में आमूल चूल बदलाव किया जाना चाहिए. किसी भी कंपनी के आकार के विकास संबंधी पाबंदियां ख़त्म की जानी चाहिए. इसके साथ साथ प्रतिबंधात्मक व्यापारिक गतिविधियों से जुड़े नियमों को और सख़्त बनाया जाना चाहिए.

औद्योगिक उत्पादन पर से नियंत्रण ख़त्म करना अंतरराष्ट्रीय मुक़ाबले के लिए अर्थव्यवस्था को खोलने की पहली शर्त है. क्योंकि, घरेलू स्तर पर मुक़ाबला न होने से अर्थव्यवस्था के पूरी तरह से विदेशी पूंजी के हमले की शिकार होने का डर है.

इस समय अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा सार्वजनिक क्षेत्र का है. उसे भी उन नियमों का पालन करने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए, जहां मुनाफ़े पर इनाम दिया जाए, वहीं अकुशलता पर दंडित किया जाता हो. जनकल्याण की ज़िम्मेदारी सरकारी उद्योगों के बजाय बजट के ज़िम्मे की जानी चाहिए. ऐसे सरकारी उद्योग को चलाने का कोई औचित्य नहीं है, जिनमें साल दर साल घाटा ही हो रहा हो. जहां पर निजी क्षेत्र की कंपनियां बेहतर नतीजे दे सकती हैं, वहां पर सरकारी उद्योग चलाने का कोई औचित्य नहीं बनता है. जब तक सार्वजनिक क्षेत्र को निजी क्षेत्र से मुक़ाबला करने, और कुशल बनने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा, तब तक न तो उनकी कोई जवाबदेही तय होगी न ही उनके प्रबंधन के काम में कोई सुधार होगा. सार्वजनिक क्षेत्र में सुधार और सरकारी कंपनियों का नए सिरे से गठन राष्ट्रीय महत्व का काम है. इसे अब और नहीं टाला जा सकता है.

व्यापार नीति के क्षेत्र में लक्ष्य

व्यापार नीति के क्षेत्र में लक्ष्य ये होना चाहिए कि हम मात्रा संबंधी प्रतिबंध हटाकर उनकी जगह कर लगाएं और अगले चार से पांच वर्षों में हम व्यापार कर को घटाकर 40 प्रतिशत के स्तर पर ले आएं. इससे हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुक़ाबला कर सकने लायक़ औद्योगिक व्यवस्था बना सकेंगे. सीमा शुल्क में होने वाले नुक़सान की भरपाई हम उत्पाद शुल्क में उचित इज़ाफ़ा करके कर सकते हैं. निर्यात को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहन की व्यवस्था बनानी होगी,  कि हम अभी की महंगे आयात पर सब्सिडी देने की व्यवस्था जारी रखें. विनिमय दर की नीति अर्थव्यवस्था से जुड़े सही संकेत देने में अहम भूमिका रखती है. हमें बेहद उदार विनिमय व्यवस्था बनानी होगी. मध्यम अवधि में इसका लक्ष्य रुपए को पूरी तरह विनिमय के योग्य बनाना होना चाहिए और रुपए की दर ऐसे स्तर पर हो जाने देनी चाहिए, जिससे ये देश में विदेशी मुद्रा की कमी के असली हालात की नुमाइंदगी कर सके.

वित्तीय और बैंकिंग क्षेत्र में भी फ़ौरन सुधार करने की ज़रूरत है. ज़्यादा स्वायत्तता, खातों में अधिक पारदर्शिता, पर्याप्त पूंजी, किसी की सिफ़ारिश पर क़र्ज़ देने की व्यवस्था ख़त्म करना और क़र्ज़ माफ़ी और रियायती क़र्ज़ जैसी लोकलुभावन योजनाओं से बचने जैसे उपाय करने की ज़रूरत है. वित्तीय व्यवस्था की सेहत की अनदेखी सिर्फ़ इसी जोखिम पर की जा सकती है कि हम पूरे आर्थिक ढांचे की अनदेखी करें.

एक अधिक ऊर्जावान और प्रतियोगी अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ने के लिए औद्योगिक संबंधों और उद्योग धंधे समेटने को लेकर नया नज़रिया अपनाने की ज़रूरत है. मुद्दा ये है कि क्या हम संगठित क्षेत्र को ज़रूरत से ज़्यादा संरक्षण देने की नीति पर चल सकते हैं, जब देश में असंगठित क्षेत्र और बेरोज़गार कामगारों की एक बड़ी तादाद मौजूद हो. हमारी मौजूदा नीतियां, पूंजी के बजाय श्रमिकों के इस्तेमाल की राह में रोड़े अटकाने वाली हैं, जबकि देश में प्रचुर मात्रा में कामगार मौजूद हैं, जबकि पूंजी का अभाव है. वेतन से जुड़ी नीतियां और वार्ता में असंतुलन है, क्योंकि इसमें सरकार का ज़रूरत से ज़्यादा दख़ल होता है. हम ये मानते हैं कि श्रम बाज़ार की जड़ताओं में सुधार करने में समय लगेगा. लेकिन, हमारा ज़ोर देकर ये कहना है कि ऐसी सख़्त व्यवस्थाओं में ढील देने से रोज़गार बढ़ेगा और अर्थव्यवस्था को बेहतर उत्पादन का भी फ़ायदा मिलेगा. नौकरी जाने पर श्रमिकों को उचित मुआवज़े की व्यवस्था के साथ घाटे में चल रही इकाइयों को बंद करने के साथ साथ हम अगर कामगारों को प्रशिक्षित करें, तो इससे औद्योगिक क्षेत्र को मज़बूती मिलेगी. बीमार उद्योगों को वित्तीय और क़र्ज़ संबंधी रियायतें देने की मौजूदा व्यवस्था बहुत महंगी, अकुशल और रोज़गार बचाने का एक बर्बादी वाला विकल्प है.

जब तक सार्वजनिक क्षेत्र को निजी क्षेत्र से मुक़ाबला करने, और कुशल बनने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा, तब तक न तो उनकी कोई जवाबदेही तय होगी न ही उनके प्रबंधन के काम में कोई सुधार होगा.

नई तकनीक को अपनाने की राह में नीतियों और प्रतिबंधों की बाधाएं खड़ी करने के बजाय सरकार को उसे बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभानी होगी. इसके लिए उचित वित्तीय संकेत देने के साथ साथ घरेलू अनुसंधान और विकास को बढ़ावा देने के लिए  कॉरपोरेटर प्लानिंग के साथ तालमेल बिठाना होगा.

अधिक खुली और मुक़ाबले लायक़ अर्थव्यवस्था बनाने की प्रक्रिया को वित्त, व्यापार, एक्सचेंज रेट, औद्योगिक और श्रमिक नीतियों में तालमेल के साथ बड़े बदलाव के साथ ही बढ़ावा दिया जा सकता है. ये काम टुकड़ों में करने या केवल कुछ क्षेत्रों में सुधार करने का कोई फ़ायदा नहीं होगा. लेकिन, अगर ये सभी क़दम एक साथ उठाए जाते हैं, तो टुकड़ों में किए गए उपायों से कहीं ज़्यादा लाभ हमें मिलेगा.

हमारा इरादा सुधारों का एक व्यापक ब्लूप्रिंट पेश करना नहीं है. इसके पीछे मुख्य मक़सद यही है कि व्यापक आर्थिक स्थिरता के ढांचे के तहत, जो काम केवल सरकार ही कर सकती है और उसे पोषित कर सकती है, आर्थिक क्षेत्र में निर्णय की उस प्रक्रिया को ज़्यादा से ज़्यादा विकेंद्रीकृत किया जाना चाहिए और ये काम हमारे बुनियादी सामाजिक आर्थिक लक्ष्यों के साथ तालमेल बनाकर किया जाना चाहिए.

मौजूदा संकट हमें क्या सिखाती है

मौजूदा संकट कुछ सीखने का है, तो कुछ बातें भुलाने का भी है. इसमें कोई दो राय नहीं कि हम अब सुधारों की तकलीफ़देह प्रक्रिया से बच नहीं सकते. देश की अर्थव्यवस्था को स्थिर बनाना होगा. अगर हमें ख़ुद को दिए जख़्मों से उबारना है, तो हमें ख़र्च में कटौती की कड़वी दवा खानी ही होगी. लेकिन, इस मुश्किल से उबरने के बाद, तेज़ विकास दर उन उपायों से नहीं हासिल की जा सकती, जो हम पहले से करते आए हैं. पहल करने की आज़ादी और क्षमता के इस्तेमाल को बढ़ावा देने वाले एक साहसिक कार्यक्रम को लागू करना ही होगा. इसके लिए मज़बूत इच्छाशक्ति और साहस की ज़रूरत होगी. लेकिन, उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है, पुराने सिद्धांतों का त्याग करना.

हमें बेहद उदार विनिमय व्यवस्था बनानी होगी. मध्यम अवधि में इसका लक्ष्य रुपए को पूरी तरह विनिमय के योग्य बनाना होना चाहिए और रुपए की दर ऐसे स्तर पर हो जाने देनी चाहिए, जिससे ये देश में विदेशी मुद्रा की कमी के असली हालात की नुमाइंदगी कर सके.

भारत आज दोराहे पर खड़ा है. आने वाले समय की पहाड़ जैसी चुनौतियों का सामना हम हिचकते, लड़खड़ाते और आधे अधूरे मन से उठाए गए क़दमों से नहीं कर सकते हैं. पूरे देश को साहस और मज़बूत इच्छाशक्ति से ये स्वीकार करना होगा कि भारत को स्थिर, मज़बूत और ऊर्जावान देश बनाने के लिए ये सुधार बेहद ज़रूरी हैं. हमारे समाज के सभी वर्गों के प्रतिनिधि और सबसे ज़्यादा हमारे देश की संसद को ये दिखाना होगा कि आज देश एकजुट होकर और मज़बूत इच्छाशक्ति से भविष्य की तरफ़ क़दम बढ़ाने के लिए तैयार है.

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