Published on Sep 18, 2020 Updated 0 Hours ago

पिछले छह महीने में एप्पल की वैल्युएशन दो गुना बढ़ गई. यानी एप्पल को एक खरब डॉलर की कंपनी बनने में तो चार दशक लगे. मगर 2 खरब डॉलर की कंपनी बनने की मंज़िल एप्पल ने महज़ छह महीने में हासिल कर ली.

एप्पल के 2 खरब डॉलर की कंपनी बनने के पीछे तीन कारण हैं: चीन, चीन और सिर्फ़ चीन

न कोई आविष्कार. न ही उपयोगिता. न ही संपत्तियों को बेचा गया. ये तो बस पूरक कारक हैं. एप्पल के 2 ख़रब डॉलर की कंपनी बनने के होश उड़ा देने वाली उपलब्धि के पीछे चार अक्षरों वाला एक शब्द है -विषाणु- और इसका आर्थिक टीका, जिसका अर्थ है बाक़ी दुनिया का चीन की अर्थव्यवस्था से दूरी बनाना. आपको इसका सबूत चाहिए? अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया राज्य के कुपर्टिनो स्थित कंपनी एप्पल आज से दो साल पहले, यानी अगस्त 2018 में एक खरब डॉलर मूल्य वाली कंपनी बनी थी. उसने ये मंज़िल अपने इनकॉरपोरेशन के लगभग 42 साल बाद हासिल की थी. हालांकि, एप्पल के शेयरों के लिए इसके बाद के दो साल सीधे बढ़ोत्तरी वाले नहीं थे. लेकिन, एप्पल के शेयरों में ये भारी उछाल आने की शुरुआत तब से हुई, जब पश्चिमी देशों पर कोविड-19 की महामारी क़हर बरपा रही थी. यानी इस साल फ़रवरी 2020 से एप्पल के शेयरों में ज़बरदस्त तेज़ी देखी जा रही है. पिछले छह महीनों में एप्पल का बाज़ार मूल्य बढ़ कर दो गुना हो गया है. एप्पल ने अपने निवेशकों के लिए जो उपलब्धि पिछले चार दशकों में हासिल की थी. उसे दो गुना करने में कंपनी को केवल छह महीने लगे. वो भी उस समय इस महामारी से जूझ रहे तमाम देश, अपने आर्थिक विकास की गति बनाए रखने के लिए इकोनॉमिक वैक्सीन तलाश रहे थे. इसका अर्थ है कि दुनिया के बहुत से देश चीन और इसकी ताक़तवर आर्थिक श्रृंखलाओं से अपने आपको अलग करने में जुटे हुए थे, उसी दौरान एप्पल के शेयर के दाम इतनी तेज़ी से बढ़े कि केवल 26 दिनों के अंदर उनकी क़ीमत में 25 प्रतिशत की वृद्धि हो गई. एप्पल की इस ऐतिहासिक उपलब्धि के तीन कारण हैं. और इनके पीछे सिर्फ़ चीन का हाथ है.

दुनिया के बहुत से देश चीन और इसकी ताक़तवर आर्थिक श्रृंखलाओं से अपने आपको अलग करने में जुटे हुए थे, उसी दौरान एप्पल के शेयर के दाम इतनी तेज़ी से बढ़े कि केवल 26 दिनों के अंदर उनकी क़ीमत में 25 प्रतिशत की वृद्धि हो गई.

सुरक्षित ठिकाने की तलाश

पहली बात तो ये कि डिजिटल संसाधन या डिजिचल गैजेट्स अमीरों के शौक माने जा सकते हैं. इसीलिए, आई-फोन उपयोगिता की वस्तु होने के साथ साथ एक स्टेटस सिम्बल भी बन गया है. आई-फोन एक नकचढ़े मोबाइल ऑपरेटिंग सिस्टम यानी iOS पर चलता है न कि सर्वसुलभ एंड्रॉयड ऑपरेटिंग सिस्टम पर. आई-फोन इस्तेमाल करना ठीक वैसा ही है जैसे ह्युंदै या मारुति की गाड़ी के बजाय BMW या मर्सिडीज़ की गाड़ी चलाना. आई-फोन का इस्तेमाल करना इसकी नुमाइश करना भी है. ख़ास तौर पर तब और जब सस्ते से सस्ता स्मार्टफ़ोन भी आई-फ़ोन से अधिक सुविधाओं और पॉवर से लैस होता है. लेकिन, जिस समय मेड इन चाइना कोरोना वायरस पूरी दुनिया की महामारी बन चुका है. जब इस महामारी ने हर घर को दफ़्तर बना दिया है. जब हर इलेक्ट्रॉनिक गैजेट आमदनी का ज़रिया बन गया है. ऐसे में आज नागरिक भरोसेमंद और विश्वसनीयता पर ज़्यादा यक़ीन कर रहे हैं. आज किसी भी देश का नागरिक हो, वो अपनी आमदनी के माध्यम में चीन की घुसपैठ का जोख़िम नहीं लेना चाहता. इसका नतीजा ये हुआ है कि लोग ज़्यादा सुरक्षित डिजिटल इकोसिस्टम का रुख़ कर रहे हैं. भले ही उसके मुक़ाबले कोई चाइनीज़ स्मार्टफ़ोन ज़्यादा महंगा और फीचर्स वाला ही क्यों न हो. इस बुनियाद की बात करें, तो एप्पल और सैमसंग दोनों ही मज़बूत पायों पर खड़े हो.

गैजेट उपभोग की इकलौती और सुस्पष्ट वस्तु है

दूसरी बात ये है कि चूंकि आज दुनिया के तमाम देशों में लोग अपने घरों में बंद हैं. वो बाज़ार और मॉल से दूर हैं. ऐसे में ख़र्च करने की लालसा की अभिव्यक्ति दो क्षेत्रों में व्यक्त हो पा रही है. घरेलू सामान या ग्रोसरी में और अच्छे अच्छे गैजेट्स में. जो लोग खाने पीने के लिए अपने घरों से बाहर नहीं जा पा रहे हैं और नई कार ख़रीदने के इच्छुक नहीं हैं. वैसे में उनकी कुछ ख़र्च करने की लालसा की पूर्ति एक नए क्षेत्र में हो पा रही है. हर घर के पास अपनी ज़रूरत भर का ख़र्च करने लेने के बाद जो रक़म बच रही है, उसे महंगे और अच्छे गैजेट्स ख़रीदने में व्यय किया जा रहा है. जैसे कि कंप्यूटर और फ़ोन लाइटिंग और साउंड के गैजेट्स वग़ैरह. और ये सभी निवेश वाई-फ़ाई के उपयोग के लिए हो रहे हैं. क्योंकि वाई-फाई के ज़रिए ही लोग मनोरंजन के नए माध्यमों यानी नेटफ्लिक्स तक पहुंच बना पा रहे हैं. ज़ाहिर है आज उपभोक्ता का व्यय डिजिटल दुनिया की ओर क़दम बढ़ा रहा है. वास्तविकता तो ये है कि आज दुनिया का विस्तार बड़ी तेज़ी से हो रहा है. और इसकी रफ़्तार इतनी तेज़ है, जैसी न पहले देखी गई, न सुनी गई. आप आने वाले कुछ हफ़्तों के दौरान दूसरी तिमाही के नतीजों के तौर पर इनके सबूत देखेंगे. एप्पल के पास अपने उत्पादों जैसे कि मैकबुक, आई-वाच, आई-फ़ोन और एप्पल टीवी के रूप में उत्पादों की ऐसी श्रृंखला है, जिनमें से उपभोक्ता अपनी ज़रूरत या शौक़ का डिजिटल उत्पाद चुन सकते हैं. 

आपसी संबंध या कारण?

तीसरी बात ये है कि आज तकनीकी राष्ट्रवाद की बयार पूरी दुनिया में ज़ोर-शोर से बहर रही है. आप देखेंगे और पाएंगे कि एक के बाद एक, कई देश चीन की तकनीक का बहिष्कार कर रहे हैं. ये देश अब चीन की तकनीक के विकल्प तलाश रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय संबंधों को लेकर चीन की बर्बरता और वैश्विक स्वास्थ्य संकट के इस दौर में अपने पड़ोसी देशों के इलाक़ों में चीन की घुसपैठ ने सभ्य दुनिया का धैर्य ख़त्म कर दिया है. अब वो चीन के साम्यवादी सम्राट शी जिनपिंग के मध्ययुगीन विस्तारवाद को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं. साउथ चाइना सी में छोटे देशों को तो चीन कई बरस से डराने धमकाने में जुटा हुआ है. इससे संयुक्त राष्ट्र संघ की नाक के नीचे, पूरे क्षेत्र में सुरक्षा और स्थिरता की चुनौती खड़ी हो गई है. चीन ने अपनी करतूतों से ये सुनिश्चित किया है कि दुनिया ‘मेड इन चाइना’ उत्पादों का बहिष्कार करे.

आप देखेंगे और पाएंगे कि एक के बाद एक, कई देश चीन की तकनीक का बहिष्कार कर रहे हैं. ये देश अब चीन की तकनीक के विकल्प तलाश रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय संबंधों को लेकर चीन की बर्बरता और वैश्विक स्वास्थ्य संकट के इस दौर में अपने पड़ोसी देशों के इलाक़ों में चीन की घुसपैठ ने सभ्य दुनिया का धैर्य ख़त्म कर दिया है.

जहां तक भारत की बात है, तो सबसे बड़ी चुनौती एक साथ दो मोर्चों से आई. पहली तो ये कि जब चीन ने लद्दाख में भारत के सामरिक धैर्य का इम्तिहान लिया. जिसके बाद भारत ने चीन के ऐप्स पर प्रतिबंध लगाया. चीन की कंपनियों के अपने यहां सड़कें बनाने पर रोक लगाई. तय है कि आगे चलकर भारत, चीन की दूरसंचार कंपनी हुवावे पर भी प्रतिबंध लगाएगा. क्योंकि हुवावे कंपनी, दूसरे देशों के महत्वपूर्ण मूलभूत ढांचे में घुसपैठ का सबसे बड़ा चीनी हथियार है. और दूसरा तब हुआ, जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चीन की तकनीकी कंपनियों के ख़िलाफ़ सख़्त रवैया अपनाया. चीन की कंपनियों पर अमेरिका द्वारा प्रतिबंध लगाने की धमकी के चलते आज दुनिया के अन्य देशों की कंपनियां, चीन से दूरी बनाने में जुटी हुई हैं. 

एप्पल को मिला हालात का फ़ायदा

दुनिया के इस बदलते सामरिक परिदृश्य का सबसे ज़्यादा लाभ जिन्हें हुआ है, उनमें एप्पल भी शामिल है. जब एक के बाद एक कई देशों ने चीन की तकनीकी कंपनियों और उत्पादों के लिए अपने दरवाज़े बंद किए और हुवावे पर प्रतिबंध लगाए, फिर चाहे वो ब्रिटेन की तरह की प्रतीकात्मक पाबंदी ही क्यों न हो. तब इस सामरिक उथल पुथल से 5G तकनीक के अन्य खिलाड़ियों यानी सैमसंग, एरिक्सन, नोकिया और सिस्को को फ़ायदा हुआ. ऐप की दुनिया में गिरते हुए मूल्यों के बीच (टिक टॉक का मूल्यांकन पहले 20 से 50 अरब डॉलर था, जो अब घटकर 10 से 20 अरब डॉलर हो गया है) चीन की उन तकनीकी कंपनियों और उत्पादों को चीन की संरक्षण वाली नीतियों से पिछले कुछ वर्षों के दौरान जो लाभ हुआ था, वो अब शी जिनपिंग और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नाम के सामरिक बोझ को अपने कंधों से उतार फेंकना चाहती हैं. जिससे कि इन कंपनियों की बैलेंस शीट की स्थिरता बनी रहे. वहीं, दूसरी ओर जिन कंपनियों के पास नकद रक़म है, वो मूल्यांकन बढ़ाने में निवेश करना चाहते हैं. मिसाल के तौर पर, माइक्रोसॉफ्ट ने टिक टॉक को ख़रीदने की कोशिश की थी. इसी तरह डिजिटल गैजेट्स के उपभोक्ता बाज़ार में इस उथल पुथल का सबसे अधिक लाभ दो कंपनियों को हुआ है-सैमसंग और एप्पल.

गहराई से पड़ताल करें तो आपको पता चलता है कि आज एप्पल के फ़ोन चाइनीज़ फ़ोन के बाज़ार पर क़ब्ज़ा कर रहे हैं. एप्पल ने भी अपने आई-फ़ोन के दाम घटाए हैं, ताकि चीन के सस्ते स्मार्टफ़ोन का मुक़ाबला किया जा सके.

एप्पल का बाज़ार मूल्य दो ख़रब डॉलर पहुंच गया है. इस बात को आंकड़ों की नज़र से देखें, तो ये दुनिया के सात देशों (अमेरिका, चीन, जापान, जर्मनी, भारत, ब्रिटेन और फ्रांस) को छोड़ कर दुनिया के बाक़ी सभी देशों की अर्थव्यवस्था की जीडीपी से भी ज़्यादा है. और ये बात चीन को लेकर अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की सख़्त नीति के अनुसार ही है. ऐसे में एप्पल का 2 खरब डॉलर मूल्य की कंपनी बनने और ट्रंप की चीन नीति में ऊपरी तौर पर एक संबंध नज़र आता है. लेकिन, इस तथ्य की गहराई से पड़ताल करें तो आपको पता चलता है कि आज एप्पल के फ़ोन चाइनीज़ फ़ोन के बाज़ार पर क़ब्ज़ा कर रहे हैं. एप्पल ने भी अपने आई-फ़ोन के दाम घटाए हैं, ताकि चीन के सस्ते स्मार्टफ़ोन का मुक़ाबला किया जा सके. इस कारण से स्मार्टफ़ोन की क़ीमतों में पहले जो गिरावट आनी शुरू हुई थी, उसके साथ दुनिया के बड़े उपभोक्ता बाज़ारों जैसे कि भारत में चीन विरोधी जज़्बात ज़ोर पकड़ने लगे हैं. इसके अलावा दुनिया के तमाम देश आज चीन की दादागीरी वाली नीतियों के ख़िलाफ़ कठोर क़दम उठा रहे हैं. क्योंकि चीन ने विश्व पर अपना प्रभुत्व जमाने के चक्कर में कुछ ज़्यादा ही आक्रामक रवैया अपना लिया. उसी का नतीजा है कि आज चीन के उत्पाद अमेरिका के एप्पल और दक्षिण कोरिया के सैमसंग से पिछड़ने लगे हैं. और इन बातों का तथ्यात्मक सबूत ये है कि आज एप्पल 2 ट्रिलियन डॉलर मूल्यांकन वाली कंपनी बन गई है. 

चीन से अलग होने में सामने खड़ा अवसर

शी जिनपिंग की आक्रामकता को हटा दें, तो एप्पल के शेयरों के दाम में गिरावट आनी चाहिए थी. अगर हम कंपनी की वित्तीय उपलब्धियों पर नज़र डालें, तो उनके अनुसार एप्पल के निवेशकों को कंपनी के वर्ष 2019 के राजस्व 260 अरब डॉलर में दो प्रतिशत की गिरावट झेलनी चाहिए थी. इसके अलावा कंपनी की पिछले साल की कमाई जो कि 55 अरब डॉलर थी, उसमें सात फ़ीसद की गिरावट आनी चाहिए थी. और इसका कारण भारत जैसे कम क़ीमत पर फ़ोन ख़रीदने वाले बाज़ार के कारण होना चाहिए था. क्योंकि भारत में हुवावे और शाओमी के स्मार्टफ़ोन के बड़े ख़रीदार हैं. चीन की ये स्मार्टफ़ोन कंपनियां नई नई तकनीक के साथ उपभोक्ता को शानदार अनुभव वाले फ़ोन सस्ते में उपलब्ध कराती रही हैं. एप्पल के निवेशकों को ये भी देखना चाहिए था कि एप्पल अपनी निर्माण की सुविधाओं को चीन से हटाकर वियतनाम और भारत में स्थानांतरित कर रही है. और ऐसे क़दमों से एप्पल को लागत के मामले में काफ़ी बोझ उठाना पड़ रहा है. और इससे एप्पल की सप्लाई लाइन भी प्रभावित होगी. क्योंकि अब एप्पल नए सप्लायर्स की श्रृंखला खड़ा कर रहा है जो तमाम देशों द्वारा बनाई जा रही नई सप्लाई चेन के अनुरूप हैं.

मिसाल के तौर पर भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया ने एक त्रिपक्षीय आपूर्ति श्रृंखला तैयार करने की दिशा में बातचीत शुरू कर दी है. इसके माध्यम से तीनों देश, चीन पर अपनी निर्भरता कम करना चाह रहे हैं. इसकी ज़रूरत इसलिए पड़ रही है, क्योंकि चीन ने राजनीतिक और सैन्य तौर पर बेहद आक्रामक रुख़ अपनाया हुआ है. अब तीन देश जो वैकल्पिक आपूर्ति श्रृंखलाएं तैयार करने पर काम कर रहे हैं, वो चीन के आक्रामक रवैये के ख़िलाफ़ कोई प्रतिक्रिया वाला क़दम नहीं है. बल्कि ये सोची समझी रणनीति का हिस्सा है. लगभग दो महीने पहले जापान की सरकार ने घोषणा की थी कि वो अपने देश की उन कंपनियों को 53.6 करोड़ डॉलर का भुगतान करेगी, जो अपनी उत्पादन की इकाईयों को चीन से वापस जापान ले आएंगे या किसी अन्य देश में ले जाएंगे. वहीं, ऑस्ट्रेलिया और चीन के संबंध तो और भी निचले स्तर पर पहुंच गए हैं. क्योंकि चीन का सरकारी मीडिया, ऑस्ट्रेलिया को ‘अमेरिका का पालतू कुत्ता’ कह कर बुलाता है. इसी तरह चीन के मीडिया ने इज़राइल को भी ‘अमेरिका का पालतू जानवर’ कह कर बुलाना शुरू किया है. चीन द्वारा उठाए जा रहे आक्रामक क़दम की बात छोड़िए, शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन ने कूटनीति के बुनियादी उसूलों और औपचारिकताओं को भी ताक पर रख दिया है. ज़ाहिर है अब जैसा बर्ताव चीन कर रहा है, तो बाक़ी दुनिया उससे संवाद करने में क़तई दिलचस्पी नहीं रखती है. 

चीन के बाद का भविष्य

इसीलिए, आज एप्पल के निवेशक इस कंपनी का जो मूल्यांकन कर रहे हैं, वो वर्तमान स्थानीय परिस्थितियां नहीं, बल्कि आने वाले दौर की दुनिया के स्वरूप को देख कर है. और भविष्य की इस दुनिया का केंद्र अहंकारी और आक्रामक चीन नहीं, बल्कि एक ऐसी दुनिया है जहां सभी देश सौहार्द से रह सकेंगे. ये ऐसी दुनिया होगी, जहां धीरे धीरे ही सही, मगर बाक़ी सभी देश चीन के विरुद्ध एकजुट हो रहे हैं. अब जबकि एप्पल कंपनी अपना फोकस चीन से हटाकर अन्य देशों पर लगा रही है. इससे उसे नए मौक़े मिलेंगे. अपने पेटेंट और तकनीक को लेकर संरक्षण हासिल होगा. आज निवेशकों के कंप्यूटर स्क्रीन पर एप्पल के शेयर का जो मूल्य चमक रहा है, वो अगली तिमाही का नहीं, बल्कि एक दशक बाद की तस्वीर है. और आने वाले दशक में जब भारत दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने वाला है. तो, इसके सस्ते फ़ोन के ख़रीदार मध्यम और उच्च स्तर के फ़ोन के ख़रीदार बनने वाले हैं.

अब जबकि एप्पल कंपनी अपना फोकस चीन से हटाकर अन्य देशों पर लगा रही है. इससे उसे नए मौक़े मिलेंगे. अपने पेटेंट और तकनीक को लेकर संरक्षण हासिल होगा. आज निवेशकों के कंप्यूटर स्क्रीन पर एप्पल के शेयर का जो मूल्य चमक रहा है, वो अगली तिमाही का नहीं, बल्कि एक दशक बाद की तस्वीर है.

निवेश की भाषा में कहें तो रिटर्न का उल्टा जोख़िम होता है. बड़ी तकनीकी कंपनियों के लिए चीन आज सबसे बड़ा जोख़िम बन चुका है. आज ये कंपनियों के बोर्डरूम में घुसपैठ कर चुका है और हर संवाद में छीना झपटी पर उतारू है. चीन ने अपनी इस हरकत के ज़रिए कंपनियों के बोर्ड के एजेंडे बदल दिए हैं. अपनी हरकतों से चीन ने कई कंपनियों को मजबूर कर दिया है कि वो चीन के तकनीकी प्रभुत्व और चीन के उत्पादों के एकाधिकार वाले वास्तविक और सुस्पष्ट ख़तरे से बचने के लिए ज़रूरी क़दम उठाएं. सामरिक विषय अब तक राजनेताओं के अधिकार क्षेत्र में आते थे. लेकिन, आज सामरिक मुद्दे, कंपनियों के बोर्डरूम में चर्चा का विषय बन चुके हैं.

अब जबकि संप्रभु देश चीन की बढ़ती घुसपैठ के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय सुरक्षा की ऊंची दीवारें खड़ी कर रहे हैं. आज जब घर से काम करना नागरिकों के एक बड़े हिस्से की जीवनशैली का हिस्सा बन चुका है. ऐसे में भरोसा और विश्वास ही आने वाले समय के संवाद को परिभाषित करने जा रहा है. इन नई परिस्थितियों से एप्पल जैसी कंपनियों को फ़ायदा होगा. लेकिन, एप्पल तो महज़ एक शुरुआत है. दुनिया की अन्य बड़ी तकनीकी कंपनियां, जो सबकी सब अमेरिका से ताल्लुक़ रखती हैं, जिनमें अमेज़न (बाज़ार मूल्य 1.7 खरब डॉलर), माइक्रोसॉफ्ट (1.6 खरब डॉलर) और अल्फाबेट (1 खरब डॉलर) शामिल हैं. ये सभी कंपनियां आने वाले समय के हिसाब से अपनी नीतियों और रणनीति में बदलाव करेंगी. जिससे कि उनका बाज़ार मूल्य उसी अनुपात में बढ़ता जाए, जिस अनुपात में आज़ चीन की आक्रामकता पूरे विश्व में फैल रही है.

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