Published on Aug 26, 2023 Updated 0 Hours ago

सब्सिडी को चरणबद्ध रूप से ख़त्म करने में कठिनाई का प्राथमिक कारण इस बात से निकलता है कि ऊर्जा सब्सिडी देशों की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में गहराई से जड़ें जमा चुका है.

जीवाश्म ईंधन सब्सिडी के ख़िलाफ़ युद्ध: क्या कामयाबी हाथ लगने वाली है?

सितंबर 2009 में G20 देशों के नेताओं ने ऊर्जा सुरक्षा और जलवायु संरक्षण के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए जीवाश्म ईंधन सब्सिडी के ख़िलाफ़ युद्ध पर प्रतिबद्धता जताई थी. आर्थिक सहयोग और विकास संगठन यानी OECD देशों में जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को समझने और उससे निपटने के लिए शोध और सलाहकारी गतिविधियों में तेज़ी लाई गई. अनेक अंतरराष्ट्रीय और बहुपक्षीय संस्थाएं जीवाश्म ईंधनों पर दी जा रही सब्सिडी के ख़िलाफ़ इस जंग में अग्रिम पंक्ति की ताक़तों में शुमार रही हैं. इनमें इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट (IISD), विश्व बैंक (WB), अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) और अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) प्रमुख हैं. IEA के वार्षिक प्रकाशन- द वर्ल्ड एनर्जी आउटलुक 2010– में जीवाश्म ईंधन सब्सिडी पर एक विशेष खंड प्रकाशित किया गया. इसमें बताया गया कि 2011 और 2020 के बीच जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से ख़त्म किए जाने से प्राथमिक ऊर्जा की मांग में 5.8 प्रतिशत की कमी होगी. ये कटौती जापान, कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड की तत्कालीन संयुक्त ऊर्जा खपत के बराबर होगी. इस तरह, तेल की मांग में 65 लाख बैरल रोज़ाना की गिरावट आएगी, जो 2020 में अमेरिका में तेल की कुल मांग के एक तिहाई हिस्से के बराबर है. ये कटौती मुख्य रूप से परिवहन क्षेत्र में होगी. इससे CO2 (कार्बन डाइऑक्साइड) उत्सर्जन में 2020 तक 6.9 प्रतिशत (या 2.4 GT यानी गीगा टन के बराबर) की कमी आएगी, जो फ्रांस, जर्मनी, इटली, स्पेन और ब्रिटेन के संयुक्त उत्सर्जन के बराबर है. रिपोर्ट में बताया गया कि भारत, चीन, रूस और इंडोनेशिया जैसे देशों में घरेलू ऊर्जा क़ीमतों को वैश्विक क़ीमतों के अनुरूप लाने को लेकर हुए ‘उल्लेखनीय सुधारों’ से ऊर्जा सब्सिडी की लागतों में कमी लाने में मदद मिलेगी. 2008 में तेल उत्पादों पर अनुमानित सब्सिडी 312 अरब अमेरिकी डॉलर थी. जीवाश्म ईंधनों पर दी जा रही कुल सब्सिडी में इसका हिस्सा सबसे बड़ा था. इसके बाद प्राकृतिक गैस (204 अरब अमेरिकी डॉलर) और कोयले (40 अरब अमेरिकी डॉलर) का स्थान रहा. IEA ने 2009 की वर्ल्ड एनर्जी आउटलुक रिपोर्ट में कई अनुमानित परिदृश्यों का ख़ाका पेश किया. इन्हीं में से एक ‘450 परिदृश्य’ का ज़िक्र करते हुए IEA सब्सिडी अध्ययन ने निष्कर्ष निकाला कि कोपेनहेगन क़रार और G20 सब्सिडी प्रतिबद्धता पर अमल किए जाने से 2020 तक उत्सर्जन में क्रमश: 70 प्रतिशत और 30 प्रतिशत की कमी आएगी. साथ ही 2020 तक 2°C से जुड़े लक्ष्य को हासिल करने के लिहाज़ से दुनिया पटरी पर आ जाएगी. 

ये कटौती जापान, कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड की तत्कालीन संयुक्त ऊर्जा खपत के बराबर होगी. इस तरह, तेल की मांग में 65 लाख बैरल रोज़ाना की गिरावट आएगी, जो 2020 में अमेरिका में तेल की कुल मांग के एक तिहाई हिस्से के बराबर है.

इस विमर्श में मुख्य दलील ये थी कि बिना किसी रोकटोक या बग़ैर विकृति वाले बाज़ार (undistorted market) में जीवाश्म ईंधन की क़ीमत को स्तर से नीचे रखने के लिए सब्सिडी की पेशकश की गई थी. इससे जीवाश्म ईंधनों की खपत का स्तर ज़्यादा हो गया. ज़ाहिर तौर पर अगर सब्सिडी नदारद रहती तो इतने बड़े पैमाने पर जीवाश्म ईंधनों की खपत नहीं होती. IEA के बाद के प्रकाशनों में विकासशील देशों में जलवायु अनुकूल नीतियों को अपनाने के रास्ते की एक प्रमुख बाधा के रूप में जीवाश्म ईंधन सब्सिडी पर चर्चा जारी रही. IISD ने ऊर्जा सब्सिडी पर एक समर्पित कार्यक्रम शुरू किया, जिसे ‘ग्लोबल सब्सिडीज़ इनिशिएटिव’ का नाम दिया गया, जिसके तहत कई शोध कार्यक्रम संचालित किए गए.

मौजूदा हालात

वैश्विक सब्सिडी ट्रैकर ये दर्शाता है कि जीवाश्म ईंधनों पर दी जा रही सब्सिडी में उम्मीद के मुताबिक कटौती नहीं हुई है. ट्रैकर में 2020 के लिए 192 देशों के डेटा और 2021 के लिए 82 प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के आंशिक डेटा शामिल किए गए हैं. सब्सिडी की क़वायद जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चिंताओं की बजाए ऊर्जा की क़ीमतों, भू-राजनीतिक घटनाओं (जैसे यूक्रेन संघर्ष) और वैश्विक चुनौतियों (जैसे कोविड) से प्रेरित रही थीं. 2010 में जीवाश्म ईंधन सब्सिडी, अनुमानित रूप से 621.25 अरब अमेरिकी डॉलर थी (अमेरिकी डॉलर में अंकित मूल्य). 2010-2014 के बीच कच्चे तेल की क़ीमतें 100 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल से ऊपर रहीं, नतीजतन 2013 में जीवाश्म ईंधन सब्सिडी 844.81 अरब अमेरिकी डॉलर के शिखर तक पहुंच गई. 2016 में जीवाश्म ईंधन सब्सिडी गिरकर 465.16 अरब अमेरिकी डॉलर हो गई. ये कमी उस साल तेल की क़ीमतों में आई गिरावट का नतीजा थी. उस साल तेल के दाम लगभग 50 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गए थे. 2021 में जीवाश्म ईंधन सब्सिडी बढ़कर 731.65 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गई. वैश्विक स्तर पर व्यापार की जाने वाली प्राकृतिक गैस के दाम में नाटकीय वृद्धि के साथ-साथ कच्चे तेल और कोयले की क़ीमतों में हुई बढ़ोतरी के कारण ऐसा नतीजा देखने को मिला था. 2010 से 2022 के बीच वैश्विक ऊर्जा उपभोग में 18 प्रतिशत से ज़्यादा की बढ़ोतरी हुई है, जबकि CO2 उत्सर्जन में 10 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर्ज की गई. IISD, विश्व बैंक, IMF और IEA की रिपोर्टों ने इन परिणामों के लिए जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को कम करने को लेकर सरकारों की अनिच्छा को ज़िम्मेदार ठहराया है. इन एजेंसियों ने भारत समेत तमाम विकासशील देशों में सर्वेक्षण-आधारित अध्ययन किया. सर्वेक्षण से पता चला है कि अधिकांश लोग इस बात पर सहमत हैं कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से ख़त्म किया जाना चाहिए. इस नतीजे से ये दावा पुख़्ता हुआ है कि ऐसी क़वायदों के लिए आम लोग तो इच्छुक हैं लेकिन सरकारों की इच्छाशक्ति कमज़ोर है.

मसले

सब्सिडी में कटौती लाने से जुड़ी इस क़वायद का उल्लंघन करने वाले देशों में भारत प्रमुख है. भारत के सिलसिले में विश्व बैंक, IMF, IEA और IISD द्वारा तैयार कार्यक्रम की कोई भी जानकारी नई नहीं है. भारतीय नीति निर्माताओं को ये बात अच्छे से पता है कि भले ही सब्सिडी योजनाओं के पीछे का इरादा नेक है, लेकिन प्रणाली में मौजूद ख़ामियां या लीकेज (वित्तीय और सामाजिक, दोनों तरह की) प्रतिकूल प्रभाव दे रहे हैं. दरअसल इन सब्सिडियों का फ़ायदा अवांछित वर्गों तक पहुंच रहा है. भारतीय नीति-निर्माता ये भी जानते हैं कि ऊर्जा सब्सिडी सार्वजनिक वित्त पर बेहिसाब दबाव डालती है, और ऐसी योजनाएं सब्सिडी नीति के लक्ष्यों (ग़रीबों तक ऊर्जा की पहुंच में सुधार लाना) को केवल आंशिक रूप से ही पूरा करती हैं.

भारत में पेट्रोलियम सब्सिडी (केरोसिन और LPG के लिए) को चरणबद्ध रूप से समाप्त कर दिया गया है. यहां तक ​​कि जब LPG और केरोसीन पर सब्सिडी लागू थी, तब भी डीज़ल और पेट्रोल जैसे पेट्रोलियम उत्पादों पर वसूले जाने वाला टैक्स, सब्सिडी पर ख़र्च हो रही रकम से तीन गुना से भी ज़्यादा था. आज पेट्रोलियम उत्पादों पर वसूला जाने वाला टैक्स संघीय और क्षेत्रीय राजस्व के एक बड़े हिस्से का निर्माण करता है. 

इन एजेंसियों ने भारत समेत तमाम विकासशील देशों में सर्वेक्षण-आधारित अध्ययन किया. सर्वेक्षण से पता चला है कि अधिकांश लोग इस बात पर सहमत हैं कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से ख़त्म किया जाना चाहिए.

हालांकि बिजली पर “सब्सिडी” बरक़रार है. बिजली सब्सिडी ‘समय के हिसाब से असंगत’ है. दरअसल इसमें क़रीब की अवधि में सब्सिडी के लाभ (जैसे चुनावी जीत) मौजूदा सत्ताधारियों को हासिल होते हैं, जबकि इस सब्सिडी की लागत को भावी हुकूमतों पर स्थानांतरित कर दिया जाती है. यही वजह है कि इस व्यवस्था को बदलने को लेकर कोई प्रोत्साहन मौजूद नहीं होता. एक सुसंगठित अल्प-संख्यक तबक़ा, मुखर और राजनीतिक रूप से सक्रिय भारतीय मध्यम वर्ग (जो बिजली का उपभोग करने वाला सबसे बड़ा समूह है और भारत में ऊर्जा के लिहाज़ से ग़रीब वर्गों के लिए लक्षित बिजली सब्सिडी का अधिकांश हिस्सा हड़प लेता है) बिजली क्षेत्र में सुधारों को रोकता है. साथ ही ग़रीब और वांछित लाभार्थियों तक बिजली सब्सिडी को नए सिरे से लक्षित किए जाने की क़वायदों में भी अड़चनें डालता है.  

भारत में बिजली “सब्सिडी”, बिजली की कम क़ीमत की बजाए क़ीमतों में लाई गई विकृति (distortions) और क्रॉस-सब्सिडी का स्वरूप है. क़ीमतों में ऐसी विकृतियां भारत की नेक इरादों वाली ऊर्जा पुनर्वितरण योजनाओं का हिस्सा हैं, जिनका उद्देश्य आर्थिक और सामाजिक असमानताओं की भरपाई करना है. हालांकि बिजली की क़ीमतों में ऐसी दख़लंदाज़ियों और क्रॉस सब्सिडी से संसाधनों (ऊर्जा और निवेश, दोनों) का ग़लत आवंटन होता है. इतना ही नहीं, बिजली के क्षेत्र में व्यापक लीकेज और दुरुपयोग को भी बढ़ावा मिलता है. ऐसी घोर अक्षमता की भरपाई के लिए भारत में बिजली की क़ीमतों को जहां तक संभव हो उच्चतम स्तर पर बरक़रार रखा जाता है. भारत में ऊर्जा के एक औसत उपभोक्ता पर आयद ऐसा अक्षमता जुर्माना (inefficiency penalty) बहुत ज़्यादा है. क्रय शक्ति समानता के संदर्भ में अन्य देशों में ऊर्जा की क़ीमतों की तुलना करें तो भारत में ऊर्जा के दाम अक्सर दुनिया के सबसे ज़्यादा स्तरों में से होते हैं. अगर भारत में ऊर्जा मूल्य निर्धारण में प्रशासनिक और आर्थिक अक्षमताओं को ठीक कर दिया जाए तो ऊर्जा की क़ीमतें बढ़ने की बजाए उनमें गिरावट आने की संभावना रहेगी. इससे ऊर्जा की खपत में बढ़ोतरी हो सकती है, जिसके नतीजतन CO2 उत्सर्जन में भी वृद्धि हो जाएगी.

अगर भारत में ऊर्जा मूल्य निर्धारण में प्रशासनिक और आर्थिक अक्षमताओं को ठीक कर दिया जाए तो ऊर्जा की क़ीमतें बढ़ने की बजाए उनमें गिरावट आने की संभावना रहेगी. इससे ऊर्जा की खपत में बढ़ोतरी हो सकती है, जिसके नतीजतन CO2 उत्सर्जन में भी वृद्धि हो जाएगी.

पेट्रोलियम के मामले में क़ीमतों में बढ़ोतरी काफ़ी हद तक संघीय और क्षेत्रीय करों का नतीजा है, जो वितरण नीतियों, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र के सुधारों और सामान्य रूप से अर्थव्यवस्था के शासन-प्रशासन से जुड़ी अक्षमताओं को दर्शाते हैं. पेट्रोलियम पर अप्रत्यक्ष कर जुटाना सरल है और उसको ख़र्च करना तो और भी आसान है. बिजली के मामले में क़ीमतों में बढ़ोतरी काफ़ी हद तक राजनीतिक अक्षमता, बिजली की चोरी और पूरी प्रक्रिया में तकनीकी नुक़सानों का नतीजा है. बस बार (bus bar) में लगभग 1 रु/kWh (किलोवाट घंटा) की क़ीमत पर उपलब्ध बिजली, उपभोक्ताओं तक वितरित किए जाने पर 6-7 रु/kWh में बदल जाती है. ऐसी अक्षमताओं के नतजीतन ऊर्जा की क़ीमत में भारी-भरकम जुर्माना शामिल हो जाता है, जिसे सब्सिडी की कहानी के ज़रिए आसानी से छिपा दिया जाता है.   दरअसल भारतीय ऊर्जा उपभोक्ता को सब्सिडी नहीं मिलती है; बल्कि वो तो इस क्षेत्र में अक्षमताओं को प्रोत्साहन दे रहा होता है. ऊर्जा क्षेत्र के स्थायी सुधार के लिए सब्सिडी से जुड़े विमर्श को कम क़ीमत पर ऊर्जा मुहैया कराने के एकतरफ़ा मसले की बजाए अक्षमता और ख़राब प्रशासन के मुद्दे के रूप में नए सिरे से परिभाषित किए जाने की दरकार है.

सब्सिडी को चरणबद्ध रूप से ख़त्म करने में भारी कठिनाई है. इसका प्राथमिक कारण इस तथ्य से निकलता है कि ऊर्जा सब्सिडी (ग़ैर-जीवाश्म ईंधन और जीवाश्म ईंधन, दोनों के लिए) देशों की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में गहराई से जड़ें जमा चुका है. ना केवल भारत बल्कि समृद्ध राष्ट्रों समेत तमाम अन्य देशों (जैसे अमेरिका) में सब्सिडी में सुधार से जुड़ी क़वायदों में विफलता हाथ लगी है. ये तमाम देश जीवाश्म ईंधन उत्पादकों को भारी-भरकम प्रत्यक्ष सब्सिडी प्रदान करते हैं. ऐसी नाकामी की वजह सब्सिडी की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में छिपी है. इससे जीवाश्म ईंधन सब्सिडी के ख़िलाफ़ जंग में कामयाबी हाथ नहीं लग पा रही है.  

The War On Fossil Fuel Subsidies Is Success Imminent

स्रोत: फॉसिल फ्यूल सब्सिडी ट्रैकर

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Authors

Lydia Powell

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Ms Powell has been with the ORF Centre for Resources Management for over eight years working on policy issues in Energy and Climate Change. Her ...

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Akhilesh Sati

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Akhilesh Sati is a Programme Manager working under ORFs Energy Initiative for more than fifteen years. With Statistics as academic background his core area of ...

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Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar, Assistant Manager, Energy and Climate Change Content Development of the Energy News Monitor Energy and Climate Change. Member of the Energy News Monitor production ...

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