Published on Jul 17, 2023 Updated 0 Hours ago

यूक्रेन और रूस सैन्य संघर्ष के बेहद निर्णायक मोड़ पर पहुंच गए हैं, जिससे ये तय होगा कि ये युद्ध किस दिशा में आगे बढ़ेगा

यूक्रेन संकट का ख़ात्मा कैसे होगा, ये बात बहुत अहम है

जहां तक यूक्रेन की बात है, तो उसने अपने पश्चिमी साझीदारों की मदद से रूस पर एक जवाबी हमला शुरू किया है. उसका मक़सद रूसी सेना को उस सरहद तक पीछे धकेलना है, जिसे 1991 में अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिली थी. वहीं, रूस एक युद्ध विराम की उम्मीद लगा रहा है, ताकि अपने क़ब्ज़े वाले इलाक़ों में मज़बूती से पांव जमा सके. अब तक रूस उन सामरिक लक्ष्यों को हासिल कर पाने में नाकाम रहा है, जिनकी घोषणा उसने इस संघर्ष की शुरुआत के वक़्त की थी. पहले जहां रूसी सेनाएं पूरे यूक्रेन पर क़ब्ज़ा जमाने की कोशिश कर रही थीं. वहीं बाद में उनका लक्ष्य केवल दोनेत्स्क  और लुहांस्क क्षेत्रों को हथियाने तक सीमित रह गया था. अब रूस का मुख्य लक्ष्य यही है कि वो पहले से जिन इलाक़ों पर क़ाबिज़ है उन पर अपना नियंत्रण बनाए रखें . तथाकथित ‘विशेष सैन्य अभियान’ (SMO) के ख़ात्मे को लेकर रूस के नेता, वहां के मीडिया में बहुत सावधानी से बयान देते हैं. वहीं रूस की सरकार यूक्रेन के अधिकारियों को इस बात पर राज़ी करने की कोशिश कर रही है कि वो कुछ रियायतें दे और जवाबी हमला करने से बचें .

एक तरफ़ तो रूस शांति स्थापित करने की बात कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ़ उसके सैन्य अभियान में तेज़ी देखी जा रही है, जिससे वो पश्चिमी साझीदारों पर यूक्रेन को और हथियार मुहैया कराने का दबाव बना सके. 

विडंबना ये है कि एक तरफ़ तो रूस शांति स्थापित करने की बात कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ़ उसके सैन्य अभियान में तेज़ी देखी जा रही है, जिससे वो पश्चिमी साझीदारों पर यूक्रेन को और हथियार मुहैया कराने का दबाव बना सके. रूस ने इन्फ़ॉर्मेशनल साइकोलॉजिकल स्पेशल ऑपरेशन (IPSO) शुरू करने के साथ साथ नागरिक ठिकानों पर भी कई हमले किए हैं. मई महीने में रूस ने पूरे यूक्रेन में 185 मिसाइलें और 342 ड्रोन हमले किए, इनका मक़सद मूलभूत ढांचे की सुविधाओं, रिहाइशी इमारतों और दूसरे नागरिक ठिकानों को निशाना बनाना था. ज़्यादातर बमबारी, 36 लाख आबादी वाली यूक्रेन की राजधानी कीव  पर केंद्रित थी.

इसके साथ साथ अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थ, यूक्रेन और रूस के संघर्ष के शांतिपूर्ण समाधान के लिए अपनी अपनी योजनाओं का प्रस्ताव देने की कोशिश कर रहे हैं.

यूक्रेन किस तरह की शांति चाहता है?

चीन के ‘यूक्रेन संकट के समाधान के लिए प्रस्ताव’ के बाद, ब्राज़ील और वेटिकन, इंडोनेशिया और कुछ अफ्रीकी देशों ने भी शांति के लिए पहल की हैं. विकासशील देशों की चिंता ये है कि कच्चे माल और खाद्य उत्पादों के दाम में उतार-चढ़ाव की वजह से कहीं रूस-यूक्रेन के युद्ध से दुनिया की आर्थिक स्थिरता और ख़ुद उनकी अर्थव्यवस्थाओं पर विपरीत प्रभाव न पड़े. यूक्रेन द्वारा कुछ इलाक़े छोड़ने की क़ीमत पर भी युद्ध विराम  हासिल करने की ये इच्छा लगभग हर देश के शांति के प्रयासों का हिस्सा है. हालांकि, इस रणनीति से युद्ध कुछ वक़्त के लिए रुक भले जाए, मगर इस समस्या का स्थायी समाधान होगा नहीं. यूक्रेन और उसके पश्चिमी साझीदारों के लिए सिर्फ़ युद्ध का समाप्त होना ही एक लक्ष्य नहीं है, बल्कि वो ये भी सुनिश्चित करना चाहते हैं कि भविष्य में किसी संघर्ष का ख़तरा न पैदा हो. अब अगर रूस के सैनिक, यूक्रेन के इलाक़ों में डटे रहते हैं, तो इसकी कोई गारंटी नहीं है.

डोनबास में युद्ध विराम  और 2014 में सेना वापस बुलाए जाने के बाद भी यूक्रेन के इलाक़ों में शांति बहाल नहीं हुई थी. इस समय का उपयोग रूस ने ‘डोनबास के संरक्षण’ के नाम पर संघर्ष जारी रखने के लिए किया. इसीलिए, यूक्रेन के अधिकारी ज़ोर देकर कहते हैं कि वो शांति बहाली के ऐसे किसी भी प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करेंगे, जिसमें उन्हें अपने इलाक़े छोड़ने पड़ें या संघर्ष को जस का तस स्वीकार करना पड़े. यूक्रेन की तरफ़ से युद्ध ख़त्म करने और वार्ता शुरू करने की प्रमुख शर्त उसके इलाक़ों से रूसी सेना की पूरी तरह से वापसी है. ये आधिकारिक स्थिति, जनता की भावना की नुमाइंदगी भी करती है. मई 2022 से मई 2023 के बीच कीव  इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट  ऑफ़ सोशियोलॉजी द्वारा किए गए एक रिसर्च के नतीजों के मुताबिक़, युद्ध को लेकर यूक्रेन की जनता के ख़याल में कोई तब्दीली नहीं आई है, और लोगों का ज़बरदस्त बहुमत यानी 82 से 87 प्रतिशत तक लोग अपने देश की ज़मीन छोड़ने के ख़िलाफ़ हैं, भले ही इसकी वजह से युद्ध लंबा खींचे  या दूसरे ख़तरे पैदा होने का डर क्यों न हो.

यूक्रेन एक न्यायोचित और स्थायी शांति स्थापित करने का प्रयास कर रहा है जिसमें न केवल उसकी क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता संप्रबुता बहाल हो, बल्कि उसके इसके सम्मान की अंतरराष्ट्रीय गारंटी भी मिले. 

रूस के प्रति इस अविश्वास के दायरे में कोई शुरुआती समझौता या संवाद नहीं आता. बुडापेस्ट मेमोरेंडम  जिसके मुताबिक़ रूस ने अन्य देशों के साथ मिलकर यूक्रेन को ये गारंटी दी थी कि वो अपने परमाणु हथियार नष्ट कर देगा, तो उसकी संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करेगा. इसके अलावा, रूस और यूक्रेन के बीच दोस्ती, सहयोग और साझेदारी की जो संधि हुई थी, उसके तहत दोनों देशों ने एक दूसरे की सीमाओं को मान्यता दी थी, और एक दूसरे की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करने का वादा किया था. ये संधि भी रूस को यूक्रेन पर आक्रमण करने से नहीं रोक सकी.

यूक्रेन एक न्यायोचित और स्थायी शांति स्थापित करने का प्रयास कर रहा है जिसमें न केवल उसकी क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता  बहाल हो, बल्कि उसके इसके सम्मान की अंतरराष्ट्रीय गारंटी भी मिले. नाटो  की पूर्ण सदस्यता हासिल करना यूक्रेन की मुख्य प्राथमिकता है. लेकिन, इस संगठन का सदस्य बनने से पहले यूक्रेन चाहता है कि नाटो  उसे उसकी सुरक्षा की लिखित में गारंटी दे.

राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की की दूसरी प्रमुख शर्त ये है कि चूंकि युद्ध यूक्रेन के इलाक़े में हो रहा है, इसलिए वो शांति की दूसरी योजनाओं को मान्यता नहीं देगा. शर्त ये है कि अगर कोई भी योजना यूक्रेन को स्वीकार्य हो, तो उसमें यूक्रेन का अपना शांति का फॉर्मूला भी शामिल किया जाए.

दूसरे देशों की ‘शांति की योजनाओं’ में क्या कमियां हैं?

यूक्रेन के रुख़ और ऊपर बताए गए देशों द्वारा शांति के लिए किए गए प्रयासों में फ़र्क़ ये है कि इनमें से किसी भी देश के प्रस्ताव में रूस से ये अपील नहीं की गई है कि वो इस युद्ध को बंद करे और यूक्रेन की ज़मीन छोड़कर पीछे जाए. न ही शांति के इन प्रस्तावों  में स्थायी और स्थिर शांति हासिल करने की किसी व्यवस्था का ज़िक्र है.

मिसाल के तौर पर चीन ने अपने प्रस्ताव में कहा है कि पश्चिमी देश यूक्रेन को हथियारों की आपूर्ति करना बंद कर दें. इसमें इस हक़ीक़त की अनदेखी की गई है कि अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के मुताबिक़ यूक्रेन को आत्मरक्षा का पूरा अधिकार है. हथियारों की आपूर्ति रोकने से यूक्रेन में शांति तो नहीं बहाल होगी, उल्टे होगा ये कि रूस, यूक्रेन के इलाक़ों पर अपना नियंत्रण ज़रूर स्थापित कर लेगा.

इंडोनेशिया के रक्षा मंत्री प्रबोवो सुबियांतो ने सिंगापुर में शांग्री-ला सम्मेलन में अपने भाषण में भी इस बात की तरफ़ इशारा किया था, जब उन्होंने यूक्रेन का संघर्ष ख़त्म करने के लिए कोरिया की तर्ज पर बंटवारे की नक़ल करने का संकेत दिया था. यानी दोनों ही पक्ष अपनी अपनी सेनाएं 15 किलोमीटर पीछे कर लें, जिससे एक विसैन्यीकृत इलाक़ा (demilitarized zone) स्थापित हो सके. इंडोनेशिया के प्रस्ताव में संयुक्त राष्ट्र द्वारा ‘विवादित इलाक़ों’ में एक जनमत संग्रह कराने का सुझाव भी शामिल है. इंडोनेशिया के रक्षा मंत्री के मुताबिक़, इस तरह के फ़ैसलों से ‘कोरियाई प्रायद्वीप में पिछल 70 बरस से शांति बनाए रखने में मदद मिली है.’ ये प्रस्ताव तो अपने ऐलान  के वक़्त से ही विवादित लग रहा था.

इंडोनेशिया के रक्षा मंत्री के साथ एक साझा पैनल में दक्षिण कोरिया के रक्षा मंत्री ली जोंग-सुप ने ज़ोर देकर कहा था कि परमाणु हथियारों से मुक्त करने और शांति वार्ताओं की कोशिशें नाकाम हो चुकी हैं और उत्तर कोरिया लगातार अपने परमाणु और मिसाइल कार्यक्रम को विकसित करने में लगा हुआ है. कोरियाई संघर्ष को यथास्थिति में रखना अब लगातार सैन्य और परमाणु ख़तरे का सबब बन गया है और ये ख़तरा न सिर्फ़ कोरियाई प्रायद्वीप के लिए है, बल्कि पूरी दुनिया को अपनी ज़द में ले चुका है.

इन तमाम देशों के ‘शांति के प्रस्तावों’ पर प्रतिक्रिया देते हुए यूक्रेन के रक्षा मंत्री ओलेक्सी रेज़निकोव ने कहा था कि ‘आज तमाम देशों के बीच इस बात की होड़ लगी हुई है कि कौन मध्यस्थ बन सकता है. लेकिन, इसमें एक पेंच है: अभी हर कोई रूस की तरफ़ से मध्यस्थ बनना चाहता है. और, यही वजह है कि ऐसी मध्यस्थता हमारे लिए उचित नहीं है. क्योंकि इसमें निष्पक्षता का अभाव है. इन सारे प्रस्तावों में असली निष्पक्ष मध्यस्थता की कमी है.’

शांति बहाली के इन तमाम प्रस्तावों की मुख्य समस्या ये है कि इनमें रूस और यूक्रेन के संघर्ष को लेकर समझ का अभाव दिखता है. इनमें से एक प्रस्ताव रूस के रुख़ को बयान करने वाला है कि ये युद्ध, रूस के सुरक्षा संबंधी हितों का ख़याल किए बग़ैर नाटो  के विस्तार की वजह से शुरू हुआ. यूक्रेन द्वारा निरपेक्ष रहने का समझौता भी रूस को उस पर हमला करने से नहीं रोक सका. इसके अलावा, जब पिछले साल उसके एक और पड़ोसी देश फिनलैंड ने नाटो  की सदस्यता ली, तो रूस ने उसके साथ न तो कोई युद्ध शुरू किया और न ही कोई दूसरा गंभीर क़दम उठाया. इससे साफ़ है कि रूस के इस हमले का नैटो के विस्तार से कोई संबंध नहीं है. दूसरा तर्क रूस के साथ समझौता करने को लेकर दिया जाता है. चूंकि रूस ने 30 सितंबर 2022 को यूक्रेन के चार इलाक़ों का अपने में आधिकारिक रूप से विलय कर लिया था, और चूंकि रूस के संविधान में इन इलाक़ों के अलग होने का कोई प्रावधान नहीं है, तो ऐसे में यूक्रेन के लिए समझौते का मतलब इन इलाक़ों से हाथ धोने पर मुहर लगाना होगा. शांति बहाली की कोशिश कर रहे देशों को चाहिए कि वो रूस पर इस बात का दबाव बनाएं कि वो यूक्रेन द्वारा अपने इलाक़े में मौजूद रूसी सैनिकों पर पलटवार करने का विरोध करने के बजाय, यूक्रेन के इलाक़ों से अपना अवैध क़ब्ज़ा छोड़े.

रूस और यूक्रेन के युद्ध से वो अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था तबाह हो गई है, जिसे दूसरे विश्व युद्ध के बाद बनाया गया था. ये युद्ध किस तरह से ख़त्म होगा और कौन से नियम स्थापित किए जाएंगे, ये सब इस बात पर निर्भर करेगा कि दुनिया किस राह को चुनती है

एक देश के तौर पर यूक्रेन के अस्तित्व की रक्षा और अपनी हिफ़ाज़त के लिए लड़ाई लड़ने के अधिकार की रक्षा करनी ज़रूरी है. यूक्रेन के बग़ैर रूस द्वारा एकीकरण की दूसरी परियोजनाओं जैसे कि बेलारूस के साथ संघ बनाना, यूरेशियन इकोनॉमिक  यूनियन (EAEU) और कलेक्टिव सिक्योरिटी ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन (SCTO) का कोई प्रभाव या संभावनाएं नहीं रह जाएंगी. इसके अलावा रूस इस युद्ध से सैन्य और आर्थिक रूप से काफ़ी कमज़ोर होकर उभरेगा, जिससे सोवियत संघ के बाद के दौर में उसकी हैसियत और प्रभाव और भी कमज़ोर हो जाएंगे.

रूस द्वारा स्वैच्छिक रूप से यूक्रेन के इलाक़ों से अपना क़ब्ज़ा छोड़ने में हिचकने और संयुक्त राष्ट्र द्वारा रूस पर उसके चार्टर और अंतरराष्ट्रीय क़ानून का पालन करा पाने में नाकामी ने यूक्रेन को एक साथ दो समानांतर रास्तों पर चलने को मजबूर कर दिया है- एक युद्ध के मैदान में रूस पर जीत हासिल करना, और दूसरा, उन देशों का दायरा बढ़ाना जो कूटनीतिक रूप से यूक्रेन के शांति के नुस्खे का समर्थन करके, यूक्रेन में न्यायोचित और स्थायी शांति का लक्ष्य हासिल करने में योगदान देंगे. इसके लिए एक अंतरराष्ट्रीय मंच बनाने की ज़रूरत होगी, जिसमें न केवल वो देश शामिल हों जो सक्रियता से यूक्रेन का समर्थन करते हैं, बल्कि वो देश भी उसका हिस्सा बनें जो निरपेक्ष स्थिति रखते हैं, ख़ास तौर से भारत, चीन, ब्राज़ील, सऊदी अरब वग़ैरह… ताकि ये सब देश मिलकर युद्ध के बाद के दौर की दुनिया के आकार को लेकर परिचर्चा कर सकें.

रूस और यूक्रेन के युद्ध से वो अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था तबाह हो गई है, जिसे दूसरे विश्व युद्ध के बाद बनाया गया था. ये युद्ध किस तरह से ख़त्म होगा और कौन से नियम स्थापित किए जाएंगे, ये सब इस बात पर निर्भर करेगा कि दुनिया किस राह को चुनती है- न्याय, क़ानून का राज और सभी देशों की बराबरी या फिर छोटे देशों पर बड़ी ताक़तों का दबदबा और साम्राज्यवादी युद्धों का सिलसिला जारी रखना.

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