पिछले कई दशकों से,भारत ने नेपाल के अन्य बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के विकास के क्षेत्र के अलावा रेलवे सेक्टर के विकास के लिये लगातार अपना सहयोग बनाये रखा है. रेलवे सेक्टर के क्षेत्र में भारत-नेपाल सहयोग की कहानी लगभग 100 वर्षों पुरानी है, परंतु, हाल के वर्षों में चीन ने भी नेपाल के साथ के तिब्बत के केरूँग क्षेत्र से होकर नेपाल की राजधानी काठमांडू तक चीनी रेल लाइन बढ़ाने की दिशा में काम करने के प्रति अपनी दिलचस्पी दिखलानी शुरू की है. भारत ने भी अपने पड़ोसी देश के साथ रेल नेटवर्क को और मज़बूत करने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ते हुए, अपनी सीमा पर बसे शहर रक्सौल को काठमांडू से जोड़ने के लिये निर्माण शुरू कर दिया है. भारत ने इस परियोजना से जुड़ी विस्तृत परियोजना रिपोर्ट(डीपीआर)को पहले ही तैयार कर रखा है.
रक्सौल को काठमांडू से जोड़ने वाली त्रिभुवन राजमार्ग का 1950 के दशक में किए गए निर्माण के बाद, रक्सौल – अमलेखगंज रेलवे लाइन ने भी काम करना बंद कर दिया था. उसी तरह से, सन् 2000 में, उचित रख-रखाव एवं मरम्मत कार्यों में कमी की वजह से जनकपुर–जयनगर रेलवे को भी बंद कर दिया गया.
39 किलोमीटर लंबी नेपाल सरकार रेलवे लाइन, जिसका निर्माण सन् 1927 में ब्रिटिश अधिकारियों ने नेपाल के अमलेखगंज को भारत के रक्सौल से जोड़ने के लिए किया था, वो नेपाल की पहली नैरो गेज रेलवे लाइन थी. फिर एक दशक के बाद सन् 1937 में, ब्रिटिश अधिकारियों ने नेपाल को जनकपुर – जयनगर रेलवे नामक दूसरी नैरो गेज रेलवे लाइन के निर्माण में मदद की ताकि बिहार के सीमावर्ती ज़िले जयनगर को नेपाल की धार्मिक नगरी जनकपुर से जोड़ा जा सके. 1957 में, धारण एवं चतरा से कोशी बराज के निर्माण स्थल तक पत्थर एवं बजरी आदि ले जाने के लिए कोशी रेलवे लाइन का निर्माण किया गया था, जो कि बीरपुर एवं भारत के भीमनगर से भी जुड़ा हुआ था.
रक्सौल को काठमांडू से जोड़ने वाली त्रिभुवन राजमार्ग का 1950 के दशक में किए गए निर्माण के बाद, रक्सौल – अमलेखगंज रेलवे लाइन ने भी काम करना बंद कर दिया था. उसी तरह से, सन् 2000 में, उचित रख-रखाव एवं मरम्मत कार्यों में कमी की वजह से जनकपुर–जयनगर रेलवे को भी बंद कर दिया गया. हालांकि, नेपाल की सरकार के निवेदन पर, भारत की सरकार ने जनकपुर से लेकर जयनगर तक और फिर उससे आगे बढ़ाते हुए तक बीजलपुरा तक पुराने नैरो गेज लाइन को नये ब्रॉड गॉज लाइन से बदल दिया एवं आगे उसे बरडीबस तक बदले जाने की योजना है. जुलाई 2023 तक, 52 किलोमीटर तक के जयनगर – बीजलपुरा – बरडीबस क्रॉस बॉर्डर रेल लाइन पर सवारी रेल गाड़ी सुविधा को चालू किया जा चुका था. इस क्रॉस-बॉर्डर रेल लाइन के निर्माण हेतु भारत ने आईएनआर 783.83 करोड़ की अनुदान राशि प्रदान की थी.
रेलवे का निर्माण
वहीं दूसरी तरफ, चीन ने भी नेपाल के संबंधित अधिकारियों संग केरुंग (तिब्बत) से काठमांडू तक रेलवे लाइन बिछाने के संबंध में बातचीत शुरू कर दी थी. 2017 में नेपाल एवं चीन द्वारा बेल्ट और रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद, दोनों देशों ने 21 जून 2018 को एक संविदा (एमओयू) पर रेलवे परियोजना में सहयोग संबंधी मसौदे पर सहमति जताई, जब श्री केपी शर्मा ओली, नेपाल के प्रधानमंत्री हुआ करते थे. परंतु बाद में कोविड महामारी के प्रकोप की वजह से, जब दोनों देशों के बीच की सीमा को सील कर दिया गया था, तब ट्रांस-हिमालयन रेलवे परियोजना से संबंधित डीपीआर शुरू नहीं हो सकी थी.
हालांकि, एक महत्वपूर्ण विकास के तौर पर, दिसंबर 2022 में, जैसे ही पुष्प कुमार दहल तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री बने तब, नेपाल ने चीन को 42 महीनों में ट्रांस-हिमालयन रेलवे परियोजना को व्यवहारिक तौर पर मूर्त रूप देने संबंधी संभावनाओं का उचित अध्ययन करने की अनुमति प्रदान की थी. इसके तुरंत बाद ही, चीन ने इस काम को करने के तौर पर सहायता अनुदान के तौर पर आईएनआर 209.37 बिलियन राशि जारी करने को अपनी सहमति प्रदान की थी. तब से अब तक, चीनी तकनीक़ी टीम नेपाल में काम कर रही है. ऐसे उम्मीद जताई गई थी कि दिसंबर 2023 तक, चीनी टीम इस प्रस्तावित केरुंग-काठमांडू क्रॉस बॉर्डर रेलवे का हवाई सर्वेक्षण करने का काम पूरा कर चुकी होगी.
जब नेपाल और चीन ट्रांस-हिमालयन रेलवे परियोजना निर्माण के डीपीआर को क्रियान्वित करने के लिए एक कार्य-प्रणाली तैयार करने के मुद्दे पर एक दूसरे के साथ लगातार संपर्क में रहते हुए मिलजुल काम कर रहे थे, तब भारत एक मूकदर्शक की तरह स्थिति पर अपनी नज़र बनाये हुए था लेकिन शांत बैठा था.
शुरुआत में, जब नेपाल और चीन ट्रांस-हिमालयन रेलवे परियोजना निर्माण के डीपीआर को क्रियान्वित करने के लिए एक कार्य-प्रणाली तैयार करने के मुद्दे पर एक दूसरे के साथ लगातार संपर्क में रहते हुए मिलजुल काम कर रहे थे, तब भारत एक मूकदर्शक की तरह स्थिति पर अपनी नज़र बनाये हुए था लेकिन शांत बैठा था. परंतु बाद में चीन की पहल का जवाब देने के मकसद से, भारत रक्सौल एवं काठमांडू के बीच रेल लाइन को विस्तार देने के काम को लेकर सक्रिय हो गया. शुरुआती अनुमान से ये पता चलता है कि 171 किलोमीटर लंबी इस रेलवे लाइन के निर्माण में नेपाल के कठिन पहाड़ी इलाकों में से गुज़रते हुए, 31 सुरंगें एवं कई पुलों का निर्माण किये जाने की ज़रूरत है जिसे पूरा करने के लिये भारत को कम से कम पाँच साल का समय लगेगा. इस परियोजना के निर्माण में अनुमान है कि भारतीय मुद्रा में कम से कम आईएनआर 4,000 करोड़ रुपये का खर्च आएगा.
कई नेपाली विशेषज्ञों का ऐसा मानना है कि केरुंग और काठमांडू के बीच बनने वाली ट्रांस-हिमालयन रेलवे का निर्माण तकनीकी एवं वित्तीय आधार पर काफी चुनौतीपूर्ण होने वाला है. हिमालय के कठिन पहाड़ी इलाकों एवं इस क्षेत्र की पर्यावरण संबंधी संवेदनशीलता, इस परियोजना को मूर्त रूप देने के बीच में एक दुर्जेय बाधा है. परियोजना शुरू करने से पहले किये गये अध्ययन से पता चलता है कि केरुंग एवं काठमांडू के बीच के 73 किलोमीटर रेलवे नेटवर्क के एक हिस्से में सुरंगों के निर्माण की ज़रूरत है, जिसपर अमेरिकी मुद्रा में डॉलर 3 - 3.5 बिलियन का खर्च बैठने की अनुमान है.
भौगोलिक एवं इंजीनियरिंग से जुड़े मसलों को ध्यान में रखते हुए, ज्य़ादातर विशेषज्ञों ने ये सुझाव दिया कि केरूंग एवं काठमांडू के बीच नेपाल को रेल के बजाय रोड कनेक्टिविटी (सड़क के ज़रिये संपर्क) विकसित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. नेपाली कांग्रेस के वरिष्ट नेता मिनेन्द्र रिजाल ने चीन-नेपाल रेल संपर्क के औचित्य पर सवाल खड़ा करते हुए कहा कि, “इस रेल-सड़क के रास्ते हम चीन को आख़िर क्या निर्यात कर लेंगे और तिब्बत से क्या आयात करेंगे? इसलिये हमें इसके बजाये सड़कों के निर्माण पर ज़ोर देना चाहिए.”
आगे की राह
हालांकि, केरुंग-काठमांडू रेलवे के निर्माण के सिलसिले में बातचीत, रक्सौल–काठमांडू परियोजना से काफी पहले ही शुरू हो चुकी थी, और भारत नें रक्सौल-काठमांडू रेल लाइन के लिए ज़रूरी डीपीआर तैयार करने के शुरुआती दौर में ही चीन को पछाड़ दिया था. भारत ने रक्सौल -काठमांडू क्रॉस बॉर्डर रेलवे लाइन के लिए ज़रूरी डीपीआर को पहले ही पूरा कर रखा था, जबकि चीन अब भी इसके शुरुआती चरण में ही है. निश्चित तौर पर, नेपाल के लिये ये ज़रूरी है कि उसकी चीन एवं भारत दोनों ही के साथ रेल संपर्क बनी रहे, परंतु राष्ट्रीय हित के कीमत पर ऐसा हो ये गवारा नहीं होगा. इस तथ्य से अवगत होने एवं किसी भी प्रकार से किसी कर्ज़ के जाल में फंसने से बचने के लिए, शेर बहादुर देउबा के अधीन की पिछली सरकार ने पहले ही इस मसले पर अपनी नीति स्पष्ट कर दी थी कि वो चीन के साथ के रेलवे लिंक को सिर्फ़ इसी शर्त पर स्वीकार करेंगे, कि जो भी निर्माण कार्य किया जाएगा वो अनुदान या मदद राशि के ज़रिये किया जाएगा न कि कर्ज़ के ज़रिये.
ये देखने वाले बात होगी कि मौजूदा नेपाली सरकार अपने दीर्घ कालिक योजनाओं के मुताबिक, देश को राष्ट्रीय हित को प्रभावित किए बिना, किस प्रकार अपने उत्तरी एवं दक्षिणी साझेदारों के समर्थन द्वारा रेलवे लिंक का विकास कर पाते हैं.
नेपाल के दोनों पड़ोसी देशों जिसमें दक्षिण में भारत और उत्तर में चीन स्थित है, उनके बीच की प्रतिद्वंद्विता, नेपाल के लिये फायदेमंद साबित हो सकती है. क्योंकि कि मुमकिन है कि इससे उसे दोनों देशों के साथ अपने संबंधों को मज़बूत करने में मदद मिले, परंतु इसके फ़ायदे और नुकसान दोनों ही होंगे. ये देखने वाले बात होगी कि मौजूदा नेपाली सरकार अपने दीर्घ कालिक योजनाओं के मुताबिक, देश को राष्ट्रीय हित को प्रभावित किए बिना, किस प्रकार अपने उत्तरी एवं दक्षिणी साझेदारों के समर्थन द्वारा रेलवे लिंक का विकास कर पाते हैं.
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