वैश्विक जलवायु संकट विभिन्न क्षेत्रीय और विश्वभर के कई देशों में चर्चा का बिंदु रहा है. दुनिया जब जलवायु परिवर्तन के लिए यह मूलभूत “कार्रवाई का दशक” आरंभ कर रहे हैं, ऐसे में इस संकट से निपटने को लेकर वैश्विक कार्रवाई के लिए सिद्धांतों पर आधारित पद्धति को बार-बार दोहराते हुए सामूहिक प्रयास करने की ज़रूरत है. 26वें Conference of parties (COP26) to the United Nations Framework Convention on Climate Change (UNFCCC) ने दुनिया के लिए अब तक हुई तरक्की का आकलन करने और भावी जलवायु अभियान के लिए एक सोची समझी, दीर्घकालिक रणनीति को परखने का का योग्य अवसर प्रदान किया.
वैश्विक जलवायु संकट के पदचिह्नों को देखते हुए, यह सामूहिक और दुनिया के प्रतिनिधि मंचों की ज़िम्मेदारी है कि भविष्य के जलवायु अभियानों को आकार देने के लिए मार्गदर्शक सिद्धांतों की रूपरेखा और दीर्घकालिक रणनीतियों की रूपरेखा तैयार करे.
जलवायु संकट की गंभीरता के वैज्ञानिक प्रमाण स्पष्ट हैं, जैसा कि Intergovernmental Panel on Climate Change (IPCC) की छठवीं आंकलन रिपोर्ट (AR6) में विशिष्ट रूप से दर्शाया गया है. वर्तमान स्थिति मानवता के लिए “खतरे की चेतावनी (code red)” है और सभी देशों के पर्यावरण संबंधी और सामाजिक-आर्थिक शीर्षक में ढांचागत चुनौतियों को प्रस्तुत करती है. दुनियाभर में लगातार बढ़ती और प्रबल होती तीव्र जलवायु संबंधी परिस्थितियां और मौसम की घटनाओं, जैसे चक्रवात, बाढ़, लंबा सूखा, हीटवेव और अन्य को लेकर जलवायु से प्रेरित आपदाओं, के व्यापक ऑब्ज़र्वेशन भी इसकी पुष्टि करते हैं. विश्व मौसम विज्ञान संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, औसतन, पिछले 50 सालों के दौरान हर रोज़ एक मौसम या जलवायु संबंधी आपदा की घटना घटित हुई है, जिसमें रोज़ाना 202 मिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान हुआ है. वैज्ञानिक समुदाय अब सरकारों को 2030 तक वैश्विक उत्सर्जन को आधा करने के लिए सभी संभव प्रयास करने और 2050 तक वैश्विक नेट-ज़ीरो के लिए लक्ष्य स्थापित करने पर ज़ोर दे रही है. अब यह मामला महत्वाकांक्षी लक्ष्यों का नहीं रह गया है, बल्कि अस्तित्व का है. वैश्विक जलवायु संकट के पदचिह्नों को देखते हुए, यह सामूहिक और दुनिया के प्रतिनिधि मंचों की ज़िम्मेदारी है कि भविष्य के जलवायु अभियानों को आकार देने के लिए मार्गदर्शक सिद्धांतों की रूपरेखा और दीर्घकालिक रणनीतियों की रूपरेखा तैयार करे. इस संदर्भ में, COP26 एक ऐसा मंच था जहां विश्व को सामूहिक रूप से अपनी आगामी जलवायु कार्रवाई की रणनीति को आकार देने और इसे वर्तमान की अनिवार्यता के आधार पर सीखने, भुलाने और रूपांतरित करने का अवसर मिला.
इस दिशा में पहला कदम, जलवायु संकट के प्रभावों की गंभीरता को कम करने के लिए अब तक किये गए प्रयासों में कमियों को स्वीकार करना है. कुल मिलाकर किये गए प्रयासों ने ज़्यादातर “polluter’s pay” सिद्धांत का अनुसरण किया है जिसमें उन साझेदारों के प्रति ज़िम्मेदारी मढ़ने के प्रयास किये गये जो संकट को खड़ा करने के सबसे पहले उत्तरदायी थे और उनसे इसके समाधान के लिए अनुपात में वित्तीय योगदान करवाया गया. जलवायु के परिदृश्य में, इस नज़रिये को “समान लेकिन पृथक ज़िम्मेदारी” करार दिया गया है और धरती के लिए बेहतर भविष्य के साझा लक्ष्य की दिशा में विभिन्न देशों को ऐसे तरीके से ज़िम्मेदारी देने के सिद्धांत पर आधारित है जो जलवायु संकट को बढ़ाने में उनके योगदान के समान हो. एक क्षेत्र जहां पर यह सिद्धांत सख्ती के साथ अपनाया गया है वो है वित्त का प्रबंध. पेरिस समझौता (2015) का हिस्सा होने के नाते, विकसित देशों से 2020 तक 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर का संकल्प करने को कहा गया था. हालांकि, इन आंकड़ों को हासिल करना चुनौतीपूर्ण रहा, जिसने, बदले में, विकासशील और अल्पविकसित देशों (एलडीसी) में जलवायु कार्रवाई को धीमा कर दिया, विशेषकर छोटे विकासशील द्वीपीय देशों (एसआईडीएस) में, जो जलवायु परिवर्तन को लेकर अत्यंत संवेदनशील और आर्थिक रूप से अस्थिर दोनों हैं.
अब जबकि वैश्विक मंचों ने “जलवायु न्याय” को सुनिश्चित करने और निष्पक्ष जलवायु कार्रवाई की ज़रूरत को व्यक्त किया है, “न्यायसंगत परिवर्तन” की दिशा में कार्रवाई की एक ठोस रूपरेखा मुख्य रूप से अब भी नामौजूद है.
जलवायु न्याय और किफ़ायती समाधान
प्रभावशाली चौतरफे जलवायु कार्रवाई में अवरोध उत्पन्न करने वाली जटिलता की दूसरी परत, वो तरीका है जिसमें समस्याओं को समझा जाता है और उसका समाधान बनाया जाता है. जलवायु परिवर्तन, अपने मूल में, एक वैश्विक व्यवस्था का मसला है, न कि पृथक मुद्दा जिस पर अकेले विचार कर, योजना बनाकर और नीतिगत कार्रवाई के ज़रिए सुलझाया जा सके. साथ ही, जलवायु परिवर्तन के कारण और प्रभाव भौगोलिक, सामाजिक और जनसांख्यिकीय रूप से बंटे हुए हैं, और अनुपातहीन रूप से गरीब और संवेदनशील को प्रभावित करने के लिए जाने जाते हैं. इसलिए, इस असमता को देखते हुए कि किस तरह जलवायु परिवर्तन विभिन्न क्षेत्रों और समुदायों पर असर डालती है, एक समाधान तैयार करने के लिए विकेंद्रीकृत और नीचे से ऊपर की प्रणाली में स्थानीय योजना और उसके क्रियान्वयन का तरीका अपनाने की ज़रूरत है. इसका मतलब यह नहीं है कि वैश्विक मंचों को स्थानीय कार्रवाइयों से अलग कर देना चाहिए. बल्कि, यह भूमिका COP26 जैसे ग्लोबल फोरम की है कि जलवायु परिवर्तन के प्रति स्थानीय, समुदाय-केंद्रित समाधानों को विस्तृत करने के साथ ही यह सुनिश्चित करे कि वो किफ़ायती हो. इसके अलावा, अब जबकि वैश्विक मंचों ने “जलवायु न्याय” को सुनिश्चित करने और निष्पक्ष जलवायु कार्रवाई की ज़रूरत को व्यक्त किया है, “न्यायसंगत परिवर्तन” की दिशा में कार्रवाई की एक ठोस रूपरेखा मुख्य रूप से अब भी नामौजूद है.
COP26 ने देशों, नीति निर्धारकों और नागरिकों को न्यायपूर्ण, सही, असरदार, निष्पक्ष और जनकेंद्रित जलवायु कार्रवाई को सुगम बनाने के लिए आदर्शों पर आधारित दीर्घकालिक रणनीतियों को अपनाने का अभी नहीं तो कभी नहीं का मौका दिया है. पहला, दुनिया को पेचिदा व्यवस्था, जलवायु संकट के स्वरूप और इससे एकजुट, सामूहिक रूप से निपटने की ज़रूरत को स्वीकार करना होगा. दरअसल इसका अर्थ जलवायु कार्रवाई में समान लेकिन पृथक ज़िम्मेदारी के सिद्धांत को संस्थागत करने के लिए प्रयासों को पूरी तरह से पुनर्जीवित करना है. देशों को अपने घरेलू जलवायु प्रयासों के लिए समानता और न्याय पर आधारित कोशिशों को अपनाना होगा: जबकि वैश्विक मंच पर, नीति निर्धारकों को विकसित राष्ट्रों और उत्तर के देशों द्वारा और अधिक कड़े कदम उठाने के लिए दबाव बनाना चाहिए, अन्य देशों को भी अपने राष्ट्रीय जलवायु प्रयासों में ऐसी ही कार्रवाई को शामिल करना चाहिए. जलवायु न्याय के लिए, इस बात को सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि समाज के तुलनात्मक संपन्न वर्गों या अर्थव्यवस्थाओं की ओर से किये गए ऐतिहासिक कार्यों का दंश अस्थिर और संवेदनशील समुदायों को न सहना पड़े. इसके अलावा, विभिन्न देशों द्वारा इस दिशा में किये गए प्रभावशाली सूचना का आदान प्रदान और प्रदर्शन के प्रयास विश्व को ‘न्यायोचित’ जलवायु कार्रवाई की ओर ले जाने का ज़रिया बनेंगे.
देशों के आधिकारिक प्रतिनिधित्व को जलवायु कार्रवाई के वैश्विक लीडर के अपने दर्जे को बनाये रखने के लिए या घरेलू स्तर पर अधिक निवेश के अंतर्वाह को लेकर लॉबी बनाने के लिए विक्टिम कार्ड खेलने के लिए, अपनी असफलताओं को छिपाने के लालच से बचना चाहिए.
दूसरा, देशों को संकट के पीछे विज्ञान-आधारित कारकों को स्वीकार करना चाहिए और प्रमाणों पर आधारित नीति निर्माण के दृष्टिकोण का सम्मान करना चाहिए. सभी देशों की असफलताओं और सफलताओं को कबूलने में पारदर्शिता होनी चाहिए और ज़िम्मेदारी के साथ दुनिया को इससे मिली सीख को बताना चाहिए. देशों के आधिकारिक प्रतिनिधित्व को जलवायु कार्रवाई के वैश्विक लीडर के अपने दर्जे को बनाये रखने के लिए या घरेलू स्तर पर अधिक निवेश के अंतर्वाह को लेकर लॉबी बनाने के लिए विक्टिम कार्ड खेलने के लिए, अपनी असफलताओं को छिपाने के लालच से बचना चाहिए. इससे विभिन्न देशों के बीच बातचीत, विचार-विमर्श और ज्ञान साझा करने के लिए एक स्वस्थ वातावरण बनाने में मदद मिलेगी. COP26 इस तरह की बातचीत को आगे बढ़ाने के लिए एक माध्यम साबित हुआ. किसी देश के स्वतंत्र अधिकार क्षेत्र या स्वायत्तता में अड़चन डाले बगैर, इस तरह की अंतर्दृष्टि का स्पष्ट उद्देश्य होना चाहिए और विश्व की भलाई के लिए विज्ञान पर आधारित मूल्यांकन करना चाहिए. संबंधित देशों के घरेलू वैज्ञानिक और सिविल सोसायटी नेटवर्क के मेल के साथ यह कार्य एक सहयोगपूर्ण तरीके से हो सकता है.
तीसरा, जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ वैश्विक लड़ाई में विकेंद्रीकृत और स्थानीय योजना और क्रियान्वयन को स्वीकार और एक रणनीति की तरह सम्मिलित करना होगा. जलवायु अल्पीकरण और अनुकूलन को लेकर स्थानीय, समुदाय-चालित समाधानों को और महत्व देने के लिए COP26 में जलवायु कार्रवाई की वैश्विक संरचना में ज़रूरी संस्थागत व्यवस्थाएं बनायी गई. यह जलवायु परिवर्तन के सामाजिक पहलू के साथ भी जोड़ता है, जिसमें कमज़ोर समुदायों का लचीलापन निर्माण मुख्य प्लेयर है. इस संदर्भ में, जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए दीर्घकालिक रणनीति के तौर पर समुदाय आधारित समाधान योजना और क्रियान्वयन को प्रतिष्ठापित करना सबसे बेहतर है.
कोविड-19 महामारी को लेकर प्रतिक्रिया में अधिक लचीला बनने के लक्ष्य के इर्द-गिर्द देशों ने जिस अविलंबिता का परिचय दिया है, उसे जलवायु कार्रवाई के क्षेत्र में भी दिखाया जाना चाहिए.
चौथा, वैश्विक बातचीत में, जलवायु परिवर्तन अनुकूलन और समाज, अर्थव्यवस्था और पर्यावरण के कमज़ोर तबके का लचीलापन निर्माण को, पर्याप्त महत्व देने की आवश्यकता है. जलवायु परिवर्तन के गंभीर प्रभावों के अनुकूल बनने, प्राकृतिक शारीरिक ज़ोखिमों को देखते हुए और इस तरह के खतरों को ध्यान में रखते हुए क्षेत्रों के लचीलेपन के लिए कार्रवाई की ठोस योजना तैयार करने के लिए क्षेत्रीय, देश-विशेष रणनीति की रूपरेखा तैयार करने की ज़रूरत है. कोविड-19 महामारी ने भविष्य के लिए तैयार रहने और जोख़िम के आकलन में एक कदम आगे रहने और आपदा प्रबंधन की ज़रूरत को फिर दोहराया है. कोविड-19 महामारी को लेकर प्रतिक्रिया में अधिक लचीला बनने के लक्ष्य के इर्द-गिर्द देशों ने जिस अविलंबिता का परिचय दिया है, उसे जलवायु कार्रवाई के क्षेत्र में भी दिखाया जाना चाहिए.
आखिर में, दीर्घकालिक रणनीतियों, नीतियों, कार्य प्रणालियों और ज़मीनी स्तर पर जलवायु कार्रवाई के सफल क्रियान्वयन के लिए, जो एक ज़रूरी तत्व है वो है वित्त का प्रबंध, जो तकनीकी समझ, तकनीकी ट्रांसफर और अल्पीकरण एवं अनुकूलन की दिशा में जलवायु कार्रवाई के लिए ज़रूरी है. वैश्विक जलवायु कार्रवाई के लिए वित्तीय सिस्टम को, अमीर देशों के अस्थिर आर्थिक कार्रवाइयों के कारण विभिन्न देशों और समुदायों के सामने खड़े गंभीर आंतरिक असमानता को स्वीकार करना होगा. इसलिए, वैश्विक वित्त को पर्याप्त मात्रा में गति देना और प्रभावशाली, समान और न्यायोचित तरीके से पुनर्वितरण करना अनिवार्य है. एक सरल तरीका जो असरदार तरीके से एक ऐसा सिस्टम सुनिश्चित करेगा जो किसी भी प्रस्तावित आर्थिक गतिविधि का सामाजिक, पर्यावरण संबंधी और आर्थिक निष्पक्षता पर नियंत्रण रखेगा, वो है “सतत वित्त वर्गीकरण”. यूरोपियन यूनियन, दक्षिण अफ्रीका, चीन, मलेशिया और भारत जैसे कई देशों और क्षेत्रीय गुटों में विकास और क्रियान्वयन के विभिन्न अवस्थाओं में वर्गीकरण है. इस तरह की बाज़ार आधारित रूपरेखा सामाजिक कल्याण और न्यायसंगत बदलाव पर गुणात्मक मीट्रिक को उचित महत्व देते हुए ऐसा मापदंड मुहैया करा सकता है जिससे अल्पीकरण और अनुकूलन के तरीकों की निरंतरता को मापा जा सकता है. उद्देश्य आत्मविश्लेषण, स्वीकार करना, संस्थागत, आंतरिक बनाने के साथ ही देश और दुनिया द्वारा सामूहिक रूप से क्रियान्वयन, मॉनिटरिंग और फीडबैक मेकैनिज्म विकसित करना है, ताकि ज़्यादा सतत, समान और असरदार जलवायु कार्रवाई को शुरू किया जा सके.
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