Author : Monika Halan

Published on Aug 03, 2021 Updated 0 Hours ago

वित्तीय तंत्र के अलग-अलग हिस्सों की सुधार के लिहाज से पड़ताल करने पर यह बात सामने आती है कि रिफॉर्म्स के लिए विभिन्न नियामकों की भूमिका और राजनीतिक इच्छाशक्ति कितना मायने रखती है

भारत में आधुनिक वित्त व्यवस्था का उदयः एक रिपोर्ट कार्ड

आधुनिक वित्त व्यवस्था का जो मकड़जाल है, उसके केंद्र में है अर्थव्यवस्था के अलग-अलग भागीदारों के बीच पैसों का लेन-देन या एक भागीदार का दूसरे के पास पैसा भेजना. इस बेहद ‘व्यस्त चौराहे’ के चार कोने हैं- कर्ज लेने वाले, कर्ज देने वाले, निवेशक और उद्यमी. इसके भागीदारों की संख्या और पैसों के लेनदेन को सरकार चाहे तो नियंत्रित कर सकती है और इसे अपने हाथों में रख सकती है, जैसा कि 1991 तक भारत में होता था या सरकार की ओर से नियुक्त कुछ स्वायत्त नियामक यह काम कर सकते हैं, जैसा कि अभी होता है. 

आपने कभी सोचा है कि अगर किसी वित्त व्यवस्था की एकमात्र भूमिका के बारे में पूछा जाए, तो वह क्या होगी? इसका मकसद होगा पूंजी उन लोगों को देना, जहां से बेहतर रिटर्न मिल सके. इसके साथ, इसकी लागत कम और लेनदेन सुरक्षित हो. 

आज भारतीय वित्त व्यवस्था में हम तेज़ गतिविधियों को देखकर अक्सर भूल जाते हैं कि यह 30 साल पहले किस हाल में था यानी तब इसका आकार क्या था, प्रोडक्ट्स क्या थे, यह कितना असरदार था और इसकी लागत क्या थी और सेवाएं किस तरह की मिला करती थीं? आपने कभी सोचा है कि अगर किसी वित्त व्यवस्था की एकमात्र भूमिका के बारे में पूछा जाए, तो वह क्या होगी? इसका मकसद होगा पूंजी उन लोगों को देना, जहां से बेहतर रिटर्न मिल सके. इसके साथ, इसकी लागत कम और लेनदेन सुरक्षित हो. 30 साल पहले देश में अर्थव्यवस्था के लिए योजनाएं केंद्रीय स्तर पर बनाई जाती थीं. सरकारी वित्तीय संस्थानों यानी बैंकों-बीमा कंपनियों के जरिये लोगों से उनकी बचत हासिल की जाती थी और उस पैसे को अर्थव्यवस्था में लगाया जाता था. इसी से बैंकों के रिजर्व रेश्यो और बीमा कंपनियों के निवेश संबंधी दिशा-निर्देश भी नत्थी थे. बैंकों, बीमा कंपनियों से लेकर म्यूचुअल फंडों को चलाने और यहां तक कि आईपीओ की कीमत तय करने का काम सरकार किया करती थी. 1991 के बाद जब वित्तीय क्षेत्र को निजी कंपनियों के लिए खोला गया तो इससे मांग के साथ आपूर्ति पक्ष की ओर से भी मार्केटप्लेस में बदलाव हुआ. ग्राहकों के लिए यह बदलाव कितना गहरा और व्यापक है, इसे 40 साल से अधिक उम्र का कोई भी व्यक्ति समझ सकता है. जिन्हें इन बदलावों के बारे में नहीं पता है, वे इस बारे में अपनी मां से पूछें. पिछले 30 वर्षों में वित्तीय क्षेत्र के अलग-अलग हिस्सों के मानकों में जो बदलाव आए हैं, मैं उनके बारे में यहां बताऊंगी. वित्तीय क्षेत्र को मिली आजादी का फायदा उठाकर कुछ नई ऊंचाइयों पर पहुंचे हैं तो कुछ ने रो-पीटकर मार्केट का रास्ता पकड़ा है. सुधारों की हवा आज भी तेज बनी हुई है. एक ओर यह और मजबूत हो रही है तो दूसरी तरफ सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों और बीमा कंपनियों की यूनियनें आज भी रिफॉर्म्स के कारण बुरे दिन आने की धमकियां दे रही हैं. वे बेकार की बातें कर रही हैं. यह बात वित्तीय क्षेत्र में सुधारों पर मेरी रिपोर्ट कार्ड से साबित हो जाएगी. मैं बचत करने वालों से कर्ज लेने वालों और निवेशकों से उद्यमियों को जोड़ने वाले इंटरमीडिएशन मार्केट के चार हिस्सों का विश्लेषण करके आपके सामने सुधारों के इन 30 वर्षों का रिपोर्ट कार्ड पेश कर रही हूं.

बैंक: ‘C’

भारत जैसी बड़ी अर्थव्यवस्था को कहीं बड़े बैंकिंग क्षेत्र की जरूरत है. इसके साथ ही इसे जितना मजबूत होना चाहिए, अभी वैसी स्थिति नहीं है. 1991 में नरसिम्हन कमिटी के साथ जिन लक्ष्यों को ध्यान में रखकर सुधार लागू किए गए थे, उनके मिले-जुले नतीजे सामने आए हैं. 2017 में भारतीय बैंकों की संपत्तियों और जीडीपी का रेश्यो 68.4 फीसदी था, जबकि चीन के लिए यह 174.5 फीसदी, ब्राजील के लिए 105.3 फीसदी और नेपाल के लिए 85.4 फीसदी था. बैंकों की ओर से दिए गए कर्ज और जीडीपी का रेश्यो भी दूसरे इमर्जिंग मार्केट्स और विकसित देशों की तुलना में आधा है. 1991 में कई सुधार लागू किए गए, जिनसे देश को नए बैंक, प्रोडक्ट्स और सेवाओं के मानक मिले, लेकिन बैंकिंग तंत्र को जिसकी जरूरत थी, इन सुधारों से वह नहीं मिला. इन सुधारों के कारण निजी बैंकों को अनुमति मिली, उन्हें ब्याज दरें करने की छूट और प्राथमिकता क्षेत्र को कर्ज देने के निष्प्रभावी नियमों से बचने के रास्ते के साथ बैंकों की शाखाएं खोलने के मामले में ढील मिली. 

एक नियामक के रूप में इन 30 वर्षों में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) बचत करने वालों के हितों की रक्षा करने में सफल रहा है. उसने अधिसूचित व्यावसायिक बैंकों में पैसा रखने वाले ग्राहकों का नुकसान नहीं होने दिया, लेकिन वह बैंकों की ओर से कर्ज देने की कमजोर व्यवस्था को ठीक नहीं कर पाया. उसने सरकार और iSPIRT की टीम के साथ मिलकर डिजिटल पब्लिक यूटिलिटी के रूप में एक आधुनिक पेमेंट सिस्टम तैयार तो किया है, लेकिन बैंकों की ओर से अब भी अपने और दूसरों के प्रोडक्ट्स की मिस-सेलिंग जारी है यानी वे निवेशकों को गुमराह करके उन्हें वित्तीय उत्पाद बेच रहे हैं. एक और दिक्कत यह थी कि सुधारों के बावजूद बैंकिंग क्षेत्र की पहुंच अधिक नहीं बढ़ी. इसका फायदा देश में व्यापक स्तर पर नहीं मिल रहा था. इसलिए 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद इसकी पहल की. उनके प्रयास से जन धन योजना लागू हुई, जिससे बैंकिंग सेवाओं के दायरे में 42.5 करोड़ और लोग आ गए. 

एक नियामक के रूप में इन 30 वर्षों में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) बचत करने वालों के हितों की रक्षा करने में सफल रहा है. उसने अधिसूचित व्यावसायिक बैंकों में पैसा रखने वाले ग्राहकों का नुकसान नहीं होने दिया, लेकिन वह बैंकों की ओर से कर्ज देने की कमजोर व्यवस्था को ठीक नहीं कर पाया.

भारतीय रिज़र्व बैंक सरकार के लिए कर्ज़ की व्यवस्था करता है और इसके साथ वह बैंकों की निगरानी भी करता है. इन दोनों जिम्मेदारियों को अलग किया जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. ना ही सुधारों के बाद उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए अलग नियामक बना. फाइनेंशियल रिज़ॉल्यूशन और डिपॉजिट इंश्योरेंस विधेयक इसलिए लाया गया था ताकि भारत को अपने वित्तीय तंत्र के जोख़िम के बारे में पहले ही पता चल सके, लेकिन बैंकिंग और वामपंथियों की लॉबिंग के कारण यह उम्मीद पूरी नहीं हो पाई. इस वजह से वित्तीय तंत्र अचानक खतरे में पड़ सकता है. भारतीय रिज़र्व बैंक की एक और दिक्कत यह है कि एक ओर जहां इस पर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के कामकाज की निगरानी की ज़िम्मेदारी है, वहीं दिल्ली से ‘फोन बैंकिंग’ के ज़रिये जो परियोजनाएं निवेश के लायक नहीं हैं, उन्हें भी कर्ज़ देने का बैंकों पर दबाव बनाया जाता है. आरबीआई इस मामले में अपनी दोहरी भूमिका के साथ न्याय नहीं कर पाया है. ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि तकनीक और जन धन योजना से बैंकिंग क्षेत्र में बेशक सुधार हुआ है, जबकि इसके दूसरे कामकाज में बेहतरी कछुए की रफ्तार से हो रही है.

बीमा: ‘D’

जीवन बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण 1956 और साधारण बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण 1972 में हुआ. यह कदम इसलिए उठाया गया कि इससे विकासशील भारत की जरूरतें अच्छी तरह पूरी हो सकेंगी. लेकिन नतीजा कुछ और निकला. राष्ट्रीयकरण की वजह से इन कंपनियों का समूचे क्षेत्र पर एकाधिकार हो गया. ये कंपनियां लोगों से जो पैसा हासिल करतीं, उसका इस्तेमाल सरकार अपने घाटे की भरपाई के लिए करती. गलत नीति के कारण बीमा कंपनियों के एजेंटों को खास अधिकार मिले, जिसे खत्म करना करीब-करीब असंभव साबित हुआ है. इन लाखों एजेंटों की रोजी-रोटी भारत में ग्राहकों के हितों की बुनियादी रक्षा और बीमा क्षेत्र में सुधार के आड़े आ रही है. बेशक, इस क्षेत्र में रिफॉर्म हुए हैं, लेकिन उनकी रफ्त़ार बहुत धीमी रही है. जो सुधार हुए हैं, उन्हें लेकर हायतौबा भी मची है. एक मसला यह भी है कि इन सुधारों को लागू करते वक्त़ यह नहीं सोचा गया कि उनका आख़िरी अंजाम क्या होगा. अमूमन इसके ज़रिये कंपनियों के मुनाफ़ा और एजेंटों के कमीशन के बीच संतुलन साधने की कोशिश हुई. इसका असर यह हुआ कि पॉलिसीधारकों को साल दर साल नुकसान होता चला गया. 

1991 में बीमा क्षेत्र के लिए नियामक बनाया गया. इसके साथ एकाधिकार वाले क्षेत्र को धीरे-धीरे निजी और विदेशी कंपनियों और पूंजी के लिए खोलने की शुरुआत हुई. पहले तो बीमा कंपनियों में बड़ी हिचक के साथ 26 फीसदी विदेशी निवेश की इजाज़त दी गई. इसे बढ़ाकर 74 फीसदी करने में देश को 30 साल लग गए. यह कहना गलत नहीं होगा कि बीमा क्षेत्र में अभी तक असल सुधार नहीं हुए हैं. इसके नियामक पर स्टाफ के एकाधिकारवादी सोच और नेतृत्व का असर बना हुआ है. बीमा नियामक का मुख्यालय हैदराबाद में है, इसलिए उससे वित्तीय क्षेत्र के प्रतिभाशाली लोग नहीं जुड़ते. लिहाजा, इंश्योरेंस रेगुलेटरी एंड डिवेलपमेंट अथॉरिटी ऑफ इंडिया नाम के नियामक पर नौकरशाही का कब्जा बना हुआ है.

राष्ट्रीयकरण की वजह से इन कंपनियों का समूचे क्षेत्र पर एकाधिकार हो गया. ये कंपनियां लोगों से जो पैसा हासिल करतीं, उसका इस्तेमाल सरकार अपने घाटे की भरपाई के लिए करती. गलत नीति के कारण बीमा कंपनियों के एजेंटों को खास अधिकार मिले, जिसे खत्म करना करीब-करीब असंभव साबित हुआ है. 

जब नए दौर के कहे जाने वाले पारदर्शी मार्केट-लिंक्ड प्रोडक्ट्स यानी यूनिट लिंक्ड इंश्योरेंस प्लान (यूलिप) आए, तब जीवन बीमा क्षेत्र में काफी उथल-पुथल मची. यूलिप ने बहुत कम समय में पारंपरिक जीवन बीमा पॉलिसियों की जगह ले ली और 2007-08 तक कंपनियों के पहले साल के प्रीमियम से होने वाली आमदनी में इसका योगदान 70 फीसदी से भी अधिक हो गया. लेकिन सच तो यह है कि यूलिप को लेकर नियामक को कुछ विदेशी और शीर्ष बीमा कंपनियों ने गुमराह किया. इस वजह से पुरानी और अधिक सुरक्षित पॉलिसी को छोड़कर भारतीयों ने मार्केट रिस्क से जुड़े प्रोडक्ट्स में निवेश किया. पहले वे गारंटीड बीमा पॉलिसी खरीदते थे, जिनमें उनका पैसा सुरक्षित रहता था. यूलिप निवेशकों को गुमराह करके बेचे गए, जिससे 2012 तक के 7 साल में उन्हें 1.5 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ. आख़िरकार यह मामला वित्त मंत्रालय पहुंचा और निवेशकों के हितों की रक्षा के लिए साल 2010 में यूलिप के नियमों में सख्ती की गई. इसका असर यह हुआ कि 2011 में बीमा उद्योग ने फिर से पारंपरिक पॉलिसी बेचने में पूरी ताकत झोंक दी, लेकिन तब तक उसके पंजों में खून लग चुका था. निवेशकों को साल दर साल लैप्स्ड पॉलिसी पर नुकसान होता रहा. उनके हित सुरक्षित रखने के इतने खराब नियमों के कारण ही 24 जीवन बीमा और 34 साधारण बीमा कंपनियां होने के बावजूद देश में सिर्फ 2.8 फीसदी लोगों ने बीमा कराया है. 2001 में 2.7 फीसदी लोगों ने जीवन बीमा कराया हुआ था. साधारण बीमा कंपनियों के लिए यह अभी 0.9 फीसदी है, जबकि 2001 में इसका प्रतिशत 0.6 फीसदी था. अगर आकार की बात करें तो जीवन बीमा उद्योग 19 फीसदी सालाना की रफ्तार से बढ़ा है और 31 मार्च 2020 तक इसका कुल एसेट्स अंडर मैनेजमेंट (एयूएम) 38.9 लाख करोड़ रुपये हो चुका था. हालांकि, 64वें महीने में पर्सिस्टेंसी रेट 44 फीसदी है. यानी 100 लोग पॉलिसी लेते हैं तो उसमें से 64वें महीने में सिर्फ 44 फीसदी ही उसे जारी रखते हैं. इसलिए देश में जीवन बीमा पॉलिसी से लोगों को साल दर साल नुकसान हो रहा है. 

नीतिगत स्तर पर सोचा गया था कि जीवन बीमा क्षेत्र से लंबी अवधि की इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के लिए फंड आएगा, लेकिन यह अभी तक सपना ही साबित हुआ है. इसी वजह से इन पर जो टैक्स छूट दी जाने वाली थी, वह भी बस कागजों तक सिमटी रह गई. अफसोस की बात यह है कि आधी बीमा पॉलिसियां पांच साल तक जारी नहीं रह पातीं, फिर 15-20 साल तक के निवेश की जो उम्मीद की गई थी, उसके पूरे होने का सवाल ही पैदा नहीं होता. साधारण बीमा के क्षेत्र में भी सुधार बहुत धीमी गति से हुए हैं और इनमें भी पॉलिसीधारकों के हितों पर ध्यान नहीं दिया गया है. इस मामले में एक बड़ा बदलाव 2007 में नियामक की ओर से टैरिफ खत्म करना था. इसके बाद कंपनियों को प्रीमियम तय करने की आजादी मिल गई. इसके बावजूद ग्राहकों की संतुष्टि, लंबी अवधि की परियोजनाओं के लिए फंड मुहैया कराने के मामले में इस क्षेत्र को सफलता नहीं मिली है. 

नीतिगत स्तर पर सोचा गया था कि जीवन बीमा क्षेत्र से लंबी अवधि की इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के लिए फंड आएगा, लेकिन यह अभी तक सपना ही साबित हुआ है. इसी वजह से इन पर जो टैक्स छूट दी जाने वाली थी, वह भी बस कागजों तक सिमटी रह गई. 

म्यूचुअल फंड: ‘A’

हर सौदे पर 5 फीसदी की लागत से शून्य ब्रोकरेज तक. बोली की प्रक्रिया के जरिये चुनिंदा ब्रोकरों के दबदबे और फिजिकल ट्रेडिंग के दौर से निकलकर भारत के सिक्योरिटी मार्केट ने आधुनिक तकनीक, संस्थानों, सिस्टम और प्रोसेस तक का सफर तय किया है. इसकी शुरुआत 1992 में शेयर बाजार के लिए सेबी नाम के नियामक की स्थापना से हुई. नेशनल स्टॉक एक्सचेंज की स्थापना से एक पारदर्शी और स्क्रीन आधारित ट्रेडिंग सिस्टम, रियल टाइम इंस्टिट्यूशन वजूद में आया. इसके साथ डिपॉजिटरी और क्लीयरिंग कॉरपोरेशन की स्थापना हुई. इन बदलावों की वजह से भारतीय शेयर बाजार आज लागत के लिहाज से बहुत आधुनिक और प्रभावशाली है. यह काफी बिजनेस हैंडल करता है. इन सुधारों के बारे में सबसे बड़ी बात यह है कि इसकी शुरुआत छोटे निवेशकों के हितों की रक्षा से हुई थी और अब यही बॉन्ड मार्केट में सुधार का जरिया बन रहा है. इन्हीं सुधारों के कारण भारतीय म्यूचुअल फंड उद्योग निवेशकों और कंपनियों के बीच एक महत्वपूर्ण पुल बन पाया. 

1988 में सरकारी नियंत्रण वाली यूनिट ट्रस्ट ऑफ इंडिया अकेली म्यूचुअल फंड कंपनी थी, जो निवेशकों के 6,700 करोड़ रुपये मैनेज कर रही थी. वित्त वर्ष 2021 के आखिर तक यह रकम बढ़कर 33 लाख करोड़ रुपये हो गई थी. अगर इस उद्योग की तरक्की को ठीक से समझना है तो 1993 के बाद हुए बदलावों पर नजर डालनी होगी. उसी साल देश में निजी कंपनियों को म्यूचुअल फंड लाने की इजाजत मिली. इसके बाद से उद्योग के एयूएम में 16 फीसदी सालाना की दर से बढ़ोतरी हुई है. कमाल की बात यह है कि बेहद सख्त नियमों के बीच इन कंपनियों ने यह ग्रोथ हासिल की है. नियामक का मानना रहा है कि म्यूचुअल फंड छोटे निवेशकों के लिए सिक्योरिटीज मार्केट में निवेश करने का जरिया हैं. इस सोच के कारण इस क्षेत्र में ऐसे प्रोडक्ट्स आए, जो वैश्विक स्तर के हैं. इनकी लागत बहुत कम है. ये प्रोडक्ट्स ऐसे हैं कि इनमें किसी तरह के खेल करने की गुंजाइश बहुत कम है. छोटे निवेशकों को म्यूचुअल फंडों के बारे में समझने में कोई दिक्कत नहीं होती. इस लिहाज से ये आसान प्रोडक्ट हैं. इसलिए इनकी लोकप्रियता बढ़ रही है और मई 2021 में सिस्टेमैटिक इन्वेस्टमेंट प्लान (एसआईपी) के जरिये 9,000 करोड़ रुपये का मासिक निवेश हो रहा था. 

आज म्यूचुअल फंड उद्योग जिस अच्छी हालत में है, उसका श्रेय सेबी को जाता है, जिसने नियमों को लेकर सक्रिय रुख अपनाया. उसने निवेशकों के हितों को केंद्र में रखकर दिशानिर्देश तय किए. पहले जहां नए फंड ऑफर पर 6 फीसदी का शुल्क वसूला जाता था, सेबी ने उनकी बिक्री के वक्त़ लिए जाने वाला शुल्क ख़त्म कर दिया. 

आज म्यूचुअल फंड उद्योग जिस अच्छी हालत में है, उसका श्रेय सेबी को जाता है, जिसने नियमों को लेकर सक्रिय रुख अपनाया. उसने निवेशकों के हितों को केंद्र में रखकर दिशानिर्देश तय किए. पहले जहां नए फंड ऑफर पर 6 फीसदी का शुल्क वसूला जाता था, सेबी ने उनकी बिक्री के वक्त़ लिए जाने वाला शुल्क ख़त्म कर दिया. नियामक ने छिपे हुए चार्जेज़ पर भी रोक लगाई. सेबी की पहल से इस उद्योग में लागत, पारदर्शिता, एफिशिएंसी और गवर्नेंस में बेहतरी आई. 2021 में देश में 44 एसेट मैनेजमेंट कंपनियां थीं, जो इक्विटी, डेट, विदेशी शेयरों से लेकर गोल्ड में निवेश की योजनाएं चला रही थीं. तकनीक आधारित वित्तीय कंपनियों के आने से शहरों में रहने वाले समृद्ध निवेशकों के लिए इनमें बगैर लागत के निवेश करने का रास्ता खुला. छोटे निवेशकों के लिए म्यूचुअल फंड निवेश का भरोसेमंद जरिया तो बने ही हैं, अब वे बैंकों, बीमा कंपनियों और पेंशन फंडों की मंजिल भी बन चुके हैं. भारत में कॉरपोरेट बॉन्ड मार्केट बहुत विकसित नहीं हुआ है. इसका डेट फंडों की ग्रोथ और एफिशिएंसी पर बुरा असर पड़ा है. भारतीय रिजर्व बैंक को इस समस्या को दूर करना चाहिए, दूसरी ओर सेबी इस दिशा में म्यूचुअल फंडों के ज़रिये पहल कर रहा है. 

पेंशन: ‘C’

पेंशन मार्केट में कई नियामकों का दख़ल है. एंप्लॉयीज प्रॉविडेंट फंड ऑर्गनाइजेशन (ईपीएफओ) के पास सबसे बड़ा पेंशन फंड है, जिसे श्रम मंत्रालय रेगुलेट करता है. वहीं, बीमा कंपनियों के पेंशन प्लान की निगरानी का ज़िम्मा बीमा क्षेत्र के नियामक पर है. सेबी के रेगुलेशन वाले म्यूचअल फंडों के पास भी पेंशन प्लान थे. उधर, काफी राजनीतिक हीलाहवाली के बाद भारत में नेशनल पेंशन सिस्टम (एनपीएस) के रूप में 1 जनवरी 2004 से मार्केट लिंक्ड पेंशन सिस्टम वजूद में आया, लेकिन पेंशन फंड रेगुलेटरी एंड डिवेलपमेंट अथॉरिटी (पीएफआरडीए) एक्ट को 2014 में अधिसूचित किया गया यानी पेंशन प्लान आने के एक दशक के बाद. 

पेंशन मार्केट को देखकर समझा जा सकता है कि भारत में रिफॉर्म करना क्यों मुश्किल रहा है और यह टुकड़ों में होता आया है. अभी जितने नियामक पेंशन फंडों को रेगुलेट करते हैं, उनमें से कोई भी अपना अधिकार नहीं छोड़ना चाहता. इस वजह से इन योजनाओं को एक नियामक के तहत नहीं लाया जा सका है. राजनीतिक स्वार्थों की वजह से यह पता नहीं चल पाता कि पेंशन फंडों में आने वाले पैसे को कहां लगाया जा रहा है. इस क्षेत्र में विदेशी निवेश को लेकर भी एक हिचक बनी हुई है. इन वजहों से लंबी अवधि की इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के लिए बड़ा फंड तैयार नहीं हो पा रहा. ईपीएफओ देश में सबसे बड़ा पेंशन संस्थान है, जो 16 लाख करोड़ रुपये का निवेश संभाल रहा है. उसके सदस्यों की संख्या 4.7 करोड़ है. इसके उलट एनपीएस के तहत 6 लाख करोड़ रुपये का प्रबंधन होता है. इतना फंड भी एनपीएस को इसलिए मिला क्योंकि केंद्र सरकार ने अपने कर्मचारियों के लिए इसमें निवेश करना अनिवार्य बना रखा है. ईपीएफओ में सुधार बहुत धीमी गति से और झिझक के साथ हुए हैं. इतना बड़ा फंड रखने वाला संस्थान हर साल रिटर्न का ऐलान करे, लेकिन निवेश पर तब तक के नुकसान की जानकारी न दे तो उसे लेकर चिंता होना स्वाभाविक है. 

राजनीतिक स्वार्थों की वजह से यह पता नहीं चल पाता कि पेंशन फंडों में आने वाले पैसे को कहां लगाया जा रहा है. इस क्षेत्र में विदेशी निवेश को लेकर भी एक हिचक बनी हुई है. इन वजहों से लंबी अवधि की इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के लिए बड़ा फंड तैयार नहीं हो पा रहा.

वित्तीय तंत्र के अलग-अलग हिस्सों की सुधार के लिहाज से पड़ताल करने पर यह बात सामने आती है कि रिफॉर्म्स के लिए विभिन्न नियामकों की भूमिका और राजनीतिक इच्छाशक्ति कितना मायने रखती है. इस क्षेत्र में सुधारों की राह में एक बाधा इसलिए भी बनी हुई है क्योंकि बैंकिंग और बीमा क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां हैं और नौकरशाह-राजनेता अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर रहे हैं. वे भ्रष्चाचार को बढ़ावा दे रहे हैं. उन्हें इस बात की परवाह नहीं है कि ऐसा करके वे आम लोगों की बचत से खिलवाड़ कर रहे हैं. 

इसके अलावा, आजादी के बाद देश ने समाजवाद का रास्ता चुना. मुक्त बाजार की राह में समाजवादी डीएनए हमेशा रुकावट बनता है. बाजार की भूमिका नहीं बढ़ने के कारण जब सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों को बड़ा नुकसान होता है तो उसकी कीमत टैक्सपेयर्स चुकाते हैं. साथ ही, आम लोगों की बचत में महंगाई भी सेंध लगाती है. दशकों से देश में समाजवाद के हक में जो ब्रेनवॉश हुआ है, उससे बाहर निकलनी होगा. हमें लोगों की निजी पसंद को अहमियत देनी होगी ताकि जिन लोगों के पास अधिकार हैं, वे उसका दुरुपयोग करके भ्रष्टाचार न कर सकें. 

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