इंटरनेट मानवीय इतिहास में सापेक्षिक तौर पर एक नई घटना है. कुछ ही दशकों में ये माध्यम दुनिया के अरबों लोगों के समसामयिक जीवन का अटूट हिस्सा बन गया है. इंटरनेट नेटवर्क ने कारोबारों, व्यक्तियों और सरकारों के बीच के संवादों का स्वरूप बदलकर रख दिया है. प्राथमिक तौर पर इसका विचार “लोकतंत्र” और “उदारवाद” की शक्ति के रूप में सामने रखा गया था. बहरहाल अनेक पक्षों द्वारा अब इस माध्यम को उन मक़सदों के लिए भी इस्तेमाल में लाया जाने लगा है जो इंटरनेट के आग़ाज़ से जुड़े बुनियादी नज़रिए से ठीक उलट हैं.
आज डेटा को एक संसाधन के तौर पर देखा जाने लगा है और इसे अनेक मक़सदों से इस्तेमाल में लाया जा रहा है. इनमें विज्ञापन, राजनीतिक अभियान और सीमा-पार टोह लगाने की क़वायद शामिल हैं.
‘टोही राज्यसत्ता’ की धारणा
‘टोही राज्यसत्ता’ की धारणा इंटरनेट के आग़ाज़ से काफ़ी पहले ही हमारे सामने आ चुकी थी. ज़ाहिर है इसकी जड़ें इंटरनेट के वजूद में आने से पहले तक जाती हैं. दरअसल पहली बार इस विचार को मशहूर लेखक जॉर्ज ऑरवेल ने सामने रखा था. आधुनिक ज़माने में निगरानी, जासूसी, जंग और पुराने तौर-तरीक़े वाले सीधे-सादे कारोबार के बीच की रेखाएं धुंधली पड़ गई हैं. आज डेटा को एक संसाधन के तौर पर देखा जाने लगा है और इसे अनेक मक़सदों से इस्तेमाल में लाया जा रहा है. इनमें विज्ञापन, राजनीतिक अभियान और सीमा-पार टोह लगाने की क़वायद शामिल हैं. भोले-भाले विरोधियों पर अपनी राजनीतिक मर्ज़ी थोपने के लिए कुछ राज्यसत्ताएं ऐसे डेटा को “हथियार” के तौर पर भी इस्तेमाल कर सकती हैं. दुनिया भर में चुनावी प्रक्रियाओं में दख़लंदाज़ियों से जुड़ी अनेक हरकतों में भी यही देखने को मिला है. इनमें ताइवान, अमेरिका और यूरोप में हुए चुनाव शामिल हैं. हालांकि ये क़वायद अब महज़ चुनावी दख़लंदाज़ियों तक ही सीमित नहीं रह गई है. दुनिया भर की अनेक राज्यसत्ताओं की सामरिक रणनीतियों में ‘ज़ेहनी जंग‘ का विचार उभरकर सामने आने लगा है. इस तरह के जंगी दांव-पेचों का मक़सद “साइबर माध्यमों में घुसपैठों, मानसिकता पर दबदबा क़ायम करने और जनमत से छेड़छाड़ की क़वायदो के ज़रिए दूसरे पक्ष की सामाजिक विचारधाराओं, मानसिकता और क़ानून-व्यवस्था से जुड़ी समझ को विकृत करना होता है. इस वजह से दुनिया के देश “वैश्विक डेटा-संग्रह तंत्र” तैयार करने की कोशिशों में जुट गए हैं.”
डिजिटल टेक्नोलॉजी के उभार के चलते टोह लगाने की प्रक्रिया ने बड़े स्तर पर निगरानी रखे जाने की व्यवस्था का रूप ले लिया है. अमेरिकी सरकार लंबे समय से निगरानी रखने से जुड़ी ऐसी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए इंटरनेट सेवा प्रदाताओं (ISPs) का इस्तेमाल करती आ रही है. पिछले दशक में स्नोडेन लीक से जुड़ी घटनाओं से ये बात साफ़ तौर पर ज़ाहिर हो चुकी थी. उपयोगकर्ताओं के डेटा जुटाने, टोह लगाने और यहां तक कि भोले-भाले प्रयोगकर्ताओं को मैलवेयर (नुक़सान पहुंचाने वाले कम्प्यूटर प्रोग्राम) के ज़रिए फंसाने की ISPs की क़ाबिलियत के बारे में पहले ही काफ़ी कुछ लिखा जा चुका है. यूएस फ़ेडरल ट्रेड कमीशन की 2021 की रिपोर्ट के मुताबिक ISPs के पास विशाल आकार में और “बेहद बारीक़” यूज़र डेटा इकट्ठा करने की क्षमता मौजूद है. इससे उन्हें तमाम वेबसाइटों और उपकरणों के इस्तेमाल करने वालों की गतिविधियों पर निगरानी रखने की ताक़त मिल जाती है. साथ ही वो बड़े विस्तार से प्रयोगकर्ताओं के “बर्तावों से जुड़ी रूपरेखा” भी तैयार कर सकते हैं. इलेक्ट्रॉनिक फ़्रंटियर फ़ाउंडेशन (EFF) के मुताबिक ISPs के पास यूज़र द्वारा किए गए सर्च को “हाइजैक” करने की ताक़त होती है. इसके ज़रिए वो एनक्रिप्ट नहीं किए गए तमाम नेटवर्क ट्रैफ़िक में “पकड़ में नहीं आने वाले और डिलीट न होने वाले ट्रैकिंग कूकिज़” जोड़ सकते हैं. EFF के मुताबिक अतीत में ISPs ऐसी हरकतों को अंजाम भी दे चुके हैं.
अमेरिकी सरकार लंबे समय से निगरानी रखने से जुड़ी ऐसी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए इंटरनेट सेवा प्रदाताओं (ISPs) का इस्तेमाल करती आ रही है. पिछले दशक में स्नोडेन लीक से जुड़ी घटनाओं से ये बात साफ़ तौर पर ज़ाहिर हो चुकी थी.
अमेरिका और पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना (PRC) के बीच बढ़ते भूराजनीतिक तनावों के मद्देनज़र टेक्नोलॉजी (ख़ासतौर से डिजिटल टेक्नोलॉजी) ने अहम भूमिका निभाई है. कुछ साल पहले भारत और अमेरिका जैसे देशों ने राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं का हवाला देते हुए चीन के ऐप्स और नेटवर्क इंफ़्रास्ट्रक्चर को प्रतिबंधित कर दिया था. इन देशों की ओर से दलील दी गई कि इस तरह की सेवाओं और उत्पादों के ज़रिए बड़े पैमाने पर उपयोगकर्ताओं के डेटा संग्रह करने की क़वायदों को अंजाम दिया जा रहा था. इसके अलावा वो वैश्विक स्तर पर चीन की सेंसरशिप से जुड़ी हरकतों को भी बाक़ियों पर थोप रहे थे. जवाब में चीन ने भी राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं के बहाने अपनी सरज़मीं पर अमेरिका की बची-खुची टेक सेवाओं पर पाबंदी लगा दी.
इंटरनेट सेवा प्रदाताओं का सामरिक इस्तेमाल
मुमकिन है कि ऐसे टकरावों का विस्तार अब ISPs के दायरे तक भी होने लगा है. चीन के मालिक़ाना हक़ वाले ISPs ने हाल के वर्षों में अमेरिका में कामकाज शुरू किया था. बहरहाल दोनों ताक़तों के बीच बढ़ते तनाव के चलते अमेरिका ने 2019 में अपने यहां चाइना मोबाइल की गतिविधियों पर पाबंदी लगा दी. अक्टूबर 2021 में चीन के स्वामित्व वाले चाइना टेलीकॉम अमेरिकाज़ के साथ भी ऐसा ही घटनाक्रम देखने को मिला. चाइना यूनिकॉम अमेरिका पर भी ऐसी ही पाबंदी आयद की गई. अमेरिका द्वारा लिए गए इन तमाम फ़ैसलों के पीछे एक अहम कारक रहा है. दरअसल चीनी स्वामित्व वाले ISPs चीन के राष्ट्रीय ख़ुफ़िया क़ानून (NIL) से बंधे हुए हैं. इस क़ानून के तहत चीनी कंपनियों पर सीमा पार ख़ुफ़िया गतिविधियों को अंजाम दे रहे चीनी अधिकारियों को मदद पहुंचाने की क़ानूनी ज़िम्मेदारी आयद की गई है. चीन की सरकार के साथ अनिवार्य रूप से डेटा साझा करने की तमाम ज़रूरतों के साथ-साथ वहां की कंपनियों को इस तरह की गतिविधियों को भी अंजाम देना होता है.
मुमकिन है कि ऐसे टकरावों का विस्तार अब ISPs के दायरे तक भी होने लगा है. चीन के मालिक़ाना हक़ वाले ISPs ने हाल के वर्षों में अमेरिका में कामकाज शुरू किया था. बहरहाल दोनों ताक़तों के बीच बढ़ते तनाव के चलते अमेरिका ने 2019 में अपने यहां चाइना मोबाइल की गतिविधियों पर पाबंदी लगा दी.
अमेरिका ने भी ऐसे ही उपाय किए हैं. मिसाल के तौर पर NSA के PRISM कार्यक्रम के भागीदार भी अमेरिकी सरकार के साथ इसी तरह से वैश्विक यूज़र डेटा साझा करते हैं. ग़ैर-अमेरिकी व्यक्तियों के सिलसिले में तो इस क़वायद को बिना किसी न्यायिक मंज़ूरी के ही अमल में लाया जाता है. डेटा-शेयरिंग से जुड़े चीनी हुक़्मनामों की ही तरह अमेरिका के पास भी नेशनल सिक्योरिटी लेटर्स जैसे औज़ार मौजूद हैं. इसके ज़रिए अमेरिकी सरज़मीं पर यूज़र डेटा इकट्ठा करने वाली कंपनियों को अमेरिकी सरकार के साथ डेटा साझा करने के लिए मजबूर किया जा सकता है. समय-समय पर इस प्रावधान का इस्तेमाल भी किया जाता रहा है.
भू-क्षेत्रीय दायरों से परे निकलते टकराव
हाल के समय में ये टकराव भूक्षेत्रीय दायरों से परे निकल गए हैं. दरअसल सैटेलाइट आधारित ब्रॉडबैंड के उभार के चलते ऐसी सेवाएं मुहैया कराने वाले चीनी और अमेरिकी ISPs अपनी सरज़मीं के बाहर सुदूर रह रही आबादी तक भी ऐसी सेवाएं मुहैया करा सकते हैं. “गैलेक्सी स्पेस” और “GW” जैसे पृथ्वी की निचली कक्षा (LEO) वाले निजी 5जी सैटेलाइटों के जाल या गुच्छों की योजना क्रमश: 140 और 13,000 सैटेलाइट तैयार करने की है. इस क़वायद में ये दोनों अपने यहां इसी काम में लगी अपनी समकक्ष सरकारी कंपनियों- जैसे “द होंगयुन प्रोजेक्ट” और “होंगयान” के साथ मिलकर काम करने लगी हैं. दोनों के पास कक्षा में अपने-अपने 150 LEO सैटेलाइट मौजूद हैं.
इस तरह के गठजोड़ अमेरिका और चीन दोनों को अपनी सरहदों से बाहर ज़बरदस्त तुलनात्मक ताक़त मुहैया कराते हैं. दरअसल इसके मायने यही हैं कि अमेरिका और चीन की कंपनियां विदेशी राज्यसत्ताओं में ISPs के तौर पर काम करती हैं. इस क़वायद से पहले उनके पास इन इलाक़ों में बड़े पैमाने पर टोही गतिविधियों को अंजाम देने का कोई तौर-तरीक़ा मौजूद नहीं था. बहरहाल बदली हुई परिस्थितियों में अब उनके पास निगरानी से जुड़ी हरकतों के लिए ज़रूरी मौक़े हाथ आ गए हैं. यहां एक और तथ्य पर ग़ौर करना ज़रूरी है. दरअसल इन तमाम ISPs का नियमन उस देश के नियमों के हिसाब से नहीं होता जहां वो कामकाज कर रही होती हैं बल्कि उनकी पैदाइश वाले मुल्क के हिसाब से होता है. इससे निगरानी से जुड़े हालात और पेचीदा हो जाते हैं.
दरअसल इसके मायने यही हैं कि ऐसी कंपनियां उन तमाम क़ानूनों से बंधी होंगी जो निगरानी और राज्यसत्ता के सहयोग को बढ़ावा देती हैं. ऐसे ISPs वैश्विक स्तर पर बड़े पैमाने की टोही गतिविधियां चलाने में सक्षम होंगे. इस कड़ी में वो राष्ट्रों द्वारा अपने स्तर से आयद की गई पाबंदियों को धता बताने में भी कामयाब रहेंगी. ग़ौरतलब है कि दुनिया के तमाम देश सामग्रियों की हद तय करने, उपयोगकर्ताओं की निगरानी और डेटा संग्रह करने और मैलवेयर फैलाने को लेकर तमाम तरह की पाबंदियां लगाते रहे हैं. ये तमाम क़वायदें अविश्वसनीय रूप से इन कंपनियों को राष्ट्रीय सुरक्षा के हिसाब से अहम परिसंपत्तियां बना देती हैं. सरहदों के आर-पार फैले इन ISPs द्वारा अपनी सरकारों को मुहैया कराई गई क़ाबिलियत बेजोड़ है. भूराजनीतिक आक्रामकता के नज़रिए से ये ताक़त बेहद अहम है. ऐसे में इन कंपनियों के ग्राहक देशों के पास 2 ही विकल्प बचते हैं: या तो वो अपने क्षेत्राधिकार में इन्हें कामकाज की मंज़ूरी दें या उनपर पूरी तरह से रोक लगा दें.
भारत के लिए ISP बेहद अहम
एक निश्चित मुकाम पर आकर सैटेलाइट ब्रॉडबैंड प्रदाताओं के लिए वैश्विक मानक और नियमनों की दरकार से इनकार नहीं किया जा सकता. हालांकि ये पूरा क्षेत्र सामरिक प्रतिस्पर्धा का एक नया अखाड़ा है. वैश्विक महत्वाकांक्षाओं वाली राज्यसत्ताएं इस दायरे में अपने पैंतरे दिखाती आ रही हैं. अगर भारत महाशक्ति का दर्जा चाहता है तो उसके लिए भी घरेलू तौर पर तैयार सरहदों के आर-पार फैले ISP बेहद अहम हो जाते हैं. वैश्विक दायरों में भारत की निजी इकाइयां ISP सेवाएं मुहैया कराती रही हैं. कुछ अन्य इकाइयों ने सैटेलाइट माध्यम के ज़रिए ISP सेवा देने की क़वायद शुरू की है. बहरहाल घरेलू रूप से विकसित भूक्षेत्रों से आर-पार ISP की महज़ मौजूदगी ही 1970 के दशक के “स्माइलिंग बुद्धा” परमाणु परीक्षणों के बराबर है. इससे साबित होता है कि भारत के पास इस अखाड़े में उतरने लायक ताक़त जुटाने की क़ाबिलियत मौजूद है. हालांकि “ऑपरेशन शक्ति” जैसी ताक़त जुटाए बिना शायद भारत इस दिशा में अपनी क्षमता का पूरा प्रदर्शन नहीं कर सकेगा. निश्चित रूप से 1998 के परमाणु परीक्षणों से भारत की परमाणु हथियार क्षमता उभरकर सामने आई थी. ऊपर हमने देखा कि कैसे अमेरिका और चीन ने इंटरनेट नेटवर्क के टोही इस्तेमाल के दायरे में अपनी ताक़त का फ़ायदा उठाने के लिए वैधानिक और नीतिगत उपाय किए हैं. निजी क्षेत्र की इन गतिविधियों को राष्ट्रीय सुरक्षा के मक़सद से इस्तेमाल करने के लिए भारत को भी ऐसे ही नियम-क़ानून तैयार करने चाहिए. इस दायरे में यही क़वायद “ऑपरेशन शक्ति” का काम करेगी.
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