Published on May 08, 2023 Updated 0 Hours ago

दक्षिण एशिया के देश अमेरिका विरोधी बयानबाज़ी का इस्तेमाल, अमेरिका द्वारा उनसे अंदरूनी सुधार की मांग के विरोध के लिए कर रहे हैं. इसके ज़रिए ये देश अपनी बढ़ती हैसियत और अहमियत का भी संकेत दे रहे हैं.

दक्षिण एशिया में बढ़ती अमेरिका विरोधी बयानबाज़ी का मूल्यांकन

पिछले महीने, बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख़ हसीना ने संसद में एक ज़ोरदार भाषण दिया. उन्होंने आरोप लगाया कि अमेरिका उनके देश में लोकतंत्र ख़त्म करने की कोशिश कर रहा है, और इसके लिए उन्होंने अमेरिका की तीखी आलोचना की. शेख़ हसीना का बयान ये दिखाता है कि बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका जैसे दक्षिण एशियाई देशों में अमेरिका विरोधी बयानबाज़ी का चलन तेज़ी से बढ़ रहा है. चूंकि, अमेरिका ने दक्षिणी एशिया में अपना दायरा बढ़ाना शुरू किया है, तो दक्षिण एशिया का शासक वर्ग और यहां के राजनीतिक दल, जनता के बीच अमेरिका विरोधी बयानबाज़ी को बढ़ावा दे रहे हैं. दक्षिण एशिया में अमेरिका विरोधी माहौल बनने के कई कारण हैं, जो एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. जैसे कि अमेरिका के ख़िलाफ़ पहले से मौजूद आशंकाएं, राष्ट्रवाद, घरेलू राजनीति और दक्षिण एशियाई देशों की तेज़ी से बढ़ती अहमियत और हैसियत.

दक्षिण एशिया में अमेरिका विरोधी माहौल बनने के कई कारण हैं, जो एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. जैसे कि अमेरिका के ख़िलाफ़ पहले से मौजूद आशंकाएं, राष्ट्रवाद, घरेलू राजनीति और दक्षिण एशियाई देशों की तेज़ी से बढ़ती अहमियत और हैसियत.

पहले से मौजूद आशंकाएं

सैद्धांतिक रूप से दक्षिण एशियाई देशों में अमेरिका को लेकर कुछ आशंकाएं मौजूद हैं. जहां तक बांग्लादेश की बात है, तो छोटे मगर असरदा इस्लामिक समूह लगातार अमेरिका की नकारात्मक छवि पेश करते रहे हैं. अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ पर अमेरिका का हमला, और बांग्लादेश में पश्चिम विरोधी उग्रवादी विचारधारा ने पहले भी अमेरिका विरोधी प्रदर्शन और उसके नागरिकों पर हमलों को हवा देते रहे हैं. समाज के कुछ वर्गों ने तो अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की वापसी का जश्न इस्लाम की जीत के तौर पर मनाया था. बांग्लादेश की कई सरकारें या तो इन कट्टरपंथियों को मुख्यधारा की सियासत में जगह देती रही हैं, या कम से कम उन्हें तुष्ट करने की कोशिशें करती रही हैं. इसी वजह से अमेरिका विरोधी माहौल और इसकी चुनौतियां बनी हुई हैं.

श्रीलंका में तो अमेरिका की नीयत को लेकर 1970 के दशक से ही आशंका का माहौल बना हुआ है. हालांकि, गृह युद्ध को लेकर अमेरिका के अस्पष्ट रवैये और उसके बाद संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार उच्चायुक्त (UNHCR) के बयानों और मानव अधिकारों के उल्लंघन के आरोपों और मेल-जोल के प्रयासों ने श्रीलंका के कई तबक़ों में अमेरिका को बेहद अलोकप्रिय बना दिया है. अतीत में भी, श्रीलंका के राष्ट्रवादी समूह, अमेरिकी सामानों के बहिष्कार की मांग करते रहे हैं. इन संगठनों ने पश्चिम विरोधी प्रदर्शन आयोजित किए हैं और कई बार बैठकों और आयोजनों में ख़लल डाला है. इस सिंहल राष्ट्रवाद का चुनावी फ़ायदे के लिए इस्तेमाल किए जाने ने अमेरिका के ख़िलाफ़ आशंकाओं को बल ही दिया है. नेपाल में भी 1950 के दशक की शुरुआत से ही, अमेरिका द्वारा उसकी ज़मीन का इस्तेमाल तिब्बत में बग़ावत और चीन की जासूसी के लिए करने को लेकर आशंकाएं जताई जाती रही हैं.

राष्ट्रवाद

पहले से मौजूद इन आशंकाओं के अलावा, अमेरिका लगातार ये मांग करता रहा है कि ये देश अपनी लोकतांत्रिक संस्थाओं को मज़बूत बनाएं. भ्रष्टाचार पर क़ाबू पाएं, मानव अधिकारों और मेल-जोल को बढ़ावा दें. अमेरिका ये मानता है कि इन देशों के साथ उसके सहयोग, संवाद और निवेश के लिए ये सुधार ज़रूरी हैं, क्योंकि ये सारी बातें, हिंद प्रशांत क्षेत्र में मूल्यों पर आधारित व्यवस्था को बढ़ावा देने के लिहाज़ से अहम हैं.

इसका नतीजा ये हुआ है कि बांग्लादेश में मानव अधिकारियों के उल्लंघन और लोगों की जबरन गुमशुदगी में शामिल होने के आरोप में अमेरिका ने दिसंबर 2021 में रैपिड एक्शन बटालियन और उच्च स्तर के कुछ अधिकारियों पर प्रतिबंध लगा दिए थे. श्रीलंका में अमेरिकी सरकार लोकतंत्र को मज़बूत करने और तमिलों के साल मेल-जोल को बढ़ावा देने पर ज़ोर देती रही है. बाइडेन प्रशासन ने श्रीलंका के चार उच्च स्तरीय सैन्य अधिकारियों पर प्रतिबंध लगा दिए थे और वो श्रीलंका के ख़िलाफ़ UNHRC के प्रस्तावों को प्रायोजित करता रहा है. मानव अधिकारों के लिए उच्चायुक्त कार्यालय (OHCHR) ने अपने एक हालिया प्रस्ताव में श्रीलंका में मानव अधिकारों के उल्लंघन और युद्ध अपराधों का विश्लेषण करके इससे जुड़े सबूत जुटाकर उन्हें संरक्षित करने की बात कही गई है. पहले अमेरिका ने कदाचित ही मानव अधिकारों के रिकॉर्ड के लिए नेपाल की आलोचना की हो. मगर, आज उसकी भी निगरानी हो रही है. नेपाल से अपील की गई है कि वो भ्रष्टाचार और मनी लॉन्ड्रिंग का मुक़ाबला करे और मानव अधिकार एवं बाज़ार के सुधारों को बढ़ावा दे.

हालांकि, इस नीति के उल्टे नतीजे भी निकले हैं. दक्षिण एशियाई देशों ने अमेरिकी पाखंड का पर्दाफ़ाश किया है. दक्षिण एशियाई देश इस नीति को अमेरिका द्वारा लोकतंत्र और मानव अधिकारों को हथियार बनाने के रूप में देखते हैं, ताकि वो दक्षिण एशियाई देशों के ख़िलाफ़ इसका इस्तेमाल कर सके और उन्हें चीन से दूर करके अपने ख़ेमे में खींच सके. मोटे तौर पर, दक्षिण एशियाई देश इन हथकंडों को अमेरिका द्वारा दबाव बनाने की कोशिश के रूप में देखते हैं, जिसने राष्ट्रवादी जज़्बात और राजनीतिक दलों व समाज के कुछ तबक़ों की ओर से तीखी अमेरिका विरोधी बयानबाज़ी को बढ़ावा दिया है.

घरेलू राजनीति

इन देशों में अमेरिका विरोधी इस आग को भढ़काने में घरेलू राजनीति ने भी घी डालने का ही काम किया है. राजनीतिक दलों ने अक्सर ही अमेरिका विरोधी माहौल का इस्तेमाल राष्ट्रवादी जज़्बात भड़काने, और अपने विरोधियों द्वारा अमेरिका से तालमेल और सहयोग करने को देश की संप्रभुता से समझौता बताकर उसकी आलोचना की है. अमेरिका की भी इस बात के लिए लगातार आलोचना होती रही है कि वो इन देशों में चुनाव और घरेलू राजनीति में दख़लंदाज़ी करता रहा है. इन देशों के राजनीतिक दल भी अक्सर घरेलू राजनीति में किसी एक बड़े देश (भारत, अमेरिका या चीन) को  अक्सर दूसरे पर तरज़ीह देते रहे हैं. बांग्लादेश के वो तबक़े जो भारत विरोधी राष्ट्रवाद और आशंकाओं को चुनावी फ़ायदे के लिए हवा देते रहे हैं, अब वो अपनी अटकलों को अमेरिका के ख़िलाफ़ इस्तेमाल कर रहे हैं. क्योंकि, अमेरिका इस क्षेत्र में भारत के साथ सहयोग और समन्वय करता आ रहा है. इसी वजह से इस क्षेत्र में अमेरिका के निवेश और उसकी कूटनीतिक गतिविधियों का राजनीतिकरण किया जा रहा है, जिससे बांग्लादेश में अमेरिका को लेकर शक और बढ़ता जा रहा है.

मिसाल के तौर पर, इस साल बांग्लादेश में चुनाव होने हैं और अमेरिका, बांग्लादेश नेशनल पार्टी के साथ अपना संपर्क बढ़ाता जा रहा है. इसी से मजबूर होकर शेख़ हसीना ने अमेरिका की इस बात के लिए आलोचना की है कि वो ‘अलोकतांत्रिक’ विपक्ष को सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए बढ़ावा दे रहा है. नेपाल में भी जैसे जैसे चुनाव क़रीब आए, तो अमेरिका की मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन (MCC) परियोजना को लेकर ग़लत जानकारियों का शिकार होना पड़ा था. नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियां और चीन के क़रीबी दूसरे राजनेताओं ने इस समझौते का विरोध किया और MCC को देश की संप्रभुता से समझौता करने वाला और देश में अमेरिकी सैनिकों की राह खोलने वाला बताते हुए इसके ख़िलाफ़ बयान दिए थे. तत्कालीन प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा को अमेरिका परस्त बताते हुए उसकी आलोचना की थी और कहा था कि इसीलिए देउबा ने मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन पर मतदान कराने का फ़ैसला किया. श्रीलंका में राष्ट्रपति रनिल विक्रमसिंघ की अमेरिका परस्त कहकर आलोचना जारी है. आर्थिक संकट के दौरान अमेरिका ने श्रीलंका की लगातार मदद की, इससे अमेरिका द्वारा श्रीलंका में अपना सैनिक अड्डा स्थापित करने और विवादित स्टेटस ऑफ़ फोर्सेज समझौता दोबारा ज़िंदा करने की आशंकाएं और बढ़ गईं. वामपंथी पार्टियां और राजपक्षे परिवार के गठबंधन के साझीदार, अमेरिका के ख़िलाफ़ इन अटकलों को लगातार बढ़ावा देते रहे हैं.

भू-राजनीति और अपने अधिकार का इस्तेमाल

आख़िर में, दक्षिण एशियाई देशों की बढ़ती अहमियत और ख़ुदमुख़्तारी ने भी अमेरिका विरोधी बयानबाज़ी बढ़ाने में योगदान दिया है. आज एक तरफ़ चीन और दूसरी ओर अमेरिका और उसके सहयोगियों के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है, तो बड़ी ताक़तें इस क्षेत्र में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने पर काफ़ी ज़ोर दे रही हैं.

बांग्लादेश के साथ अमेरिका ने जनरल सिक्योरिटी ऑफ़ मिलिट्री इन्फ़ॉर्मेशन एग्रीमेंट (GSOMIA) के प्रस्ताव पर दस्तख़त किए हैं. उधर, चीन लगातार बांग्लादेश को सैन्य साज़-ओ-सामान निर्यात कर रहा है. अमेरिका ने नेपाल पर मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन पर फ़ैसला करने का दबाव बनाया और उससे सुरक्षा साझेदारी के कार्यक्रम (SPP) का हिस्सा बनने की भी अपील की. वहीं चीन, नेपाल को अपने ग्लोबल सिक्योरिटी इनिशिएटिव (GSI) का हिस्सा बनाना चाहता है. इसी तरह पिछले एक वर्ष के दौरान ही अमेरिका ने श्रीलंका को 27 करोड़ डॉलर की मानवीय सहायता उपलब्ध कराई है, जो 1950 के दशक से अब तक अमेरिका द्वारी श्रीलंका को दी गई कुल मदद का 13.5 प्रतिशत है. उधर, इन देशों को अमेरिका के ख़िलाफ़ अपने पाले में लाने के लिए रूसी दूतावास ने अमेरिका को बांग्लादेश की घरेलू राजनीति में दखल देने के लिए लताड़ लगाई. और, चीन ने नेपाल की फ़ैसला लेने की प्रक्रिया और अंदरूनी मामलों में दखलंदाज़ी का आरोप लगाकर अमेरिका की आलोचना की है.

दक्षिण एशियाई देशों की बढ़ती अहमियत और ख़ुदमुख़्तारी ने भी अमेरिका विरोधी बयानबाज़ी बढ़ाने में योगदान दिया है. आज एक तरफ़ चीन और दूसरी ओर अमेरिका और उसके सहयोगियों के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है, तो बड़ी ताक़तें इस क्षेत्र में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने पर काफ़ी ज़ोर दे रही हैं.

दक्षिण एशिया के देश इन गतिविधियों के प्रति संतुलन बनाने और अपने अधिकार का इस्तेमाल कर रहे हैं. बांग्लादेश लगातार अमेरिका के साथ व्यापार और रक्षा सहयोग को बढ़ावा दे रहा है. वहीं, वो व्यापार, सैन्य साज़-ओ-सामान और निवेश के लिए चीन के साथ भी सहयोग कर रहा है. अपनी परमाणु ऊर्जा परियोजना के लिए बांग्लादेश, रूस से भी सहायता पाने की कोशिश कर रहा है. आर्थिक संकट से उबरने में जुटा श्रीलंका, रूस से सस्ते दाम पर तेल ख़रीद रहा है और उसने यूक्रेन पर हमले के लिए रूस की आलोचना भी नहीं की है. श्रीलंका ने चीन के हितों के प्रति भी संवेदनशीलता दिखाई है और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) से वार्ता और मानवीय सहायता के लिए अमेरिका से भी मदद मांगी है. नेपाल ने अमेरिका के मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन (MCC) को स्वीकार कर लिया है, और उसने पोखरा इंटरनेशनल एयरपोर्ट और सीमा के आर-पार रेलवे लाइन जैसी चीन की परियोजनाओं को भी अपनाया है. हालांकि नेपाल, बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) में शामिल परियोजनाओं के लिए चीन से रियायती दरों पर क़र्ज़ की मांग भी कर रहा है. चीन ने अमेरिका के सुझाव पर अपने यहां रह रहे तिब्बतियों को पहचान पत्र देने से इनकार करके अपनी स्वायत्तता का भी परिचय दिया है. उसने इन तिब्बतियों का प्रत्यर्पण करने की चीन की मांग भी ठुकरा दी है.

दक्षिण एशियाई देशों के बीच ये एहसास बढ़ता जा रहा है कि बाक़ी बड़ी ताक़तों की तरह अमेरिका भी सुधार की मांग करने के साथ साथ इस क्षेत्र में अपना निवेश करता रहेगा. मिसाल के तौर पर बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख़ हसीना द्वारा संसद में अमेरिका विरोधी भाषण देने के बावजूद, अमेरिका के विदेश मंत्री ने बांग्लादेश के विदेश मंत्री से मुलाक़ात की. अमेरिका ने नेपाल के नए प्रधानमंत्री प्रचंड की तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ाया है. जबकि मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन के सौदे में प्रचंड की भूमिका संदिग्ध रही थी. श्रीलंका में भी जब आर्थिक संकट शुरु हुआ तो अमेरिका ने चीन समर्थक राजपक्षे परिवार से संपर्क साधा था. अमेरिका की ये गतिविधियां तब भी जारी रहीं, जब इन देशों में मानवाधिकार और लोकतंत्र के हालात जस के तस बने हुए हैं.

और, इस बढ़ती अहमियत का ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा उठाने के लिए दक्षिण एशियाई देश संतुलन बनाने की कोशिशों को अपने हित के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं. आज जब बड़ी ताक़तें दक्षिण एशियाई देशों को रिझाने में जुटी हैं और इन देशों के पास विकास के नए साझीदार हैं, तो वो अमेरिका विरोधी बयानबाज़ी का इस्तेमाल, अंदरूनी सुधार करने की अमेरिकी मांग का विरोध करने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं और इसके ज़रिए वो अपनी अहमियत और बढ़ते अख़्तियार का भी संकेत दे रहे हैं.

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