अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के हालिया फ़ैसलों ने किस तरह नस्लवाद को वहां के सांस्कृतिक युद्धों का सबसे बड़ा मोर्चा बना दिया है.
अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट (SCOTUS) ने हाल के दिनों में एक के बाद एक कई रूढ़िवादी फ़ैसले सुनाए हैं. इस वजह से रिपब्लिकन पार्टी और डेमोक्रेटिक पार्टी की राजनीतिक लड़ाई का केंद्र एक बार फिर नस्लवाद बन गया है. हाल ही में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने नस्ल पर आधारित भर्ती प्रक्रिया को रद्द कर दिया है. सर्वोच्च अदालत ने छात्रों के क़र्ज़ माफ़ करने के बाइडेन प्रशासन के फ़ैसले को भी पलट दिया है. यही नहीं, अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने LGBT समुदाय के अधिकारों के ख़िलाफ़ भी फ़ैसला सुनाया है और कहा कि जिस वेब डिज़ाइनर ने LGBT समुदाय के एक सदस्य के लिए काम करने से इनकार किया था, उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता ज़्यादा महत्वपूर्ण है. सुप्रीम कोर्ट के ये फ़ैसले अमेरिका में बड़े पैमाने पर जड़ें जमा चुके राजनीतिक अलगाव की ही नुमाइंदगी करते हैं. सुप्रीम कोर्ट के ऐसे फ़ैसलों के बाद ये धारणा बन रही है कि अपने पक्षपातपूर्ण रवैये के कारण वो ख़ुद लोकतंत्र के लिए ख़तरा बन गया है. लोगों के बीच मतदान के चलन, नस्ल और धर्म के साथ साथ व्यक्तिगत चुनावों ने जिस तरह अमेरिका के मौजूदा राजनीतिक माहौल को गढ़ा है, वहां सुप्रीम कोर्ट के हालिया फ़ैसले इस बात पर भी गहरा असर डाल सकते हैं.
सुप्रीम कोर्ट के ये फ़ैसले अमेरिका में बड़े पैमाने पर जड़ें जमा चुके राजनीतिक अलगाव की ही नुमाइंदगी करते हैं. सुप्रीम कोर्ट के ऐसे फ़ैसलों के बाद ये धारणा बन रही है कि अपने पक्षपातपूर्ण रवैये के कारण वो ख़ुद लोकतंत्र के लिए ख़तरा बन गया है.
अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के कम से कम दो ऐसे फ़ैसले रहे हैं, जिनके बारे में कहा जा रहा है कि उनसे अमेरिका में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बहुत बड़े बदलाव आएंगे. विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट द्वारा हारवर्ड यूनिवर्सिटी में नस्ल पर आधारित सकारात्मक क़दमों पर रोक लगाने ने कॉलेज कैंपसों में समानता और विविधता पर असर पड़ने को लेकर बहसों को दोबारा जन्म दे दिया है. 29 जून को अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में दाख़िलों के फ़ैसलों में नस्ल पर आधारित सकारात्मक क़दमों के कार्यक्रम के लिए नस्ल को आधार बनाने पर रोक लगा दी. सुप्रीम कोर्ट ने ये फ़ैसला चीफ जस्टिस जॉन रॉबर्ट्स की अगुवाई में 6-3 के बहुमत से फ़ैसला सुनाया. ये मुक़दमा स्टूडेंट्स फॉर फेयर एडमिशंस, इनकॉरपोरेशन बनाम यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ कैरोलाइना का था. इसके अलावा, अदालत ने स्टूडेंट्स फॉर फेयर एडमिशंस, इनकॉरपोरेशन बनाम प्रेसिडेंट ऐंड फेलोज़ ऑफ हारवर्ड कॉलेज के मामले में भी 6-2 से दाख़िलों में नस्ल को आधार बनाने के ख़िलाफ़ फ़ैसला दिया. सुप्रीम कोर्ट का तर्क था कि ये कार्यक्रम अमेरिकी संविधान के 14वें संशोधन के तहत दिए गए समान संरक्षण की धारा का उल्लंघन करते हैं. हारवर्ड और यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ कैरोलाइना के ख़िलाफ़ आए इन फ़ैसलों ने इन मामलों में एशियाई मूल के अमेरिकी नागरिकों की भूमिका को उजागर किया है. दोनों ही मुक़दमों में आरोप लगाए गए थे कि नस्ल को आधार बनाने की वजह से काबिल एशियाई अमेरिका अभ्यर्थियों पर अकादेमिक रूप से कम गुणवान छात्रों को तरज़ीह दी गई थी. हारवर्ड के ख़िलाफ़ दायर किए गए मुक़दमों से ये बात सामने आई थी कि एशियाई अमेरिकी छात्रों की निजी रेटिंग में गिरावट आई थी, जिसकी वजह से दाख़िले की प्रक्रिया में नस्लवादी घिसी-पिटी सोच की मौजूदगी को लेकर मुश्किल परिचर्चाएं शुरू हो गई थीं.
बहस किस बात की है?
हारवर्ड यूनिवर्सिटी में नस्ल पर आधारित सकारात्मक उपाय ख़त्म करने के सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले ने समानता, विविधता और शैक्षणिक अवसरों को लेकर, अमेरिका में एक बड़ी बहस छेड़ दी है. 1960 के दशक से नस्ल को ध्यान में रखकर बनाई गई दाख़िलों की नीतियों को शिक्षण संस्थानों में विविधता और समावेश को बढ़ावा देने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है. क्योंकि इन नीतियों से ये सुनिश्चित किया जाता है कि हाशिए पर पड़े समुदायों को उनकी नस्ल या जातीयता की वजह से और परेशानियां न झेलनी पड़ें. इसमें कोई दो राय नहीं कि अमेरिका में गहरी जड़ें जमाए बैठी भेदभाव वाली सोच के समाधान के लिए नस्ल पर आधारित सकारात्मक कार्यक्रम पर्याप्त नहीं हैं. लेकिन, ऐसे कार्यक्रम ख़त्म किए जाने से शिक्षा के क्षेत्र में नस्लवादी असमानता को और बढ़ावा मिलेगा, और इसके नतीजे पूरे देश के आर्थिक और सामाजिक मंज़र पर देखने को मिलेंगे.
सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का समर्थन करने वालों का तर्क है कि नस्ल पर आधारित सकारात्मक क़दम, भेदभाव को लगातार बढ़ावा देते हुए, क़ाबिलियत की राह में बाधा बन सकते हैं.
सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का समर्थन करने वालों का तर्क है कि नस्ल पर आधारित सकारात्मक क़दम, भेदभाव को लगातार बढ़ावा देते हुए, क़ाबिलियत की राह में बाधा बन सकते हैं. ऐसे लोगों का तर्क है कि सभी अभ्यर्थियों का मूल्यांकन उनकी पढ़ाई लिखाई, काबिलियत और उपलब्धियों के आधार पर होना चाहिए, न कि उनकी नस्ल या जाति के आधार पर. सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के समर्थक ये भी कहते हैं कि नस्ल पर आधारित सकारात्मक अभियानों पर रोक लगने से क़ानून के तहत सबसे बराबरी का बर्ताव किया जाएगा, इससे कॉलेज के दाख़िलों में निष्पक्षता आएगी. दोनों ही मामलों में हालांकि ये तर्क भी दिया जाता है कि चूंकि संविधान की समान संरक्षण की धारा में कहा गया है कि समान परिस्थितियों वाले नागरिकों से एक जैसा व्यवहार ही किया जाना चाहिए, ऐसे में नस्ल पर आधारित दाख़िलों की प्रक्रिया असंवैधानिक थी. जहां गर्भपात को लेकर रो बनाम वेड के ऐतिहासिक फ़ैसले में आम जनमत सुप्रीम कोर्ट के ख़िलाफ़ रहा था. वहीं, सर्वेक्षण बताते हैं कि ज़्यादातर अमेरिकी नागरिक दाख़िलों में नस्ल को आधार बनाने के ख़िलाफ़ हैं. 2020 में तो ‘उदारवादी कहे जाने वाले कैलिफोर्निया के नागरिकों ने भी जनमत संग्रह के ज़रिए सकारात्मक क़दम वाले अभियान को दोबारा लागू करने का विरोध किया था’. इन सकारात्मक अभियानों पर कैलिफोर्निया में 1996 के बाद से प्रतिबंध लगे हुए हैं. सकारात्मक क़दम का विरोध करने वालों का तर्क है इन कार्यक्रमों की वजह से शिक्षण संस्थानों में नुमाइंदगी में कोई ख़ास बढ़ोत्तरी नहीं हुई है और ये तो बस ‘सकारात्मक भेदभाव’ का एक स्वरूप हैं.
अमेरिका में एफर्मेटिव एक्शन की नीतियां हमेशा से ही एक विवादित मसला रही हैं. इनका मक़सद ऐतिहासिक असमानताओं से निपटना और उच्च शिक्षा में विविधता को बढ़ावा देना रहा है. हालांकि, अमेरिकी जनता के बीच इस मुद्दे पर आम राय नहीं है. जिस तरह सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर पूरा देश बंटा नज़र आया, उससे उनका राजनीतिक विभाजन ही ज़ाहिर होता है. अमेरिकी संसद में जहां रिपब्लिकन पार्टी ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का जश्न मनाया, वहीं डेमोक्रेटिक पार्टी ने इस पर निराशा जताई और इसे ‘नस्ल को लेकर अंधापन’ क़रार दिया. इस सियासी बंटवारे का शायद सबसे बड़ा उदाहरण तो ये था कि हाउस ऑफ़ रिप्रेज़ेंटेटिव्स में बहुमत वाले दल यानी रिपब्लिकन पार्टी के नेता केविन मैक्कार्थी ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का ये कहते हुए समर्थन किया कि, ‘अब छात्र समान मानकों और अपनी निजी काबिलियत के आधार पर मुक़ाबला कर सकेंगे. इससे कॉलेज में दाख़िले की प्रक्रिया अधिक निष्पक्ष हो सकेगी और क़ानून के तहत समानता के अधिकार का भी पालन होगा.’ वहीं, सीनेट में बहुमत वाले दल यानी डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता चक शूमर ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की आलोचना करते हुए कहा कि, ‘सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले ने देश के नस्लवादी न्याय की दिशा में बढ़ते सफ़र की राह में बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है.’
सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला और दोनों ही पक्षों की तरफ़ से आई जज़्बाती प्रतिक्रिया, नस्लवादी समानता को लेकर दोनों ही राजनीतिक दलों की सोच में और इसे ख़त्म करने को लेकर सरकार की भूमिका को लेकर स्पष्ट मतभेदों को उजागर करती है.
सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला और दोनों ही पक्षों की तरफ़ से आई जज़्बाती प्रतिक्रिया, नस्लवादी समानता को लेकर दोनों ही राजनीतिक दलों की सोच में और इसे ख़त्म करने को लेकर सरकार की भूमिका को लेकर स्पष्ट मतभेदों को उजागर करती है. हाल के दिनों में दोनों ही पार्टियों के बीच ये मतभेद खुलकर सामने आए हैं. दोनों दलों के बीच का ये टकराव, हाल के वर्षों में संसद में होने वाली बहसों पर भी हावी रहा है. ख़ास तौर से पुलिस के दुर्व्यवहार, मतदान के अधकारों, अप्रवासियों के नियमन और आपराधिक न्याय व्यवस्था में सुधार जैसे मामलों में. दोनों दलों के बीच गहरे मतभेदों का सबसे विवादित मसला शायद नस्ल ही है.
बहुत से लोगों को लगता है कि एक रूढ़िवादी सुप्रीम कोर्ट के हालिया फ़ैसलों ने इसे बाइडेन प्रशासन के ख़िलाफ़ खड़ा कर दिया है. नीचे के ग्राफ से ज़ाहिर होता है कि अमेरिका में नस्लवाद के इतिहास में जनता की बढ़ी हुई दिलचस्पी से इसको लेकर समाज के फ़ायदों को लेकर दोनों पक्षों की राय में बड़ा अंतर साफ़ तौर पर दिखता है.
Graph 1: उन लोगों का प्रतिशत जो ये सोचते हैं कि अमेरिका में दासता और नस्लवाद के इतिहास पर अधिक ध्यान केंद्रित करना समाज के लिए फ़ायदेमंद होगा
नस्लवाद दोबारा केंद्र में
नस्ल को ध्यान में रखते हुए दाख़िले करने पर रोक लगने का, अमेरिकी समाज के अन्य क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व पर भी गहरा असर पड़ने वाला है. ये बात 2024 के राष्ट्रपति चुनावों के लिहाज़ से भी काफ़ी महत्वपूर्ण है. क्योंकि, सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला रिपब्लिकन पार्टी की जीत और राष्ट्रपति बाइडेन और उनकी डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए झटके के रूप में देखा जा रहा है. क्योंकि, इनमें से कई मामले ऐसे थे जिनका बाइडेन निजी तौर पर समर्थन कर रहे थे. एक के बाद एक आए सुप्रीम कोर्ट के ये फ़ैसले, अन्य बातों के अलावा, उस नज़रिए में भी बदलाव ला सकत हैं, जिस नज़रिए से अमेरिका में नस्ल, अधिकारों और वित्तीय पहुंच को देश की उच्च शिक्षा के साथ जोड़कर देखा जाता रहा है. सबसे अहम बात ये है कि ये बंटवारे आगे चलकर सियासी ख़लल पैदा कर सकते हैं, जिनका असर अगले साल होने वाले चुनावों पर पड़ सकता है. अमेरिकी संसद में अश्वेत सांसदों का ब्लैक कॉकस, एफर्मेटिव एक्शन को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों की आलोचना के केंद्र में रहा है. ये सांसद अमेरिका के अश्वेत समुदाय के बीच मतदान के विकल्पों में नस्ल के मुद्दे को दोबारा ले आए हैं.
अमेरिका की राजनीति में एक बार फिर से नस्लवाद का मुद्दा हावी हो गया है और 2024 के आम चुनावों तक ऐसा ही रहने की संभावना है. इस मामले में रिपब्लिकन पार्टी की तरफ़ से चलाए गए अभियान की सबसे भयानक परिणति तो फ्लोरिडा में देखने को मिली, जहां राज्य के गवर्नर रॉन डेसांटिस, इस बात को ही बदलना चाहते थे कि स्कूलों में नस्लवाद को कैसे पढ़ाया जाता है. रॉन डेसांटिस का Stop W.O.K.E एक्ट राज्य प्रायोजित नस्लवाद के अहम सिद्धांत के ही ख़िलाफ़ था.
अमेरिका के सांस्कृतिक युद्धों के मोर्चे पर नस्लवाद की वापसी हुई है. 2024 के राष्ट्रीय चुनावों में दोनों ही दल इसका अधिकतम इस्तेमाल करने की कोशिश करेंगे. ये राजनीतिक विभाजन मोटे तौर पर अकादेमिक क्षेत्र, बड़ी तकनीकी कंपनियों, छात्रों और हॉलीवुड में दिखेगा, जिनके डेमोक्रेटिक पार्टी का समर्थन करने की संभावना अधिक है.
जब अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के प्राइमरी और फिर चुनाव होंगे, तो अमेरिका के व्यापक राजनीतिक परिदृश्य में एक नस्लवादी बंटवारा, मोटे तौर पर वहां की सियासत पर दो तरह से असर करेगा. पहला तो ये कि नस्ल को लेकर रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक के नज़रिए मुख्य रूप से उनके उम्मीदवारों पर टिके होंगे. मिसाल के तौर पर तेज़ी से लोकप्रियता हासिल करने के बाद, फ्लोरिडा के गवर्नर रॉन डेसांटिस, अपने नामांकन की रेस में पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप से काफ़ी पिछड़ गए हैं. जबकि रॉन डेसांटिस को फ्लोरिडा में अश्वेत विरोधी नीतियां लागू करने के कारण आलोचना का शिकार होना पड़ा है. हालांकि, हाल के दिनों में जब डेसांटिस ने गुलामी को वाजिब ठहराने की कोशिश की, तो उन्हें आलोचना का शिकार ज़्यादा होना पड़ा था.
अमेरिका के सांस्कृतिक युद्धों के मोर्चे पर नस्लवाद की वापसी हुई है. 2024 के राष्ट्रीय चुनावों में दोनों ही दल इसका अधिकतम इस्तेमाल करने की कोशिश करेंगे. ये राजनीतिक विभाजन मोटे तौर पर अकादेमिक क्षेत्र, बड़ी तकनीकी कंपनियों, छात्रों और हॉलीवुड में दिखेगा, जिनके डेमोक्रेटिक पार्टी का समर्थन करने की संभावना अधिक है. वहीं. रिपब्लिकन पार्टी, ईसाई धर्मगुरुओं, पूर्व सैनिकों और मेक अमेरिका ग्रेट अगेन (MAGA) समूह के समर्थन के भरोसे रहेगी. नस्ल पर आधारित दाख़िलों, छात्रों के क़र्ज़ माफ़ करने और महिलाओं और LGBT के अधिकारों को लेकर डेमोक्रेटिक पार्टी के सकारात्मक रुख़ को रिपब्लिकन पार्टी, उन समस्याओं की जड़ मानती है जिनका शिकार आज का अमेरिका है. ये चलन व्यापक चलन का ही हिस्सा हैं. जैसे कि पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप, 2024 के चुनावों में अपनी पार्टी के बाक़ी नेताओं से काफ़ी चल रहे हैं. इसके अलावा रिपब्लिकन पार्टी में विवेक रामास्वामी और रॉन डेसांटिस जैसे उम्मीदवार भी उभरे हैं.
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Vivek Mishra is Deputy Director – Strategic Studies Programme at the Observer Research Foundation.
His work focuses on US foreign policy, domestic politics in the US, ...