Author : Abhishek Mishra

Published on Nov 18, 2021 Updated 0 Hours ago

मौजूदा शासक से ज़ोर-ज़बरदस्ती सत्ता हथियाने, फ़ौज द्वारा ग़ैर-संवैधानिक रूप से हुकूमत पर काबिज़ हो जाने और अचानक तख़्तापलट की घटनाएं एक बार फिर से पूरे अफ़्रीकी महादेश से सामने आने लगी हैं

अफ़्रीका में तख़्तापलट की घटनाओं की दोबारा वापसी: आख़िर क्या हैं वजहें ?

पिछले कुछ वर्षों से अफ़्रीका में जबरन सत्ता हथियाने की कोशिशों और कामयाबी से तख़्तापलट किए जाने की घटनाओं में बढ़ोतरी देखी जा रही है. मौजूदा शासक से ज़ोर-ज़बरदस्ती सत्ता हथियाने, फ़ौज द्वारा ग़ैर-संवैधानिक रूप से हुकूमत पर काबिज़ हो जाने और अचानक तख़्तापलट की घटनाएं एक बार फिर से पूरे अफ़्रीकी महादेश से सामने आने लगी हैं. शासन व्यवस्था में अवैध और अक्सर हिंसक तरीक़े से जबरन बदलावों की इन घटनाओं से पिछले कुछ दशकों में अफ़्रीका में लोकतंत्र के प्रसार में मिली कामयाबियों के धूमिल पड़ जाने का ख़तरा मंडराने लगा है. बंदूक के ज़रिए आसानी से सत्ता हथियाने और संविधान को ठेंगा दिखाए जाने के उदाहरण आम हो गए हैं. इससे मौजूदा राजनीतिक संस्थाएं कमज़ोर पड़ने लगी हैं. राजनीतिक हिंसा को बढ़ावा मिल रहा है और अफ़्रीका में गृह युद्ध छिड़ने की आशंकाएं प्रबल हो गई हैं.

तख़्तापलट की सबसे ताज़ा वारदात गिनी और सूडान में हुई है. सितंबर 2021 में राष्ट्रपति अल्फ़ा कोंडे की अगुवाई वाली गिनी सरकार को भंग कर दिया गया. उसकी जगह गिनी के मौजूदा अंतरिम राष्ट्रपति ममाडी दोउमबोइया की अगुवाई में सैनिक सरकार काबिज़ हो गई

अफ़्रीका में जबरन तख़्तापलटों का ये सिलसिला नवंबर 2017 में ज़िम्बाब्वे से शुरू हुआ. उस वक़्त ज़िम्बाब्वे डिफ़ेंस फ़ोर्सेज़ (ZDF) के कुछ तत्वों ने तत्कालीन राष्ट्रपति रॉबर्ट मुगाबे को नज़रबंद कर उनपर महाभियोग चलाया. आख़िरकार उन्हें राष्ट्रपति के पद से हटा दिया गया. इतना ही नहीं उनसे ज़िम्बाब्वे अफ़्रीकन नेशनल यूनियन पैट्रियॉटिक फ़्रंट (ZANU-PF) के नेता का पद भी छीन लिया गया. इसके बाद माली में दो बार तख़्तापलट की कोशिशों को कामयाबी से अंजाम दिया गया. पहली घटना 2020 की और दूसरी मई 2021 की है. उपराष्ट्रपति कर्नल असीमी गोइता की अगुवाई में माली की फ़ौज ने अंतरिम राष्ट्रपति बाह एनडॉ और कार्यवाहक प्रधानमंत्री मोक्टार ओउने को बंदी बना लिया. इस सैन्य तख़्तापलट के चलते माली को पश्चिमी अफ़्रीकी राष्ट्रों के आर्थिक समुदाय (ECOWAS) से निलंबित कर दिया गया. इसके अलावा जून 2021 में माली को अफ़्रीकी संघ से भी सस्पेंड कर दिया गया. तख़्तापलट के इस वाक़ये के बाद फ्रांस ने माली की फ़ौज के साथ अपना साझा अभ्यास थोड़े समय के लिए रोक दिया था. हालांकि महीने भर बाद जुलाई 2021 में सैन्य अभ्यास को दोबारा चालू कर दिया गया. नाइजर में भी राष्ट्रपति पद पर चुने गए मोहम्मद बज़ूम के शपथ ग्रहण से सिर्फ़ दो दिन पहले जबरन सत्ता पलटने की नाकाम कोशिश हुई थी.

तख़्तापलट की सबसे ताज़ा वारदात गिनी और सूडान में हुई है. सितंबर 2021 में राष्ट्रपति अल्फ़ा कोंडे की अगुवाई वाली गिनी सरकार को भंग कर दिया गया. उसकी जगह गिनी के मौजूदा अंतरिम राष्ट्रपति ममाडी दोउमबोइया की अगुवाई में सैनिक सरकार काबिज़ हो गई. तख़्तापलट के पीछे की वजहें जानी पहचानी थीं: भ्रष्टाचार के आरोप, बुनियादी ढांचों के लिए संसाधनों से जुड़े विशाल सौदों का मुनाफ़े वाला सौदा साबित नहीं होना और राष्ट्रपति कोंडे की विवादित संवैधानिक रायशुमारी. दरअसल इस जनमत संग्रह के ज़रिए वो तीसरी बार राष्ट्रपति पद के लिए अपना दांव चलना चाह रहे थे.

तमाम देशों में तख़्तापलट की अगुवाई करने वाले नेता सरकारों को सत्ता से बेदख़ल करने के पीछे एक जैसी दलीलें दिया करते थे: भ्रष्टाचार, ग़रीबी, कुप्रबंधन, क़ानून का राज बहाल करना और एक बार फिर लोकतांत्रिक व्यवस्था क़ायम करने का वादा. 

अफ़्रीका में सत्ता में अचानक बदलाव का सबसे ताज़ा उदाहरण सूडान है. दरअसल वहां पिछले दो साल से असैनिक और फ़ौजी नेताओं की मिली-जुली हुकूमत चल रही थी. सत्ता के बंटवारे से जुड़ा ये समझौता बेहद नाज़ुक था. 25 अक्टूबर 2021 को अचानक इस व्यवस्था का अंत हो गया. जनरल अब्देल फ़तह अल-बुरहान की अगुवाई में सेना ने प्रधानमंत्री अब्दल्लाह हमदोक के नेतृत्व वाली नागरिक सरकार को भंग कर सत्ता की कमान अपने हाथों में कर ली. जनरल बुरहान की दलील है कि “गृह युद्ध” टालने के लिए ये तख़्तापलट ज़रूरी था. हालांकि अंतरराष्ट्रीय बिरादरी ने उनकी दलील ख़ारिज करते हुए इस पूरे घटनाक्रम की निंदा की है. विश्व बैंक ने सूडान को दी जाने वाली सहायता पर फ़िलहाल रोक लगा दी है. नागरिक सरकार की बहाली होने तक अफ़्रीकी संघ से सूडान की सदस्यता निलंबित कर दी गई है.

अफ़्रीका में तख़्तापलटों के दौर की वापसी क्यों हो रही है?

उपनिवेशवाद के ख़ात्मे के बाद के शुरुआती दशकों में अफ़्रीका में हर ओर जबरन सत्ता परिवर्तन की घटनाएं आम थीं. शासकों को अपदस्थ कर जबरन सत्ता पर काबिज़ होने के वाक़ये अक्सर देखने को मिलते थे. तमाम देशों में तख़्तापलट की अगुवाई करने वाले नेता सरकारों को सत्ता से बेदख़ल करने के पीछे एक जैसी दलीलें दिया करते थे: भ्रष्टाचार, ग़रीबी, कुप्रबंधन, क़ानून का राज बहाल करना और एक बार फिर लोकतांत्रिक व्यवस्था क़ायम करने का वादा. तख़्तापलट की कोशिशें अक्सर ‘कामयाब’ होती थीं. उनकी सफलता के पीछे उनको मिलने वाला जनसमर्थन था. ख़ासतौर से स्थानीय स्तर पर तख़्तापलट की इन कोशिशों को अपार समर्थन हासिल हुआ करता था. जबरन हुकूमत पर काबिज़ होने से जुड़ी कार्रवाइयों को जायज़ ठहराने के लिए स्थानीय स्तर पर फैले भ्रष्टाचार के इल्ज़ामों और ग़रीबी की दुहाई दी जाती थी. अफ़्रीकी जनता को ये दलीलें सही जान पड़ती थीं क्योंकि इनसे उनके देशों की ज़मीनी हक़ीक़तों की बिल्कुल सटीक नुमाइश होती थी. बहरहाल देश के क़ानून को धता बताते हुए जबरन सत्ता हथियाकर क़ानून का राज कायम करने का तर्क अपने-आप में विरोधाभासों से भरा है. ये एक हारी हुई बाज़ी खेलने जैसा है.

माना जाता है कि रूसी शह पर काम कर रहे गुटों की मालीलीबिया और मध्य अफ़्रीकी गणराज्य में हुए तख़्तापलटों में गहरी भूमिका रही है. वैसे इस सिलसिले में अमेरिकी पर भी ऊंगलियां उठती रही हैं. माली में तख़्तापलट की साज़िश रचने वालों के अमेरिका से प्रशिक्षण और मदद पाने से जुड़ी ख़बरें उभर कर आई हैं.

1990 और 2000 के दशकों में अफ़्रीका में लोकतंत्र की बयार बह रही थी. अफ़्रीकी देशों में बहुदलीय राजनीति की वापसी हुई थी. इन हालातों में नागरिक सरकार के लिए आशा की किरण नज़र आ रही थी. अफ़्रीकी संघ समेत तमाम दूसरे क्षेत्रीय संगठनों ने सरकारों को असंवैधानिक रूप से अपदस्थ किए जाने की कोशिशों को सिरे से ख़ारिज करने का वादा किया. इस संदर्भ में 2000 में लोम घोषणा पत्र को स्वीकार किया गया. साथ ही 2007 में लोकतंत्र, चुनाव और प्रशासन को लेकर अफ़्रीकी घोषणा पत्र को भी मंज़ूरी दी गई थी. इन तमाम एलानों के बावजूद अफ़्रीका में निष्पक्ष और पारदर्शी चुनावों, अभिव्यक्ति की आज़ादी और मानव अधिकारों से जुड़े लोकतांत्रिक सिद्धांतों का उचित रूप से पालन नहीं हो रहा है. इस सिलसिले में एक बड़ी चिंता का विषय वहां होने वाले चुनाव बन गए हैं. धीरे-धीरे अफ़्रीका की चुनावी प्रक्रिया बेहद विवादास्पद होती जा रही है. चुनावों में डर का माहौल बन रहा है. ऐफ़्रोबैरोमीटर के सर्वेक्षण में बेहद चिंताजनक बातें उभर कर सामने आई हैं. सर्वेक्षण से पता चला है कि अफ़्रीका में केवल कुछ मुट्ठी भर लोगों को ही इस बात पर भरोसा है कि चुनावों से जनता का प्रतिनिधित्व करने वाला और जवाबदेह नेतृत्व सामने आता है. हालांकि इसके बावजूद लोकतांत्रिक व्यवस्था में सुधार लाने के बहाने संवैधानिक व्यवस्था को तार-तार करने के इरादे से तख़्तापलट की क़वायदों को जायज़ नहीं ठहराया जा सकता. भ्रष्टाचार का मुक़ाबला करने से जुड़े तमाम शिगूफ़ों के बावजूद तख़्तापलट के ज़रिए कहीं भी कोई सामाजिक क्रांति नहीं लाई जा सकी है. दुनिया में “नेक तख़्तापलट” जैसी कोई चीज़ नहीं होती. अफ़्रीका में अब तक की तमाम मिसालें यही साबित करती हैं. वहां जबरन सत्ता पर काबिज़ होने वाला नेता भी अक्सर पिछले शासकों जैसा ही भ्रष्ट साबित हुआ है. आम नागरिकों के जीवन स्तर में सुधार लाने में वो भी नाकाम ही रहा है.

2010-2021 तक अफ़्रीका में हुए तख़्तापलटों पर एक नज़र

देश राजधानी क्षेत्र तख़्तापलट की तारीख़ हटाए गए नेता औपनिवेशिक ताक़त आधिकारिक भाषा
सूडान खारतूम पूर्व अफ़्रीका अक्टूबर 2021 अब्दल्लाह हमदोक ग्रेट ब्रिटेन अरबी-अंग्रेज़ी
गिनी कोनाक्री पश्चिम अफ़्रीका सितंबर 2021 अल्फ़ा कोंडे फ़्रांस फ़्रेंच
माली बमाको पश्चिम अफ़्रीका अगस्त 2020 इब्राहिम बउबकर केइता फ़्रांस फ्रेंच
सूडान खारतूम पूर्व अफ़्रीका अप्रैल 2019 उमर अल-बशीर ग्रेट ब्रिटेन अरबी-अंग्रेज़ी
ज़िम्बाब्वे हरारे दक्षिणी अफ़्रीका नवंबर 2017 रॉबर्ट मुगाबे ग्रेट ब्रिटेन अंग्रेज़ी + 15 भाषाएं
बुर्किना फ़ासो औगाडुगू पश्चिम अफ़्रीका सितंबर 2015 मिचेल कफ़ांडो फ़्रांस फ़्रेंच
बुर्किना फ़ासो औगाडुगू पश्चिम अफ़्रीका अक्टूबर 2014 ब्लेज़ कॉमपाओरे फ़्रांस फ़्रेंच
मिस्र काहिरा उत्तर-पूर्वी अफ़्रीका जुलाई 2013 मोहम्मद मुर्सी ग्रेट ब्रिटेन अरबी
मध्य अफ़्रीकी गणराज्य बांगुई मध्य अफ़्रीका मार्च 2013 फ़्रेंकोइस बोइज़िज़े फ़्रांस फ़्रेंच और सांघो
गिनी बिसाओ बिसाओ पश्चिम अफ़्रीका अप्रैल 2012 कार्लोस गोमेज़ जूनियर पुर्तगाल पुर्तगाली
माली बमाको पश्चिम अफ़्रीका मार्च 2012 अमादोउ तोउमानी तोउरे फ़्रांस फ़्रेंच
नाइजर नियामे पश्चिम अफ़्रीका फ़रवरी 2010 मामादोउ तांजा फ़्रांस फ़्रेंच

स्रोत: लेखक द्वारा Opsour से प्राप्त जानकारियों के आधार पर तैयार किया गया.

…तो आगे का रास्ता क्या है?

दरअसल अफ़्रीका में बार-बार तख़्तापलट की घटनाओं को तत्कालीन अंतरराष्ट्रीय प्रणाली और बदलती वैश्विक व्यवस्था की रोशनी में देखा जाना चाहिए. इस बात को समझना और स्वीकार करना ज़रूरी है. बात चाहे राष्ट्रीय या घरेलू स्तर की हो या वैश्विक मोर्चे की, अफ़्रीका में तख़्तापलटों की कोशिशों को भड़काने वाले ढांचे, उनके पीछे के प्रयोजन और परिस्थितियों में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है. एक तरफ़ देखें तो हम पाते हैं कि अफ़्रीकी देशों की राष्ट्रीय राजनीति में लोकतांत्रिक व्यवस्था की प्रगति संतोषजनक स्तर तक नहीं पहुंच सकी है. ऐसे में अपने यहां एकाधिकारवाद की वापसी को रोकने के लिए ये देश पूरी तरह से तैयार नहीं हो पाए हैं. अफ़्रीका में प्रशासन और लोकतंत्र को लेकर नागरिक संवादों का दौर पिछले दो दशकों से ही शुरू हुआ है. इन संवादों में ख़ासतौर से चुनावी प्रक्रिया की गुणवत्ता और वैधानिकता और नेताओं के प्रदर्शन और जवाबदेही पर ज़ोर दिया जाता रहा है. बहरहाल अफ़्रीका के क्षेत्रीय संगठनों ने व्यावहारिक रूप से लोकतंत्र को सिर्फ़ चुनाव करवाने और सरकारों के कार्यकाल का लिहाज़ रखने तक सीमित कर दिया है.

दूसरी ओर, अफ़्रीकी देशों में तख़्तापलट की कार्रवाइयों में विदेशी ताक़तों की भूमिका और उनका हाथ होने के संभावित सबूतों की अनदेखी नहीं की जा सकती. इस सिलसिले में रूस ख़ासतौर से बदनाम रहा है. माना जाता है कि रूसी शह पर काम कर रहे गुटों की माली, लीबिया और मध्य अफ़्रीकी गणराज्य में हुए तख़्तापलटों में गहरी भूमिका रही है. वैसे इस सिलसिले में अमेरिकी पर भी ऊंगलियां उठती रही हैं. माली में तख़्तापलट की साज़िश रचने वालों के अमेरिका से प्रशिक्षण और मदद पाने से जुड़ी ख़बरें उभर कर आई हैं. चाड के पूर्व राष्ट्रपति अल्फ़ा कोंडे की सरकार के पतन के बाद अमेरिकी सैनिकों द्वारा जश्न मनाने के वीडियो सबूत भी सामने आए. ज़ाहिर है कि इससे चाड में जबरन सत्ता परिवर्तन की कार्रवाई में अमेरिका की भूमिका को लेकर संदेह पैदा हुआ है.

अफ़्रीकी देशों की पहचान कर उनके साथ भागीदारी बनाने की ज़रूरत है ताकि हरेक पक्ष को दीर्घकालिक लाभ हासिल हो सके. इसके लिए उत्पादक और टिकाऊ माध्यम विकसित करना ज़रूरी है 

इन तमाम घटनाक्रमों के साथ-साथ मोटे तौर पर तीन रुझान देखने को मिल रहे हैं: (1) अफ़्रीका की धरती पर विदेशी ताक़तों की दिलचस्पी में उछाल (इसे अफ़्रीकी महादेश में संसाधनों और प्रभाव के लिए मची ‘नई होड़’ का नाम दिया गया है). (2) सब-सहारा अफ़्रीका में लोकतांत्रिक व्यवस्था, संस्थाओं और सिविल सोसाइटी में कमज़ोरी. और (3) नए और ख़ामोशी भरे तौर-तरीक़ों का उभार. इनके ज़रिए संविधान द्वारा तय राष्ट्रपति के कार्यकालों को मनमुताबिक छोटा कर चुनाव करवाए जाते हैं. बाद में धांधली करके या फ़र्जीवाड़े के ज़रिए जीत हासिल कर ली जाती है.

अफ़्रीका में तख़्तापलट की बढ़ती घटनाओं की रोकथाम के लिए अफ़्रीकी नेताओं और उनके विदेशी साथियों को अहम भूमिका निभानी होगी. अफ़्रीकी देशों को इस सिलसिले में ईमानदारी से काम करना होगा. मोहम्मद डान सुलेमान की दलील है कि अफ़्रीकी देशों को अपने यहां लोकतांत्रिक प्रणालियों की गुणवत्ता को सुधारना होगा और सही मायनों में उपनिवेशवादी मानसिकता से निजात पानी होगी. अफ़्रीकी क्षेत्रीय संगठनों को सिविल सोसाइटी के साथ प्रभावी रूप से जुड़ना होगा. भविष्य में तख़्तापलटों की कोशिशों को रोकने के लिए जवाबदेही, पारदर्शिता और नागरिक ज़िम्मेदारियों जैसे मुख्य सिद्धांतों के प्रति सिर्फ़ ज़ुबानी जमाख़र्च करना काफ़ी नहीं होगा. दूसरी ओर दुनिया की बड़ी ताक़तों को भी अफ़्रीका के साथ अपने जुड़ावों के पुराने तौर-तरीक़ों पर फिर से विचार कर उन्हें नया आकार देना होगा. अफ़्रीकी देशों की पहचान कर उनके साथ भागीदारी बनाने की ज़रूरत है ताकि हरेक पक्ष को दीर्घकालिक लाभ हासिल हो सके. इसके लिए उत्पादक और टिकाऊ माध्यम विकसित करना ज़रूरी है. केवल अल्पकालिक फ़ायदे हासिल करने के नज़रिए से अफ़्रीकी देशों के साथ रिश्ते बनाना नुकसानदेह साबित हो सकता है. अफ़्रीका अब बदल चुका है. वो अब अमीर देशों की प्रार्थना करने वाला किरदार नहीं रह गया है. और तो और कई अफ़्रीकी देश विदेशों के साथ जुड़ावों में अपनी धमक दिखाने में बड़े कारगर भी रहे हैं.

अब ज़रूरी हो गया है कि अफ़्रीकी संघ और अफ़्रीकी क्षेत्रीय आर्थिक समुदाय (RECs) अपनी ताक़त का सक्रियता से इस्तेमाल करें. उन्हें “असंवैधानिक रूप से सत्ता हथियाने” की घटनाओं के सिलसिले में प्रतिक्रिया के तौर पर पाबंदियां लगाने की बजाए उनकी रोकथाम से जुड़े उपायों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता है और अफ़्रीकी देशों के सैनिक नेता इसी तरह बेरोकटोक सत्ता हथियाते रहते हैं तो वहां तख़्तापलटों का दुष्चक्र चालू हो सकता है.

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