Published on Jul 09, 2021 Updated 0 Hours ago

कार्बन के मूल्य निर्धारण के लिए एक स्पष्ट, मज़बूत नियामक ढांचा भारत में व्यवसायों द्वारा कार्बन मूल्य-निर्धारण को अपनाने और इस अवधारणा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है.

कार्बन की कीमत तय करने की प्रक्रिया: अलग-अलग तीक्ष्णता के बीच भीड़, और भारत के लिए मौजूद अवसर

भारत ने पिछले एक दशक में जलवायु परिवर्तन और इस क्षेत्र में सुधार को ले कर उल्लेखनीय रूप से बेहतर प्रदर्शन किया है. साल 2005 से 2014 तक, देश में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन यानी जीएचजी-उत्सर्जन की तीव्रता में 21 प्रतिशत की गिरावट आई है.[1] क्लाइमेट ट्रांसपेरेंसी संस्था के मुताबिक, पेरिस समझौते के तहत तय किए गए लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में भारत एक मात्र जी-20 राष्ट्र है, जो आगे बढ़ रहा है.[2] जलवायु क्षेत्र में भारत की सफ़लता के पीछे प्रमुख कारणों में से एक हालांकि दुर्भाग्यपूर्ण है- भारत के निर्माण क्षेत्र का ख़राब प्रदर्शन. चूंकि उद्योग अर्थव्यवस्था के कुल जीएचजी-उत्सर्जन का लगभग एक-चौथाई हिस्सा बनाते हैं.[3] इस क्षेत्र में आई सुस्ती के कारण औद्योगिक क्षेत्र में बिजली की मांग और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) पर निर्भर उत्सर्जन में मामूली वृद्धि हुई है.[4]

मौजूदा सरकार ने देश के विनिर्माण क्षेत्र के लिए कई तरह के मज़बूत विकास लक्ष्य निर्धारित किए हैं, जिस में सकल घरेलू उत्पाद में इस के योगदान को मौजूदा 16 प्रतिशत से बढ़ा कर साल 2025 तक 25 प्रतिशत करना शामिल है. हालांकि, अनुभव बताता है कि विनिर्माण क्षेत्र में वृद्धि का जलवायु क्षेत्र में भारत के प्रदर्शन पर असर होने की संभावना है यानी इन दोनों घटकों का आपस में सीधा संघर्ष है. उदाहरण के लिए, चीन में, विनिर्माण क्षेत्र देश व उसकी अर्थव्यवस्था के लिए विकास का इंजन है और इस ने पिछले दो दशकों में अभूतपूर्व रूप से आर्थिक विकास को संचालित किया है. हालांकि, यह क्षेत्र राष्ट्रीय ऊर्जा खपत का 68 प्रतिशत, राष्ट्रीय कार्बन (CO2) उत्सर्जन का 84 प्रतिशत और वैश्विक उत्सर्जन का 24.1 प्रतिशत हिस्सा है. इस मायने में भारत के लिए सब से बड़ी चुनौती है कार्बन उत्सर्जन को लगातार कम रखते हुए औद्योगिक विकास को हासिल करना.

मौजूदा सरकार ने देश के विनिर्माण क्षेत्र के लिए कई तरह के मज़बूत विकास लक्ष्य निर्धारित किए हैं, जिस में सकल घरेलू उत्पाद में इस के योगदान को मौजूदा 16 प्रतिशत से बढ़ा कर साल 2025 तक 25 प्रतिशत करना शामिल है. हालांकि, अनुभव बताता है कि विनिर्माण क्षेत्र में वृद्धि का जलवायु क्षेत्र में भारत के प्रदर्शन पर असर होने की संभावना है 

इस ग़लत व एक तरह के बेमानी लेन-देन या समझौते को समझने और इस के बीच से कोई रास्ता निकालने के लिए यह ज़रूरी है कि उन प्रमुख कारकों की पहचान की जाए जो भारतीय उद्योग को सतत विकास से जुड़े हरित यानी प्रकृति के लिए बेहतर तौर-तरीक़ों को अपनाने की दिशा में अग्रसर कर सकते हैं. इनमें से कुछ कारकों- नवीकरणीय ऊर्जा, प्रौद्योगिकी, ऊर्जा सुरक्षा और बाज़ार निर्माण को इस अध्याय के आगे के हिस्सों में विस्तार से समझने की कोशिश की गई है. यह अध्याय कार्बन मूल्य निर्धारण यानी कार्बन प्राइसिंग (carbon pricing) को एक औज़ार या उपकरण के रूप में परखने की कोशिश करता है जो कार्बन कटौती के लक्ष्यों को अधिकाधिक स्तर पर प्राप्त करने का लक्ष्य रखता है और भारत के विकास लक्ष्यों में जलवायु संबंधी लक्ष्यों और गणनाओं को प्रभावी ढंग से एकीकृत कर सकता है. इसके चार खंड यानी सेक्शन हैं: पहले खंड में कार्बन मूल्य निर्धारण यानी कार्बन प्राइसिंग के पीछे के तर्क की जांच की गई है और यह वैश्विक व अलग-अलग देशों के परिदृश्य का अवलोकन करता है, दूसरा खंड कार्बन मूल्य निर्धारण के लिए प्रमुख चुनौतियों की पड़ताल करता है. तीसरा खंड भारत में कार्बन के मूल्य निर्धारण के लिए संभावित नीतिगत मार्गों पर चर्चा करता है, और खंड चार इस अध्याय का समापन करता है और आगे के लिए एक ऐसे मार्ग की रूपरेखा तैयार करता है जिस पर अमल कर इस रूपरेखा को साकार किया जा सके.

कार्बन मूल्य निर्धारण: इस अवधारणा के तर्क व आधार

जलवायु से जुड़े लक्ष्यों की पहेली को अक्सर बाज़ार की विफलता की समस्या के रूप में समझा और पेश किया जाता है. इसके पीछे का तर्क सरल भाव में बेहद आकर्षक है, यानी- जलवायु परिवर्तन मुख्य रूप से उद्योगों (और घरों) से होने वाले कार्बन उत्सर्जन और उद्योगों के बेरोक-टोक प्रवाह की वजह से हो रहा है. यह उत्सर्जन पर्यावरण और अर्थव्यवस्था के लिए एक नकारात्मक हक़ीकत हैं, क्योंकि उनकी वास्तविक सामाजिक लागत गहन रूप से कार्बन उत्सर्जन करने वाली वस्तुओं और सेवाओं के बाज़ार मूल्य से परिलक्षित नहीं होती है. इस तरह, एक ऐसे मूल्य की स्थापना करना जो इस उत्सर्जन की वास्तविक लागत को साध सके, इस बाज़ार की विफलता को दूर करने के लिए, एक सहज समाधान की तरह सामने आता है. इस मायने में इस प्रस्ताव को बहुपक्षीय संगठनों (आईएमएफ और विश्व बैंक), उद्योग जगत के दिग्गजों (लैरी फिंक और आनंद महिंद्रा) और धार्मिक नेताओं (पोप फ्रांसिस) से व्यापक समर्थन भी मिला है.

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आईएमएफ (IMF) के अनुसार, कार्बन उत्सर्जन के चलते होने वाली ग्लोबल वार्मिंग को दो डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य के स्तर पर रखने के लिए दुनिया को साल 2030 तक 75 अमेरिकी डॉलर प्रति टन के वैश्विक कर की आवश्यकता है.[5] नोबेल पुरस्कार विजेता जोसेफ़ स्टिग्लिट्ज़ और लॉर्ड निकोलस स्टर्न के नेतृत्व में कार्बन कीमतों पर उच्च-स्तरीय आयोग के अनुसार, ‘विकास’ को बढ़ावा देते हुए दुनिया के जलवायु लक्ष्यों को सबसे प्रभावी रूप से पूरा करने के लिए अलग अलग देशों को कार्बन मूल्य निर्धारित करने की मज़बूत प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है. इसके लिए ज़रूरी है कि हर देश अपने स्तर पर साल 2020 तक 40 से 80 अमेरिकी डॉलर प्रति टन और साल 2030 तक 50 से 100 अमेरिकी डॉलर प्रति टन के लक्ष्य तक पहुंचने में सफलता करे.[6] इसे दो तरीक़ों में से एक का उपयोग कर के पूरा किया जा सकता है: पहला है, कैप-एंड-ट्रेड सिस्टम (cap-and-trade system) या कार्बन टैक्स चार्ज (carbon tax charge). इस विधि में कुल उत्सर्जन पर एक कैप यानी रोक लगाई जाती है जो नियंत्रण का एक तरीक़ा है. इसके तहत उद्योगों से उत्सर्जित होने वाले कार्बन पर कैप लगाई जा सकती है और कम उत्सर्जन वाले उद्योगों को अतिरिक्त भत्ते जिसे कार्बन क्रेडिट के रूप में समझा जा सकता है, को बड़े उद्योगों या उत्सर्जकों को बेचने की छूट दी जाती है, जिससे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए एक बाज़ार तैयार होता है. यूरोपीय संघ की उत्सर्जन व्यापार प्रणाली (European Union’s Emissions Trading System) यानी ईटीएस (ETS) कैप-एंड-ट्रेड सिस्टम का सबसे व्यापक रूप से जाना पहचाना उदाहरण है. दूसरे तरीक़े में, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर या सामान्य रूप से कहें तो- जीवाश्म ईंधन की कार्बन सामग्री पर कर यानी टैक्स की दर परिभाषित की जाती है. इसका एक प्रमुख उदाहरण स्वीडन है, जहां फिलहाल दुनिया में सबसे अधिक कार्बन प्राइस या कार्बन मूल्य तय किया गया है जो 139 अमेरिकी डॉलर है.[7]

कार्बन उत्सर्जन से जुड़े बाहरी कारकों को आंतरिक रूपरेखा का हिस्सा बनाकर, कार्बन मूल्य निर्धारण की लागत को प्रभावी रूप से कम कर सकता है, बेहतर और प्रभावी इनोवेशन को बढ़ावा दे सकता है व उसे प्रोत्साहित कर सकता है, और सरकारी राजस्व में बढ़ोत्तरी कर राजकोषीय समस्याओं को दूर कर सकता है.[8] स्वीडन जैसे देश कार्बन मूल्य निर्धारण और आर्थिक विकास के बीच बेहतर और प्रभावी तालमेल बैठाने में सफल हुए हैं: स्वीडन की अर्थव्यवस्था में साल 1991 में स्वीडिश कार्बन टैक्स की शुरुआत के बाद से अब तक 60 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि इसके कार्बन उत्सर्जन में 25 प्रतिशत की कमी आई है.[9]

मौजूदा वैश्विक ढांचा

जहां एक ओर कार्बन मूल्य निर्धारण से जुड़ा स्वीडन का अनुभव एक बेहतर विकल्प प्रदान करने की संभावना पैदा करता है, वहीं यह प्रवृत्ति अन्य भौगोलिक क्षेत्रों में नहीं देखी गई है. लगभग तीन दशकों के नीतिगत प्रयासों के बाद, अंतरराष्ट्रीय जलवायु चर्चाओं में कार्बन मूल्य निर्धारण एक फुटनोट भर की महत्ता हासिल कर पाया है. यथार्थवादी रूप से कार्बन उत्सर्जन मूल्य निर्धारण के प्रस्तावों ने अब तक दुनिया भर में बहुत कम प्रगति की है.

स्पष्ट रूप से सरल होने के बावजूद, कार्बन-मूल्य निर्धारण यानी कार्बन प्राइसिंग को आमतौर पर बेहद हल्के साक्ष्यों के ज़रिए समर्थित किया जाता है.[10] दुनिया भर में कार्बन मूल्य निर्धारण क्रिर्यान्वित करने या क्रिर्यान्वयन के लिए निर्धारित किए जाने से जुड़ी 64 पहल की गई हैं. इनमें से 34 स्पष्ट कार्बन टैक्स के रूप में, 31 ईटीएस यानी यूरोपीय संघ की उत्सर्जन व्यापार प्रणाली के अंतर्गत की गई हैं जिन्हें 46 राष्ट्रीय अधिकार क्षेत्रों में और 35 उप-राष्ट्रीय अधिकार क्षेत्रों में शुरु किया गया है. साल 2020 में, इन पहलों ने 12 जीटीसीओटूई (GtCO2e) यानी गीगा टन कार्बन डाइऑक्साइड को कवर किया, जो वैश्विक स्तर पर होने वाले ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन जीएजी (GHG) का सिर्फ 22.3 प्रतिशत प्रतिनिधित्व करता है.[11] इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि वर्तमान में वैश्विक उत्सर्जन का एक प्रतिशत से भी कम कार्बन मूल्य यानी कार्बन प्राइसिंग के अधीन है, जो कार्बन की सामाजिक लागत के निम्नतम अनुमान के बराबर है (चित्र 2 देखें).[12] अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा 75 अमेरिकी डॉलर प्रति टन के अनुमानित वैश्विक कर के विपरीत, वैश्विक स्तर पर कार्बन की वर्तमान औसत कीमत 2 अमेरिकी डॉलर प्रति टन है.

भारत में कार्बन प्राइसिंग

भारत में स्पष्ट रूप से कार्बन मूल्य या कैप-एंड-ट्रेड जैसे बाज़ार-आधारित तंत्र मौजूद नहीं है. हालांकि, भारत में कई तरह की ऐसी योजनाएं और तंत्र हैं, जो कार्बन पर एक निहित मूल्य लगाने से संबंधित हैं.

प्रदर्शन, उपलब्धि और व्यापार (पीएटी) योजना: पीएटी योजना ऊर्जा सघन उद्योगों में विशिष्ट ऊर्जा की खपत को कम करने का एक विनियामक साधन है. इस योजना के तहत, उच्च उत्सर्जन वाले औद्योगिक क्षेत्रों की उन इकाइयों को ऊर्जा की कमी से जुड़े विशिष्ट लक्ष्य सौंपे जाते हैं, जो ऊर्जा की अधिकाधिक खपत कर रही हैं. इन इकाइयों के लिए आवश्यक होता है कि ऊर्जा कुशल प्रौद्योगिकियों को लागू करके इन लक्ष्यों को पूरा करें. जो इकाइयां लक्ष्य से अधिक बचत करती हैं उन्हें एनर्जी सेविंग सर्टिफिकेट (ESCerts) से सम्मानित किया जाता है. ऐसा हर एक सर्टिफिकेट एक मीट्रिक टन तेल यानी एमटीओई (MTOe) के बराबर होता है. दूसरी ओर, जो अपने निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करने में असमर्थ हैं, उन्हें इंडियन एनर्जी एक्सचेंज (आईईएक्स) द्वारा नियंत्रित किए जाने वाले केंद्रीकृत ऑनलाइन ट्रेडिंग तंत्र के माध्यम से एनर्जी सेविंग सर्टिफिकेट खरीदने होते हैं. यह सर्टिफिकेट उन्हें उतनी यूनिट के हिसाब से खरीदने होते हैं जितने से वो अपने लक्ष्य से अधिक हों. पीएटी योजना के पहले दो चक्रों की उपलब्धियां तालिका-1 में दी गई हैं.

लगातार चक्रीय ढांचे में सालाना तौर पर लागू किया जा रहा है. सबसे हालिया चक्र, पीएटी चक्र-6 (PAT Cycle-VI) एक अप्रैल 2020 को शुरू हुआ. पहले दो पीएटी चक्रों में अधिकतर लक्ष्यों के पूरे होने यहां तक की लक्ष्य से अधिक उपलब्धि ने यह सवाल उठाया है, कि क्या यह लक्ष्य पर्याप्त रूप से महत्वाकांक्षी थे. पीएटी योजनाओं की दक्षता पर अनुसंधान यानी रीसर्च[13],[14] से पता चलता है कि ऊर्जा की अधिक कीमतों ने पीएटी की अनुपस्थिति के परिदृश्य में भी ऊर्जा बचत को प्रोत्साहित किया होगा, जिस के चलते यथार्थवादी व अतिरिक्त लक्ष्य निर्धारित करने की आवश्यकता पर सवाल उठते हैं जो ऊर्जा की बढ़ती लागत के लिए ज़िम्मेदार हैं.

कोयला उपकर यानी सेस: साल 2010 में, भारत सरकार ने वित्त अधिनियम, 2010 की दसवीं अनुसूची में सूचीबद्ध वस्तुओं पर उत्पाद शुल्क के रूप में कोयले पर एक कर लगाया. ये वस्तुएं कोयला, लिग्नाइट और पीट हैं. उपकर यानी सेस (cess) 50 रुपये प्रति टन की दर से लागू किया गया था, और बाद में साल 2014 में यह 100 रुपये, 2015 में 200 रुपये और 2016 में 400 रुपये हो गया. सेस के माध्यम से एकत्र किए जाने वाले राजस्व को राष्ट्रीय स्वच्छ ऊर्जा कोष यानी एनसीईएफ (National Clean Energy Fund) में स्थानांतरित कर दिया गया था, जो इस क्षेत्र में स्वच्छ-ऊर्जा पहल और अनुसंधान को वित्तपोषित करने की एक कोशिश थी. यह ढांचा, सैद्धांतिक रूप से आशाजनक होते हुए भी वांछित परिणाम पाने में विफल रहा और इस के कई कारण हैं. सबसे पहले, कोयला सेस के माध्यम से एकत्रित राजस्व का एक महत्वपूर्ण हिस्सा इस्तेमाल में लाया ही नहीं गया. साल 2010-2011 से 2017-2018 तक, कोयला सेस की संग्रह राशि लगभग 86,440.21 करोड़ रुपये है. इसमें से केवल 29,654.29 करोड़ रुपये ही राष्ट्रीय स्वच्छ ऊर्जा कोष को दिए गए हैं और इस में से मात्र 15,911 करोड़ रुपये का उपयोग किया गया है.[15] दूसरा, साल 2017 में, कोयला सेस को समाप्त कर दिया गया और इस के बजाय जीएसटी मुआवज़ा सेस लाया गया. इस कर से प्राप्त आय का उपयोग राज्यों को नई अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था में स्थानांतरित होने के मद्देनजर राजस्व नुकसान की भरपाई के लिए किया जाता है.

अक्षय ऊर्जा प्रमाणपत्र की उपलब्धता के बावजूद, आरपीओ लक्ष्यों को लागू करने का काम कमज़ोर स्तर पर ही रहा है. विद्युत मंत्रालय के माध्यम से जुटाए गए आंकड़ों के मुताबिक, अधिकांश राज्यों में आरपीओ अनुपालन कम है. केवल चार राज्य ही ऐसे हैं जहां वित्त वर्ष 2019-20 में अपने नवीकरणीय खरीद दायित्वों (आरपीओ) को पूरा करने और उससे अधिक का प्रबंधन किया जा सका है.[16]

अक्षय खरीद दायित्व (आरपीओ) और अक्षय ऊर्जा प्रमाणपत्र (आरईसी): भारत के बढ़ते अक्षय ऊर्जा (renewable energy) क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए, सभी बिजली वितरण लाइसेंसधारियों को अक्षय ऊर्जा स्रोतों से अपनी आवश्यकताओं की न्यूनतम निर्दिष्ट मात्रा में खरीद या उत्पादन करना आवश्यक है. प्रत्येक राज्य के लिए आरपीओ संबंधित राज्य विद्युत नियामक आयोग द्वारा निर्धारित और विनियमित किया जाता है. अक्षय ऊर्जा प्रमाण पत्र (आरईसी) बाज़ार आधारित उपकरण या टूल हैं, जिन्हें बाध्य संस्थाओं के लिए आरपीओ की पूर्ति को सुविधाजनक बनाने के लिए शामिल किया गया है. इन प्रमाणपत्रों का कारोबार पावर एक्सचेंजों में किया जाता है. अक्षय ऊर्जा प्रमाणपत्र यानी आरईसी बिजली के घटकों को अक्षय स्रोतों से पैदा होने वाली बिजली की पर्यावरणीय विशेषताओं से अलग करता है, और दोनों घटकों को अलग-अलग व्यापार करने में सक्षम बनाता है. चूंकि व्यापार योग्य प्रमाण पत्र कमोडिटी बिजली की भौगोलिक सीमाओं से नियंत्रित या बाधित नहीं हैं इसलिए अक्षय ऊर्जा प्रमाणपत्र, अक्षय खरीद दायित्व यानी आरपीओ राज्य सीमा से अधिक नवीकरणीय ऊर्जा के उत्पादन को प्रोत्साहित करने में मदद करते हैं. आरपीओ लक्ष्यों का प्रवर्तन, आरईसी की उपलब्धता के बावजूद कमज़ोर रहा है. विद्युत मंत्रालय द्वारा जुटाए गए आंकड़ों के अनुसार, अधिकांश राज्यों में आरपीओ का अनुपालन बेहद कम है. केवल चार राज्य ही वित्त वर्ष 2019-20 में अपने अक्षय खरीद दायित्वों (आरपीओ) को पूरा कर रहे हैं और उस से अधिक का प्रबंधन कर रहे हैं.

आंतरिक कार्बन मूल्य निर्धारण (आईसीपी): पिछले कुछ सालों में, निजी क्षेत्र के माध्यम से कार्बन मूल्य निर्धारण के लिए उल्लेखनीय रूप से समर्थन दिया गया है. साल 2019 तक, दुनिया भर में 1,600 से ज़्यादा कंपनियां अपनी व्यावसायिक रणनीतियों में एक आंतरिक कार्बन मूल्य को जोड़ने की कोशिश में जुटी हैं या फिर वह अगले दो सालों में ऐसा करने की योजना बना रही हैं. यह साल 2015 में इस तरह की कोशिशों में जुटी 1,000 कंपनियों की संख्या से अधिक है.[17],[18] भारत में भी, जैसा कि नीचे दिए गए चित्र में दिखाया गया है, आईसीपी यानी कार्बन मूल्य निर्धारण को अपनाने के लिए समर्थन और उत्साह में बढ़ोत्तरी हुई है.

कार्बन मूल्य निर्धारण (आईसीपी) एक लोकप्रिय टूल के रूप में उभर रहा है, जिसे कंपनियां उत्सर्जन को कम करने के लिए स्वेच्छा से लागू व इस्तेमाल कर सकती हैं, ताकि नई, स्वच्छ व ऊर्जा दक्ष प्रौद्योगिकियों की दिशा में निवेश हो, प्रतिस्पर्धा में बढ़ोत्तरी हो और सतत विकास की दिशा में कॉर्पोरेट विकास के लक्ष्य को साधा जा सके. इसके अलावा, यह कंपनियों को अपने जलवायु-जोख़िम प्रबंधन और उस से जुड़े निवेशकों के सवालों के जवाबों को टटोलने का अवसर भी देता है. टास्क फोर्स ऑन क्लाइमेट-रिलेटेड फाइनेंशियल डिस्क्लोजर (The Task Force on Climate-related Financial Disclosures) यानी टीसीएफडी ने कार्बन मूल्य निर्धारण (आईसीपी) को अपनी रणनीति और जोख़िम-प्रबंधन प्रक्रिया के अनुरूप जलवायु से संबंधित जोख़िमों और अवसरों का आकलन करने के लिए एक प्रमुख मानक यानी मेट्रिक के रूप में सूचीबद्ध किया है, इस तरह से इसे उन कंपनियों के लिए एक महत्वपूर्ण विकल्प के रूप में जगह दी गई है, जो चाहती हैं कि टीसीएफडी की सिफ़ारिशों के साथ वह खुद को संरेखित करें यानी अपना तालमेल बैठाएं. ऐसी कुछ प्रमुख भारतीय कंपनियां जिन्होंने आंतरिक कार्बन मूल्य को अपनाया है, उन्हें तालिका-2 में सूचीबद्ध किया गया है.

कार्बन मूल्य निर्धारण (आईसीपी) करने वाली भारतीय कंपनियों की संख्या में लगातार इज़ाफ़ा कॉर्पोरेट भारत में कम कार्बन भविष्य की ओर प्रगति को दर्शाता है. कंपनियों को इस गति को बनाए रखने और डी-कार्बोनाइजेशन के इस मार्ग पर चलते हुए अपने लक्ष्यों को बढ़ाने के लिए, मज़बूत नीतिगत ढांचे की ज़रूरत है. कार्बन के मूल्य निर्धारण के लिए एक स्पष्ट, मज़बूत नियामक ढांचा भारत में व्यवसायों द्वारा कार्बन मूल्य निर्धारण को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. चीन, मेक्सिको और दक्षिण अफ्रीका जैसे देश इस मायने में अपने नीतिगत ढांचे के ज़रिए बेहतरीन मिसालें पेश करते रहे हैं. उदाहरण के लिए, साल 2017 में दुनिया की सबसे बड़ी उत्सर्जन व्यापार योजना शुरू करने की चीन की योजना के चलते चीनी कंपनियों में कार्बन मूल्य निर्धारण (आईसीपी) को अपनाने की गति दोगुनी हो गई.[19] औद्योगिक क्षेत्र के लिए भारत की मौजूदा डी-कार्बोनाइजेशन योजना, ऊपर बताई गई पहलों और रणनीतियों से प्रेरित है. अलग-अलग स्तर पर किए जा रहे एकल उपायों में प्रवर्तन और दक्षता में सुधार करना शामिल है जो बेहद महत्वपूर्ण है. लेकिन इस सब के बीच वैश्विक कार्बन बाज़ारों के साथ जुड़ने की क्षमता का पता लगाना एक महत्वपूर्ण चुनौती भी है.

कार्बन मूल्य निर्धारण में चुनौतियां 

यह सेक्शन कार्बन के मूल्य निर्धारण की प्रमुख चुनौतियों की पड़ताल करता है. पहले तीन कारण मोटे तौर पर घरेलू प्रकृति के हैं, जबकि चौथा कारण वैश्विक रूप से प्रभाव रखता है.

कार्बन मूल्य निर्धारण की राजनीतिक अर्थव्यवस्था दुनिया भर में इसके सफल क्रिर्यान्वयन के लिए सबसे बड़ी रुकावट है. अकादमिक तर्क जो बाज़ार की विफलताओं को दूर करने के लिए कर यानी टैक्स को एक उपकरण के रूप में पेश करता है, भले ही सिद्धांत के रूप में मज़बूत हो, लेकिन इस तरह के हस्तक्षेप की राजनीतिक वास्तविकता बेहद असंगत है. जैसा कि किसी भी प्रमुख नीति के मामले में होता है, जो किसी यथास्थिति को बदलने का प्रयास करती है, कम कार्बन वाली अर्थव्यवस्था में बदलाव को उत्प्रेरित करने यानी इस व्यवस्था में बदलने के प्रयास, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर फ़ायदा पाने वालों और नुकसान उठाने वालों की फेहरिस्त तैयार करेंगे[20] कार्बन मूल्य निर्धारण के साथ सबसे बड़ी व केंद्रीय चुनौती, इसके बिखरे व बंटे हुए लाभ और केंद्रित लागत है. यही वजह है कि इस तरह की नीतियों के बिखरे हुए लाभार्थी राजनीतिक प्रक्रिया में इसका समर्थन करें, इसकी संभावना कम है.[21] दूसरी ओर, कार्बन-सघन कंपनियां (और समुदाय) कार्बन मूल्य का ज़ोरदार विरोध करेंगी, जैसे कि तेल उत्पादक और रिफाइनर, कार्बन-सघन फ्लीट पर काम करने वाली बड़ी विद्युत इकाइयां, बड़े निर्माता जिनका काम-काज आज भी ऊर्जा-गहन है और ऐसे कई दूसरे घटक जिनके लाभ इस पर केंद्रित हैं.

कार्बन मूल्य निर्धारण की राजनीतिक अर्थव्यवस्था दुनिया भर में इसके सफल क्रिर्यान्वयन के लिए सबसे बड़ी रुकावट है. अकादमिक तर्क जो बाज़ार की विफलताओं को दूर करने के लिए कर यानी टैक्स को एक उपकरण के रूप में पेश करता है, भले ही सिद्धांत के रूप में मज़बूत हो, लेकिन इस तरह के हस्तक्षेप की राजनीतिक वास्तविकता बेहद असंगत है. 

परिवारों (और फर्मों) के पास नए करों यानी टैक्स भोगने की क्षमता कम है क्योंकि यह उनकी आय और लाभ को कम करते हैं. कार्बन करों के प्रति जनता की नाराज़गी किस हद तक हो सकती है इसे लेकर कई तरह के सबूत मौजूद हैं और इन का दस्तावेज़ी करण किया गया है. इसे लेकर हुए कुछ उल्लेखनीय प्रदर्शनों में ईंधन की कीमतों में वृद्धि के खिलाफ़ फ्रांस में “गिलेट्स जौन्स”[22] प्रदर्शन शामिल है; अमेरिकी राज्यों में कार्बन करों पर हुआ असफल मतदान, और मेक्सिको, इराक़, इक्वाडोर, ब्राज़ील और चिली जैसे देशों में सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन भी इस के गवाह हैं. भारत में भी, ईंधन की कीमतों में बढ़ोत्तरी के ख़िलाफ़ कई विरोध प्रदर्शन हुए हैं- उदाहरण के लिए, जून 2020 में देश भर के कई शहरों में कांग्रेस पार्टी के सदस्यों द्वारा ईंधन की कीमतों में वृद्धि के विरोध में प्रदर्शन किए गए.

कार्बन टैक्स नीति (चाहे कैप-एंड-ट्रेड के रूप में हो या एकमुश्त कर के माध्यम से) पर भी प्रतिगामी यानी ग़लत व पीछे की ओर धकेलने का आरोप लगाया गया है[23], [24]अपने मध्यम और उच्च-आय वाले समकक्षों की तुलना में निम्न-आय वाले परिवारों को यह अधिक प्रभावित करता है, क्योंकि वह अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा ऊर्जा-गहन वस्तुओं और सेवाओं पर ख़र्च करते हैं. कार्बन टैक्स से जुड़ी वितरण और कल्याण संबंधी चिंताएं भी मुख्य रूप से इस बात से निर्धारित होती हैं कि राजस्व कैसे खर्च किया जाता है. यदि टैक्स से मिली राशि को राजकोषीय घाटे के वित्तपोषण के लिए इस्तेमाल किया जाता है, तो इसका प्रभाव अधिक नकारात्मक हो सकता है बजाय उस स्थिति के जब परिवारों को हुए आर्थिक नुकसान की पूर्ति के लिए इसका इस्तेमाल किया जाए जो एकमुश्त लाभांश या अन्य टैक्स में कटौती के रूप में हो सकता है. इस विचार को निम्नलिखित खंड में और विस्तार से समझाया गया है.

कार्बन टैक्स से जुड़े वितरण और कल्याण संबंधी चिंताएं मुख्य रूप से इस बात से निर्धारित होती हैं कि राजस्व कैसे खर्च किया जाता है।

कार्बन मूल्य निर्धारण के लिए एक अन्य प्रमुख बाधा यह चिंता है कि उच्च घरेलू कीमतें स्थानीय उद्योगों के लिए लागत को बढ़ा देंगी, जिससे वे वैश्विक बाज़ारों में कम प्रतिस्पर्धी बन जाएंगे. हालांकि, इस बात के प्रमाण कम हैं कि कार्बन की कीमत प्रतिस्पर्धा में गिरावट की ओर ले जाती है. कई आकलनों में शुद्ध आयात, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश, क़ारोबार, मूल्य वर्धित, रोज़गार, लाभ, उत्पादकता और इनोवेशन सहित प्रतिस्पर्धा के विभिन्न आयामों में कार्बन या ऊर्जा की कीमतों का कोई सांख्यिकीय महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं मिलता है.[25],[26] मुख्य रूप से ऐसा है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कार्बन की कीमत का स्तर कम है और व्यापार से जुड़े क्षेत्रों को अक्सर कार्बन करों से छूट दी जाती है.[27] अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण से देखें तो कार्बन रिसाव यानी ढीली कार्बन नीति वाले देशों में कार्बन-गहन उद्योगों का स्थानांतरित होना अतिरिक्त और अधिक गंभीर चिंता का विषय है. हालांकि, कार्बन रिसाव के पुख़्ता सबूतों का दस्तावेज़ीकरण नहीं किया गया है और इसका कारण वही है जो ऊपर बताया गया है. इस बीच अंतरराष्ट्रीय कार्बन मूल्य स्तर में बढ़ोत्तरी और क्षेत्र कवरेज गहराने के साथ प्रतिस्पर्धात्मकता से संबंधित चिंताओं के और अधिक गंभीर होने की संभावना है.

भारत के लिए नीतिगत विकल्प और मार्ग

राजस्व तटस्थ दृष्टिकोण: राजनीतिक अस्थिरता और वितरण संबंधी चिंताओं को देखते हुए राजस्व पुनर्चक्रण (revenue recycling) के साथ कार्बन मूल्य निर्धारण को यदी राजस्व पुनर्चक्रण के लिए एक तंत्र के साथ संयोजित किया जाए तो इस मॉजल को अधिक आकर्षक बनाया जा सकता है. इस तरह के ढांचे के तहत, कार्बन टैक्स से उत्पन्न आय को निर्धारित किया जाएगा और इसे समाज के हित में वापस कर दिया जाएगा। पुनर्चक्रण यानी रीसाइक्लिंग के दो सबसे आम तरीक़े हैं:

  1. हरित खर्च की ओर झुकी पहलों को धन का वितरण
  2. फर्मों और परिवारों के लिए पुनर्चक्रण

भारत के पास कोयला उपकर यानी सेस के रूप में पहले विकल्प का एक संशोधित संस्करण मौजूद है और इसे लागू करने का अनुभव उस के पास है, जैसा की इस पेपर के सेक्शन-एक में चर्चा की गई है. कोयला सेस के अनुभव से एक महत्वपूर्ण सबक यह मिलता है कि हरित परियोजनाओं, पहलों, अनुसंधानों की पहचान और वित्तपोषण करके राजस्व का कुशलतापूर्वक इस्तेमाल करने की आवश्यकता है. कोयला सेस के माध्यम से एकत्र की गई और राष्ट्रीय स्वच्छ ऊर्जा कोष (एनसीईएफ) को हस्तांतरित की गई लगभग आधी धनराशि का इस्तेमाल नहीं किया गया, जो व्यवहार्य परियोजनाओं की कमी को दर्शाता है. इसलिए, ऐसी रणनीति को लागू करने से पहले व्यवहार्य परियोजनाओं की पहचान के लिए एक रोडमैप तैयार करना ज़रूरी है. इसके अलावा, यह रोडमैप सार्वजनिक वित्त में कार्बन निर्भरता से बचने में भी मदद करेगा, जैसा कि कोयला उपकर राजस्व के मामले में देखा गया है, जो अब जीएसटी मुआवज़े के लिए महत्वपूर्ण स्रोत बन गया है. संयोग से, भारत में, राज्यों के पास प्राकृतिक संसाधन हैं लेकिन मूल्य निर्धारण या कराधान यानी टैक्सेशन केंद्र सरकार द्वारा तय किया जाता है. कोयले के संबंध में, रॉयल्टी को कई सालों से स्थिर रखा गया है (जो ज़िलों को मिलता है) जबकि जीएसटी सबसे कम स्लैब पर है. कोयले पर कर लगाने का मुख्य तंत्र सेस है, जो पूरी तरह से केंद्र को प्राप्त होता है. दूसरे शब्दों में, कोयला सेस का क्रिर्यान्वयन, उत्सर्जन को कम करने के बजाय राजस्व को बढ़ाने के नज़रिए से अधिक जुड़ा हुआ है. कार्बन टैक्स लागू करते समय, यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण होगा कि इस प्रकार का प्रोत्साहन जोनों स्तरों पर बेमेल न हो.

राजस्व के पुनर्चक्रण का दूसरा तरीक़ा परिवारों और फर्मों को हुए नुकसान के लिए कर आय का उपयोग शामिल है. एक ऐसा राजस्व पुनर्चक्रण तंत्र जिसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनुकूल परिणाम दिए हैं, वह है शुल्क और लाभांश से जुड़ा दृष्टिकोण. इसमें जीवाश्म ईंधन पर कार्बन टैक्स (शुल्क) की सुविधा है, जिसकी आय का उपयोग घरों को लाभांश का भुगतान करने के लिए किया जाता है. ऐसे कुछ क्षेत्र जहां इस दृष्टिकोण ने आशाजनक परिणाम दिए हैं, उनमें स्विट्ज़रलैंड और कनाडा शामिल हैं.

स्विट्ज़रलैंड में साल 2008 में जीवाश्म हीटिंग और ईंधन प्रक्रियाओं पर कार्बन टैक्स की शुरुआत की गई थी. एकत्रित राजस्व का दो-तिहाई घरों (प्रति व्यक्ति आधार पर) और फर्मों (उनके पेरोल के अनुपात में) को पुनर्वितरित किया जाता है, जबकि बाक़ी ऊर्जा दक्षता कार्यक्रम और एक प्रौद्योगिकी कोष के निर्माण व उससे जुड़े भुगतान के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है.[28] साल 2008 में लागू किए गए इस टैक्स को प्रति टन कार्बन डाइऑक्साइड सीएचएफ 12 (CHF 12) के स्तर पर लागू किया गया यानी 13.5 अमेरिकी डॉलर प्रति टन कार्बन डाइऑक्साइड (US$ 13.5/ tCO2) और साल 2018 में यह बढ़कर 96 सीएचएफ प्रति टन कार्बन डाइऑक्साइड (US$ 108/tCO2) हो गया. इस टैक्स के चलते साल 2008 से 2015 तक 6.9 मिलियन टन कार्बन की कमी दर्ज हुई.[29]

हाल ही में, साल 2018 में, कनाडा की आज़ाद ख़्याल सरकार का नेतृत्व करने वाले प्रधान मंत्री जस्टिन ट्रूडो के नेतृत्व में, उन प्रांतों के लिए कार्बन टैक्स की घोषणा की गई, जिनके पास स्वयं का पर्याप्त कार्बन मूल्य निर्धारण मॉडल नहीं था. इसमें सस्केचेवान, मैनिटोबा, ओंटारियो और अल्बर्टा प्रांत शामिल हैं. साल 2019 में 20 अमेरिकी डॉलर प्रति टन से शुरू हुआ टैक्स साल 2022 में 50 अमेरिकी डॉलर प्रति टन तक पहुंच कर हर साल 10 अमेरिकी डॉलर प्रति टन की गर से बढ़ाया जा रहा है.[30] अपेक्षाकृत छोटे कार्बन फुटप्रिंट वाली इकाइयों और व्यवसायों के लिए, ख़रीद के स्थान पर तरल और गैसीय ईंधन पर कार्बन लेवी लागू होती है. कर से प्राप्त आय निवासियों में बांटी जाती है जिससे टैक्स से मिलने वाला राजस्व तटस्थ हो जाता है. इस छूट को क्लाइमेट एक्शन इंसेंटिव कहा जाता है, और यह राशि प्रांतों और घरेलू आकार की इकाइयों के बीच अलग अलग स्तर पर लागू की जाती है. यह छूट ओंटारियो में रह रहे किसी व्यक्ति के लिए साल 2021 में 439 अमेरिकी डॉलर हो सकती है और वहीं यह सस्केचेवान में रहने वाले चार लोगों के परिवार के लिए साल 2022 में 1419 अमेरिकी डॉलर भी हो सकती है. प्रतिस्पर्धा से संबंधित चिंताओं को दूर करने के लिए, कई प्रमुख उद्योग जो गहन व्यापार प्रतिस्पर्धा का सामना करते हैं जैसे स्टील और रसायन कंपनियां उन्हें इस कर से छूट दी गई है. इसके एवज़ में इन कंपनियों के लिए एक अलग कार्यक्रम में भाग लेना आवश्यक है और उनके उत्सर्जन के अनुपात में उनपर टैक्स लगाया जाता है.

स्विट्ज़रलैंड और कनाडा के अनुभवों को देखते हुए, कार्बन राजस्व के पुनर्चक्रण के लिए एक स्पष्ट रणनीति की पहचान करना भारत में कार्बन मूल्य निर्धारण की सार्वजनिक स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए एक महत्वपूर्ण क़दम साबित होगा. हालांकि, राजस्व पुनर्चक्रण कोई मारक समाधान नहीं है और इस की अपनी चुनौतियां हैं. एक अर्थव्यवस्था-व्यापी राजस्व पुनर्चक्रण कार्यक्रम को लागू करने में वही चुनौतियाँ शामिल होंगी जो, बड़े पैमाने पर किसी कल्याण कार्यक्रम को लागू करने के दौरान सामने आती हैं. ख़ासतौर पर छूट के आकार, वितरण,  भुगतान चैनल, अवधि और आवृत्ति जैसे महत्वपूर्ण सवालों के सही जवाब पाना और लक्षित दक्षता व पर्याप्त निगरानी सुनिश्चित करने के लिए सिस्टम लागू करना महत्वपूर्ण होगा.[31] इस उद्देश्य के लिए भारत की जैम नामक कतिकड़ी यानी जैम-ट्रिनिटी (जन धन खाते, आधार नंबर और मोबाइल फोन) का लाभ उठाया जा सकता है.

स्विट्ज़रलैंड और कनाडा के अनुभवों को देखते हुए, कार्बन राजस्व के पुनर्चक्रण के लिए एक स्पष्ट रणनीति की पहचान करना भारत में कार्बन मूल्य निर्धारण की सार्वजनिक स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए एक महत्वपूर्ण क़दम साबित होगा. 

जलवायु नीति पर मौजूदा साहित्य से पता चलता है कि कार्बन मूल्य निर्धारण की उन देशों में प्रभावी रूप से काम करने की अधिक संभावना है, जहां राजनीतिक विश्वास बेहतर और ऊंचा हो व भ्रष्टाचार को लेकर कम धारणाएं हों. भारत, निस्संदेह, दोनों श्रेणियों में ख़राब प्रदर्शन करने वाला है. जनता, कार्बन मूल्य को स्वीकार करने के लिए अधिक प्रेरित हो सकती है जब वह यह समझ व देख सके कि इससे मिलने वाले राजस्व को कैसे इस्तेमाल किया जाएगा. यह संचार, सार्वजनिक संवाद और सामाजिक विचार-विमर्श की एक मजबूत प्रणाली को स्थापित करने की ज़रूरत पर बल देता है.[32] स्वीडन में, एक बेहतर संचार रणनीति ने कार्बन टैक्स के क्रिर्यान्वयन से पहले राजनीतिक विश्वास और पारदर्शिता को मज़बूत किया, और इसकी सार्वजनिक स्वीकार्यता को बढ़ाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.[33] टैक्स को लागू करते समय चरणबद्ध और इसे धीरे-धीरे बढ़ाने यानी वृद्धिशील दृष्टिकोण को अपनाना कार्बन टैक्स को सफल बनाने के लिए एक और महत्वपूर्ण रणनीति है, जैसा कि डेनमार्क और फिनलैंड के मामले में देखा गया है.[34] इसी तरह, इंडोनेशिया ने अपनी उपभोक्ता जीवाश्म-ईंधन सब्सिडी को चरणबद्ध तरीक़े से कम किया जो साल 2008 में उस के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग तीन प्रतिशत हिस्सा थी. लोगों की प्रतिक्रिया की भरपाई के लिए, उसने प्रभावी सार्वजनिक संचार अभियान चलाए और ग़रीब नागरिकों के लिए वित्तीय क्षतिपूर्ति कार्यक्रम शुरू किए, जो ख़ासतौर पर उन लोगों के लिए जो ईंधन की कीमतों में बढ़ोत्तरी से सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए थे.

 आगे का रास्ता

अंतरराष्ट्रीय अनुभव के आधार पर यह स्पष्ट रूप से देखा गया है कि कार्बन मूल्य निर्धारण वैश्विक जलवायु नीति की आधारशिला नहीं हो सकता है और न ही इसकी उम्मीद की जानी चाहिए. इस अध्याय का तर्क है कि राजनीतिक अर्थव्यवस्था के विचार, कार्बन टैक्स के वितरण संबंधी प्रभावों व निहितार्थों के साथ, इसे लागू करने के लिए एक अत्यंत जटिल साधन बनाते हैं. इसके अलावा, कार्बन टैक्स उम्मीद किए गए परिणाम तभी देगा जब क़ीमत काफी अधिक हो. आईएमएफ का अनुमान है कि 75 अमेरिकी डॉलर प्रति टन के कर से कोयले की कीमत में 230 प्रतिशत, प्राकृतिक गैस में 25 प्रतिशत, बिजली में 83 प्रतिशत और पेट्रोल की कीमत में 13 प्रतिशत की वृद्धि होगी.[35]

उभरती अर्थव्यवस्थाओं, खासतौर पर भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं के लिए इस तरह की बड़ी कीमत, योग्य व व्यावहारिक विकल्प नहीं होगा, कम से कम अल्पावधि में नहीं. भारत में कार्बन मूल्य निर्धारण को अक्सर राजनीतिक और सार्वजनिक विरोध का सामना करना पड़ता है. महामारी के बाद, इन बाधाओं को दूर करना और भी कठिन हो जाएगा. इसलिए राजनीतिक नुकसान से बचने और वितरण संबंधी चिंताओं को कम करने के लिए कार्बन करों को सावधानीपूर्वक तैयार व तय किया जाना चाहिए. प्रमुख चुनौतियों और उनके समाधानों पर गहराई से विचार करने से पता चलता है कि भारत में कार्बन मूल्य को लागू करने के रास्ते मौजूद हैं. हालांकि, भारतीय अर्थव्यवस्था अभी उन्हें पार करने के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं हो सकी है. वित्त वर्ष 2019 में, नवीकरणीय ऊर्जा और विद्युत गतिशीलता के लिए सब्सिडी के रूप में दिए गए 11,604 करोड़ रुपए (1.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर) के मुकाबले, तेल, गैस और कोयले के लिए दी गई सब्सिडी की राशि 83,134 करोड़ रुपए (12.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर) थी.[36] इसके अलावा, कोविड-19 की महामारी से निपटने के प्रयासों के रूप में भारत ने उन नीतियों की घोषणा की, जिनमें नवीकरणीय ऊर्जा उद्योग के लिए केवल 9,621 करोड़ दिए गए जबकि कोयले और अन्य पर्यावरणीय रूप से गहन क्षेत्रों के पक्ष में 73,013 करोड़ रुपये शामिल किए गए हैं.[37] अल्पावधि में, भारत को जीवाश्म-ईंधन सब्सिडी को समाप्त करने और मौजूदा नीतियों की दक्षता में सुधार करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जो कार्बन पर एक निहित मूल्य रखती हैं.

नवीकरणीय प्रौद्योगिकी (renewable technology) के क्षेत्र में हुई हालिया प्रगति, नवीकरणीय ऊर्जा की लागत में गिरावट, और वैश्विक ऊर्जा कीमतों में गिरावट, इस तरह की ऊर्जा को बढ़ाने के लिए एक अनुकूल नीतिगत वातावरण प्रदान करती है.[38] भारत को जीवाश्म-ईंधन उद्योग की गिरावट में तेज़ी लाने और अर्थव्यवस्था को हरित यानी प्रकृति के लिए सकारात्मक तौर तरीक़ों पर हस्तांतरित करने के लिए, इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए. मध्यम से लंबी अवधि में, प्रणालीगत बदलावों को बढ़ावा देने के लिए कार्बन मूल्य एक आवश्यक नीति संबंधी उपकरण साबित होगा. भारत को कार्बन मूल्य शुरू करने के लिए एक आधार तैयार करना शुरू कर देना चाहिए. इसके दो महत्वपूर्ण पहलू हैं: 1) राजस्व पुनर्चक्रण तंत्र को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए देश के डिजिटल बुनियादी ढांचे को मज़बूत बनाना और सामाजिक सुरक्षा मशीनरी को सुव्यवस्थित व मज़बूत करना; और 2) बदलाव के लिए मिले-जुले प्रयासों और गठबंधन को बढ़ावा देने के लिए संचार का एक प्रभावी तंत्र व सामाजिक विचार-विमर्श की एक मज़बूत रणनीति विकसित करना.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.