Author : Karun Sagar

Published on Jul 13, 2022 Updated 29 Days ago

अमेरिकी लोकतंत्र को राजनीतिक ध्रुवीकरण अंदर ही अंदर खोखला कर रहा है क्योंकि संयुक्त राज्य अमेरिका में आपसी असहिष्णुता बहुत अधिक बढ़ गई है.

अमेरिकी लोकतंत्र के पतन के संदर्भ में ‘ध्रुवीकरण’ की ताक़त!

स्टीवन लेवित्स्की और डैनियल ज़िब्लैट ने How Democracies Die में अत्यधिक ध्रुवीकरण की व्याख्या “लोकतंत्र को तोड़ने के तरीके” के रूप में की है, क्योंकि इससे “आपसी सहिष्णुता” कम हो जाती है.[i] अमेरिका वैचारिक स्तर पर दो ध्रुवों में बंटा हुआ है और काफ़ी हद तक इसका यह ध्रुवीकरण लंबे समय से चली आ रही चेक और बैलेंस की नीति यानी शक्तियों के विभाजन की नीति का नतीज़ा है, जिसने लोगों की इच्छाओं का दमन किया है, उन्हें दबाया है. आज भी जनजातीय लोगों के प्रति पक्षपातपूर्ण रवैये की अनदेखी करना विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र के समक्ष एक गंभीर चुनौती है.

अमेरिका में हाल के चुनाव परिणामों में तेज़ी से विभाजित मतदाताओं के रुझान को समझा जा सकता है. वर्ष 2020 का चुनाव “लगातार 9वां ऐसा राष्ट्रपति चुनाव था, जिसमें राष्ट्रीय लोकप्रिय मतों का अंतर 10 प्रतिशत से कम था.” ये चुनाव “गृह युद्ध की समाप्ति के बाद से अब तक का सबसे अधिक समय तक चलने वाला चुनाव था, जिसका निर्णय बेहद क़रीबी अंतर से हुआ.”

अमेरिका में हाल के चुनाव परिणामों में तेज़ी से विभाजित मतदाताओं के रुझान को समझा जा सकता है. वर्ष 2020 का चुनाव “लगातार 9वां ऐसा राष्ट्रपति चुनाव था, जिसमें राष्ट्रीय लोकप्रिय मतों का अंतर 10 प्रतिशत से कम था.” ये चुनाव “गृह युद्ध की समाप्ति के बाद से अब तक का सबसे अधिक समय तक चलने वाला चुनाव था, जिसका निर्णय बेहद क़रीबी अंतर से हुआ.” दो-दलीय व्यवस्था में लगातार कांटे की टक्टर वाले चुनाव बढ़े हुए विभाजन की ओर स्पष्ट इशारा करते हैं. क्योंकि इससे यह साबित होता है कि मतदाता ना तो आम सहमति तक पहुंच पा रहे हैं और ना ही विपरीत विचारधारा के राजनीतिक दलों के प्रति बड़े पैमाने पर अपना झुकाव दिखा पा रहे हैं. 

स्पष्ट रूप से कहा जाए तो मतदाता जितना अपनी पार्टी के प्रत्याशी के समर्थन में वोट करते हैं, उससे अधिक उसे इसलिए वोट देते हैं, क्योंकि वे विरोधी पार्टी के उम्मीदवार को नापसंद करते हैं. प्यू रिसर्च सेंटर ने डेमोक्रेट हिलेरी क्लिंटन और रिपब्लिकन डोनाल्ड ट्रंप के बीच वर्ष 2016 के चुनाव के दौरान किए गए एक सर्वे में पाया कि “दोनों ही प्रत्याशियों को अपनी-अपनी पार्टी के समर्थकों से औसत दर्जे की रेटिंग ही प्राप्त हुई थी और जो विरोधी पार्टी के सदस्यों से मिली रेटिंग से कम थी.” सर्वे में 16 प्रतिशत रिपब्लिकन और 20 प्रतिशत डेमोक्रेट ने कहा कि वे “करीब-करीब हमेशा” अपनी पार्टी के विचारों और नेताओं से सहमत थे. लेकिन इस सर्वे में जो विशेष तथ्य उभर कर सामने आया वो यह था कि इसके दोगुने से अधिक रिपब्लिकन और डेमोक्रेट्स यानी लगभग 44 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वो दूसरे दलों की नीतियों से “लगभग नहीं के बराबर” सहमत थे. हालांकि, उनकी इस राय में  एक “निजी कारण” भी था, वो यह था कि आधे से अधिक डेमोक्रेट, रिपब्लिकन पार्टी से “डर” रहे थे और ठीक इसी तरह आधे से अधिक रिपब्लिकन, डेमोक्रेटिक पार्टी से डरे हुए थे.

“इस बदलाव ने यह साबित कर दिया कि “भौगोलिक रूप से अमेरिका का राजनीतिक ताना-बाना टूट रहा था.” इतना ही नहीं, इस पूर्वाग्रह ने परंपरागत रूप से गैर-राजनीतिक क्षेत्रों में भी अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था, जैसे कि छात्र अपने रूममेट्स की पसंद भी इसी आधार पर करने लगे. स्पष्ट तौर पर यह असहमति नहीं थी, यह आपसी असहिष्णुता थी.

सबसे अधिक परेशानी वाली बात यह थी कि ये राजनीतिक विवाद निजी झगड़ों और एक-दूसरे के प्रति अपशब्दों का इस्तेमाल करने के स्तर पर पहुंच गया था और यह विवाद केवल राजनेताओं तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उन्हें वोट देने वाले नागरिकों और समर्थकों तक पहुंच गया था. सर्वे में यह भी सामने आया कि 70 प्रतिशत डेमोक्रेट को लगता था कि रिपब्लिकन “संकीर्ण विचारों” वाले हैं, जबकि लगभग 50 प्रतिशत रिपब्लिकन ने कहा कि डेमोक्रेट्स “सुस्त”, “अनैतिक” और “भ्रष्ट” हैं. यह संकुचित विचारधारा चुनाव के दौरान दिखाई भी दी, “देश की 3,113 काउंटीज (या काउंटी के समकक्ष) में से सिर्फ़ 303 का फ़ैसला 10 प्रतिशत से कम यानी इकाई अंकों के अंतर से हुआ. इसके विपरीत 1992 के चुनाव में 1,096 काउंटीज का परिणाम इस आधार पर आया था. “इस बदलाव ने यह साबित कर दिया कि “भौगोलिक रूप से अमेरिका का राजनीतिक ताना-बाना टूट रहा था.” इतना ही नहीं, इस पूर्वाग्रह ने परंपरागत रूप से गैर-राजनीतिक क्षेत्रों में भी अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था, जैसे कि छात्र अपने रूममेट्स की पसंद भी इसी आधार पर करने लगे. स्पष्ट तौर पर यह असहमति नहीं थी, यह आपसी असहिष्णुता थी.

अमेरिका दो ध्रुवों में बंटा क्यों?

यह पता लगाना बहुत ही सरल है कि कोई भी देश विचारधारा के आधार पर बंटा है या नहीं, लेकिन यह पता लगाना बेहद मुश्किल है कि यह वैचारिक स्तर पर इतना विभाजित क्यों है. ऐसा नहीं है कि वैश्विक स्तर पर आधुनिक लोकतंत्रों में ध्रुवीकरण बढ़ता जा रहा है, “कुछ यूरोपीय देशों में ध्रुवीकरण समय के साथ-साथ बहुत कम हो गया है. नॉर्वे और स्वीडन जैसे देशों में 1980 के दशक में राजनीतिक पार्टियों के मध्य बहुत व्यापक मतभेद था, लेकिन 2010 के आते-आते यह काफ़ी कम हो गया. इसी प्रकार जर्मनी में भी 1977 और 2016 के बीच ध्रुवीकरण में इसी तरह लगातार कमी होती देखी गई.”

इसके विपरीत, अमेरिका लगातार और अधिक बंटता हुआ प्रतीत हो रहा है. यहां, जिसका विश्लेषण करने की ज़रूरत सबसे अधिक है, वह है देश के डीएनए में कानूनी रूप से अपनी जड़ें जमा चुका मूलभूत असंतुलन यानी असंगत प्रतिनिधित्व. वर्तमान में रिपब्लिकन द्वारा “अमेरिका के केवल 43 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व करने” के बावजूद, उनके पास सीनेट में 50 सीटें हैं, पिछले छह राष्ट्रपति चुनावों में से दो में रिपब्लिकन प्रत्याशी की जीत हुई, जबकि बहुमत मतदान डेमोक्रेटिक उम्मीदवार के पक्ष में हुआ था. चुनाव जिसने वहां छह (नौ में से) रिपब्लिकन द्वारा सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश नियुक्त होने का रास्ता बनाया. डेमोक्रेट्स द्वारा अधिक वोट हासिल करने के बावज़ूद सीनेट और राष्ट्रपति पद के चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी ने जीत हासिल की और सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश नियुक्त करने का अधिकार भी.

मौलिकता, आमतौर पर सुप्रीम कोर्ट के रूढ़िवादी न्यायाधीशों द्वारा अपनाई जाने वाली विचारधारा है. यह विचार कानून का एक विषय है और अमेरिकी संविधान के तहत इसकी व्याख्या की जानी चाहिए. इसके साथ ही इसका अक्षरश: उसी अनुरूप पालन किया जाना चाहिए, जिस भावना के साथ इसे संविधान में शामिल किया गया था.

मौलिकता, आमतौर पर सुप्रीम कोर्ट के रूढ़िवादी न्यायाधीशों द्वारा अपनाई जाने वाली विचारधारा है. यह विचार कानून का एक विषय है और अमेरिकी संविधान के तहत इसकी व्याख्या की जानी चाहिए. इसके साथ ही इसका अक्षरश: उसी अनुरूप पालन किया जाना चाहिए, जिस भावना के साथ इसे संविधान में शामिल किया गया था. इस मामले में यह धारणा बड़े पैमाने पर उन लोगों द्वारा स्थापित की गई थी, जो व्यापक लोकतंत्र की कोई परवाह नहीं करते थे. इलेक्टोरल कॉलेज की कल्पना “एक तरह के समीक्षा बोर्ड के रूप में की गई थी, कुलीन सांसदों का एक समूह, जो राष्ट्रपति का चुनाव करेंगे, यदि आवश्यक हो तो लोकतंत्र के अतिरेक से बचने के लिए लोगों की पसंद को ख़ारिज करके भी.”[ii] यह भावना उस समय के लिए अतिवादी नहीं थी. लेकिन एक स्वयंभू लोकतंत्र के रूप में परंपरा की दुहाई देते हुए इस प्रकार के विचार को अपनाना कुछ हद तक स्वयं-विरोधाभासी है. फिर भी, परंपरा का पालन करने के लिए, दकियानूसी विचारों वाले न्यायाधीशों द्वारा संचालित अदालत ने राज्यों के लिए मतदान को प्रतिबंधित करना आसान बना दिया है.

राजनीतिक विज्ञानी, फिलिप सी. श्मिटर और टेरी लिन कार्ल ने एक क्रियाशील लोकतंत्र के लिए प्रमुख सिद्धांतों को चिन्हित किया है. पहला, “प्रतिनिधियों को कम से कम अनौपचारिक रूप से इस बात पर सहमत होना चाहिए कि जो लोग अधित मतों से जीतते हैं या और जिनका नीतियों पर अधिक प्रभाव होता है, वे अपनी पद और प्रतिष्ठा का उपयोग हारने वालों को भविष्य में पद लेने या प्रभाव डालने से रोकने के लिए नहीं करेंगे.” दूसरा, चुनाव में हारने वाली पार्टी को “विजेताओं के महत्वपूर्ण निर्णय लेने के अधिकार का सम्मान करना चाहिए.” तीसरा, “चुनावों का परिणाम उनकी सामूहिक प्राथमिकताओं पर निर्भर होना चाहिए.” पहला सिद्धांत 2010 की मध्यावधि के बाद भारी मतदान प्रतिबंधों के साथ ज़बरदस्त चर्चा में आ गया. दूसरे और तीसरे सिद्धांतों को 2016 में चुनौती दी गई थी, जब क्लिंटन समर्थक, डोनाल्ड ट्रंप की जीत को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे और 2020 में, जब मौजूदा राष्ट्रपति ने सत्ता सौंपने से इनकार कर दिया और रिपब्लिकन कांग्रेस के बहुमत ने कानूनी रूप से डाले गए वोटों को उलटने के लिए मतदान किया. यह समस्या फिर उभर सकती है, क्योंकि रिपब्लिकन के नियंत्रण वाली विधायिका ऐसे कानून बनाती है, जो पक्षपातपूर्ण संस्थाओं को चुनाव परिणामों को रद्द करने के लिए सशक्त करते हैं. 

अल्पसंख्यक शासन की संभावना हमेशा से रही है” और अगर अमेरिका के इतिहास पर नज़र डालें तो अधिकतर, “लोगों की इच्छा की अप्रत्यक्ष भावना” ने “दोनों पार्टियों की लगभग समान रूप से सहायता की है.” अब यहां यह महत्वपूर्ण है कि वर्तमान समय में ये पार्टियां किस तरह की डेमोग्राफी का प्रतिनिधित्व करती हैं. हालांकि प्रेसीडेंसी और सीनेट गैर-प्रतिनिधि हैं, लेकिन वे अंत में लोगों के समान प्रतिनिधित्व के बदले में अधिक समान रूप से राज्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं.

लोकतंत्र में ख़ामियां

फिलहाल अमेरिका में जो स्थिति है, उसके अनुसार डेमोक्रेटिक पार्टी और उसके नेता अधिक आबादी वाले इलाक़ों में ज़्यादा लोकप्रिय हैं, जबकि रिपब्लिक पार्टी देश के कम आबादी वाले क्षेत्रों के लोगों की पहली पसंद है. हालांकि, समय के साथ-साथ पार्टियां जिन लोगों का प्रतिनिधित्व करती हैं, वे बदल सकती हैं और ऐसा अतीत में हो भी चुका है. लेकिन जो स्थिती कभी नहीं बदली है, वह यह है कि अधिक आबादी वाले क्षेत्रों में लोगों के एक नागरिक के रूप में जो अधिकार होते हैं, वो कम जनसंख्या वाले क्षेत्रों के लोगों की अपेक्षा कम होते हैं. इसके अलावा जब तक उन लोगों को नागरिकता के अधिकार दिए गए, अल्पसंख्यकों ने असमान रूप से अधिक आबादी वाली भूमि पर अपना कब्ज़ा कर लिया है, जबकि श्वेत लोगों ने कम आबादी वाली भूमि पर अपने अनुपात के हिसाब से ज़्यादा कब्ज़ा कर लिया है.

जैसे-जैसे जनसांख्यिकी संबंधी बदलाव होता है, वो मुख्य रूप से गैर-श्वेत समर्थित डेमोक्रेटिक पार्टी का प्रभाव बढ़ाता है. “अल्पसंख्यक शासन की बढ़ती मांग के मद्देनज़र” रिपब्ल्किन पार्टी ने अपने श्वेत मतदाताओं के समर्थन के बल पर, “अपने संस्थागत अधिकारों का उपयोग कर ना सिर्फ़ वोटिंग के अधिकार पर प्रतिबंध लगाने जैसे कदम उठाए, बल्कि लोकप्रिय चुनावों के परिणामों को भी कमज़ोर करने का प्रायस किया, जो उनके फ़ायदा उठाने के मज़बूत इरादों को प्रदर्शित करता है.” आखिरकार एक पक्ष को यह समझ में आ गया कि वे देश के अधिकांश लोगों  को अपने साथ लिए बगैर या बहुमत के बिना सत्ता को बनाए रख सकते हैं. ज़ाहिर है कि दूसरा पक्ष अपने प्रतिद्वंद्वियों को लोकतंत्र के लिए एक संभावित ख़तरे के रूप में देखता है. तो फिर अमेरिका क्यों ध्रुवीकृत है? ऐसा इसलिए है क्योंकि ऐसा नहीं होने का कोई कारण नज़र नहीं आता है.

आज लोकतंत्र के महत्त्व पर सवाल उठाना, उसे कठघरे में खड़ा करना आम बात हो गई है.  हालांकि, अभी डेमोक्रेटिक पार्टी को ज़मीनी हक़ीकत समझने की ज़रूरत है और अधिक आबादी वाले क्षेत्रों में लोकतंत्र की प्रासंगिकता को बनाए रखने की आवश्यकता है. 

आज लोकतंत्र के महत्त्व पर सवाल उठाना, उसे कठघरे में खड़ा करना आम बात हो गई है.  हालांकि, अभी डेमोक्रेटिक पार्टी को ज़मीनी हक़ीकत समझने की ज़रूरत है और अधिक आबादी वाले क्षेत्रों में लोकतंत्र की प्रासंगिकता को बनाए रखने की आवश्यकता है. सार्थक और वास्तविक परिवर्तन लाने के लिए डेमोक्रेट्स व्यापक स्तर पर सहमति हासिल करके ही सत्ता प्राप्त कर सकते हैं. इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उन्हें समझदारी, सहनशीलता और सहानुभूति की आवश्यकता होगी. इससे भी अहम बात यह है कि उन्हें अपने वोट बैंक के परे हटकर देश के लोगों को दरकिनार करने और उनकी अनदेखी करने के बजाए, उनके साथ जुड़ने की इच्छा जतानी होगी.

हालांकि, ऐसा नहीं है कि लोकतंत्र में कोई ख़मियां नहीं हैं, इसके बावज़ूद इतिहास गवाह है कि यह पूरी दुनिया में शासन का विश्वसनीय तरीका है. इसको लेकर विंस्टन चर्चिल का काफ़ी प्रसिद्ध वक्तव्य है, जिसमें उन्होंने कहा था, “सरकार के कई स्वरूपों को आज़माया जा चुका है और आगे भी इसको लेकर पूरी दुनिया में कोशिशें की जाएंगी. लेकिन कोई दावे के साथ यह नहीं कह सकता है कि लोकतंत्र सबसे उत्तम तरीका है और इसमें कोई कमी नहीं है. वास्तव में तो ऐसा कहा गया है कि- समय-समय पर आज़माए गए शासन के सभी रूपों में लोकतांत्रिक पद्धति सरकार का सबसे ख़राब स्वरूप है.”


[i] Steven Levitsky and Daniel Ziblatt, How Democracies Die (2019).,Pg 5

[ii] Applebaum, Anne 2021. Twilight of Democracy, Pg 22

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