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दुनियाभर के नेता ब्राज़ील के बेलेम में COP30 जलवायु सम्मेलन के लिए जुटे हैं — एक ऐसा मोड़, जो सिर्फ चर्चा नहीं बल्कि कार्रवाई की मांग कर रहा है. पेरिस समझौते के दस साल बाद अब सवाल यह है कि क्या दुनिया वादों से आगे बढ़कर धरातल पर बदलाव ला पाएगी या फिर जलवायु संकट हमें मात दे देगा?
Image Source: Getty Images
ये लेख “COP30 से उम्मीदें” निबंध श्रृंखला का हिस्सा है.
10 नवंबर से 21 नवंबर 2025 के बीच दुनियाभर के नेता संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP30) के लिए ब्राज़ील के बेलेम शहर में जुटे हैं. बेलेम में हो रही ये बैठक जलवायु कैलेंडर का सिर्फ एक सालाना सम्मेलन भर नहीं है बल्कि ये एक चरण के अंत का भी प्रतीक है. पेरिस समझौते का एक दशक बीत चुका है. एक ऐसा समझौता, जिसने सरल लेकिन क्रांतिकारी विचार के इर्द-गिर्द वैश्विक जलवायु व्यवस्था की कल्पना की थी. 10 साल पहले दुनिया के हर एक देश ने ये प्रतिज्ञा की थी कि अपने आकार या स्थिति की परवाह किए बिना, वो एक साझा लक्ष्य की ओर रास्ता खुद तय करेंगे. ये लक्ष्य था पर्यावरण को बचाना, पृथ्वी को सभी के रहने लायक बनाना. पेरिस समझौते ने बड़े देशों द्वारा तय किए गए लक्ष्यों को कमज़ोर राष्ट्रों पर थोपने की बजाए इन्हें सभी देशों की साझा महत्वाकांक्षा में बदल दिया. इसने ये उम्मीद जगाई कि कुछ मतभेदों के बावजूद सामूहिक जिम्मेदारी से एक बेहतर कल का निर्माण किया जा सकता है.
इन दस सालों में पेरिस समझौते की परीक्षा हुई और परिणाम वही निकला, जिसका डर था. COP28 में ग्लोबल स्टॉकटेक (जीएसटी) के परिणाम सामने आए. ग्लोबल स्टॉकटेक के तहत हर पांच साल में पेरिस समझौते की समीक्षा की गई. नतीजा वही आया, जिसकी कई लोगों को आशंका थी. दुनिया सही रास्ते पर नहीं हैं. वैश्विक उत्सर्जन में वृद्धि जारी है. तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ोत्तरी की सीमा ख़तरनाक रूप से करीब आ रही है. जलवायु प्रभाव भी हमारी अनुकूलन क्षमता की तुलना में तेज़ी से बढ़ रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की 2024 की उत्सर्जन में अंतर रिपोर्ट के अनुसार, अगर वर्तमान घोषणाएं पूरी हो भी जाती हैं, तो वो इस सदी के अंत तक 2.7 डिग्री सेल्सियस की दुनिया को जन्म देंगी. ये एक ऐसा परिदृश्य होगा, जहां असहनीय गर्मी, भोजन-पानी की असुरक्षा और ऐसे आर्थिक-सामाजिक व्यावधान में बदल जाएगा, जो आधुनिक इतिहास में देखा नहीं गया है.
COP30 सम्मेलन के दौरान सिद्धांतों और ज़मीनी हकीकत के बीच तालमेल बिठाने की कोशिश करनी चाहिए. पेरिस सम्मेलन में प्रतिज्ञाएं की गईं तो बेलेम में इसे साबित करने के बारे में बात होनी चाहिए. आने वाला दशक अब जलवायु के मुद्दे पर ढुलमुल रवैये का एक और दौर बर्दाश्त नहीं कर सकता. ग्लोबल स्टॉकटेक समीक्षा से जो एक बात सामने आई है, वो ये है कि कार्यान्वयन के बिना महत्वाकांक्षा का कोई मतलब नहीं है. समानता के बिना कार्यान्वयन अन्यायपूर्ण है.
ग्लोबल स्टॉकटेक समीक्षा से जो एक बात सामने आई है, वो ये है कि कार्यान्वयन के बिना महत्वाकांक्षा का कोई मतलब नहीं है. समानता के बिना कार्यान्वयन अन्यायपूर्ण है.
इसलिए COP30 से अपेक्षा दोहरी है. सम्मेलन के दौरान की जाने वाली बड़ी-बड़ी बातों को हकीकत में बदलना और समानता के सिद्धांत का पालन करना. राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) का मसौदा तैयार करने की बजाए उसे पूरा करने पर ज़ोर देना चाहिए. इसके लिए ज़रूरी वित्त पर चर्चा से लेकर उसके वितरण तक, अनुकूलन की आवश्यकताओं को पहचानने से लेकर उन्हें राष्ट्रीय बजट और विकास योजनाओं में शामिल करने तक, लक्ष्य ऐसे तय किए जाने चाहिए, जो व्यावहारिक हों.
शमन, अनुकूलन, वित्त, प्रौद्योगिकी और पारदर्शिता पर पेरिस समझौते के अनुच्छेद 4, 7, 9, 10 और 13 को एक ही मशीन के ऐसे अंग माना गया था, जिनके बीच सामंजस्य होता है. लेकिन एक दशक बाद, मशीन रुक रही है क्योंकि इसके गियर अलग-अलग रफ्तार से चल रहे हैं, उनमें तालमेल नहीं है. समस्या की गंभीरता को कम करने की बजाए इस एजेंडे में राजनीति हावी है. अनुकूलन उपायों को अभी भी ज़रूरी वित्तीय मदद नहीं मिल रही है. वित्त प्रवाह अपारदर्शी और अपर्याप्त बना हुआ है. इसमें हर साल अनुमानित जरूरतों से 300 अरब डॉलर कम मदद मिल रही है. तकनीकी साझेदारी भी बौद्धिक संपदा अधिकार की बाधाओं का सामना कर रही है. COP30 में इन सभी समस्याओं पर चर्चा करके इन्हें फिर से एक लाइन में लाना होगा.
2025 की जलवायु व्यवस्था 2015 की जैसी नहीं है. वैश्विक भू-राजनीतिक मानचित्र बदल गया है. ग्लोबल साउथ के देश अब निष्क्रिय हितधारक नहीं है. वे भी वैश्विक जलवायु राजनीति की रूपरेखा को आकार देने वाली आवाज़ों और बाज़ारों का गठबंधन है. भारत, ब्राज़ील, इंडोनेशिया और दक्षिण अफ़्रीका विकास का एक नया व्याकरण गढ़ रहे हैं. ये व्याकरण है, जलवायु व्यवस्था को ध्यान में रखकर किया जा रहा विकास.
COP30 में, इस विकसित होती सर्वसम्मति की भी परीक्षा होगी. 2025 में होने वाली राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) के अगले चरण की बातचीत से विभिन्न देशों को क्षेत्रीय से प्रणालीगत बदलावों की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित किया जाएगा. इससे ऊर्जा, परिवहन, उद्योग और कृषि के उन क्षेत्रों में डीकार्बोनाइजेशन को बढ़ावा मिलेगा, जिन्हें मुश्किल समझा जाता है. हालांकि, उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए महत्वाकांक्षाओं को हकीकत से दरकिनार नहीं किया जा सकता है. पहले से तय वित्तीय मदद के वादे को पूरा ना करना, किफायती प्रौद्योगिकी और निष्पक्ष व्यापार के नियमों का पालन नहीं किया जाता. इससे जलवायु संकट पर नियंत्रण पाने के लक्ष्य राजनीतिक रूप से अस्थिर और आर्थिक रूप से अन्यायपूर्ण हो जाते हैं.
भारत का विकास का रास्ता इस संकट को स्पष्ट रूप से दर्शाता है. भारत, दुनिया के उन देशों में शामिल है, जहां अक्षय ऊर्जा का इस्तेमाल सबसे तेज़ी से बढ़ रहा है. भारत के नवीकरणीय ऊर्जा पोर्टफॉलियो 2025 में 190 गीगावॉट स्थापित क्षमता को पार करने और 2030 तक 500 गीगावॉट गैर-जीवाश्म ईंधन क्षमता हासिल करने का वादा किया था. भारत बिना किसी अपराधबोध के इस लक्ष्य की तरफ बढ़ रहा है. इसके बावजूद भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वैश्विक औसत का एक तिहाई है. यही वजह है कि भारत लगातार दुनिया को ये बात याद दिलाता रहता है कि जलवायु न्याय एक एहसान नहीं, बल्कि साझा प्रगति की एक ज़रूरी शर्त है.
इसलिए, पेरिस समझौते के अगले चरण में ऐसा एजेंडा तैयार किया जाना चाहिए, जो विकास और जलवायु संकट के बीच तालमेल बनाए. ऐसा रास्ता जो कार्बन उत्सर्जन की समस्या पर ध्यान देते हुए लोगों को गरीबी से बाहर निकाले.
COP30 की असली परीक्षा भरोसा पैदा करने को लेकर होगा. फिलहाल विभिन्न देशों में इस समय भरोसे का संकट है. 100 अरब डॉलर की मदद देने का वादा अधूरी पड़ी है और ये बेलेम सम्मेलन के दौरान बहस का बड़ा मुद्दा बनेगा. ऐसे में वित्तीय योगदान पर आगामी नए सामूहिक परिमाणित लक्ष्य यानी न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल्स (एनसीक्यूजी) पर ध्यान देने की ज़रूरत है. इन्हें ना सिर्फ बड़ा बनाकर, बल्कि सबकी पहुंच लाना और जवाबदेही को बेहतर ढंग से स्थापित करने से ही विश्वसनीयता बहाल होगी.
COP30 की असली परीक्षा भरोसा पैदा करने को लेकर होगा. फिलहाल विभिन्न देशों में इस समय भरोसे का संकट है.
भारत और उसके साथी विकासशील देशों लिए, पूर्वानुमानित वित्त का मुद्दा सिर्फ मात्रा ही नहीं बल्कि डिज़ाइन से भी जुड़ा है. वर्तमान जलवायु वित्तीय प्रणाली, आम लोगों को कम, जबकि परियोजनाओं को ज़्यादा. कमज़ोर समुदायों पर कम, जबकि संस्थानों को विशेषाधिकार देती है. COP30 को अपनी वित्तीय व्यवस्था इस तरह बनानी होगी, जो शहरों, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) की सीधी पहुंच में होगा. यही वो क्षेत्र हैं, जो उच्च से निम्न कार्बन उत्सर्जन की ओर जाने में सबसे मुख्य भूमिका निभाएंगे.
COP30 को एक ऐसे वित्तीय ढांचे का संचालन करना होगा, जो विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की विविधता को पहचानता हो. छोटे द्वीपीय देशों से लेकर अस्तित्व संबंधी जोखिमों का सामना कर रही उभरती अर्थव्यवस्थाओं की ज़रूरत को समझता हो. यही वो देश हैं, जो विकास और जलवायु के संक्रमण को संतुलित करते हैं. इसे निजी पूंजी में ज़रूरत से ज़्यादा हिस्सेदारों को कम करने के तंत्र को संस्थागत बनाना चाहिए. स्थानीय वित्तीय संस्थानों को हरित ऋण में भाग लेने में सक्षम बनाना चाहिए. अनुच्छेद 13 के तहत एक पारदर्शी ट्रैकिंग सिस्टम बनाना चाहिए, जो ना सिर्फ वित्त प्रवाह को बल्कि परिणामों की भी जानकारी दे.
प्रौद्योगिकी हस्तांतरण को भी बयानबाजी से वास्तविक साझेदारी की ओर बढ़ना चाहिए. अनुच्छेद 10 के मुताबिक तकनीकी सहायता का उद्देश्य सहयोग में तेज़ी लाना था, लेकिन व्यवहार में, बौद्धिक संपदा व्यवस्थाओं ने इसके प्रसार को धीमा कर दिया है. COP30 सह-स्वामित्व मॉडल, ओपन-सोर्स इनोवेशन प्लेटफ़ॉर्म और ग्लोबल साउथ के देशों में आपस में प्रौद्योगिकी साझेदारी के लिए मंच तैयार कर सकता है. इससे हरित प्रौद्योगिकियों तक पहुंच का लोकतंत्रीकरण होगा और सभी देशों को इसका फायदा मिलेगा.
पेरिस समझौते दूसरा, लेकिन महत्वपूर्ण हिस्सा अनुकूलन है और ये अपने हक के लिए बहुत लंबे समय से इंतज़ार कर रहा है. जिस तरह गर्मी की लहरें, बाढ़ और पानी का तनाव बढ़ रहा है, उसे देखते हुए अनुकूलन के महत्व को दरकिनार नहीं किया जा सकता. COP30 सम्मेलन में अनुकूलन पर वैश्विक लक्ष्य (जीजीए) को लेकर आगे बढ़ाने की उम्मीद है. हालांकि, ये भी ज़रूर है कि अनुकूलन के लक्ष्य सिद्धांतों से परे व्यावहारिक रास्तों तक जाएंगे. इसके लिए मापने योग्य संकेतक, डेटा सिस्टम और वित्त तंत्र की ज़रूरत होगी, जो समुदायों, शहरों और पारिस्थितिक तंत्र का समर्थन करता है.
भारत में 600 मिलियन से ज़्यादा लोग कृषि और मत्स्य पालन जैसे जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों पर निर्भर हैं. अनुकूलन एजेंडा इनकी आजीविका का अभिन्न अंग है. ऐसे में प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों, गर्मी-स्वास्थ्य कार्य योजनाओं और जल लचीलेपन ढांचे को मजबूत करना होगा. हालांकि, कई भारतीय शहरों में इसे परीक्षण के तौर पर संचालित किया जा रहा है, लेकिन वैश्विक अनुकूलन योजना को भी इस बारे में सूचित करना चाहिए.
जल, स्वास्थ्य और खाद्य प्रणालियों को अनुकूलन के संपर्क कड़ी के रूप में उभरना चाहिए. विश्व बैंक के अनुसार, 2030 तक पानी की कमी के कारण कुछ क्षेत्रों में सालाना सकल घरेलू उत्पाद में 6 प्रतिशत तक नुकसान हो सकता है. इसी तरह, कई देशों में जलवायु संकट से होने वाले रोग विकास के लाभों को कम कर रहे हैं. वेक्टर जनित बीमारियों से लेकर बहुत ज़्यादा गर्मी लोगों को संकट में डाल रही है. COP30 को इन सभी ज़मीनी वास्तविकताओं को राष्ट्रीय योजना ढांचे में शामिल करना चाहिए.
COP30 सम्मेलन ब्राज़ील के जिस बेलेम शहर में हो रहा है, वो अमेज़ॉन जंगलों के पास स्थित है. इसलिए COP30 का बहुत प्रतीकात्मक महत्व भी है. अमेज़ॉन के जंगल दुनिया का सबसे बड़ा कार्बन सिंक है. कार्बन सिंक एक ऐसी प्राकृतिक और कृत्रिम प्रणाली को कहा जाता है जो वायुमंडल में जितना कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) छोड़ती है, उससे ज़्यादा अवशोषित करती है. अमेज़ॉन हमारी सामूहिक विफलता और क्षमता का दर्पण है. इसका संरक्षण स्वदेशी अधिकारों, जैव विविधता और पृथ्वी की स्थिरता से जुड़ा है. जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) और वैश्विक जैव विविधता ढांचे के बीच सामंजस्य की बढ़ती मांग के बीच COP30 का आयोजन हो रहा है. सवाल ये है कि क्या हम प्रकृति की रक्षा करने से लेकर इसके साथ साझेदारी करने की तरफ बढ़ सकते हैं.
भारत और व्यापक वैश्विक दक्षिण के देशों के लिए COP30 जलवायु प्रशासन को फिर से परिभाषित करने का एक मौका है. 2023 में भारत ने जी-20 सम्मेलन की अध्यक्षता की थी. इसी के बाद से अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन, आपदा प्रतिरोधी बुनियादी ढांचे के लिए गठबंधन और मिशन LiFE (लाइफ स्टाइल फॉर इन्वायरमेंट) जैसी कार्यक्रमों का नेतृत्व भी भारत ने किया है. ऐसी पहल के ज़रिए भारत ने घरेलू नवाचार को वैश्विक सार्वजनिक भलाई कार्यक्रमों में बदलने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन किया है.
बेलेम में, भारत विकास सहयोग के एक नए मॉडल का समर्थन कर सकता है. ये मॉडल जलवायु महत्वाकांक्षा को समानता के साथ एकीकृत और जलवायु प्रशासन के हिसाब से बनाए गए बुनियादी ढांचे का निर्माण करता है. इसके अलावा, स्वच्छ प्रौद्योगिकी पारिस्थितिकी तंत्र को बढ़ावा देने और हरित नौकरियां पैदा करने के लिए त्रिकोणीय साझेदारी का लाभ उठाता है. वैश्विक जलवायु शासन की विश्वसनीयता अब इस बात पर निर्भर करती है, कि क्या ऐसे कार्यक्रमों का ज़मीन पर सफल कार्यान्वयन किया जा सकता है.
COP30 को बातचीत से ज़्यादा इस सबूत के लिए याद किया जाएगा कि पेरिस समझौता अभी भी काम करता है. हालांकि, अब इसे सिर्फ जलवायु नीति तक सीमिय ना रखकर धरातल पर उतारना चाहिए. कागजों पर किए गए वादे काफ़ी नहीं है, आम लोगों के जीवन में बदलाव दिखना चाहिए.
पेरिस समझौते के दस साल बाद, बेलेम का संदेश स्पष्ट होना चाहिए. आधे-अधूरे उपायों का युग ख़त्म हो गया है. अगला दशक डिलीवरी के बारे में होना चाहिए.
पेरिस समझौते के दस साल बाद, बेलेम का संदेश स्पष्ट होना चाहिए. आधे-अधूरे उपायों का युग ख़त्म हो गया है. अगला दशक डिलीवरी के बारे में होना चाहिए. अब कूटनीति और दिखावा नहीं, बल्कि परिणाम चाहिए. अगर पेरिस समझौता एक उम्मीद था तो बेलेम COP30 उस उम्मीद पर रचा गया इतिहास होना चाहिए.
अपर्णा रॉय ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक डिप्लोमेसी में जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा की मुखिया और फेलो हैं
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Aparna Roy is a Fellow and Lead Climate Change and Energy at the Centre for New Economic Diplomacy (CNED). Aparna's primary research focus is on ...
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