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अफ़ग़ानिस्तान में मीडिया के ख़िलाफ़ कार्रवाई के मक़सद बिल्कुल साफ़ हैं- नैरेटिव को नियंत्रित करना, विरोध के सुरों को ख़ामोश करना और अफ़ग़ान जनता की जानकारियों तक पहुंच को सीमित करना.
2021 में अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर दोबारा क़ाबिज़ होने के बाद जब तालिबान ने ‘नरमपंथी’ रुख़ अपनाने और ‘सबको साथ लेकर शासन करने’ का जो वादा किया था, उससे संकेत मिला था कि 1990 के दशक में तालिबान के शासनकाल में कट्टर इस्लामिक राज के जो भयावह मंज़र देखने को मिले थे, उनसे इस बार का शासन अलग होगा. वैसे तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने तालिबान की इन घोषणाओं को शुरू से ही शक की नज़र से देखा था और इसे वैश्विक मान्यता प्राप्त करने की तालिबान की सोची समझी रणनीति का हिस्सा समझा था. लेकिन, जिस अभूतपूर्व स्तर पर तालिबान ने अपने भीतर बदलाव की बात की थी, उससे उम्मीद की एक किरण तो दिख रही थी. लोगों को अपेक्षा थी कि भू-राजनीतिक मजबूरियों को देखते हुए तालिबान की विचारधारा में कुछ नरमी तो आएगी.
तालिबान बेहद सख़्ती के साथ सूचना के प्रवाह को नियंत्रित कर रहा है और बहुत सोच समझकर ऐसा नैरेटिव गढ़ रहा है, जिसमें विरोध के सुरों को ख़ामोश किया जा रहा है और तालिबान की हुकूमत की एक ख़ुशनुमा तस्वीर पेश की जा रही है.
पिछले ढाई वर्षों के दौरान तालिबान ने, मीडिया और बोलने की आज़ादी देने वाले स्वतंत्र संस्थानों पर जितनी तेज़ी से शिकंजा कसा है, उसने ‘सुधरे हुए तालिबान’ के धोखे का पर्दाफ़ाश कर दिया है. अनुमान बताते हैं कि सत्ता में आने के बाद से तालिबान ने मीडिया के अधिकारों के ख़िलाफ़ जाने वाले 450 से ज़्यादा क़दम उठाए हैं. इसमें तीन पत्रकारों की हत्या, 219 की नज़रबंदी और शारीरिक हिंसा एवं धमकी देने की 235 घटनाएं शामिल हैं. इसी की वजह से लगभग 53 प्रतिशत पत्रकारों की नौकरी चली गई है. आज पत्रकारों के बीच डर और ज़ुल्म-ओ-सितम का माहौल है, जिसकी वजह से वो ख़ुद से सेंसरशिप पर ज़ोर दे रहे हैं. पत्रकारों की सुरक्षा और काम करने के हालात, ख़ास तौर से महिला पत्रकारों की स्थिति बेहद नाज़ुक हो गई है. तालिबान बेहद सख़्ती के साथ सूचना के प्रवाह को नियंत्रित कर रहा है और बहुत सोच समझकर ऐसा नैरेटिव गढ़ रहा है, जिसमें विरोध के सुरों को ख़ामोश किया जा रहा है और तालिबान की हुकूमत की एक ख़ुशनुमा तस्वीर पेश की जा रही है.
सत्ता पर क़ाबिज़ होने के बाद से तालिबान ने अफ़ग़ान मीडिया पर शिकंजा बहुत कस दिया है. वैसे तो शुरुआत में तालिबान के प्रवक्ता ने उस वक़्त काम कर रहे मीडिया और सूचना हासिल करने के क़ानून को ऊपरी तौर पर इजाज़त देने की बात कही थी और इशारा किया था कि मीडिया की स्वतंत्रता उसे क़ुबूल होगी. लेकिन, बाद में तालिबान ने ऐसे कई फ़रमान जारी किए हैं, जो उनके बयानों के ठीक उलट रहे हैं.
सितंबर 2021 में तालिबान ने ‘पत्रकारिता के 11 नियम’ जारी किए थे, ताकि मीडिया और उसमें चलाई जाने वाली ख़बरों का विनियमन और उन पर नियंत्रण रखा जा सके. स्पष्टता न होने और इनको लागू करने की व्यापक गुंजाइश के चलते इन नियमों की कड़ी आलोचना हुई थी. ख़ास तौर से उन ख़बरों को लेकर जो ‘इस्लाम के उलट’ हैं या फिर ‘देश की हस्तियों के लिए अपमानजनक’ मानी जा सकती हैं. इन नियमों में वो अंतरराष्ट्रीय मानक भी शामिल नहीं थे, जो इससे पहले के अफ़ग़ानिस्तान के क़ानूनों में मिलते थे. इससे इनको इकतरफ़ा ढंग से लागू करना और भी आसान हो गया. अप्रैल 2024 में तालिबान के अधिकारियों ने तीन पत्रकारों को हिरासत में ले लिया और उनके निजी मालिकाना हक़ वाले चैनलों का प्रसारण रोक दिया. इन चैनलों के नाम नूर टीवी और बरया थे. इन चैनलों पर इल्ज़ाम लगाया गया कि वो ‘राष्ट्रीय और इस्लामिक मूल्यों’ उल्लंघन कर रहे थे. हालांकि, तालिबान ने ये नहीं बताया कि ये चैनल ऐसा कैसे कर रहे थे.
यही नहीं, कुछ नियमों के तहत पत्रकारों को ख़बरें प्रकाशित या प्रसारित करने के लिए अधिकारियों से पुष्टि करनी होती है. असुरक्षा मानव अधिकार और भ्रष्टाचार जैसे विषयों पर ख़बरें देने पर पाबंदी लगी हुई है. मीडिया पर दबाव बनाया जाता है कि वो तालिबान की अच्छी तस्वीर पेश करें और उन पर आम अफ़ग़ान नागरिकों या अप्रवासियों से बात करने पर रोक लगाई गई है. मीडिया की निगरानी करने वाली तालिबान की संस्था, गवर्नमेंट मीडिया ऐंड इन्फॉर्मेशन सेंटर (GMIC) मीडिया संगठनों से अपील करती है कि वो अपनी ख़बरें उसके साथ तालमेल से प्रकाशित करें. इससे पहले से मंज़ूर की गई ख़बरें ही दिखाई जाने और स्वतंत्र रूप से रिपोर्टिंग को हतोत्साहित किया जाता है. इस वजह से मीडिया पर 1990 के दशक जैसी कड़ी पाबंदी की आशंकाएं और बढ़ जाती हैं.
मीडिया की निगरानी करने वाली तालिबान की संस्था, गवर्नमेंट मीडिया ऐंड इन्फॉर्मेशन सेंटर (GMIC) मीडिया संगठनों से अपील करती है कि वो अपनी ख़बरें उसके साथ तालमेल से प्रकाशित करें.
आज की तारीख़ में 17 समानांतर दिशा निर्देश जारी किए गए हैं और पूरे अफ़ग़ानिस्तान में उन्हें लागू किया जा रहा है. वैसे तो इन दिशानिर्देशों के उल्लंघन पर जुर्माने के प्रावधानों का आधिकारिक रूप से ऐलान नहीं किया गया है. लेकिन, मीडिया संगठनों को धमकियां दी जाती हैं. गिरफ़्तार किया जाता है और दिशा निर्देश न मानने पर दंडात्मक कार्रवाई भी की जाती है. ये दिशा निर्देश सरकारी आदेश के तौर पर जारी किए जाते हैं, जिनकी वजह से ये वैधानिक प्रक्रिया से नहीं गुज़रते. इन निर्देशों को कंधार में बैठे तालिबान के नेता और हेलमंद और खोस्त सूबों के अधिकारी, सूचना और संस्कृति मंत्रालय, पाप और पुण्य का मंत्रालय, खुफिया महानिदेशालय (GDI) और इस्तिख़बरात लागू करते हैं और ये वास्तविक क़ानूनों की तरह लागू किए जाते हैं, जिसकी वजह से गणतांत्रिक सरकार के दौरान मीडिया को मिली आज़ादी को चोट पहुंचती है.
एक दौर में अफ़ग़ानिस्तान में निजी मीडिया सेक्टर ख़ूब फल फूल रहा था और वो विदेशों से निवेश पर बहुत बुरी तरह निर्भर था. ये प्राइवेट मीडिया, सरकारी समाचार प्रसारण सेवा का एक जीवंत विकल्प था. लेकिन, तालिबान की पाबंदियों ने प्राइवेट मीडिया का लगभग ख़ात्मा कर दिया है. फंडिंग में कटौती और हमलों की वजह से बहुत से पत्रकार देश छोड़कर भाग गए हैं. इनमें से कई ने विदेश में बैठकर अफ़ग़ान नागरिकों के लिए अपने डिजिटल मीडिया संगठनों की शुरुआत की है. अमेरिका ने ‘रिपोर्टिंग सेफली इन अफ़ग़ानिस्तान’ के नाम से एक कार्यक्रम की शुरुआत की है, ताकि वो विदेशी माध्यमों से आपातकालीन स्थिति में मदद कर सके और सूचना के प्रवाह में मदद कर सके. वहीं. USAID ने 2026 तक अफ़ग़ान सपोर्ट प्रोजेक्ट को 2 करोड़ डॉलर की मदद का एलान किया है. हालांकि, तालिबान इन संगठनों को ‘दुष्प्रचार की मशीनें’ कहता है और इससे जुड़े पत्रकारों को मौजूदा क़ानूनों के तहत अवैध बताते हुए हिरासत में लेता रहता है.
आरोप है कि तालिबान के अधिकारियों ने बहुत सी महिला पत्रकारों को ‘ब्लैकलिस्ट’ कर दिया है.
भयंकर सेंशरशिप की वजह से ख़बरें दिखाने वालों के लिए फ़ेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म अब बिना सेंसर वाली ख़बरों के अहम माध्यम बन गए हैं, जो अफ़ग़ानिस्तान में सोशल मीडिया के 31.5 लाख यूज़र्स के लिए सूचना का प्रमुख ज़रिया हैं. अप्रैल 2024 में तालिबान ने ‘राष्ट्रीय हित’ और युवाओं द्वारा दुरुपयोग किए जाने का हवाला देकर फ़ेसबुक को ब्लॉक करने का प्रस्ताव रखा था. दिलचस्प बात ये है कि तालिबान के अधिकारी खुद फ़ेसबुक और X जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का ख़ूब इस्तेमाल करते हैं और अफ़ग़ानिस्तान के आर्थिक, सुरक्षा संबंधी और राजनीतिक हालात की ख़ुशनुमा तस्वीर पेश करते हैं. उनका ये पाखंड, फ़ेसबुक की मालिकाना कंपनी मेटा द्वारा तालिबान से जुड़े खातों और फ़र्ज़ी नामों से चलाए जा रहे एकाउंट पर पाबंदी लगाने के बाद उजागर हो गई थी. इस पाबंदी को अफ़ग़ानिस्तान से सूचना के प्रवाह पर किया गया अंतिम प्रहार क़रार दिया गया था.
तालिबान की महिला विरोधी छवि, उनके हाल में सत्ता में आने से पहले से बनी हुई है. उनकी नीतियां पहले की हुकूमत से मिलती जुलती हैं और इनसे, शुरुआत में किए गए वादों के उलट, महिलाओं को संस्थागत तरीक़े से मीडिया और सार्वजनिक जीवन से दूर किया जा रहा है. इन क़दमों का तबाही लाने वाला नतीजा देखने को मिल रहा है. तालिबान द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों की वजह से लगभग 80 प्रतिशत महिला पत्रकारों की नौकरियां चली गई हैं. वो हर वक़्त डर और शोषण के साए में जीने को मजबूर हैं.
तालिबान के सत्ता में आने की आशंका को देखते हुए, मीडिया संगठनों ने पहले ही महिलाओं से घर पर ही रहने को कहना शुरू कर दिया था, और तालिबान द्वारा मीडिया कंपनियों के बाहर तैनाती करने से ये चलन और तेज़ हो गया. 2022 की शुरुआत में कुछ महिलाएं काम पर लौटी ज़रूर थीं. लेकिन, तालिबान का राज आने से पहले की तुलना में केवल 17 फ़ीसद महिलाएं ही मीडिया में बची हैं, जो काफ़ी कम है. आरोप है कि तालिबान के अधिकारियों ने बहुत सी महिला पत्रकारों को ‘ब्लैकलिस्ट’ कर दिया है. इससे सुरक्षा संबंधी चिंताओं के कारण सूचना के तंत्र से महिलाओं की भगदड़ मच गई.
यही नहीं, तालिबान द्वारा महिलाओं के कपड़े पहनने को लेकर जारी किए जाने फ़रमानों की वजह से बहुत सी महिला पत्रकारों की स्थिति नाज़ुक हो जाती है, क्योंकि उनकी पहचान महिला होने के साथ साथ पत्रकारिता से भी जुड़ जाती है. नवंबर 2021 में पाप और पुण्य के मंत्रालय ने महिला पत्रकारों और रिपोर्टर्स को ऑन एयर हिजाब पहनने का आदेश जारी किया था. हालांकि, ऐसा पहले से हो रहा था. मंत्रालय के एक प्रवक्ता ने कुछ रियायत का संकेत देते हुए स्पष्टीकरण दिया कि ये कोई नियम नहीं, महज़ एक ‘मज़हबी दिशा निर्देश’ है. बाद में मई 2022 में इसे ‘पूरा चेहरा ढकने’ में तब्दील कर दिया. इस बार मंत्रालय ने इसे ऐसा धार्मिक हुक्म बताया, जिससे कोई समझौता नहीं किया जा सकता और इसका सख़्ती से पालन करना होगा. मंत्रालय ने बार बार दोहराया कि इस बात पर कोई बहस नहीं हो सकती है.
तालिबान ने कहा कि, इसमें लैंगिकता के आधार पर विभेद नहीं होगा और सभी नागरिक मीडिया में काम कर सकेंगे. हालांकि, ये वादे व्यापक संदर्भों से टकराने वाले हैं.
ये फ़रमान महिलाओं के रोज़गार की संभावनाओं पर सोचा समझा हमला है. इससे मीडिया चैनलों पर ये ज़िम्मेदारी डाल दी जाती है कि उसकी महिला कर्मचारी इन नियमों का पालन करें और कई बार तो उन्हें ऐसा न करने वाली महिलाओं को ऑफ एयर करने को भी कहा जाता है. इससे, पुरुष कर्मचारियों द्वारा अपनी महिला साथियों को डराने, उनकी सुरक्षा और पेशेवराना रवैये को प्रभावित करने का मौक़ा मिल जाता है. वैसे तो कुछ महिला पत्रकार इस नए हालात के मुताबिक़ ख़ुद को बदलने के लिए तैयार हैं. लेकिन, बहुतों को ये डर भी लगता है कि इस वजह से वो प्रोग्रामिंग के कार्यक्रमों को प्रभावी तरीक़े से पेश नहीं कर सकेंगी. न सूचना और तस्वीरों का वर्णन ठीक से कर सकेंगी और न ही दर्शकों से उनका संपर्क हो सकेगा. कैमरे पर आने को लेकर लगाई गई पाबंदियों की वजह से रेडियो उद्योग अक्सर महिला ब्रॉडकास्टर्स को एक अच्छा मौक़ा और शरण देने वाला बन गया है, हालांकि, तालिबान केवल उन्हीं रेडियो स्टेशनों पर महिलाओं को नौकरी करने की इजाज़त देता है, जिसमें सारी महिलाएं काम करती हों और अफ़ग़ानिस्तान में ये बात दुर्लभ है. हाल ही में तालिबान ने महिलाओं की आवाज़ और उनके इंटरव्यू के प्रसारण पर रोक लगा दी थी. इससे सार्वजनिक जीवन से महिलाओं को पूरी तरह मिटा देने का उनका इरादा काफ़ी गंभीर नज़र आता है.
इसके अलावा, महिला पत्रकार आवाजाही और यातायात पर लगाई गई पाबंदियों को भी झेलती हैं. बिना पुरुष सहकर्मी (महरम) के थोड़ी दूर से ज़्यादा के सफ़र पर लगी पाबंदी के कारण उनके लिए फील्ड में जाकर रिपोर्टिंग करना लगभग नामुमकिन हो जाता है. अफ़ग़ान महिला पत्रकारों ने बताया है कि उन्हें तालिबान द्वारा की जानी वाली प्रेस कांफ्रेंस और इंटरव्यू से दूर रखा जाता है. हालांकि, कुछ तालिबान अधिकारी ग़ैर अफ़ग़ान महिला पत्रकारों से बात करते हैं. इसी से उनके भेदभाव भरे नज़रिए का पता चलता है.
तालिबान द्वारा मीडिया में काम करने वाली महिलाओं को लेकर जारी किए जाने वाले उलट पुलट भरे फ़रमान कभी हां तो कभी ना वाला रवैया दिखाते हैं. इससे तालिबान के भीतर चल रहे संघर्ष का भी पता चलता है. रियायत के हर क़दम के ख़िलाफ़, कट्टरपंथी कंधार गुट द्वारा कोई सख़्त क़दम उठा लिया जाता है. क्योंकि कंधार गुट के पास ही सर्वोच्च शक्ति है. ये बात 2022 में महिलाओं के पढ़ने को लेकर दी गई छूट को वीटो करने के दौरान साफ़ नज़र आई थी.
अफ़ग़ानिस्तान में मीडिया के विनियमन को लेकर तालिबान का जो रवैया रहा है, वो विरोधाभासों का अध्ययन है. 20224 के विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में अफ़ग़ानिस्तान 26 अंक गिरकर 180 देशों की सूची में 178वें स्थान पर पहुंच गया था. इसे मीडिया की आज़ादी के लिहाज़ से दुनिया के सबसे ख़तरनाक देशों में गिना जाता है.
इस चुनौतीपूर्ण संदर्भ में तालिबान ने मीडिया के लिए नए क़ानून का प्रस्ताव रखा है, जिसमें मौजूदा क़ानूनों को शरीयत क़ानूनों के हिसाब से ‘थोड़ा सा अनुरूप’ बनाने की कोशिश की गई है. हालांकि तालिबान ने कहा कि, इसमें लैंगिकता के आधार पर विभेद नहीं होगा और सभी नागरिक मीडिया में काम कर सकेंगे. हालांकि, ये वादे व्यापक संदर्भों से टकराने वाले हैं.
तालिबान ने अनौपचारिक रूप से इस्लाम के हनफ़ी सिद्धांतों को देश के सर्वोच्च क़ानून के तौर पर मान्यता दी हुई है. इसके अलावा तालिबान द्वारा औपचारिक रूप से संवैधानिक मान्यता न लेने से उनके अमीर हिबतुल्लाह अख़ुंदज़ादा के पास देश के क़ानूनों की क़िस्मत तय करने की असीमित शक्तियां हैं, इसमें मीडिया का नया क़ानून भी शामिल है. तालिबान का रिकॉर्ड दिखाता है कि उनकी घोषणाओं और वास्तविकता में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ होता है. नए क़ानून में भी स्थानीय प्रतिनिधित्व की बात ग़ायब है. वहीं मीडिया की फंडिंग को लेकर दुविधा और ख़ुफ़िया निदेशालय (GDI) के असीमित अधिकारों को लेकर आशंकाएं जताई जा रही हैं. इससे पता चलता है कि फ़रमानों और हुक्मों को लेकर अपारदर्शिता का जो दौर चल रहा है, वो नए क़ानूनों का भी हिस्सा बन जाएगा. हो सकता है कि काग़ज़ पर तो तालिबान सुनने में बहुत अच्छा लगने वाला मीडिया का क़ानून पेश करे. लेकिन, पारदर्शिता की कमी और क़ानून की अपने अपने हिसाब से व्याख्या किए जाने की आशंका को देखते हुए असलियत में तो पत्रकारों के लिए बेहद विपरित माहौल बनने का डर होगा. पर, ये क़ानून अभी अटका हुआ है और इन तमाम आशंकाओं के बावजूद पत्रकार इसे लागू करने की मांग कर रहे हैं. किसी व्यापक रूप-रेखा के अभाव में तमाम कमियों वाला क़ानून भी किसी न किसी तरह की क़ानूनी स्पष्टता का प्रतीक तो बनेगा.
मीडिया के ऊपर सख़्ती करने के पीछे के मक़सद बिल्कुल साफ़ हैं. तालिबान इसके ज़रिए नैरेटिव को अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं, और वो विरोध के सुरों को दबाना और अंतत: सूचना तक आम अफ़ग़ान नागरिकों की पहुंच सीमित करना चाहते हैं. शरीयत की कट्टरपंथी व्याख्या और हिजाब को ज़बरदस्ती लागू करना, पुराने राज की वापसी की बर्बर तस्वीर पेश करते हैं और ये प्रभावी तौर पर तालिबान 2.0 के विज़न को दिखाते हैं, जिसमें महिलाओं को सार्वजनिक जीवन के ज़्यादा से ज़्यादा पहलुओं से दूर रखने की कोशिश हो रही है. इससे तालिबान की छवि एक पुरातनपंथी हुकूमत की बनती है. अंतरराष्ट्रीय मान्यता को लेकर कम होती दिलचस्पी के चलते उनका ज़ोर भी इसी पर है. क्योंकि तालिबान को लगता है कि उन्होंने काम भर के कूटनीतिक संबंध तो बना ही लिए हैं और उनको अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग थलग करने की कोशिशें भी नाकाम रही हैं.
यही नहीं, कंटेंट, रिपोर्टिंग के तरीक़ों और इंटरव्यू के विषयों पर पाबंदियों से अफ़ग़ान मीडिया जानकारी का ऐसा अविश्वसनीय स्रोत बन गया है, जिस पर तुरंत भरोसा नहीं किया जा सकता. ऐसे में अंतरराष्ट्रीय समुदाय को इसकी और गहराई से पड़ताल करने की ज़रूरत पड़ेगी. तालिबान ने शुरुआत में जो घोषणाएं की थीं, उनका मक़सद वैधता हासिल करना औऱ अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाओं का आकलन करना था. अब चूंकि सत्ता पर उनकी पकड़ मज़बूत हो गई है तो तालिबान के लिए समझौता करने में कोई फ़ायदा नहीं दिख रहा है. ऐसे में अफ़ग़ान मीडिया के लिए आगे की राह कमज़ोर दिखने के साथ साथ भय और ज़ुल्म भरी ही दिख रही है
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Vaishali Jaipal is an intern with the Strategic Studies Programme at the Observer Research Foundation ...
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