आर्थिक मंदी, सकल घरेलू उत्पाद, आय, आर्थिक सुधार, भारतीय अर्थव्यवस्थाहाल में भारतीयरिज़र्व बैंक (आरबीआई), नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफ़िस (एनएसओ) और वाणिज्य व उद्योग मंत्रालय की तरफ से जारी किए गए आंकड़ों से अर्थव्यवस्था की खराब हालत सामने आई है. इन्हें देखकर यह लगता है कि देश लंबे समय की आर्थिक सुस्ती के दौर में प्रवेश कर चुका है. अगस्त के आखिरी हफ्ते में आरबीआई ने 2018-19 की सालाना रिपोर्ट जारी की. इसमें वित्त वर्ष 2020 में देश की जीडीपी ग्रोथ के 6.9 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया है, जो रिज़र्व बैंक के पहले अनुमान से आधा प्रतिशत कम है. इसके तीन दिन बाद नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफ़िस ने वित्त वर्ष 2020 की पहली तिमाही में देश की जीडीपी ग्रोथ 5 प्रतिशत रहने की जानकारी दी, जो पिछले 6 साल में सबसे कम आर्थिक विकास दर है. आखिर में, 2 सितंबर को वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय ने जो आंकड़े जारी किए, उनसे पता चला कि आठ कोर सेक्टर की ग्रोथ जुलाई में घटकर 2.1 प्रतिशत रह गई, जो साल भर पहले के इसी महीने में 7.3 प्रतिशत थी.
फ़िगर 1 में दिखाया गया है कि वित्त वर्ष 2019 की पहली तिमा में जीडीपी ग्रोथ 8 प्रतिशत थी, जो 2020 की पहली तिमाही में गिरकर 5 प्रतिशत पर आ गई. जीडीपी के अलग-अलग कंपोनेंट और अप्रैल-जून तिमाही में सालाना ग्रोथ की तुलना टेबल 1 में की गई है. प्राइवेट कंजम्पशन एक्सपेंडिचर (पीएफसीई) यानी निजी खपत को कुल मांग की बुनियाद माना जाता है, जो 7.3 प्रतिशत से घटकर 3.1 प्रतिशत रह गई. जून 2012 के बाद यह पीएफसीई का सबसे निचला स्तर है. यहां तक कि निवेश (ग्रॉस फिक्स्ड कैपिटल फॉर्मेशन), निर्यात-आयात की रफ़्तार भी वित्त वर्ष 2020 की पहली तिमाही में साल भर पहले की इसी तिमाही से कमजोर रही है. सिर्फ गवर्नमेंट एक्सपेंडिचर (जीएफसीई) यानी सरकारी ख़र्च में साल भर पहले की तुलना में अधिक बढ़ोतरी हुई है.
आर्थिक सुस्ती को समझने के लिए आंकड़ों के साथ सेंटीमेंट पर गौर करना भी जरूरी है. आरबीआई की तरफ से किए जाने वाले कंज्यूमर कॉन्फिडेंस सर्वे (सीसीएस) के मुताबिक, जुलाई में ग्राहकों का भरोसा घटकर 95.7 पर आ गया था, जो मई में 97.3 पर था. सामान्य आर्थिक हालात, रोज़गार, महंगाई, आमदनी और ख़र्च पर लोगों की राय से पता चलता है कि उनकी नज़र में आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है. डिमांड में कमी आने के बीच ग्राहकों ने सोच-समझकर ख़र्च घटाने का फैसला किया है.
लोगों की राय से पता चलता है कि उनकी नज़र में आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है. डिमांड में कमी आने के बीच ग्राहकों ने सोच-समझकर ख़र्च घटाने का फैसला किया है.
कंजम्पशन में गिरावट से आई आर्थिक सुस्ती
आरबीआई की सालाना रिपोर्ट में यह भी बताया गया था कि सुस्ती की कई वजहें हैं और उन्हें एक दूसरे से अलग करना मुश्किल है. इसमें यह भी लिखा था कि भारतीय अर्थव्यवस्था अभी चक्रीय सुस्ती (साइक्लिकल स्लोडाउन) की शिकार है या ढांचागत सुस्ती (स्ट्रक्चरल स्लोडाउन) की या वह वह अस्थायी कमज़ोरीका सामना कर रही है, इसका पता लगाना आसान नहीं है. यह बात सच है कि जटिल आर्थिक हालात को समझाना और साफ शब्दों में बताना आसान नहीं होता, लेकिन उससे बड़ा सच यह है कि देश के एक आम इंसान के लिए रोज़गार और पगार में बढ़ोतरी अधिक मायने रखती है. उसे इससे मतलब नहीं है कि अर्थव्यवस्था के लिए किन शब्दावलियों का इस्तेमाल हो रहा है. मज़दूरी में धीमी बढ़ोतरी, बढ़ती बेरोज़गारी और कुछ क्षेत्रों में छंटनी से न सिर्फ लेबर मार्केट पर दबाव बढ़ गया है बल्कि इससे ग्राहकों का भरोसा हिल गया है और उसका डिमांड पर बुरा असर पड़ रहा है.
मज़दूरी में धीमी बढ़ोतरी, बढ़ती बेरोज़गारी और कुछ क्षेत्रों में छंटनी से न सिर्फ लेबर मार्केट पर दबाव बढ़ गया है बल्कि इससे ग्राहकों का भरोसा हिल गया है और उसका डिमांड पर बुरा असर पड़ रहा है.
इस रिपोर्ट में वित्त वर्ष 2020 की पहली तिमाही में दोपहिया और ट्रैक्टरों की बिक्री में आई क्रमशः 8.8 प्रतिशत और 14.1 प्रतिशत का भी जिक्र किया गया है. इनसे पता चलता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी कंजम्पशन डिमांड में कमी आई है. इसी तरह से कारों की बिक्री, घरेलू हवाई यात्रा करने वालों की संख्या में कमी, टीवी-इलेक्ट्रिकल अप्लायंस और दोपहिया की बिक्री घटने से शहरों में भी खपत घटने का पता चलता है. देश के जीडीपी में कंजम्पशन का योगदान 57 प्रतिशत है. इसलिए इसे भारतीय इकॉनमी की बुनियाद माना जाता है. देश की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने का तुरंत कोई उपाय नहीं है, लेकिन इतना तो साफ है कि देश में आर्थिक गतिविधियों में तेजी लाने के लिए कंजम्पशन डिमांड को बढ़ाना ज़रूरी है.
ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर ख़ास ध्यान देने के साथ रोज़गार और मज़दूरी बढ़ाने को प्राथमिकता में शामिल करना होगा
आरबीआई की सालाना रिपोर्ट में इसका जिक्र किया गया है कि खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में मांग घटने से कंजम्पशन ग्रोथ घटी है. वित्त वर्ष 2020 की पहली तिमाही के जीडीपी डेटा से खेती, फॉरेस्ट्री और मछली पालन सेगमेंट पर दबाव की बात सामने आई है. जून तिमाही में इसकी ग्रोथ 2 प्रतिशत रही, जबकि एक साल पहले की इसी तिमाही में यह 5.1 प्रतिशत थी. रिपोर्ट में किसानों की आमदनी बढ़ाने और खेती को लेकर नई सोच की जरूरत पर जोर दिया गया है. एसबीआई की हालिया रिसर्च रिपोर्ट में भी इसी तर्ज पर बताया गया है कि वित्त वर्ष 2014 में वास्तविक ग्रामीण मज़दूरी में 14.6 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई थी, जो वित्त वर्ष 2019 में घटकर सिर्फ 1.1 प्रतिशत रह गई. इसमें यह भी लिखा है कि मज़दूरी में मामूली बढ़ोतरी ग्रामीण क्षेत्रों में डिमांड कम होने की सबसे बड़ी वजह है. इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि कंजम्पशन डिमांड में बढ़ोतरी सरकार की रोज़गार पैदा करने की क्षमता और ग्रामीण क्षेत्रों में मज़दूरी बढ़ने पर टिकी है. रोज़गार, आमदनी और कंजम्पशन के आपसी रिश्ते को समझने के लिए अर्थशास्त्र की डिग्री लेना जरूरी है. यह कॉमन सेंस की बात है. इसलिए सरकार को रिज़र्व बैंक से जो 1.76 लाख करोड़ रुपये मिले हैं, उसका इस्तेमाल ग्रामीण क्षेत्रों में डिमांड बढ़ाने के लिए किया जाना चाहिए. इसमें ग्रामीण इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स पर ख़र्च बढ़ाने से काफी मदद मिल सकती है. इससे इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़े सीमेंट, स्टील और बिजली जैसे क्षेत्रों में भी तेजी आएगी, जिससे रोज़गार को बढ़ावा मिलेगा.
ग्रामीण अर्थव्यवस्था आज कई बुनियादी मुश्किलों का सामना कर रही है. उन्हें दूर करने के लिए कच्चे माल की सप्लाई, सिंचाई, तकनीक के इस्तेमाल को बढ़ावा और इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार करना होगा.
जहां तक ग्रामीण क्षेत्रों में मज़दूरी और किसानों की आमदनी की बात है तो इकॉनमिक सर्वे 2018-19 में 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने के सरकारी लक्ष्य पर चर्चा हुई थी. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट भाषण में भी इसका जिक्र किया था. हालांकि, वित्त मंत्री के भाषण और सर्वे में उन योजनाओं के बारे में बताया गया था, जिन्हें पहले ही लॉन्च किया जा चुका है. उनमें इसके लिए किसी नई योजना या पहल की जानकारी नहीं दी गई थी. ग्रामीण अर्थव्यवस्था आज कई बुनियादी मुश्किलों का सामना कर रही है. उन्हें दूर करने के लिए कच्चे माल की सप्लाई, सिंचाई, तकनीक के इस्तेमाल को बढ़ावा और इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार करना होगा.
इन सबके बीच सरकार के राहत पैकेज के ऐलान से लोगों का भरोसा बढ़ा है. हालांकि, उसके इस चुनौती से निपटने को तैयार दिखने के साथ आर्थिक सुस्ती के कहीं गहरे होने की आशंका भी बढ़ी है, जिसकी सही तस्वीर आंकड़ों में नहीं दिख रही है. यह बात सही है कि आर्थिक सुस्ती की कई वजहें होती हैं और इसे किसी एक राहत पैकेज या आर्थिक सुधार से ठीक नहीं किया जा सकता. इसके बावज़ूद यह कहना गलत नहीं होगा कि अगर सरकार ग्रामीण संकट को दूर करती है तो उससे कंजम्पशन डिमांड बढ़ेगी और इकॉनमी को शायद इसी का इंतजार है.
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