सत्ता में आने के 45 दिनों के भीतर जो बाइडेन प्रशासन ने राष्ट्रीय सुरक्षा और सामरिक नीति के स्पष्ट अंतरिम निर्देश तैयार करने में सफलता हासिल की है. जिस गति और जितने व्यापक तरीक़े से ये निर्देश तैयार किए गए हैं, वो इससे पहले के प्रशासन के दौरान नीतिगत मामलों में भटकाव से बिल्कुल अलग दिशा में चलने का इशारा करते हैं.
बाइडेन प्रशासन द्वारा जारी इस मार्गदर्शन की कोशिश ये है कि वो सरकार के हर अंग को उसकी प्राथमिकताओं का संकेत साफ़ तौर से दे सके. इसके पीछे का संदेश ये है कि मौजूदा प्रशासन, पेशेवर लोगों के हाथों में है. जहां किसी नीति को लेकर अटकलें लगाने की ज़रूरत नहीं है. न ज़रूरत इस बात का इंतज़ार करने की है कि राष्ट्रपति के ट्विटर हैंडल से रोज़ क्या ट्वीट किए जाते हैं.
चीन को न सिर्फ़ अमेरिका के लिए सबसे बड़ी चुनौती बताया जा रहा है बल्कि उसे अमेरिका के नेतृत्व वाले गठबंधनों की निगरानी में चलने वाली विश्व व्यस्था के लिए भी ख़तरा बताया जा रहा है.
सबसे अहम बात अमेरिका की वो प्रतिबद्धता है कि वो एक बहुध्रुवीय दुनिया में बहुपक्षीयवाद को दोबारा स्थापित करना चाहता है- बाइडेन प्रशासन का ज़ोर इस बात पर है कि आज जब दुनिया ऐसी चुनौतियों से दो-चार है, जो देशों की सीमाओं से परे हैं, तो अमेरिका इन समस्याओं का समाधान अन्य देशों के साथ मिलकर करके तलाशने की कोशिश करेगा.
आज दुनिया में तानाशाही विश्व व्यवस्था और नियमों पर आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था के बीच तलवारें खिंची हुई हैं. चीन को न सिर्फ़ अमेरिका के लिए सबसे बड़ी चुनौती बताया जा रहा है बल्कि उसे अमेरिका के नेतृत्व वाले गठबंधनों की निगरानी में चलने वाली विश्व व्यस्था के लिए भी ख़तरा बताया जा रहा है.
अब जबकि अमेरिका की ओर से दोबारा कूटनीतिक प्रयासों पर ज़ोर देने की बात हो रही है, तो सवाल ये है कि आख़िर बाइडेन प्रशासन ने चीन को लेकर क्या रणनीति अपनायी है?
चीन को लेकर बाइडेन सरकार की रणनीति
चीन के मामले में बाइडेन प्रशासन ने अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों की नीतियों पर ही आगे बढ़ने का संकेत दिया है- इनमें पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की नीतियां भी शामिल हैं. चीन की पहचान एक ऐसे देश के तौर पर की गई है, जो अमेरिका के नेतृत्व वाली विश्व व्यवस्था को बड़े पैमाने पर चुनौती देने में सक्षम है. अमेरिका ये मानता है कि चीन उसे सुरक्षा, अर्थनीति, तकनीक और भू-सामरिक रणनीति जैसे तमाम मोर्चों पर चुनौती दे सकता है. इसके अलावा, बाइडेन प्रशासन ने ये चेतावनी भी दी है कि चीन और रूस जैसे तानाशाही देश, ईरान और उत्तर कोरिया सरीखे अन्य देशों के साथ मिलकर अमेरिका से मुक़ाबले के लिए गठबंधन बना सकते हैं.
सवाल ये है कि जो बाइडेन ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान अफ़ग़ानिस्तान से सेना को वापस बुलाने या अंतहीन युद्धों को ख़त्म करने का जो वादा किया था, उनका क्या होगा? क्या सऊदी अरब को लेकर वास्तव में अमेरिका के रुख़ में कोई बदलाव आ रहा है?
बाइडेन प्रशासन अफ़ग़ानिस्तान समस्या के समाधान के लिए बहुपक्षीय प्रयासों की ओर भी आगे बढ़ा है. इस मामले में उसने तुर्की की मदद ली है.
हम ये कह सकते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान से किसी भी सूरत में निकलने की ख़्वाहिश, अमेरिका की नई सरकार में भी दिखती है. लेकिन, बाइडेन प्रशासन अफ़ग़ानिस्तान समस्या के समाधान के लिए बहुपक्षीय प्रयासों की ओर भी आगे बढ़ा है. इस मामले में उसने तुर्की की मदद ली है. अमेरिका की कोशिश है कि वो तुर्की के माध्यम से रूस, चीन, पाकिस्तान, भारत और ईरान जैसे अलग-अलग प्राथमिकताओं वाले देशों को साथ लाकर, अफ़ग़ानिस्तान समस्या का एक स्थायी समाधान निकाल सके.
अफ़ग़ानिस्तान में तमाम देशों के हित बिल्कुल अलग हैं, जो अक्सर एक दूसरे से टकरा जाते हैं. यही कारण है कि सबको साथ लेकर, स्थायी समाधान खोजने की ये कोशिश सफल होने की उम्मीद कम ही है. आपस में टकराने वाले हितों के चलते, ये देश समाधान को अपने अपने हिसाब से ढालने की कोशिश करते हैं. ऐसा होने पर नुक़सान एक बार फिर अफ़ग़ानिस्तान की जनता का ही होगा. अफ़ग़ानिस्तान एक ऐसा मोर्चा है, जहां भारत के लिए अमेरिका के साथ चल पाना मुश्किल होगा.
जहां तक सऊदी अरब की बात है, तो भले ही पत्रकार जमाल ख़श्गोगी के क़त्ल के लिए अमेरिका ने प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान को निशाने पर लिया है. लेकिन, इस विवाद से इतर अमेरिका इस बात पर भी ज़ोर दे रहा है कि वो सऊदी अरब के साथ अपने रिश्तों का संतुलन बरक़रार रख सके.
मगर, पिछली सरकार की तुलना में जो बाइडेन प्रशासन की मध्य पूर्व संबंधी नीति में जो सबसे बड़ा बदलाव आया है-वो है फिलिस्तीन समस्या का दो राष्ट्रों के नज़रिए से समाधान करना. ट्रंप के शासनकाल में फ़िलिस्तीन के हितों को तगड़ा झटका लगा था.
चीन का बॉयकॉट का भय
इसी दौरान चीन में दो बड़े आयोजन होने वाले हैं-और साथ ही साथ चीन की नेशनल पीपुल्स कांग्रेस (NPC) ने हॉन्ग कॉन्ग में लोकतांत्रिक अधिकारों में और कटौती करने वाले क़दम उठाए हैं. चीन की नेशनल पीपुल्स कांग्रेस असल में कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा लिए गए फ़ैसलों का ही अनुसरण करती है.
चीन की एक बड़ी दुविधा है- वो दुनिया का अग्रणी देश बनकर उभरने की ख़्वाहिश तो रखता है. लेकिन, चुनौती ये है कि वो अपनी इस चाहत को पूरा कैसे करे, जब दुनिया में ऐसे देश बहुत कम हैं, जो उस पर विश्वास कर सकें. विश्व में अलग थलग पड़ जाने का चीन का भय ही है, जिसके चलते उसने हॉन्ग-कॉन्ग पर शिकंजा कसने के क़दम उठाए. लेकिन, इससे हुआ ये है कि वो तमाम देशों के बीच और भी अलग थलग पड़ गया है.
विश्व में अलग थलग पड़ जाने का चीन का भय ही है, जिसके चलते उसने हॉन्ग-कॉन्ग पर शिकंजा कसने के क़दम उठाए. लेकिन, इससे हुआ ये है कि वो तमाम देशों के बीच और भी अलग थलग पड़ गया है.
हॉन्ग-कॉन्ग के लोगों को जो सीमित लोकतांत्रिक अधिकार प्राप्त थे, वो बड़ी तेज़ी से गुज़रे ज़माने की चीज़ बनते जा रहे हैं. क्योंकि अब हॉन्ग कॉन्ग के लिए चीन द्वारा नियुक्त चुनाव आयोग को ये तय करने का अधिकार मिल गया है कि वहां के चुनावों में कौन शामिल हो सकता है और कौन नहीं. ये सीधे सीधे तानाशाही शासन की ओर बढ़ा क़दम ही तो है.
वैसे तो अमेरिका की रणनीति में चीन का ज़िक्र बार-बार आया है, लेकिन क्या ये बात भी सच है कि चीन से संवाद बनाए रखना ज़रूरी है? क्या ये इस बात का इशारा नहीं है कि चीन को हाशिए पर नहीं धकेला जा सकता है?
जो बाइडेन प्रशासन, चीन को एक सामरिक प्रतिद्वंदी के तौर पर तो देखता है, लेकिन वो ये भी मानता है कि इसका अर्थ ये नहीं कि अमेरिका चीन के साथ मिलकर काम नहीं कर सकता. हो सकता है कि अमेरिका के इस सामरिक मार्गदर्शन को आगे चलकर अन्य देश भी अपना लें.
भारत भी लंबे समय से चीन को अपने एक सामरिक प्रतिद्वंदी के तौर पर देखता आया है. लेकिन, इसका अर्थ ये भी नहीं कि भारत, चीन के साथ मिलकर काम नहीं कर सकता. जैसे जैसे वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तनाव कम हो रहा है, वैसे ही आगे चलकर शायद हमें इसके सबूत भी देखने को मिलें. और आख़िर में हमें ये समझना होगा कि चीन के ख़िलाफ़ भारत की लड़ाई वास्तविक नियंत्रण रेखा पर नहीं लड़ी जाएगी. बल्कि, सच तो ये है कि लंबी अवधि में ये संघर्ष हमें कई अन्य क्षेत्रों में देखने को मिलेगा.
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