Published on Jul 30, 2023 Updated 0 Hours ago

बजट को खांचों में बांटने का मोदी सरकार का नज़रिया शिखर पर ही अटका रहा है, और ये विचार ज़मीनी स्तर पर बजट बनाने में बुनियादी बदलाव लाने में असफल रहा है.

मोदी सरकार के बजट: संस्थागत बदलावों के बग़ैर बड़ी उपलब्धियां
मोदी सरकार के बजट: संस्थागत बदलावों के बग़ैर बड़ी उपलब्धियां

ये लेख हमारी सीरीज़, बजट 2022: नंबर्स ऐंड बियोंड का एक हिस्सा है.


किसी भी सरकार के बजट उसके दूरगामी नज़रिए, फौरी राजनीतिक आर्थिक दबावों और आर्थिक दर्शनशास्त्र का आईना होते हैं. अगर हम मनमोहन सरकार के आख़िरी वर्षों और मोदी सरकार के बजट के आंकड़ों की समीक्षा (नीचे सारणी देखें) करें, तो दोनों सरकारों के बजट में बड़े ऊंचे दर्जे की समानता देखने को मिलती है. हालांकि, दोनों सरकारों के विशेष क्षेत्रों पर प्रभाव की बात करें तो ये काफ़ी अलग है. सपाट लफ़्ज़ों में कहें तो हुकूमत करने वाले भले बदल जाते हों, मगर 1947 की आज़ादी को छोड़ दें, तो शीर्ष स्तर पर कोई ख़ास बदलाव नहीं होता.

सपाट लफ़्ज़ों में कहें तो हुकूमत करने वाले भले बदल जाते हों, मगर 1947 की आज़ादी को छोड़ दें, तो शीर्ष स्तर पर कोई ख़ास बदलाव नहीं होता.

आम ख़याल यही है कि मोदी सरकार विकास के लिए काफ़ी पैसे ख़र्च कर रही है. लेकिन, अगर हम अगर हम मौजूदा GDP में हिस्सेदारी की बात करें, तो मोदी सरकार के राज में सरकारी व्यय लगातार कम होता रहा है. मोदी सरकार की तुलना में यूपीए सरकार, 2003 के वित्तीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन क़ानून के तहत वित्तीय घाटे को GDP के 2 प्रतिशत तक सीमित रखने के मामले में ज़्यादा लापरवाह रही है. जबकि, वित्त मंत्री के तौर पर अरुण जेटली ने इस क़ानून का ज़्यादा से ज़्यादा पालन करने की कोशिश की. अरुण जेटली, सरकार के वित्तीय घाटे को मनमोहन सरकार के GDP के 4.5 प्रतिशत की तुलना में वित्त वर्ष 2017 तक घटाकर GDP के 3.5 प्रतिशत तक लाने में सफल रहे.

मोदी सरकार ने अपने ख़र्च में कटौती करके राजस्व घाटा कम करने में भी सफल रही है. वित्त वर्ष 2014 में सरकारी व्यय, कुल GDP का 13.9 प्रतिशत था, जो वित्त वर्ष 2019 में घटकर 12.2 फ़ीसद हो गया. इससे मनमोहन सरकार के वक़्त जो राजस्व घाटा GDP का 3.2 प्रतिशत था, वो वित्त वर्ष 2016-17 तक कम होकर 2.7 प्रतिशत रह गया. हालांकि, बाद में सरकार का राजस्व घाटा बढ़कर 3.3 फ़ीसद हो गया. इसकी बड़ी वजह केंद्र सरकार द्वारा किए गए भुगतान संबंधी वादे, बही खाते से अलग क़र्ज़ की वो अतिरिक्त देनदारियां थीं, जिन्हें पर्याप्त सब्सिडी की जगह भारतीय खाद्य निगम के खाते में दर्ज घाटे के तौर पर दिखाया गया था.

बजट बस लंबे समय से चले आ रहे क्षेत्रवार आवंटन में थोड़े बहुत फेरबदल की भूमिका ही निभा सकते हैं. इसमें सरकारें राजनीतिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों के लिए आवंटन को थोड़ा बहुत बढ़ा-घटा सकती हैं. ऐसे में टैक्स की दरों में बड़े स्तर पर हेर फेर करके संतुलन बनाने की ज़रूरत है

वित्तीय स्थिरता बनाए रखने में बीजेपी के वित्त मंत्री रूढ़िवादी रवैया अपनाते आए हैं. ये कोई बुरी बात नहीं है. क्योंकि सब्सिडी घटाना, टैक्स, यूज़र चार्ज या फिर सरकारी संपत्तियों की बिक्री करके सरकार की आमदनी बढ़ाने जैसे उपाय अक्सर पहाड़ जैसी राजनीतिक आर्थिक चुनौती साबित होते रहे हैं. अगर हम सरकार की टैक्स से आमदनी को देखें, तो ये वित्त वर्ष 2012 से वित्त वर्ष 2020 के दौरान GDP के 6.9 से 7.3 प्रतिशत के बीच रही है. बस वित्त वर्ष 2013 में टैक्स राजस्व GDP का 7.5 फ़ीसद रहा था.

इसका नतीजा ये हुआ है कि बजट बस लंबे समय से चले आ रहे क्षेत्रवार आवंटन में थोड़े बहुत फेरबदल की भूमिका ही निभा सकते हैं. इसमें सरकारें राजनीतिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों के लिए आवंटन को थोड़ा बहुत बढ़ा-घटा सकती हैं. ऐसे में टैक्स की दरों में बड़े स्तर पर हेर फेर करके संतुलन बनाने की ज़रूरत है, तभी हम असमानता और इसके सबसे विकृत स्वरूप यानी भयंकर ग़रीबी से निपटने के उपायों में सरकार के ख़र्च को बढ़ाकर मानव पूंजी का सूचकांक बढ़ा सकते हैं और इसके साथ साथ निचले स्तर के मूलभूत ढांचे में थोड़ा बहुत सुधार कर सकते हैं. क्योंकि ये सब मिलकर उत्पादकता बढ़ाने और आमदनी की वृद्धि में बाधक बे रहते हैं.

मोदी सरकार के बजट बनाने में विकास सबसे कमज़ोर कड़ी साबित होती रही है. मोदी सरकार के पहले को वर्षों के दौरान ग्रॉस वैल्यू ऐडेड (GVA), उसे 2012-14 के दौरान मनमोहन सरकार से विरासत में मिले 6.05 फ़ीसद से बढ़कर, 2015 में 7.2 फ़ीसद और उसके बाद के दो वर्षों में GVA 8 प्रतिशत तक गया था. इसके बाद से GVA में लगातार गिरावट ही आती रही है. अगर हम कोविड-19 महामारी की आमद के पहले के सामान्य हालात को देखें, तो वित्त वर्ष 2019-20 में GVA, 3.9 फ़ीसद दर्ज की गई थी.

एक कार्यकारी सरकारी वित्तीय प्रबंधन व्यवस्था से हटकर सरकारी एकीकृत वित्तीय प्रबंधन सूचना व्यवस्था (GIFMIS) की ओर क़दम बढ़ाने से सरकारों के तमाम स्तर पर लेखा-जोखा रखने की व्यवस्था के बीच संपर्क बढ़ेगा और प्रबंधन में बिना किसी बाधा के सहयोग मिल सकेगा.

हैरत की बात है कि आम तौर पर हर मसले में दखल देते नज़र आने वाले प्रधानमंत्री मोदी, बजट बनाने की प्रक्रिया से एक दूरी बनाए रहे है. शुरुआती वर्षों में वित्त मंत्रालय, स्वर्गीय अरुण जेटली के कुशल हाथों में था. लेकिन, जब अरुण जेटली की बीमारी (2018-19) के चलते वित्त मंत्रालय में बदलाव हुआ, तो 2019-20 का बजट पीयूष गोयल ने पेश किया था. जिसके बाद उन्होंने कमान मौजूदा वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को सौंप दी थी. इसकी तुलना में जब 1969 में मोरारजी देसाई ने इस्तीफ़ा दिया था, तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक साल तक वित्त मंत्रालय भी संभाला था और उन्होंने 1970 का बजट भी पेश किया था.

संसदीय प्रक्रिया से प्रधानमंत्री मोदी के इस सोची समझी दूरी बनाने की वजह शायद ये हो कि संसदीय प्रक्रिया की पेशेवर समझ नहीं रखते हैं. हालांकि अपनी शानदार भाषण कला के चलते, वो बीजेपी के सबसे ज़्यादा वोट हासिल करने वाले नेता हैं. नरेंद्र मोदी उम्र के लंबे पड़ाव पर यानी 51 साल की उम्र में चुने हुए राजनेता बने थे. वो सबसे पहले साल 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे. इसके बाद ही वो विधानसभा के सदस्य बने थे. ये ऊंचे कार्यकारी पदों पर पेशेवर तजुर्बेकारों को शामिल करने का रास्ता होता है. उसके बाद से ही नरेंद्र मोदी, पहले गुजरात के मुख्यमंत्री और फिर प्रधानमंत्री के तौर पर ऊंचे कार्यकारी पदों पर आसीन रहे हैं.

भविष्य में टैक्स से ज़्यादा राजस्व वसूली के लिए टैक्स देने के बर्ताव के पहले से आंकड़े जुटाकर उनके विश्लेषण की ज़रूरत होती है. इसके लिए संस्थागत डिजिटल औज़ार स्थापित किए जा सकते हैं

प्रधानमंत्री मोदी अभी भी आला दर्ज़े के मुख्य कार्यकारी अधिकारी ही हैं. वो राजनीति और संसदीय नेटवर्किंग का ज़मीनी काम दूसरों के ऊपर छोड़ देते हैं. वो बड़ी नीतिगत घोषणाएं करने के लिए बजट का सहारा भी नहीं लेते हैं. इसके लिए वो 15 अगस्त को लाल क़िले की प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस पर अपने भाषण को माध्यम बनाते हैं. उस मौक़े पर प्रधानमंत्री मोदी, 2.5 करोड़ से ज़्यादा सजीव प्रसारण देख रहे लोगों के सामने अपनी सरकार की नीतियां लागू करने और उपलब्धियों की वार्षिक रिपोर्ट पेश करते हैं. इसके साथ-साथ वो लाल क़िले से अपने भाषण में आने वाले समय के लिए योजनाओं का एलान भी करते हैं.

बजट दिवस के शोर-शराबे को कम करना

तो क्या प्रधानमंत्री मोदी एक ऐसे दौर की शुरुआत कर रहे हैं, जब बजट को लेकर मचने वाला हो-हल्ला कम होता जाए और ये राजनीतिक शोशेबाज़ी से ज़्यादा पेशेवर घटना बन जाए? किसी भी स्थिति में बजट का प्रबंधन एक खुली और सबके सहयोग से पूरी की जाने वाली प्रक्रिया हो, जिसके लिए पूरे साल लगातार सलाह मशविरा चलता रहे और इसमें राज्य सरकारें भी शामिल हों.

वित्त मंत्री हर बात पर बारीक़ी से नज़र रखने के लिए जानी जाती हैं और वो पारदर्शिता की हिमायती हैं. ऐसे में वित्त मंत्रालय, केंद्र, राज्य और नगर निकायों के बजट निर्माण की केंद्रीय संस्था के तौर पर अपनी भूमिका को और बढ़ा सकता है. बजट बनाने में इस तरह के एकीकरण से अधिकार क्षेत्रों के झगड़े और एक जैसे आवंटन से बचा जा सकेगा और परियोजनाओं और कार्यक्रमों की कुशलता भी बढ़ेगी. केंद्र, राज्य और निकाय स्तर पर उत्पादक सहयोग बढ़ाने के लिए वस्तु और सेवा कर परिषद, एक मॉडल का काम कर सकती है. एक कार्यकारी सरकारी वित्तीय प्रबंधन व्यवस्था से हटकर सरकारी एकीकृत वित्तीय प्रबंधन सूचना व्यवस्था (GIFMIS) की ओर क़दम बढ़ाने से सरकारों के तमाम स्तर पर लेखा-जोखा रखने की व्यवस्था के बीच संपर्क बढ़ेगा और प्रबंधन में बिना किसी बाधा के सहयोग मिल सकेगा.

अगर हर तिमाही पर बजट लागू किए जाने की रिपोर्ट सार्वजनिक रूप से साझा की जाए, तो बजट बनाने की प्रक्रिया से जनता का जुड़ा बढ़ेगा.

मध्यम अवधि के बजट को औपचारिक रूप देना

भारत पहले ही मुद्रास्फीति, वित्तीय घाटे और GDP की तुलना में क़र्ज़ को वित्तीय पैमानों के तौर पर इस्तेमाल करता रहा है. इससे पहले पंचवर्षीय योजनाएं मध्यम अवधि की, सूक्ष्म वित्तीय योजनाएं उपलब्ध कराती थीं, तो वित्तीय मानकों के साथ जुड़ी रहती थीं. योजना के ख़ात्मे के साथ ही भारत को अब आपस में जुड़ी ऐसी वित्तीय मूलभूत संचरना की ज़रूर है, जो वार्षिक बजट के दायरे से इतर हो. मध्यम अवधि के व्यय फ्रेमवर्क से ये जोड़ने वाली संरचना हासिल हो सकती है. अच्छी ख़बर ये है कि भारत का राजस्व विविधता भरा और स्थिर है. वित्तीय ईमानदारी के चलते क़र्ज़ तक आसान पहुंच, संतुलन बनाने का काम करती है. बजट के कुछ प्रस्ताव पहले से ही मध्यम अवधि के अनौपचारिक व्यय (तीन से पांच साल) के पूर्वानुमानों के साथ आते हैं. ऐसे पूर्वानुमानों को बजट का हिस्सा बनाया जाना चाहिए. वित्तीय अनुशासनहीनता रोकने के लिए कुछ ख़ास कार्यक्रमों के लिए भविष्य के वित्तीय ख़र्च को तय करने जैसा क़दम उठाया जा सकता है. इससे कई साल तक चलने वाली योजनाओं जैसे कि सेनाओं के लिए ख़रीदारी के लिए टिकाऊ वित्तीय मदद का भरोसा दिया जा सकता है.

बदलाव के लिए योजना बनाना

मध्यम अवधि के वित्तीय आवंटन को तय करने से योजनाएं लागू करने वाली संस्थाओं को अपनी योजनाओं के दूरगामी नतीजों के लिए दूरदर्शी और व्यापक स्तर पर सोच बनाने का मौक़ा मिलेगा. इससे ख़र्च और आमदनी दोनों ही लक्ष्यों के लिए अलग अलग क्षेत्रों के बीच संपर्क बनाए रखना ज़रूरी होगा.

विनिवेश इसका एक अच्छा उदाहरण है. जहां ऐसी मध्यम अवधि वाली सोच विकसित करना अहम हो जाता है, क्योंकि विनिवेश की प्रक्रिया काफ़ी लंबी चलती है. इसे पूरा होने में दो साल तक का समय लग जाता है. इसी तरह, भविष्य में टैक्स से ज़्यादा राजस्व वसूली के लिए टैक्स देने के बर्ताव के पहले से आंकड़े जुटाकर उनके विश्लेषण की ज़रूरत होती है. इसके लिए संस्थागत डिजिटल औज़ार स्थापित किए जा सकते हैं, जिससे टैक्स का मूल्यांकन कम ख़र्च पर हो और लोग कर चोरी करें तो उन्हें इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़े. वस्तु और सेवा कर (GST) जैसा बड़ा टैक्स सुधार बहुत कम सोच-समझकर लागू किया गया, जिससे इसे लागू करने के दौरान (2017-20) काफ़ी भारी आर्थिक क़ीमत चुकानी पड़ी.

बजट लागू करने की रिपोर्ट साझा की जाए

बजट की मौजूदा प्रक्रिया, बजट पेश किए जाने वाले दिन के इर्द गिर्द ही घूमती है. अगर हर तिमाही पर बजट लागू किए जाने की रिपोर्ट सार्वजनिक रूप से साझा की जाए, तो बजट बनाने की प्रक्रिया से जनता का जुड़ा बढ़ेगा. बजट लागू करने की ये रिपोर्ट इस बात के आंकड़े पेश करती हैं कि वित्त मंत्रालय ने नक़द देने के प्रस्तावित समय सीमा का किस हद तक पालन किया और संबंधित एजेंसियों ने उस रक़म का कितना इस्तेमाल किया. ऐसी रिपोर्ट से बजट प्रबंधन में पारदर्शिता आएगी और मुक्त एवं भागीदारी वाले प्रशासन को भी बढ़ावा मिलेगा.

प्रदर्शन का बजट बनाना

2017-18 से नतीजे का बजट भी बजट दस्तावेज़ का हिस्सा होता है. लेकिन, ये विशाल दस्तावेज़ बहुत कम इस्तेमाल होता है, क्योंकि इसे उपयोग करने के लिहाज़ से तैयार नहीं किया जाता है. उत्पादन और नतीजों के संकेतकों के बीच अक्सर गफ़लत हो जाती है. उत्पादन के संकेतकों का इस्तेमाल तय लागत के दायरे में रहते हुए हासिल किए गए नतीजों का आकलन करने के लिए होना चाहिए. वहीं नतीजों के संकेतक ये मापते हैं कि किसी कार्यक्रम ने किस हद तक बदलाव का लक्ष्य हासिल किया. इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में शुरू किए गए बीस सूत्रीय कार्यक्रमों के दौर से ही नतीजों के प्रामाणिक ढंग से तस्दीक़ की कमी महसूस की जाती रही है.

मिसाल के तौर पर स्वच्छ भारत और इससे संबंधित नतीजे, ‘खुले में शौच से मुक्त क्षेत्रों’ को ही लीजिए. कार्यक्रम के आंकड़े ग्रामीण क्षेत्रों में 100 प्रतिशत (2020-21) उपलब्धि का दावा करते हैं. वहीं, विश्लेषक ये दावा करते हैं कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (2019-20) के आंकड़ों से इस दावे की पुष्टि नहीं होती है. इससे पता चलता है कि शौचालय बनाने, प्रशिक्षण के सत्र चलाने और लोगों को जागरूक करने जैसी उपलब्धियों का मतलब ये नहीं होता कि ज़मीनी स्तर पर खुले में शौच से मुक्ति (ODF) मिल गई है. इसके लिए बर्ताव में बदलाव की दरकार होती है.

कार्यक्रम की निगरानी और मूल्यांकन के लिए संस्थागत ढांचा

नीतियों और कार्यक्रमों में ज़रूरत के हिसाब से नियमित रूप से बदलाव करने के लिए इससे जुड़े ढांचे की ज़रूरत होती है. जो लगातार निगरानी, हासिल उपलब्धियों के मूल्यांकन और कार्यक्रम में सुधार के बारे में फीडबैक से हासिल हो सकता है. ये प्रक्रिया अभी भी संस्थागत दायरे से बाहर है. ऐसे नए काम के लिए क्षमता का विकास करने के लिए, सरकारी क्षेत्र में निर्णय लेने और उसे लागू करने की प्रक्रिया में विशेषज्ञता और तकनीकी संसाधन लगाने की ज़रूरत है.

विकल्प ये हो सकता है कि CAG जो पहले ही गिने चुने कार्यक्रमों का ऑडिट करता है, उसे ये ज़िम्मेदारी दी जाए. इसमें राज्य सरकारों की तरफ़ से की जाने वाली गुज़ारिशें शामिल हों.

वित्त मंत्रालय ये काम कर सकता है क्योंकि बजट बनाने और काम के मूल्यांकन का आपस में संबंध होता है. इसके अलावा नीति आयोग पहले ही सर्वेक्षण और सूचकांक विकास (आकांक्षा वाले ज़िले, नगर निकायों का कामकाज) का काम कराता है. एक तीसरा विकल्प ये हो सकता है कि CAG जो पहले ही गिने चुने कार्यक्रमों का ऑडिट करता है, उसे ये ज़िम्मेदारी दी जाए. इसमें राज्य सरकारों की तरफ़ से की जाने वाली गुज़ारिशें शामिल हों.

2014 से 2022 के मोदी सरकार के बजटों ने मूलभूत ढांचे के विकास से जुड़ी जनहित की तमाम उपलब्धियों (इसकी सबसे शानदार मिसाल हाइवे का निर्माण है), रेलवे, बिजली, गैस और डिजिटल ग्रिड, सामाजिक संरक्षण और बीमा योजनाओं और ग़रीबों को सम्मान देने की योजनाओं को कामयाबी के ऊंचे स्तर पर पहुंचाया है. ये बहुत बड़ी उपलब्धियां हैं.

लेकिन, ऊपर से टुकड़ों में थोपे गए लक्ष्यों को हासिल करने के चक्कर में बजट के बुनियादी सुधार और इनका प्रबंधन कहीं पीछे छूट गए हैं. बजट प्रशासन व्यवस्थाओं को उसी ऊंची रफ़्तार के स्तर पर लाने से ग़रीबी कम करने, असमानता घटाने, टिकाऊ विकास को बढ़ावा देने, भारत की सुरक्षा क्षमता के निर्माण और विदेशों में साझेदारी विकसित करने के लिए पूंजी के अधिकतम आवंटन में सुधार लाने में मदद मिलेगी. लेकिन, इन सबके लिए प्रधानमंत्री को अपने वक़्त और राजनीतिक हितों को दांव पर लगाना होगा.

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