Author : Ramanath Jha

Published on Dec 23, 2022 Updated 0 Hours ago

स्टाफ और फंड की कमी और आउट्डेटेड नगरपालिका शासन नें यूएलबी की स्थिति में गिरावट ला दी है जिस वजह से उन्हे अपने कार्यों पर पूर्ण अमल करने में रुकावटें आ रही है.

गुजरात का मोरबी पुल दुर्घटना: न पहला, न अंतिम!

गुजरात और अन्य राज्यों में संपन्न हुए और होने वाले चुनावों की पृष्टभूमि में, हमने ये देखा कि मोरबी शहर ने इस दौरान साधारण से ज्य़ादा ध्यानाकर्षित किया. ये विशेष ध्यान, वहां हुए हालिया दुर्घटना की वजह से भी हुआ, जिसमें 100 से ज़्यादा मौतें हुई हैं, जिनमें काफी मात्र में बच्चे भी शामिल थे. हालांकि, आम जनों की बातचीत और किये गए विश्लेषण प्रमुखतः इस कार्य को दिए जाते वक्त बरती गई संभावित अनियमितताओं, त्रुटीपूर्ण कॉन्ट्रैक्ट देने की प्रक्रिया और ‘असल’ दोषियों को उनके दोष से बचाने के प्रयासों पर केंद्रित रही है. जो चीज़ें नज़र से छूट गई प्रतीत होती है वो ये की मोरबी, किसी नगरपालिका के अंतर्गत आने वाली पहली इंफ्रास्ट्रक्चरल विफलता नहीं है. देशभर में, और सभी प्रकार के शहरों में, ऐसी दुर्घटनाएं लगातार होती रही हैं. 

मोरबी कोई पहली नगरपालिका पुल नहीं है जो इस तरह से धराशायी हुई है. इससे पहले भी काफी पुलों का यही हश्र हुआ है, और संभावना है कि अगर शहर कि सलामती की चिंता छूट गई और उनके बुनियादी कमज़ोरियों को सांस्थानिक स्तर पर संबोधित नहीं किया गया तो ऐसी कई और त्रासदी होनी बाकी है.

गुजरात के राजकोट से 60 किलोमीटर की दूरी पर, मछु नदी के किनारे बसा हुआ छोटा सा नगर है मोरबी. मरम्मत के बाद दोबारा खोली गई सस्पेंशन पुल, जिसे स्थानीय लोग ‘झूलतो पुल’ भी कहते हैं, जिसमें 135 पुरुष, महिला और बच्चों की मौत हो गई, सिर्फ़ चार दिन पहले ही खोली गई थी. राजशाही के लिए बनाई गई ये 230 मीटर लंबी और 1.25 मीटर चौड़ी पुल, मछु नदी पर स्थित है और वहां स्थित दोनों महलों को जोड़ने का कार्य करती थी. सन् 2008 से ऑरेवा कंपनी द्वारा रख रखाव किए जाने वाली ये पुल, अब स्थानीय नगरपालिका के अधीन है, और अब इसे एक टोल ब्रिज के तौर पर उपयोग में लिया जाता है. पुल के धराशायी होने और इस त्रासदी के होने के उपरांत, 7 नवंबर 2022 को गुजरात हाई कोर्ट ने सू-मॉटो पीआईएल दायर किया और सरकार, नगरपालिका अथॉरिटी, और राज्य मानवाधिकार आयोग को नोटिस जारी करके रिपोर्ट की मांग की है. अब, चूंकि हाईकोर्ट ने इस मुद्दे को अपने हाथों में ले लिया है, तो ये उम्मीद की जा रही है कि अंतत: इस त्रासदी के पीछे की सही वजह बाहर आने की शुरुआत होगी. 

इस आर्टिकल का उद्देश्य इस बात की ओर इशारा करना है कि मोरबी कोई पहली नगरपालिका पुल नहीं है जो इस तरह से धराशायी हुई है. इससे पहले भी काफी पुलों का यही हश्र हुआ है, और संभावना है कि अगर शहर कि सलामती की चिंता छूट गई और उनके बुनियादी कमज़ोरियों को सांस्थानिक स्तर पर संबोधित नहीं किया गया तो ऐसी कई और त्रासदी होनी बाकी है. ये सब प्लानिंग, शासन और वित्त के क्षेत्र में स्थित है. 

पुलों के गिरने की वजह

सबसे पहले, हम पिछले दशक में धराशायी हुए कुछ पूलों और त्रासदियों की सूची बना लें. मार्च 2016 में, कोलकाता में निर्माणाधीन एक फ्लाइओवर गिर गया, जिसमें 50 लोग मारे गए और 80 लोग घायल हुए. जून 2016 में, चेन्नई के आइलैंड ग्राउंड के नज़दीक लकड़ी से बना पुल टूट कर गिर गया जिसके कारण 30 महिलायें कोउम नदी में गिर गयीं. भाग्यवश मामूली चोटों के बावजूद उन्हें बचा लिया गया. जुलाई 2018 में, मुंबई के अंधेरी में, एक ओवरब्रिज के गिरने से दो लोग मारे गए. सितंबर 2018 में, कोलकाता में दूसरा फ्लाइओवर गिर पड़ा. मार्च 2019 में, साउथ मुंबई में एक फुट ओवरब्रिज के गिरने से 6 लोगों की मौत हो गई और 30 लोग घायल हुए. सितंबर 2018 मे, बिहार के सुलतानगंज में गंगा नदी के ऊपर बन रहे पुल का एक हिस्सा गिर गया. उसी महीने में, मध्य प्रदेश के नर्मदापुरम में, ब्रिटिश के युग का एक पुल, ट्रेलर ट्रक के गुज़रने के दौरान धराशायी हो गया. ऐसे कई अन्य उदाहरण सूचिबद्ध हैं; ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारत में बने हुए बहुत सारे पुल सुरक्षित प्रतीत नहीं होते हैं और बहुत सारे जो अभी भी निर्माणाधीन है, सुरक्षा और सावधानी के दृष्टि से असुरक्षित माने गए हैं.  

इस तथ्य पर ज़्यादा ज़ोर नहीं देना चाहिए कि एक ओर जहां सड़कों का रख-रखाव महत्वपूर्ण हैं, उतना ही ज़रूरी पुलों के रख-रखाव का भी है. बुरी सड़कें, परिवहन और शहर की अर्थव्यवस्था के लिए बाधक है; परंतु किसी पुल का गिरना/धराशायी होने से एक लंबी अवधि के लिए परिवहन में अवरोध उत्पन्न पैदा होती है और आम जीवन को प्रभावित करती है.

पुल शहरों में बुनियादी ढांचों का एक महत्वपूर्ण टुकड़ा है. उनका प्रमुख उद्देश्य है कि नागरिकों को एक अमुक भू-भाग से जुड़ी किसी बाधा को पार करने में सहायता प्रदान किया जाये, जो की इसके बग़ैर मुमकिन नहीं होता. प्रमुख बाधाओं में जल के भाग जैसे नदी, समुद्र, या फिर नाला आदि है. कुछ उदाहरणों में, पुल का इस्तेमाल भारी ट्रैफिक जाम से बचकर त्वरित यात्रा कर पाने या फिर सुगम रास्ता प्रदान करने का मक़सद होता है, जैसे पैदल राह चलने वालों के लिए है, जिन्हें आमतौर पर ख़तरनाक और तेज़ गति से चल रही गाड़ियों के साथ रोज़ाना दो-चार होना होता है. ये साफ है कि शहरी परिवहन और शहरी अर्थव्यवस्था के लिए ये पुल काफी महत्वपूर्ण और संवेदनशील होते हैं. 

भारत को एक अतिरिक्त कारक का भी ध्यान रखना चाहिये, वो ये कि हमारे यहां शहरों में बड़ी संख्या में घनी ट्रैफिक होती है और ऐसी जगहों में लोगों का आना-जाना भी काफी बड़े पैमाने  पर होता है. कभी-कभी तो, इन पुलों पर घंटों ट्रैफिक जाम रहती है. साथ ही, इन पुलों से होकर गुज़रने वाली ट्रांसपोर्ट परिवहन (ट्रक और मल्टी इक्सेल वाहन) ज़्यादातर ओवरलोडेड रहते हैं. न्यायालय द्वारा दिये गये ओवरलोडिंग से संबंधित अपने हलफ़नामे में, ऐसे दोषी वाहनों को नियम के अनुपालन संबंधी निर्देशों को सूचिबद्ध किया गया है. हालांकि, इनके अमलीकरण में और भी काफी चीज़ें वांछित हैं और ये मानना पड़ेगा कि भारी मात्रा में ओवरलोडिंग अब भी जारी है. भार सहने की क्षमता के अंतर्गत इन पुलों पर काफी असर पड़ रहा है. निर्माण के वक्त इन पुलों की ताक़त के आकलन के वक्त, इन तथ्यों को भी ध्यान में रखा जाना ज़रूरी है. 

पुल के बुनियादी ढांचों का निर्माण, इस कार्य का मात्र एक हिस्सा है. बाकी अन्य ढांचों की ही तरह, पुलों का भी रख-रखाव किया जाता है. एक तरफ जहां भारत में सभी नगरपालिका निकायों में सड़क के लिये अलग विभाग होते हैं, वही पुलों को ज़्यादातर इन्हीं विभागों के साथ जोड़ दिया जाता है. हमें इस तथ्य पर ज़्यादा ज़ोर नहीं देना चाहिए कि एक ओर जहां सड़कों का रख-रखाव महत्वपूर्ण हैं, उतना ही ज़रूरी पुलों के रख-रखाव का भी है. बुरी सड़कें, परिवहन और शहर की अर्थव्यवस्था के लिए बाधक है; परंतु किसी पुल का गिरना/धराशायी होने से एक लंबी अवधि के लिए परिवहन में अवरोध उत्पन्न पैदा होती है और आम जीवन को प्रभावित करती है. हालांकि, उचित रखरखाव, इन पुलों को बहुमूल्य लंबी आयु प्रदान करती है और खराब होने से बचाती है जिसका मरम्मत काफी व्यापक और महंगा है. 

स्थानीय निकायों की असमर्थता

ये सच्चाई कि विभिन्न शहरों में एक के बाद एक इतनी बड़ी संख्या में पुलों के गिरने की घटनायें हुई हैं, वो इस बात की ओर इशारा करता है कि बुनियादी ढांचे रूपी पुलों का गिरना एक व्यापक घटना है. इस मुद्दे की जांच किये जाने पर ये पता चलता है कि इन सब घटनाओं के पीछे एक साथ कई वजहें हो सकती हैं. जिनमें तेज़ी से फैलते शहरों में, ढांचागत इंफ्रास्ट्रक्चर की काफी मांग हैं. परिवहन से जुड़ी ऑटोमोबाइल गाड़ियों में वृद्धि की वजह से शहरों में होने वाली ट्रैफिक की समस्या भी बढ़ी है जिस कारण ऐसे पुलों की ज़रूरतें और तीव्र हो रही है. साथ ही साथ रख-रखाव का काफी काम अब भी अधूरा पड़ा है या बैकलॉग में है, क्योंकि बुनियादी ढांचे में जोड़ा गया हर नया टुकड़ा, एक नई ज़िम्मेदारी बन कर सामने आ खड़ा होता है. क्योंकि उनको भी बनाए रखने के लिए अतिरिक्त सुविधाओं की ज़रूरत होती है. शहरी स्थानीय निकाय इन दोनों से निपट पाने में असमर्थ साबित हुए हैं, और आमतौर पर, फ्रेश बुनियादी ढांचों को ही प्राथमिकता दी जाती है और रख रखाव की ज़रूरतों को नजरंदाज़ कर दिया जाता है. यहाँ पुनः कई वजहें होती हैं – रख-रखाव के संसाधनों की कमी, संसाधनों की कमी, जनशक्ति की कमी और आंतरिक क्षमता की कमी – ये सब यूएलबी योजना, शासन और वित्त से जुड़े हैं.  

बृहनमुखी म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन (बीएमसी) चंद यूएलबी में से एक है जिनके पास पुल मैनुअल हैं. वो ये सलाह देती है कि पुल को साल में दो बार (अप्रैल और अक्तूबर) में जांचा परखा जाना चाहिए. इनका तब तक बारीक़ी से पालन नहीं किया गया जब तक की ये पुल वास्तव में गिर नहीं गए. मुंबई में, इन पुलों के गिरने के उपरांत, बीएमसी ने शहर भर के पुलों की टुकड़ों में ऑडिट करने की ज़िम्मेदारी ली. इस ऑडिट नें कुल 29 पुलों के ख़तरनाक स्थिति में होने की घोषणा की और उन्हें गिराये जाने की सलाह दी. इस सलाह का पालन करते हुए, बीमसी ने उनमें से आठ पुलों को गिरा दिया है और बाकी अन्य को बंद कर दिया है. एक तरफ इस वजह से कुछ सड़कों पर अतिरिक्त यातायात संकुलन उत्पन्न हो गई, पर उसके बावजूद आकस्मिक विफलता या किसी दुर्घटना के डर से, प्रशासन इन पुलों को खुला नहीं रख सकती है. ज़्यादातर शहरों के पास ऐसे मैनुअल और पुलों के लिए एक अच्छी तरह से रखे गए सालाना रखरखाव प्रोग्राम की कमी है.  

पुल मेंटेनेंस प्रणाली की कमी, स्टाफ की कमी और साथ ही उनके जांच कर सकने की क्षमता एवं रख-रखाव के कार्य की वजह से और दुगुनी हो जाती है. अगर, इन-हाउस इंजीनियर इस कार्यों को कर सकने में अक्षम होते हैं, तो फिर बाहरी कन्सल्टेंट की सेवा ली जा सकती है. हालांकि, ज़्यादातर शहरों के पास गुणी कन्सल्टेंट को नौकरी पर रखने के लिए उतने पैसे नहीं हैं. अपर्याप्त वित्त, गुणी स्टाफों की कमी, और आउटडेटेड म्युनिसिपल शासन सिस्टम जो काफी धीमी एवं बोझिल है, यूएलबी को उनके शहरों में, बढ़ते बुनियादी ढांचों की मांग और उनके शहरों में रख-रखाव के बढ़ते हमलों का सामना करने में काफी परेशानी हो रही है. एक तरफ जहां कई केसों में गड़बड़ी एवं अनियमितताएं पायी गयी हैं, जंगल की आग की तरह फैलने की प्रकृति वाली इस कठिनाई को मौलिक घाटे के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसका कोई निराकरण नहीं हैं. दुर्भाग्यवश, इनका निवारण शहरों के वश में नहीं हैं चूंकि इसके मूल नियंत्रण की कुंजी राज्य सरकारों के पास होती है.  

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