Author : Ramanath Jha

Published on Jul 02, 2022 Updated 0 Hours ago

मेगासिटी में बेहतर तरीक़े से काम करने के लिए अलग अलग टुकड़ों में बंटे दिल्ली नगर निगम को एकीकृत करने के पक्ष और विपक्ष में तर्क दिए जा रहे हैं.

#Urban Policy: नगर निगमों का विलय; कितना अच्छा, कितना बुरा?

22 मार्च 2022 को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने उत्तरी दिल्ली नगर निगम, दक्षिणी दिल्ली नगर निगम और पूर्वी दिल्ली नगर निगम का विलय कर दिल्ली जैसे मेगासिटी के लिए एक एकीकृत नगर निगम – दिल्ली नगर निगम बनाने के लिए एक विधेयक को अपनी सहमति दी. यह विधेयक दिल्ली नगर निगम (संशोधन) विधेयक, 2022 कहलाया और इसे संसद के दोनों सदनों से समर्थन मिला. इस अधिनियम को राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल चुकी है. जिसके बाद यह एक ऐसा अधिनियम बन गया है जो आधिकारिक राजपत्र में प्रकाशित होने के बाद लागू हो जाएगा. यह विलय उस स्थिति की वापसी का प्रतीक है जो साल 2011 में तीन हिस्सों में बंटने से पहले बनी थी, जब दिल्ली नगर निगम ने तीनों नगर निकायों के भौतिक अधिकार क्षेत्र को जोड़ दिया था. लेकिन नया अधिनियम दिल्ली नगर निगम (संशोधन) अधिनियम, 2011 द्वारा लाए गए विभाजन को ख़त्म कर देता है. इसने उन प्रक्रियाओं को गति दे दी जिन्हें एकीकृत नगर निगम के चुनाव होने से पहले तक पूरा करने में वक़्त लग सकता है. अंतरिम में, केंद्र सरकार को दिल्ली के संयुक्त नगर निगम के मामलों को चलाने के लिए एक विशेष अधिकारी नियुक्त करना होगा. इस अधिनियम ने इस तरह की संभावना के पैदा होने की बात पहले ही समझ ली थी लिहाज़ा इस तरह की नियुक्ति का प्रावधान इसमें किया गया है.

जब इस विधेयक पर संसद में चर्चा की जा रही थी तब लोकसभा में कई राजनीतिक दलों ने इसे लेकर गंभीर विरोध दर्ज किए थे. उन्होंने इस विधेयक के संसद मे लाने की टाइमिंग और इसे लेकर सरकार की मंशा दोनों पर ही सवाल उठाए थे. हालांकि सरकार ने सदन के पटल पर इसके पक्ष में अपने तर्क रखे और कहा था कि ऐसा विलय दिल्ली के सुशासन के सर्वोत्तम हित में था.

जब इस विधेयक पर संसद में चर्चा की जा रही थी तब लोकसभा में कई राजनीतिक दलों ने इसे लेकर गंभीर विरोध दर्ज किए थे. उन्होंने इस विधेयक के संसद मे लाने की टाइमिंग और इसे लेकर सरकार की मंशा दोनों पर ही सवाल उठाए थे. हालांकि सरकार ने सदन के पटल पर इसके पक्ष में अपने तर्क रखे और कहा था कि ऐसा विलय दिल्ली के सुशासन के सर्वोत्तम हित में था. इस लेख का मक़सद इस मामले को लेकर चल रहे राजनीतिक विवाद से अलग सरकार के फैसले का निष्पक्ष मूल्यांकन करना है और इस मक़सद के लिए दिल्ली नगर निगम (संशोधन) अधिनियम, 2011 से शुरू करने की ज़रूरत है, जिसके कारण दिल्ली नगर निगम का विभाजन हुआ.

विभाजन की वजह

दिल्ली नगर निगम (संशोधन) अधिनियम 2011 में उद्देश्यों और कारणों के विवरण में दिल्ली नगर निगम के बंटवारे के पीछे की वजह का विवरण दिया गया है. इसमें कहा गया है कि दिल्ली में बुनियादी सेवाओं की स्थिति लगातार ख़राब हो रही है और कई समितियों ने ऐसी समस्याओं को देखा था और तब सलाह दी थी कि दिल्ली के एकीकृत नगर निगम (एमसीडी) को समाप्त कर दिया जा सकता है और इसकी जगह कई कॉम्पैक्ट नगर पालिकाओं को बनाया जा सकता है. इन समितियों में बालकृष्णन समिति (1989), वीरेंद्र प्रकाश समिति (2001) और मंत्रियों के समूह (जीओएम) की सिफ़ारिशें भी शामिल थीं. ये सभी सर्वसम्मति से एमसीडी को विभाजित करने के पक्ष में थे. हालांकि उनके बीच केवल छोटे निगमों की संख्या बनाने के विषय पर मतभेद था.

दूसरी ओर, साल 2022 के अधिनियम के उद्देश्यों और कारणों के विवरण में दिल्ली नगर निगम को तीन भागों में बांटने के ख़िलाफ़ तर्क दिया गया है और इसका विलय क्यों ज़रूरी है उसकी वज़ह बताई गयी है. अपने आकलन में, इसका तर्क यह है कि तीन नगरपालिका संस्थाओं के ज़रिए नागरिक सेवाओं की बेहतर तरीक़े से डिलीवरी का मक़सद पूरा नहीं हो पाया. इसने दिल्ली के नगरपालिका के कामकाज को “क्षेत्रीय विभाजनों और राजस्व-सृजन क्षमता के मामले में असमान” पाया. नतीज़तन, तीनों निगमों के लिए उनके दायित्वों की तुलना में उपलब्ध संसाधनों में बहुत बड़ा अंतर था. तीनों निगमों को वित्तीय कठिनाइयों का सामना करना पड़ा यहां तक कि वेतन भुगतान और नगरपालिका कर्मचारियों को सेवानिवृत्ति लाभ के प्रावधान से संबंधित मुद्दों का भी सामना करना पड़ा. बार-बार हड़ताल, स्वच्छता के मुद्दे और नागरिक सेवाओं को बनाए रखने में नाकामी इसके नतीजे थे.

साल 2022 के अधिनियम के उद्देश्यों और कारणों के विवरण में दिल्ली नगर निगम को तीन भागों में बांटने के ख़िलाफ़ तर्क दिया गया है और इसका विलय क्यों ज़रूरी है उसकी वज़ह बताई गयी है. अपने आकलन में, इसका तर्क यह है कि तीन नगरपालिका संस्थाओं के ज़रिए नागरिक सेवाओं की बेहतर तरीक़े से डिलीवरी का मक़सद पूरा नहीं हो पाया.

पहले बताई गई पृष्ठभूमि में, 20222 अधिनियम (i) तीन नगर निगमों को एक एकल, एकीकृत, अच्छी तरह से सुसज्जित ईकाई में एकीकृत करना चाहता है; (ii) समन्वित और रणनीतिक योजना और संसाधनों के पर्याप्त उपयोग के लिए एक मज़बूत तंत्र सुनिश्चित करना; और (iii) दिल्ली के लोगों के लिए अधिक पारदर्शिता, बेहतर शासन और नागरिक सेवाओं को और बेहतर बनाना चाहता है. यह देश की राजधानी में विशेष रूप से महत्वपूर्ण था. शहर की ख़ास स्थिति को देखते हुए, “इसे वित्तीय कठिनाई और कार्यात्मक अनिश्चितताओं की विषमताओं के अधीन नहीं किया जा सकता है.”

मुद्दा यह है कि क्या दो या दो से अधिक नगर निकायों को एक बड़ी इकाई में विलय करने से अधिक से अधिक शासन का लाभ मिल सकता है या दिल्ली जैसी मेगासिटी में शासन करना इससे मुश्किल होता है. इस मामले पर राय बंटी हुई नज़र आती है. दोनों पक्षों की ओर से वैध तर्क दिए जा सकते हैं क्योंकि कानून के दो टुकड़ों से दबाव बनता है. आइए कुछ नकारात्मक बातों पर नज़र डालते हैं जो विलय के कारण उभर सकती हैं. दरअसल, छोटी नगरपालिकाओं के चलते ज़्यादा विकेंद्रीकरण होता है – जो सुशासन के प्रमुख लक्षणों में से एक है. हालांकि नागरिकों के लिए एक बड़ी आवाज़ और उनके प्रति अधिक जवाबदेही भी है. नागरिकों को किसी मुद्दे पर अपनी बात कहना और निर्णयों को प्रभावित करना तब आसान होगा जब निर्णय लेने की प्रक्रिया के वो क़रीब होते हैं. निर्णय लेने के केंद्र तक पहुंच जितना बाधित और दिक्कत भरी होगी, व्यक्तिगत तौर पर नागरिक उतना ही कम प्रभावशाली होगा. हालांकि इस बात के भी सबूत मिलते हैं कि बड़े नगर निकाय ‘नौकरशाही के जमावड़े‘ से प्रभावित होते हैं – क्योंकि इससे स्थानीय नौकरशाही की प्रवृत्ति कई गुना बढ़ जाती है. इसलिए, एक मायने में 2011 का संशोधन यह बताने के लिए सही था कि निगम के तीन भागों में विकेंद्रीकरण से नागरिक सेवाओं का बेहतर वितरण संभव होगा.

इसी प्रकार निगमों के एकीकरण के पक्ष में भी जो तर्क दिए जाते हैं वो भी समान रूप से मान्य हैं. एक बड़ा नगर निगम अधिक वित्तीय और तक़नीकी क्षमता को कमांड करता है जो कि दिल्ली जैसे मेगासिटीज के प्रबंधन के लिए आवश्यक है, साथ ही ऐसे मेगासिटी में बुनियादी ढांचे के लिए ऋण को लेकर बातचीत करने के लिए बाज़ार में संभावनाएं तलाशना भी ज़रूरी है. बड़े पैमाने की लागत की अर्थव्यवस्थाओं के सिद्धांत को बेहतर तरीक़े से सुविधाएं दी जा सकती हैं अगर एक एकीकृत इकाई में निकटवर्ती आबादी एक साथ हो. इसका नतीज़ा यह होता है कि प्रति यूनिट लागत कम होने की संभावना बढ़ जाती है. इसके अलावा, कई नगर निकायों के मामले में प्रशासनिक अतिरिक्त ख़र्च कम होने की संभावना भी बढ़ जाती है, जिनके लिए प्रशासनिक तंत्र का एक पूरा सेट होना आवश्यक है.

बड़े नगर निकाय ‘नौकरशाही के जमावड़े’ से प्रभावित होते हैं – क्योंकि इससे स्थानीय नौकरशाही की प्रवृत्ति कई गुना बढ़ जाती है. इसलिए, एक मायने में 2011 का संशोधन यह बताने के लिए सही था कि निगम के तीन भागों में विकेंद्रीकरण से नागरिक सेवाओं का बेहतर वितरण संभव होगा.

दिल्ली मेगासिटी बन सकती है मिसाल

जबकि ऊपर दिए गए सभी तर्क में अपनी योग्यता है लेकिन हमें यह याद रखने की आवश्यकता है कि एक बहुत बड़े शहर में, आबादी की सघनता होने के साथ व्यक्तिगत तौर पर ख़ुद रहते और अपना काम भी करते हैं. इसके अलावा कुछ सेवाएं उन स्रोतों से प्रदान की जाती हैं जो सामान्य हैं और एक बहुत बड़े शहर का हिस्सा हैं जिन्हें एक एकीकृत तरीक़े और संचालन की ज़रूरत होती है. ऐसी स्थिति में आंतरिक बहुआयामी हिस्सेदारी जो प्रत्येक नगरपालिका इकाई को पूर्ण और स्वतंत्र कामकाज प्रदान करते हैं, वो कई मायनों में ठीक नहीं कहे जा सकते हैं. उदाहरण के लिए, प्रमुख परिवहन मार्गों – ट्रंक रोड, मेट्रो और बस सेवाओं की योजना एक साथ बनाई जानी चाहिए. इसी तरह समग्र भूमि के इस्तेमाल की योजना और पानी जैसे संसाधनों के वितरण के भी मामले हैं. योजना के अलावा, किसी भी बड़े बुनियादी ढांचे के लिए किए जाने वाले वित्तीय निवेश को भी बेहतर तरीक़े से इस्तेमाल किया जा सकेगा अगर यह राशि एक जगह जमा होगी.

यह लेख इस लेखक द्वारा बार-बार दिए गए सिद्धांत पर सवाल नहीं उठा रहा है कि मेगासिटी की तरफ कदम नहीं बढ़ाया जाना चाहिए. हम यहां शहर के शासन को लेकर उस बिंदु पर खड़े हैं जहां इसका अनुभव एक मेगासिटी में पहले से ही नाकाम उपलब्धि के तौर पर हमारे सामने है, जो चीन में बीजिंग और शंघाई शहर में किए गए प्रयासों के क़रीब नहीं खड़ा हो सकता है. हालांकि एक एकीकृत नगरपालिका भवन कुछ निश्चित लाभ देता है लेकिन चुनौती यह है कि लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण के लाभों को नगरपालिका के ताने-बाने में कैसे शामिल किया जाए. संक्षेप में, इसका मतलब एक ऐसी प्रणाली विकसित करना है जिसके द्वारा सरकार के स्तर पर निर्णय लिए जा सकें और जो लोगों के सबसे क़रीब भी हो. इस संबंध में संविधान वार्ड समितियों की स्थापना के जरिए यह मक़सद पूरा किया जा सकता है. प्रत्येक चुनावी वार्ड तक अधिक विकेंद्रीकरण के ज़रिए इसे और नीचे ले जाया जा सकता है. हालांकि इसका मतलब यह होगा कि सभी निर्णय जो पूरे शहर को प्रभावित करते हैं, टाउन हॉल में लिए जाते हैं. क्षेत्र-व्यापी प्रासंगिकता वाले विषय वार्ड समितियों में क्षेत्रीय रूप से तय किए जाएंगे. वैसे, निर्णय जो पूरी तरह से स्थानीय हैं और केवल एक चुनावी वार्ड को प्रभावित करते हैं, चुनावी वार्ड स्तर पर लिए जाएंगे लेकिन दुर्भाग्य से 2022 का बिल उस तरह के विकेंद्रीकरण से थोड़ा कमतर रह गया है, जिसके तहत लोकतांत्रिक शासन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए नगर पालिकाओं को आगे आना ज़रूरी है.

जबकि दिल्ली की मेगासिटी निर्विवादित तौर पर अपनी आबादी के लिहाज़ से बेहतर है लेकिन इसके शासन ढांचे को लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण, पारदर्शिता और ज़वाबदेही के माध्यम से बदला जा सकता है, जिससे एक तरफ आकार के फायदे और दूसरी तरफ स्थानीय निर्णय के लाभ को एक दूसरे के साथ जोड़ा जा सकता है. ऐसा कदम अभी भी उठाया जा सकता है जो आगे चलकर दूसरे मेगासिटी के लिए मिसाल बन सकती है.

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