Author : Satish Misra

Published on Mar 24, 2017 Updated 0 Hours ago

विधानसभा चुनावों में ताजा जीत से मोदी सरकार से अपेक्षाएं और भी बढ़ गई हैं।

यूपी,उत्तराखंड में मोदी के जादू के मायने

भारतीय जनता पार्टी ने हाल में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश(यूपी) एवं उत्तराखंड में भारी विजय प्राप्त की लेकिन गोवा एवं मणिपुर में दूसरे स्थान पर रही। पंजाब में इसे अपनी पुरानी सहयोगी पार्टी शिरोमणि अकाली दल के साथ पराजय का सामना करना पड़ा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की साख और उनके करिश्मे तथा पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की संगठनात्मक क्षमता का परिणाम हिन्दी हृदय स्थली के दो राज्यों में विश्वसनीय जीत के रूप में सामने आया। मोदी-शाह की जोड़ी देश के पूर्वोत्तर क्षेत्र में मणिपुर तक पार्टी की पहुंच को विस्तारित करने में भी सफल रही। पंजाब में हार के कारण उसकी अपनी गलतियों से अधिक उसके सहयोगी साझीदार शिरोमणि अकाली दल के पाप रहे। गोवा ऐसा एकमात्र अपवाद साबित हुआ जहां मोदी-शाह के करिश्मे का असर नहीं हुआ क्योंकि भाजपा को मुख्यमंत्री समेत अपने मंत्रिमंडल के लगभग सारे मंत्रियों से हाथ धोना पड़ा और 17 सीटों के साथ कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी।

भाजपा को यूपी एवं उत्तराखंड में दो तिहाई बहुमत हासिल हुआ। यूपी में, उसे 310 से अधिक सीटों का भारी लोकप्रिय जनादेश प्राप्त हुआ जबकि उसकी प्रतिद्वंदी पार्टियों — सपा-कांग्रेस गठबंधन तथा बसपा को जबर्दस्त रूप से मुंह की खानी पड़ी और वे दयनीय तरीके से क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर रहीं। धर्म और जाति आधारित पहचान की राजनीति जिनके लोकप्रिय नाम — ‘कमंडल’ एवं ‘मंडल’ हैं — के कुशल मिश्रण में एक बुद्धिमतापूर्ण नेतृत्व के दम पर यह शानदार जीत हासिल हुई। इनके मिश्रण की बदौलत 21वीं सदी के पिछले दो दशकों के दौरान भाजपा और दो जाति आधारित क्षेत्रीय दलों का विकास हुआ।

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भाजपा मुख्यालय में भाजपा के वरिष्ठ मंत्रियों के साथ प्रधानमंत्री मोदी | स्रोतः बीजेपी इंडिया/फेसबुक

समय गुजरने के साथ और परिपक्व हुए ‘कमंडल’ एवं ‘मंडल’ के मुद्दों के वर्तमान में भी प्रासंगिक बने रहे तत्वों को चुनाव अभियान में बरकरार रखा गया और इन्हें विकास के आवरण में आकर्षक पैकेजिंग के साथ भाषण कलाओं द्वारा प्रचारित किया गया जिसने यूपी और उत्तराखंड के मतदाताओं को मानों सम्मोहित कर दिया और भाजपा इन दोनों राज्यों में दो-तिहाई बहुमत पाने में कामयाब रहीं। पंजाब में यह फार्मूला कारगर नहीं हुआ क्योंकि वहां 10 वर्षों तक शासान करने वाली एसएडी- भाजपा सरकार के खिलाफ जोरदार बयार बह रही थी।

यूपी में इतनी विश्वसनीय जीत के पीछे कई कारण हो सकते हैं लेकिन मुख्य रूप से यह जीत मोदी के मतदाताओं पर 2014 से शुरू और अब तक बरकरार जादुई प्रभाव के कारण हासिल हुई। चुनाव में पर्याप्त सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ क्योंकि प्रतिद्वंदी दलों ने मुस्लिम मतदाताओं पर जरूरत से ज्यादा जोर दिया और इससे हिन्दुओं में प्रतिक्रिया हुई। कुछ अन्य कारणों में भाजपा के पक्ष में गैर-यादव पिछड़े वर्गों एवं गैर-यादव दलित मतदाताओं का ध्रुवीकरण हुआ और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर भी थी क्योंकि राज्य प्रशासन में यादवों की प्रभुत्वपूर्ण उपस्थिति और खराब कानून व्यवस्था के साथ बढ़ते अपराधों से भी जनता मानों त्रस्त हो गई थी।

भाजपा एवं मोदी ने गैर-यादव पिछड़ी जातियों के खिलाफ भेदभाव के मुद्दे को जोरशोर से उठाया क्योंकि अधिकांश सरकारी एवं अन्य पदों पर बहुतायत से यादव और कुछ पदों पर मुस्लिम ही काबिज थे। प्रधानमंत्री ने अपनी बैठकों एवं रैलियों में यह कहने से भी गुरेज नहीं किया कि हिन्दुओं का सपा सरकार में कोई महत्व नहीं था जबकि मुसलमानों को काफी प्राथमिकता दी जा रहीं थी। बहुसंख्यक लोगों के दिमाग में यह बात गहरे घर कर गई थी जबकि सपा और कांग्रेस ने मुस्लिम मतों को विभाजित होने से रोकने के लिए आपस में गठबंधन किया और बसपा सुप्रीमो मायावती ने 100 से अधिक मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में उतारे।

भाजपा ने गोरखपुर के भाजपा सांसद और तेजतर्रार हिन्दू नेता योगी आदित्यनाथ को मैदान में उतार कर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक मसलों को भी हवा दी, जहां 2013 में सांप्रदायिक दंगे हुए थे। उन्होंने इस बात को खूब उछाला कि यूपी भी जम्मू एवं कश्मीर की राह पर जा रहा है।

भाजपा के प्रत्येक हिंदू नेता ने इस बात को बखूबी प्रचारित किया कि आतंक के लिए मुसलमान ही जिम्मेदार हैं। इन क्षेत्रों में पहले से ही नकारात्मक माहौल व्याप्त था। लव जिहाद के नारों एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों से हिंदू आबादी के कथित पलायन ने आग में घी का काम किया। किसी भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट न देने के भाजपा के निर्णय से हिंदुओं में एक सीधा संदेश गया कि पार्टी वास्तव में हिंदुओं के हितों का प्रतिनिधित्व करती है। भाजपा अध्यक्ष के वादे, कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो राज्य के सभी बूचड़खाने बंद कर दिए जाएंगे, ने भी हिंदुओं को भाजपा के पक्ष में एकजुट होने का महीन संदेश दे दिया।

सपा को यादव परिवार में जारी उठापटक के कारण भी नुकसान हुआ। यूपी के मुख्यमंत्री के खेमे और उनके पिता के खेमे के बीच अदावत की खबरें महीनों मीडिया की सुर्खियों में रही और उसने एक नकारात्मक छवि प्रस्तुत की जिसका परिणाम पार्टी कॉडर का मनोबल के गिरने के रूप में सामने आया।

सपा के संस्थापक एवं यूपी के तीन बार मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह यादव की पार्टी, जिसका नेतृत्व उनका बेटा कर रहा था, के लिए खुद मुलायम द्वारा चुनाव अभियान में शामिल होने से इंकार करने से भी समस्याएं बढ़ गईं।

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भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भाजपा मुख्यालय में जश्न मनाए जाने के दौरान।

नोटबंदी (विमुद्रीकरण) का मुद्दा भाजपा के पक्ष में गया क्योंकि प्रधानमंत्री मतदाताओं को यह भरोसा दिला पाने में सफल रहे कि यह कदम गरीबों के पक्ष में है और जो इसका विरोध कर रहे हैं वे ताकतवर, समृद्ध और भ्रष्ट लोग हैं। इसी प्रकार, पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक को भी देश के शत्रु की बदनीयती के खिलाफ एक सकारात्मक कदम के रूप में शोहरत मिली।

नोटबंदी (विमुद्रीकरण) का मुद्दा भाजपा के पक्ष में गया क्योंकि प्रधानमंत्री मतदाताओं को यह भरोसा दिला पाने में सफल रहे कि यह कदम गरीबों के पक्ष में है और जो इसका विरोध कर रहे हैं वे ताकतवर, समृद्ध और भ्रष्ट लोग हैं।

उत्तराखंड में, भाजपा को मुख्यमंत्री हरीश रावत के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर तथा कांग्रेस के प्रमुख नेताओं द्वारा पार्टी को छोड़कर भाजपा में चले जाने के कारण विजय मिली। रावत इन कांग्रेसी नेताओं को प्रभावित नहीं कर पाए।

रावत जो 2013 में राज्य में भीषण बाढ़ के बाद सत्ता में आए थे, अपनी पार्टी के विरोधियों एवं अन्य गुटों के नेताओं को साथ लेकर चलने में असमर्थ रहे और सारी सत्ता उन्होंने अपने हाथों में ही सीमित कर ली।

नई दिल्ली स्थित कांग्रेस आलाकमान, खासकर, इसके अध्यक्ष, राहुल गांधी के स्थिति को नियंत्रित करने के लिए कदम उठाने से मना किए जाने के कारण हालात और बदतर हो गए।

पंजाब में, एसएडी-भाजपा गठबंधन की हार मुख्य रूप से अकाली दल की वजह से हुई जो युवाओं के बीच नशे की समस्या के लिए जिम्मेदार पार्टी समझी जाने के कारण बेहद अलोकप्रिय हो गई थी। इसके अतिरिक्त, पार्टी बादल परिवार की पारिवारिक पार्टी के रूप में भी देखी जाने लगी थी।

राज्य भाजपा का एक धड़ा एसएडी गठबंधन के साथ चुनाव में उतरने के खिलाफ था, लेकिन पार्टी आलाकमान ने बेहद पुराने सहयोगी के संबंध तोड़ देना गवारा नहीं किया।

दूसरी तरफ, राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह को सारे अधिकार दे देने और उन्हें कांग्रेस का मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित किए जाने से कांग्रेस को लाभ मिला। अमरिन्दर सिंह को इसका श्रेय भी जाता हैं कि उन्होंने क्रिकेटर से राजनीतिज्ञ बने नवजोत सिंह सिद्धू के पार्टी में आने पर उनका स्वागत किया। सिद्धू, जिन्होंने भाजपा और राज्य सभा की सदस्यता छोड़ दी, ने भी कांग्रेस की धमाकेदार जीत में उल्लेखनीय योगदान दिया।

एक लोकप्रिय अवधारणा और मीडिया के प्रचार-प्रसार के बावजूद कि वह अगली सरकार बनाने जा रही है, पंजाब में आम आदमी पार्टी (आम) की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने की विफलता से दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा को जोरदार झटका लगा।

गोवा में भी केजरीवाल के व्यक्तिगत रूप से चुनाव प्रचार करने के बावजूद आम आदमी पार्टी कोई जगह नहीं बना सकी। केजरीवाल को अब गंभीरतापूर्वक आत्मनिरीक्षण करने की आवश्यकता है कि राष्ट्रीय पार्टी बनने की उनकी रणनीति सही है या नहीं। संभावना है कि इस वर्ष गुजरात में होने वाले विधान सभा चुनावों में वह बड़े पैमाने पर प्रयास करेंगे।

गोवा में, सबसे बड़ी पार्टी बनने के बावजूद कांग्रेस सरकार बना पाने में सफल नहीं हो पाई। कांग्रेस को मिली 17 सीटों के मुकाबले भाजपा 13 सीट प्राप्त कर दूसरे स्थान पर रही थी लेकिन उसने अन्य गैर-कांग्रेसी दलों की मदद से उसने सरकार का गठन कर लिया।

भाजपा को न केवल सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ा था बल्कि मनोहर पर्रिकर की अनुपस्थिति का भी उसे नुकसान उठाना पड़ा जिन्हें उनकी इच्छा के विपरीत मुख्यमंत्री के पद से हटाकर केंद्र सरकार में रक्षा मंत्री बना दिया गया था। गोवा के मुख्यमंत्री तो अपनी विधान सभा सीट भी नहीं बचा पाए। भाजपा को आखिरकार पर्रिकर को मुख्यमंत्री बनाने के लिए वापस गोवा भेजने को मजबूर होना पड़ा जिससे कि वह ऐसी गठबंधन सरकार के अंतर्विरोधों को संभाल सकें जिसमें पार्टी के अपने विधायकों को ही मंत्रिमंडल में जगह प्राप्त नहीं हो पा रही थी। गठबंधन सरकार होने के कारण, सरकार के महत्वपूर्ण पद अब सहयोगी दलों एवं निर्दलीय विधायकों को चले गए हैं।

मणिपुर में भी, भाजपा कांग्रेस के 28 सीटों से सात सीट पीछेे रहने के बावजूद निर्दलियों एवं अन्य विधायकों की सहायता से सरकार बनाने में कामयाब रही। इस प्रकार, भाजपा ने अब अपनी पहुंच उत्तर पूर्व क्षेत्र में और अधिक विस्तारित कर ली है क्योंकि पिछले वर्ष वह असम एवं अरूणाचल प्रदेश में सत्ता में आ चुकी थी।

पांचों राज्यों के विधान सभा चुनाव के परिणामों से यह पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है कि मोदी लगातार भाजपा के सबसे लोकप्रिय ब्रांड बने हुए हैं। अब उन्हें न तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से या अपनी पार्टी के किसी अन्य नेता से या बाहर के ही किसी नेता से कोई भी चुनौती मिल रही हैं, वह आज देश के सबसे कद्दवार नेता हैं और वर्तमान में चुनौतियों से परे हैं।

भाजपा लगातार आगे बढ़ रही है। चुनावों में इसके प्रदर्शन ने इसे देश के राजनीतिक क्षेत्र के लगभग 58 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा करने में सहायता प्रदान की है और कांग्रेस तथा उसके सहयोगियों को केवल 17 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त है जबकि शेष स्थान क्षेत्रीय दलों के हिस्से में हैं जिनका भविष्य भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बढ़ते प्रभावशाली रूतबे को देखते हुए बहुत उज्जवल प्रतीत नहीं हो रहा।

भाजपा की बेशुमार सफलता और प्रगति को देखते हुए वर्तमान राजनीतिक वास्तविकताएं देश की लोकतांत्रिक राजनीति के सामने गंभीर चुनौतियां पेश कर रही हैं जिसमें विपक्ष का स्थान तेजी से सिकुड़ता जा रहा है।

चुनाव परिणाम उप्र में समाजवादी पार्टी (सपा), बसपा एवं रालोद जैसे क्षेत्रीय दलों के लिए भी एक बड़ा झटका साबित हुआ। उत्तराखंड में भी, यूकेडी जैसी छोटी पार्टियां एक भी सीट जीत पाने में विफल रहीं। पंजाब में, एसएडी एवं आप अच्छा प्रदर्शन करने में सक्षम नहीं हो पाई हैं।

प्रधानमंत्री की लोकप्रियता आसमान छू रही है और वह ऐसे फैक्टर बनते जा रहे हैं जो अपनी पार्टी को अपने बलबूते पर जीत दिला सकते हैं, ऐसे में अगर प्रधानमंत्री आगे आने वाले दिनों या महीनों में अधिक अधिनायकवादी बन जाएं तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जो मुख्यमंत्री स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं, उन्हें अब सावधान हो जाना चाहिए कि अगर उनका प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहा तो उन्हें राष्ट्रीय राजधानी में बैठे ‘नेता’ के कोप का भाजन बनना पड़ सकता है।

भाजपा एवं मोदी के लिए एक बड़ा लाभ यह है कि यूपी, उत्तराखंड, मणिपुर एवं गोवा में भाजपा नेतृत्व में सरकारों के गठन से प्रधानमंत्री के लिए इस वर्ष की दूसरी छमाही में निर्धारित राष्ट्रपति चुनावों में — जब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को पदभार ग्रहण किए हुए पांच वर्ष पूरे हो जाएंगे-अपनी पसंद का उम्मीदवार चुनना और आसान हो जाएगा।

यहां तक कि मोदी सरकार के लिए सरकार का विधायी कार्य भी सरल हो जाएगा क्योंकि राज्य सभा में विपक्ष के सदस्यों की संख्या में कमी आएगी जबकि भाजपा और उसके सहयोगी दलों की संख्या इस वर्ष से और बढ़ जाएगी। विपक्ष महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित होने से रोकने में भी समर्थ नहीं हो पाएगा।

जहां भाजपा को राजनीतिक रूप से लाभ हासिल हुआ है और फिलहाल उसके प्रभुत्व को कोई बड़ी चुनौती मिलती प्रतीत नहीं हो रही है, लेकिन इसके साथ साथ प्रधानमंत्री एवं उनकी सरकार से अपेक्षाएं भी काफी अधिक बढ़ गई हैं। खराब प्रदर्शन या आर्थिक एवं सामाजिक मोर्चों पर काम-काज में ढिलाई उनके लिए नुकसानदायक साबित हो सकती हैं।

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