Author : Niranjan Sahoo

Published on Jan 12, 2021 Updated 0 Hours ago

राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के हज़ारों समर्थकों ने अमेरिकी लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर, कैपिटॉल हिल पर हमला किया तो दुनिया स्तब्ध होकर देखती रह गई.

4 जुलाई के सिद्धांतों को 6 जनवरी वाली चुनौती: अमेरिका के लोकतंत्र को एक मार्शल प्लान की ज़रूरत है

6 जनवरी को जब अमेरिका के धुर दक्षिणपंथी उग्रवादियों और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के हज़ारों समर्थकों ने अमेरिकी लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर, कैपिटॉल हिल पर हमला किया तो दुनिया स्तब्ध होकर देखती रह गई. उस दिन अमेरिकी सांसद, राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रत्याशी जो बाइडेन की जीत पर मुहर लगाने के लिए जुटे थे. दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों ने विश्व के सबसे पुराने और सबसे ताक़तवर लोकतांत्रिक देश में हुई इस अभूतपूर्व हिंसा पर सदमा और चिंता जताई. लेकिन, विश्व के तानाशाही देशों और अर्ध लोकतांत्रिक देशों ने इस मौक़े का फ़ायदा उठाकर, अमेरिका की लोकतांत्रिक व्यवस्था और इसकी तमाम कमज़ोरियों का मज़ाक़ उड़ाने में देर नहीं की.

चीन की सरकार के प्रवक्ताओं औऱ उसके सरकारी नियंत्रण वाले मीडिया को तो अमेरिका का मखौल उड़ाने का सुनहरा अवसर मिल गया था. सोशल मीडिया पर व्यंग भरे पोस्ट और मीम की बाढ़ आ गई. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की युवा शाखा ने एक मीम पोस्ट करके कैपिटॉल में हुई हिंसा को ‘ख़ूबसूरत नज़ारा’ क़रार दिया. चीन और उसके जैसे दुनिया के अन्य तानाशाही देशों द्वारा, अमेरिका के कैपिटॉल में हुई हिंसा को लेकर उसका मज़ाक़ बनाने की बात तो समझ में आती है. सबसे ज़्यादा परेशानी वाली बात तो ये है कि लोकतांत्रिक देशों में भी कुछ तबक़ों ने, अमेरिका में लोकतांत्रिक व्यवस्था का मखौल उड़ाने की इस घटना पर चटखारे लिए. अपनी तमाम कमियों और 6 जनवरी को कैपिटॉल में हुई घटना के बावजूद, आज भी दुनिया में अगर स्वतंत्रता और लोकतंत्र का सबसे बड़ा कोई प्रतीक है, तो वो अमेरिका ही है. क्योंकि, अमेरिका के लोकतंत्र में ही तानाशाही ताक़तों का सामना कर पाने की संस्थागत व्यवस्थाएं हैं.

सबसे ज़्यादा परेशानी वाली बात तो ये है कि लोकतांत्रिक देशों में भी कुछ तबक़ों ने, अमेरिका में लोकतांत्रिक व्यवस्था का मखौल उड़ाने की इस घटना पर चटखारे लिए. अपनी तमाम कमियों और 6 जनवरी को कैपिटल में हुई घटना के बावजूद, आज भी दुनिया में अगर स्वतंत्रता और लोकतंत्र का सबसे बड़ा कोई प्रतीक है, तो वो अमेरिका ही है.

अब सवाल ये है कि अमेरिका यहां से किस दिशा मे आगे बढ़ेगा? डिजिटल युग में कैपिटॉल की ओर दक्षिणपंथी उपद्रवियों के मार्च और अमेरिकी संसद पर हुए इस हमले का सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के ज़रिए पूरी दुनिया में सजीव प्रसारण किया गया. लाखों-करोड़ों यूज़र्स ने इस शर्मनाक हमले की एक एक बारीक़ियों का अपने स्तर पर विश्लेषण किया. भले ही अमेरिका में हालात सामान्य हो जाएं, लेकिन ये एक ऐसी घटना है, जो आने वाले लंबे समय तक अमेरिका को भयभीत करती रहेगी. इस समय अमेरिका के भीतर कई तरह की आग भड़की हुई है, जो वैचारिक सीमाओं से परे है और जो बाइडेन के सत्ता संभालने के बाद इन भड़की हुई भावनाओं को शांत करने की ज़रूरत होगी.

हमें ये समझना होगा कि 6 जनवरी को जो कुछ हुआ, वो कोई अलग घटना नहीं है. ये अमेरिका में बढ़ते ध्रुवीकरण और मौजूदा राष्ट्रपति ट्रंप के ख़ुद को बाग़ियों का नेता बताने के बरसों से किए जा रहे लोक-लुभावन शोर शराबे का नतीजा है. इसके साथ-साथ ये अमेरिका के लोकतंत्र के बुनियादी मूल्यों, नियमों और संस्थागत ढांचे के पतन का भी नतीजा है. जबकि यही वो बातें होती हैं, जो किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था को मज़बूत बनाती है. भले ही ये जनवादी राजनीति और नेता को ख़ुदा बनाने का वक़्ती दौर हो, लेकिन, अमेरिका में जिस तरह से जीवन मूल्यों और संस्थाओं का पतन हो रहा है, उसने ही जनता के अविश्वास को बढ़ावा दिया है और साज़िशों के क़िस्सों पर लोगों के यक़ीन को बढ़ाया है. इन्हीं कारणों से डोनाल्ड ट्रंप और रिपब्लिकन पार्टी के उनके कई साथियों को चुनाव से पहले, उस दौरान और चुनाव के बाद भी फ़रेब का जाल बुनने में मदद मिली.

आज अमेरिकी लोकतांत्रिक ढांचे के बुनियादी स्तंभों को तुरंत मरम्मत की ज़रूरत है. सबसे अधिक चिंता की बात अपारदर्शी और बेहद पुरानी इलेक्टोरल कॉलेज व्यवस्था है. इलेक्टोरल कॉलेज, किसी संघीय चुनाव आयोग की निगरानी से परे एक स्वतंत्र व्यवस्था के रूप मे संचालित होता है. अमेरिका के तमाम राज्यों और चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा मतदाताओं की सूची बनाने में की जाने वाली हेरा-फेरी और उसके साथ साथ राष्ट्रपति को मिले वीटो के अधिकार के चलते अक्सर अमेरिका में विधायी टकराव देखने को मिलता है. इसने भी अमेरिका के लोकतंत्र को लेकर बाहरी देशों के आकर्षण को कम किया है.

ये अमेरिका में बढ़ते ध्रुवीकरण और मौजूदा राष्ट्रपति ट्रंप के ख़ुद को बाग़ियों का नेता बताने के बरसों से किए जा रहे लोक-लुभावन शोर शराबे का नतीजा है. इसके साथ-साथ ये अमेरिका के लोकतंत्र के बुनियादी मूल्यों, नियमों और संस्थागत ढांचे के पतन का भी नतीजा है. 

पेचीदा चुनावी व्यवस्था

दुनिया को ये तो पता है कि लोकतंत्र के प्रचार-प्रसार की आक्रामक नीति के नाम पर अमेरिका पूरी दुनिया में अब तक क्या करता आया है. अमेरिका की सरकार दुनिया के तमाम देशों में कभी छुपकर, तो कभी खुलकर, मानव अधिकार कार्यकर्ताओं की मदद करता आयी है. वो संघर्ष वाले इलाक़ों में अपने अधिकारी भेजता आया है. अमेरिका अन्य देशों को कूटनीतिक संदेश देने, पर्यवेक्षक भेजने और यहां तक कि अन्य देशों में लोकतंत्र के नाम पर अपनी सेनाएं भी भेजने का काम (अफ़ग़ानिस्तान, इराक़ और कुवैत इसकी मिसाल हैं) करता आया है. लेकिन, दुनिया को अमेरिका के अपने लोकतंत्र की कमियों और कमज़ोरियों के बारे में बहुत कम जानकारी है.

उदाहरण के लिए दुनिया को अमेरिकी की बेहद पेचीदा और पुरानी पड़ चुकी चुनावी व्यवस्था के बारे में कुछ भी नहीं मालूम है. सच तो ये है कि बहुत से अमेरिकी नागरिकों तक को नहीं पता कि उनके यहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था कैसे संचालित होती है. ये बात तब और स्पष्ट हो गई, जब हाल में वोटों की गिनती हो रही थी; ऐसी ही पेचीदगियां हम पहले के राष्ट्रपति चुनावों में भी देख चुके हैं. देश की मतदाता सूचियों को लेकर राष्ट्रपति ट्रंप के लगातार हमले, ज़ाहिरा तौर पर विवादास्पद, ‘मेल-इन’ वोट, वोटों की गिनती में अविश्वसनीय रूप से अधिक लगने वाला समय और वोटिंग प्रक्रिया को चुनौती देने वाली अनगिनत क़ानूनी याचिकाएं, ये सब मिलकर दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र की कोई अच्छी तस्वीर नहीं बनाती हैं. अमेरिका की तुलना में,  दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत समेत अन्य जनतांत्रिक व्यवस्थाएं अपनी तमाम कमियों के बावजूद, चुनाव को ज़्यादा बेहतर तरीक़े से संचालित कर पाते हैं.

अमेरिका के विवादास्पद चुनावों के केंद्र में है, इसकी विकेंद्रीकृत चुनाव व्यवस्था, जो देश के हर राज्य को अपने यहां के मतदान के तरीक़े और प्रक्रिया को तय करने का अधिकार देती है और अक्सर अलग-अलग राज्य, अपने अलग तरीक़े अपनाते हैं. इसीलिए, उम्मीद के मुताबिक़ इससे पूरे देश में बिल्कुल अलग अलग तरह का वोटिंग सिस्टम विकसित हो गया है. इनमें से कई राज्यों की प्रक्रियाएं तो इतनी अजीब हैं कि उन्हें किसी भी तरीक़े से सही बताना मुश्किल होता है.

मिसाल के तौर पर, अभी भी अमेरिका के कई राज्य पुराने तरीक़े के काग़ज़ वाले मत पत्र इस्तेमाल करते हैं. यही नहीं, वो डाक से वोट भेजने, आने वाली तारीख़ के लिए पहले से वोट डालने और किसी भी बूथ पर जाकर अपना मत पत्र डालने और मतदाताओं के अलग अलग तबक़ों के लिए अस्थायी मत पत्र की व्यवस्था को भी संचालित करते हैं. इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनें, इनकी तुलना में काफ़ी उपयोगी साबित हो चुकी हैं और उनसे छेड़-छाड़ कर पाना भी मुश्किल होता है. फिर भी अधिकतर अमेरिकी राज्यों ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों से किनारा किया हुआ है. इसका नतीजा ये हुआ है कि आख़िरी नतीजे आने में कई कई दिन, या कई हफ़्ते लग जाते हैं. फिर इसी कारण से चुनाव प्रक्रिया की वाजिब आलोचना होती है, और इस दौरान अफवाहों और षडयंत्रों के क़िस्सों का बाज़ार गर्म हो जाता है.

दुनिया को अमेरिकी की बेहद पेचीदा और पुरानी पड़ चुकी चुनावी व्यवस्था के बारे में कुछ भी नहीं मालूम है. सच तो ये है कि बहुत से अमेरिकी नागरिकों तक को नहीं पता कि उनके यहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था कैसे संचालित होती है.

भले ही अमेरिका के लोकतंत्र का ये विकेंद्रीकरण और संघवादी सिद्धांत तारीफ़ के क़ाबिल हो, लेकिन ये बात समझ से परे है कि आख़िर देश के चुनावों की प्रक्रिया की निगरानी एक स्वतंत्र संघीय चुनाव आयोग के माध्यम से क्यों नहीं हो सकती. जबकि बहुत से लोकतांत्रिक देशों में ऐसी व्यवस्था है. अब तक अमेरिका की लोकतांत्रिक प्रक्रिया तमाम विवादों के बावजूद इसीलिए अबाध गति से चल रही है, क्योंकि राज्य और स्थानीय स्तर के अधिकारी संविधान के प्रति अपनी शपथ का ईमानदारी से पालन करते हैं. लेकिन, अब जैसे जैसे देश में ध्रुवीकरण बढ़ रहा है और अधिकारियों के बीच किसी एक पार्टी का पक्ष लेने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, तो इस व्यवस्था का भविष्य अनिश्चित दिख रहा है. 2020 के विवादित चुनावों ने आने वाले समय में ‘वोटों की चोरी’ के साज़िश वाले विष वृक्ष के फलने फूलने का उचित माहौल तैयार कर दिया है. जब हारने वाले उम्मीदवार नतीजों में हेरा-फेरी के इल्ज़ाम लगाएंगे. कुल मिलाकर कहें तो, आने वाले समय में चुनाव में हारने वाला कोई भी प्रत्याशी, अमेरिका की पुरातन चुनाव व्यवस्था को हथियार बनाकर सियासी उपद्रव को बढ़ावा दे सकता है.

प्रागैतिहासिक काल वाला इलेक्टोरल कॉलेज

चुनाव प्रक्रिया से भी अधिक, अमेरिका और उसके लोकतंत्र के लिए, सबसे बड़ा ख़तरा इसकी 231 साल पुरानी इलेक्टोरल कॉलेज वाली व्यवस्था है. दास प्रथा के दौर की ये व्यवस्था, आज की उन तमाम चुनौतियों की जड़ है, जो अमेरिका के लोकतंत्र के सामने खड़ी हैं. अमेरिका के संविधान निर्माताओं को इस बात का डर था कि सीधे चुनाव हुए, तो बहुमत हावी हो जाएगा. चुनाव जीतकर सत्ता में आने के लिए जनवादी नेता लोक-लुभावन राजनीति में जुट जाएंगे. इस डर से निपटने के लिए अमेरिका के संविधान निर्माताओं ने मतदाताओं की बुद्धिमत्ता के बजाय अपना विश्वास इलेक्टोरल कॉलेज की व्यवस्था पर जताया. वो सीधे चुनाव की व्यवस्था से परहेज़ करके, ‘लोगों की भावनाओं’ को क़ाबू रखना चाहते थे. लेकिन, 2016 में ट्रंप की जीत ने उन्हें ग़लत साबित कर दिया.

हालांकि, इलेक्टोरल कॉलेज की व्यवस्था के पीछे असली कारण ये था कि अमेरिका के संविधान निर्माता, सीधे चुनाव के माध्यम से उत्तरी राज्यों को बढ़त नहीं देना चाहते थे. क्योंकि उस समय दक्षिण के राज्यों में दास प्रथा का चलन था. 1780 के दशक में अमेरिका के अश्वेत नागरिकों को वोट देने का अधिकार नहीं हासिल था. अमेरिका में सभी नागरिकों को वोट देने का अधिकार बहुत बाद में मिला. इससे पहले दुनिया के तमाम देशों ने इसे अपना लिया था, या इसके साथ ही उनके यहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था का जन्म हुआ था.

एक राष्ट्रपति से दूसरे राष्ट्रपति के हाथ में सत्ता जाने के बीच भी समय का बहुत बड़ा फ़ासला होता है. इस दौरान, सत्ता में बैठा राष्ट्रपति अपने सभी विशेषाधिकारों का उपयोग करने के लिए स्वतंत्र होता है. वो अधिशासी आदेश जारी कर सकता है, किसी विधेयक को वीटो कर सकता है, और जैसा कि इस समय बहस छिड़ी हुई है कि मौजूदा राष्ट्रपति परमाणु हमले का आदेश भी दे सकता है.

इलेक्टोरल कॉलेज व्यवस्था में जीतने वाले को ही सारे वोट मिलने की व्यवस्था है. ऐसे में किसी भी राज्य में ज़्यादा वोट (भले ही वो मामूली अंतर से ही क्यों न हो) पाने वाली पार्टी को ही इलेक्टोरल कॉलेज के सारे वोट मिल जाते हैं. इससे चुनाव में किसी भी चुनाव में किसी पार्टी को मिले वोटों की हिस्सेदारी अप्रासंगिक हो जाती है. मोटे तौर पर देखें तो, ऐतिहासिक रूप से जिन राज्यों को ‘रेड’ (रिपब्लिकन समर्थक) या ‘ब्लू’ (डेमोक्रेटिक समर्थक) माना जाता है, वहां के चुनावों का कोई ख़ास मतलब नहीं रह जाता है, क्योंकि वहां चुनाव के नतीजे उम्मीद के मुताबिक़ ही आते हैं. कुछ गिने चुने बैटलग्राउंड स्टेट या स्विंग स्टेट, जहां वोटों के ज़रा से अंतर से ही फ़ैसला हो जाता है, वही असल में अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवारों का भविष्य तय करते हैं.

अमेरिका के चौथे राष्ट्रपति जेम्स मेडिसन को अमेरिका का असली संविधान निर्माता कहा जाता है, क्योंकि वो संविधान के मुख्य लेखक थे. उन्होंने ही संविधान में इलेक्टोरल कॉलेज की व्यवस्था और जीतने वाले को ही इसके सारे वोट मिलने के नियम लिखे. लेकिन, ख़ुद मेडिसन को बाद में इस व्यवस्था में बहुत सी ख़ामियां नज़र आने लगीं. मेडिसन का मानना था कि इलेक्टोरल कॉलेज की व्यवस्था अमेरिकी जनता की विविधता की नुमाइंदगी नहीं करती. वर्ष 1823 में मेडिसन ने इस पक्षपाती व्यवस्था के विरुद्ध तर्क देते हुए इसे ख़त्म करने की मांग की थी. हालांकि, मेडिसन के इलेक्टोरल कॉलेज के ख़िलाफ़ दी गई चेतावनी के बाद भी दो शताब्दियां बीत चुकी हैं और अब तक अमेरिका ने चुनाव प्रक्रिया में बदलाव की ज़रूरत नहीं महसूस की है. चुनाव के बाद, एक राष्ट्रपति से दूसरे राष्ट्रपति के हाथ में सत्ता जाने के बीच भी समय का बहुत बड़ा फ़ासला होता है. इस दौरान, सत्ता में बैठा राष्ट्रपति अपने सभी विशेषाधिकारों का उपयोग करने के लिए स्वतंत्र होता है. वो अधिशासी आदेश जारी कर सकता है, किसी विधेयक को वीटो कर सकता है, और जैसा कि इस समय बहस छिड़ी हुई है कि मौजूदा राष्ट्रपति परमाणु हमले का आदेश भी दे सकता है. इन बातों से अमेरिकी लोकतंत्र की तमाम कमियां स्वयं उजागर हो जाती हैं.

अमेरिकी कैपिटॉल पर हमले की बेहद चिंताजनक तस्वीरें ये मांग करती हैं कि अमेरिका के सभी नागरिक अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर झांकें. वैश्विक लोकतांत्रिक शिखर सम्मेलन आयोजित करने से बेहतर ये होगा कि जो बाइडेन प्रशासन, अपने देश के लोकतंत्र की इन कमज़ोरियों को दूर करने पर ध्यान केंद्रित करे और अमेरिका के ज़ख़्मी जनतंत्र पर मरहम लगाए. बेहतर होगा कि कोई जो बाइडेन को ये सलाह दे कि वो तुरंत ही अमेरिका के सभी राज्यों का सम्मेलन बुलाएं, जिससे कि उसके लोकतंत्र और चुनाव कराने की व्यवस्था में सुधार किए जा सकें. अमेरिका को अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था में नई जान फूंकने के लिए ये संस्थागत परिवर्तन तुरंत करने की आवश्यकता है. अमेरिका को चाहिए कि वो अपनी पुरानी पड़ चुकी चुनाव व्यवस्था, इलेक्टोरल कॉलेज व्यवस्था और नए राष्ट्रपति को सत्ता हस्तांतरण में लगने वाले इतने ज़्यादा समय जैसी कमियों को दूर करे. इसके अलावा उसे राष्ट्रपति के क्षमा देने के असीमित अधिकार पर भी लगाम लगाना चाहिए. सच तो ये है कि आज अमेरिका को अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था की दरारें पाटने के लिए एक नया ‘मार्शल प्लान’ बनाने की ज़रूरत है.

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