Expert Speak India Matters
Published on Mar 21, 2024 Updated 0 Hours ago

भारतीय अर्थव्यवस्था एक निर्णायक मोड़ पर है जहां भविष्य में खपत से प्रेरित विकास के रुझान में उलटफेर देखने को मिल सकता है.

भारत की उपभोक्ता अर्थव्यवस्था: हाल के बड़े आंकड़े क्या कहते हैं?

भारत के राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) ने फरवरी 2024 के अंत तक तीन महत्वपूर्ण आकलन जारी किए- a) मौजूदा वित्तीय वर्ष यानी 2023-24 का दूसरा अग्रिम अनुमान; b) इसी वित्तीय वर्ष की तीसरी तिमाही के लिए सकल घरेलू उत्पाद का आकलन; और c) पिछले वित्तीय वर्ष यानी 2022-23 का पहला संशोधित अनुमान. ये आंकड़े पारिवारिक उपभोग व्यय सर्वेक्षण (हाउसहोल्ड कंजम्पशन एक्सपेंडिचर सर्वे) जारी होने के लगभग एक हफ्ते के भीतर आए. इसलिए अलग-अलग आंकड़ों से उभरने वाली संख्याओं को मिलाकर भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए खपत से प्रेरित विकास की परिकल्पना पर एक स्पष्ट चर्चा के हिसाब से ये एक सही समय है. हालांकि अलग-अलग आंकड़ों की एकरूपता के बारे में चिंताओं को लाकर अनुमानों की सांख्यिकीय मज़बूती पर दूसरी चर्चाएं हो सकती हैं, लेकिन इस विश्लेषण के लिए इसे फिलहाल रोका गया है. बहरहाल सभी अनुमानों से एक नियमित निष्कर्ष निकाला जा सकता है- भारतीय अर्थव्यवस्था ने निराशावाद और चुप्पी के सभी बुलबुलों को फोड़ने के लिए पर्याप्त गति हासिल कर ली है. निराशा जताने वालों की दलीलें वास्तविकता में बड़ी मुश्किल से टिकती हैं. 

भारतीय अर्थव्यवस्था ने निराशावाद और चुप्पी के सभी बुलबुलों को फोड़ने के लिए पर्याप्त गति हासिल कर ली है. निराशा जताने वालों की दलीलें वास्तविकता में बड़ी मुश्किल से टिकती हैं. 

ज़रूरी आकलन

2023-24 के लिए 9.1 प्रतिशत के नॉमिनल विकास दर की तुलना में वास्तविक GDP विकास का आकलन 7.6 प्रतिशत का है. इनपुट की अधिक संख्या और कम पूर्वानुमान (एक्स्ट्रापोलेशन) का इस्तेमाल करके कैलकुलेट किया गया दूसरा अग्रिम अनुमान 7.3 प्रतिशत के पहले अग्रिम अनुमान से 4 प्रतिशत ज़्यादा है. इसके अलावा अक्टूबर-दिसंबर तिमाही (तीसरी तिमाही) की साल-दर-साल विकास दर का आकलन वास्तविक रूप से 8.4 प्रतिशत और नॉमिनल रूप से 10.1 प्रतिशत है. ये आंकड़ा तीसरी तिमाही को सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाली तिमाही बनाता है. इस तरह दूसरी तिमाही और पहली तिमाही के क्रमश: 8.2 प्रतिशत और 8.1 प्रतिशत के विकास दर को तीसरी तिमाही पीछे छोड़ती है. 

टेबल 1: राष्ट्रीय आय और संरचना का दूसरा अग्रिम अनुमान (करोड़ भारतीय रुपये में) 

मद

2021-22 (2nd RE)

2022-23 (1st RE)

2023-24 (SAE)

पिछले साल की तुलना में प्रतिशत

में बदलाव


 

2022-23

2023

-24

सकल घरेलू उत्पाद

(GDP)

1,50,21,846

1,60,71,429

1,72,90,281

7

7.6

GDP में हिस्सा (%)

प्राइवेट फाइनल कंज़्म्पशन एक्सपेंडिचर (PFCE)

58.1

58

55.6

   

गवर्नमेंट फाइनल कंज़्म्पशन एक्सपेंडिचर (GFCE)

9.9

10

9.6

   

ग्रॉस फिक्स्ड कैपिटल फॉर्मेशन (GFCF)

33.4

33.3

34.1

   

स्टॉक्स में बदलाव (CIS)

1.1

1.1

1.1

   

वैल्यूएबल्स 

1.9

1.4

1.5

   

निर्यात

22.6

23.9

22.6

   

आयात

23.6

24.4

25.1

   

विसंगतियां 

-3.3

-3.4

0.7

   

GDP

100

100

100

   

प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय उत्पाद (आंकड़े भारतीय रुपये में) 

प्रति व्यक्ति GDP (₹)

1,09,762

1,16,216

1,23,945

5.9

6.7

प्रति व्यक्ति GNI (₹)

1,08,345

1,14,478

1,22,110

5.7

6.7

प्रति व्यक्ति NNI (₹)

94054

99404

1,06,134

5.7

6.8

प्रति व्यक्ति PFCE (₹)

63807

67423

68857

5.7

2.1

स्रोत: MOSPI

 

दूसरे अग्रिम अनुमानों पर बस एक सरसरी नज़र से भारत की विकास गाथा के कई पहलुओं का पता चलता है. GDP विकास का अनुमान 7.6 प्रतिशत का है जबकि प्रति व्यक्ति GDP 6.7 प्रतिशत बढ़ने की उम्मीद है- ये लगभग 0.8 प्रतिशत की सालाना जनसंख्या वृद्धि दर के द्वारा नियंत्रित है. हालांकि अतीत के रुझानों से एक अलग विशेषता उभरती है जब प्रति व्यक्ति 6.7 प्रतिशत की GDP की तुलना में केवल 2.1 प्रतिशत प्रति व्यक्ति खपत खर्च में बढ़ोतरी देखी जाती है. ये हैरान करता है क्योंकि अभी तक GDP में 55 प्रतिशत से ज़्यादा योगदान प्राइवेट फाइनल खपत खर्च (PFCE) का है और ऐतिहासिक आंकड़े GDP विकास और प्राइवेट फाइनल खपत विकास के साथ-साथ चलने का स्पष्ट प्रमाण देते हैं. इस तरह भारत के लिए खपत आधारित विकास की परिकल्पना को मज़बूती देते हैं (रेखाचित्र 1). 

खपत की पहेली 

अगर ताज़ा आंकड़ों पर नज़र डालें तो विकास को मुख्य रूप से बढ़ाने के पीछे खपत के होने के रुझान में साफ तौर पर उलटफेर है- PFCE में लगभग 3.2 प्रतिशत का विकास GDP विकास से काफी कम है. इस प्रकार कम उपयोग किए गए संसाधनों का दोहन करके खपत आधारित विकास नव-कीन्सवादी (नियो-कीनेसियन) सिद्धांत (वो आर्थिक सिद्धांत जो पूर्ण रोज़गार की तुलना में विकास और स्थिरता पर ज़्यादा ध्यान देता है), जहां कुल मांग उत्पादन विकास को प्रेरित करती है, के अनुरूप है. ये क्लासिकल अर्थशास्त्र की व्यवस्था या कुख्यात रीगानॉमिक्स (अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन की आर्थिक नीतियां जो टैक्स कम करने और बिना किसी पाबंदी के फ्री-मार्केट गतिविधियों को बढ़ावा देने से जुड़ी है) के ख़िलाफ है जो मानती है कि समग्र आर्थिक प्रगति नीचे तक हो रही है और इस तरह कल्याण सुनिश्चित हो रहा है. 

बड़ा सवाल है कि क्या भारत पारंपरिक खपत आधारित विकास के तथ्य से बाहर हो रहा है? अगर ये मामला है तब निश्चित रूप से विकास करने वाले दूसरे प्रेरक हैं जो सामने आ रहे हैं. 

बड़ा सवाल है कि क्या भारत पारंपरिक खपत आधारित विकास के तथ्य से बाहर हो रहा है? अगर ये मामला है तब निश्चित रूप से विकास करने वाले दूसरे प्रेरक हैं जो सामने आ रहे हैं. लगता है कि ये पूंजीगत खर्च और निवेश के रूप में हैं जिन्होंने हाल ही में सकल स्थिर पूंजी निर्माण (ग्रॉस फिक्स्ड कैपिटल फॉर्मेशन) को बढ़ाया है. हाल के अनुमानों से संकेत मिलता है कि पूंजीगत खर्च का गुणक प्रभाव (मल्टीप्लायर इफेक्ट) 2.45 तक है. इसका ये अर्थ है कि इसमें 1 रुपये की बढ़ोतरी का नतीजा GDP में 2.45 रुपये की वृद्धि के रूप में निकलेगा. अब इस बात पर चर्चा और बहस की आवश्यकता है कि अगर ये रुझान भविष्य में भी जारी रहता है तो ये स्वागत योग्य कदम है कि नहीं. चीन जैसे देशों ने जहां खपत आधारित विकास की तरफ बढ़ने के लिए नीतियां तैयार की हैं, वहीं भारत के संदर्भ में ये काफी हद तक स्वाभाविक (ऑर्गेनिक) रहा है. माना जाता है कि वैश्विक मंदी के बीच भारत जिस मज़बूत विकास का अनुभव कर रहा है उसका मुख्य कारण ये है कि यहां के उपभोक्ता अपनी क्रय शक्ति को बरकरार रखने एवं उपभोग की उच्च प्रवृत्ति बनाए रखने में सफल रहे और उनमें ज़रूरत से ज़्यादा बचत की आवश्यकता को हटाने वाली उम्मीदें हैं. 

इसके बदले हम ये दलील देंगे कि इस रुझान से हटना मध्यम और दीर्घ अवधि में भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा है. विकास के पहलू से देखें तो किसी एक प्रेरक (यानी खपत) पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता आदर्श स्थिति नहीं हो सकती है. इसके अलावा ये दलील भी दी गई है कि भारत में धन की बढ़ती असमानता खपत से प्रेरित विकास की राह में आ सकती है. ये तथ्य अतीत के रुझानों से हटकर विकास के प्रेरकों में विविधता लाने की ज़रूरत तैयार करता है. हालांकि इसका ये मतलब नहीं है कि खपत से प्रेरित विकास से पीछा छुड़ा लेना चाहिए बल्कि खपत की मांग विकास को तेज़ करने के उद्देश्य से भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक स्थायी मददगार है. विदेशी निवेशकों को जो चीज़ लुभाती है और जो भारत में घरेलू निजी निवेश को बढ़ावा दे सकती है वो है भारत की 1.43 अरब की जनसंख्या (जिसमें से लगभग 58 प्रतिशत लोग 30 साल से कम उम्र के हैं) की विशाल खपत की मांग की क्षमता जिनकी आमदनी 8.3 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है. ऐसी कोई और अर्थव्यवस्था नहीं है जो ऐसी बढ़ती हुई क्रय शक्ति और खपत करने की प्रवृत्ति के साथ इस तरह का विशाल उत्पाद बाज़ार पेश करती है. इसलिए यहां उपभोक्ता विश्वास को प्रमुख भूमिका निभाना है. 

सेक्टर के हिसाब से कुछ सुझाव 

भारत बढ़ते मध्य वर्ग (मिडिल क्लास) का दावा करता है और इस बात को ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि खपत की प्रवृत्ति अमीरों और बेहद अमीरों (सुपर रिच) की तुलना में मध्य और कम आय वाले समूहों में अधिक है. इसका ये मतलब है कि मध्य और कम आय वाले व्यक्ति की आमदनी में 1 रुपये की बढ़ोतरी खपत में इस्तेमाल होने की संभावना है जबकि यही पैसा अगर अमीर और बेहद अमीर के हाथ में जाता है तो इस बात की संभावना है कि उस पैसे की बचत होगी जो कि संपत्ति बनाने और धन की बहुत ज़्यादा असमानता की तरफ ले जाएगी. इसलिए खपत को बढ़ावा देने के लिए मध्य और कम आय वाले समूहों के पास खर्च करने का पैसा बढ़ाने की भी ज़रूरत है. इसके लिए कई तरीके हैं जैसे कि कम आय वाले घरों में औसत आमदनी बढ़ाने के उद्देश्य से सरकारी खर्च में बढ़ोतरी करना, रूढ़िवादी बचत की प्रणाली से जुड़ी खामियों को कम करने वाले निवेश के अवसरों को अनुमति देना और समावेशी विकास पर ध्यान देना. 

खपत को बढ़ावा देने के लिए मध्य और कम आय वाले समूहों के पास खर्च करने का पैसा बढ़ाने की भी ज़रूरत है.

समावेशी विकास स्थिर आजीविका की मांग करता है. इसकी तरफ ऐसे उद्योगों को बढ़ाने के दृष्टिकोण से सोचना चाहिए जिनमें सतत विकास के साथ मिलकर आर्थिक विकास की क्षमता है. दूसरे अग्रिम अनुमान के मुताबिक ज़्यादातर आर्थिक गतिविधि सर्विस सेक्टर में होती है. इसके अलावा सर्विस सेक्टर दो फायदे देता है- अच्छे रोज़गार के साथ आर्थिक विकास को बढ़ावा. सर्विस पर ज़्यादा ध्यान के साथ-साथ मैन्युफैक्चरिंग वैल्यू चेन में जुड़ी सेवाएं पांचवीं औद्योगिक क्रांति (5IR) के ज़रिए विकास को बढ़ावा देने के लिए ज़रूरी हैं. ये तकनीक और लोगों के बीच कई स्तर पर सहयोग सुनिश्चित कर सकती है जिससे वास्तविक समग्र प्रगति हो सकेगी. यहीं पर भारतीय विविधता और क्षमता को ध्यान में रखते हुए सावधानीपूर्वक तैयार विवेकपूर्ण नीतियों की आवश्यकता भी उत्पन्न होती है. इसके अलावा सरकार के द्वारा अधिक पूंजीगत खर्च के माध्यम से निजी निवेश जमा किया जा सकता है जो अधिक लाभ वाले उद्योगों को आगे बढ़ाने में मदद पहुंचाएगा. 

निष्कर्ष 

भारतीय अर्थव्यवस्था एक निर्णायक मोड़ पर है जहां भविष्य खपत आधारित विकास के रुझान में उलटफेर दिखा सकता है. वैसे तो इस विविधता का स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन खपत की प्रक्रिया के कल्याणकारी प्रभाव को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है. अर्थव्यवस्था को किसी एक पर निर्भर रहने की तुलना में सभी प्रेरकों को साथ मिलकर काम करने की ज़रूरत है. उपभोग तभी तक आगे बढ़ेगा जब तक साथ-साथ उद्योग में प्रगति होगी. खपत करने वाले घरों में आमदनी में मदद करने वाली सब्सिडी या कल्याणकारी योजनाएं न केवल असमानता को कम करेगी बल्कि उपभोग की ताकत भी बढ़ाएगी. वित्तीय नीति के मोर्चे पर वेल्थ टैक्स का महत्वपूर्ण पुनर्वितरण (रिडिस्ट्रिब्यूटिव) संबंधी प्रभाव हो सकता है जिससे भारत के जनसांख्यिकीय लाभांश (डेमोग्राफिक डिविडेंड) की खपत क्षमता का दोहन हो सकता है. भारत की उपभोक्ता वाली अर्थव्यवस्था को किसी भी तरह से नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है, हालांकि इस बात में कोई संदेह नहीं है कि ये स्थायी विकास के लिए अकेली ताकत नहीं हो सकती है. एक मिली-जुली कोशिश और एकीकृत व्यापक आर्थिक (मैक्रोइकोनॉमिक) और विकास से जुड़ी नीतिगत सोच समानता और आय में एक साथ बढ़ोतरी की ओर ले जा सकती है जो दोनों के बीच मध्यवर्ती (इंटरमीडिएट) आदान-प्रदान ख़त्म करती है जिसे एक शैलीगत तथ्य (स्टाइलिज़्ड फैक्ट) माना जाता है. 


नीलांजन घोष ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में डायरेक्टर हैं. 

आर्य रॉय बर्धन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक डिप्लोमेसी में रिसर्च असिस्टेंट हैं. 

 

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.