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पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के ख़िलाफ़ भारत की उभरती रणनीति भयभीत रखने, टकराव बढ़ाने और वैश्विक भू-राजनीति की जटिलताओं के बीच एक नाज़ुक संतुलन बनाने की कोशिश को रेखांकित करती है.
22 अप्रैल को पहलगाम में हुए आतंकवादी हमला, जिसमें 26 नागरिकों की जान गई थी, उसके बाद भारत ने सीधी प्रतिक्रिया के तौर पर बालाकोट के बाद सीमा पार अपने सबसे व्यापक हमलों की शुरुआत की. भारत के निशाने पर पाकिस्तान और उसके क़ब्ज़े वाले कश्मीर (PoK) में स्थित नौ आतंकवादी ठिकाने थे. भारत ने अपने अभियान का नाम ‘ऑपरेशन सिंदूर’ रखा था. 25 मिनट चले इस फ़ुर्तीले और तालमेल वाले अभियान के दौरान, सटीक निशाना लगाकर प्रतिबंधित आतंकवादी संगठनों जैश-ए-मुहम्मद (JeM), लश्कर-ए-तैयबा (Let) और हिज़्बुल मुजाहिद्दीन के लगभग 80 आतंकवादियों को मार दिया गया. इन हमलों के बाद भारत ने अपने अभियान को टकराव नहीं बढ़ाने वाला बताने पर ज़ोर देने के साथ साथ ये भी कहा कि अगर पाकिस्तान टकराव बढ़ाने का प्रयास करेगा, भारत पलटवार करने के लिए तैयार है. इस तरह भारत ने गेंद पाकिस्तान के पाले में डाल दी कि वो टकराव में किस हद तक आगे जाने के लिए तैयार है.
भारत और पाकिस्तान के बीच चल रहे इस संकट ने एक बार फिर से भारत के नेतृत्व को उस दु:स्वप्न का सामना करने को मजबूर किया कि, भारत कश्मीर में आतंकवाद को लगातार समर्थन दे रहे पाकिस्तान से कैसे निपटे? और पाकिस्तान के इस छद्म युद्ध के ख़िलाफ़ भारत किस तरह से भयभीत करने वाला माहौल बनाए?
अच्छे से अच्छे वक़्त में भी दुश्मन को अपनी ताक़त से भयभीत रखते हुए क़ाबू में रखना (deterrence) मुश्किल होता है. ताक़त में असंतुलन के बावजूद, मज़बूत इच्छाशक्ति वाला विरोधी ताक़त के इस्तेमाल का विकल्प चुन सकता है. इसके लिए या तो वो मोहरों का इस्तेमाल कर सकता है या फिर पारंपरिक युद्ध का विकल्प चुन सकता है, जिसमें परमाणु हथियारों का इस्तेमाल हो भी सकता है, या नहीं भी हो सकता है. पाकिस्तान के संशोधनवादी लक्ष्य, वैचारिकता वाली सोच, जोख़िम बर्दाश्त करने की भारी क्षमता और उसकी फौज की दबदबे वाली भूमिका, उसको क़ाबू में रखने की कोशिशों में ख़ास तौर से मुश्किल बना देते हैं. पाकिस्तान कोई सामान्य देश नहीं है. वो ताक़त के इस्तेमाल के परिणामों को उस तरह से नहीं देखता है, जिस तरह से दूसरे देश देखते हैं.
पाकिस्तान को दंड देने की मज़बूत इच्छा समझ में तो आती है. लेकिन, भारत को ये भी समझना होगा कि पहले की तुलना में उसकी ताक़त के प्रदर्शन से पाकिस्तान का नियंत्रित रहना अब अधिक समय तक चलता है. पाकिस्तान के समर्थन वाला आतंकवाद अब मोटा मोटी कश्मीर तक सीमित रह गया है और अब वहां भी बड़े हमले कभी कभार ही होते हैं.
दूसरा, ताक़त से डराकर रखने की क्षमता को साबित करना दुश्वार होता है. क्योंकि ये क्षमता विरोधी की कार्रवाई के बजाय कार्रवाई न करने पर निर्भर होती है. इसी वजह से कभी-कभार इन कोशिशों का नाकाम हो जाना तय होता है. पाकिस्तान को दंड देने की मज़बूत इच्छा समझ में तो आती है. लेकिन, भारत को ये भी समझना होगा कि पहले की तुलना में उसकी ताक़त के प्रदर्शन से पाकिस्तान का नियंत्रित रहना अब अधिक समय तक चलता है. पाकिस्तान के समर्थन वाला आतंकवाद अब मोटा मोटी कश्मीर तक सीमित रह गया है और अब वहां भी बड़े हमले कभी कभार ही होते हैं. अब कश्मीर का इलाक़ा पहले से कहीं अधिक भारत के नियंत्रण में है और जिस तरह कश्मीरियों ने पहलगाम के हमले का बड़े पैमाने पर विरोध किया, वो स्थानीय लोगों के जज़्बात में आए बहुत बड़े बदलाव का संकेत है.
तीसरा, छद्म युद्ध भय दिखाकर क़ाबू करने के प्रयासों को मुश्किल बना देते हैं. क्योंकि इनसे आसानी से पल्ला झाड़ा जा सकता है और जवाबदेही सुनिश्चित करना मुश्किल होता है. ऐसे में निशाना बनाने में भी दिक़्क़त होती है. इसी तरह के अपराध करने को लेकर पाकिस्तानी फ़ौज के इतिहास को देखते हुए उसे संदिग्ध मानना ग़लत तो नहीं लगता. इससे एक ऐसे पैटर्न का पता चलता है, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है. फिर भी भारत की सबसे बड़ी सामरिक सफलताओं में से एक तो वैश्विक और क्षेत्रीय जिहाद में पाकिस्तान की भूमिका के इर्द गिर्द एक नैरेटिव गढ़ने की रही है. हालांकि, अब अमेरिका के रुख़ में अनिश्चितता और चीन के उभार को देखते हुए इस नैरेटिव को आगे बनाए रखना मुश्किल होगा. पाकिस्तान को अलग-थलग करने और उस पर दबाव बनाने में अमेरिका के नेतृत्व और भारत और अमेरिका की साझेदारी की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है. हालांकि, अब ऐसा कर पाना मुश्किल हो गया है.
आख़िरी बात, डेटरेंस महंगा पड़ता है और इसी वजह से किसी भी सैन्य कार्रवाई का निरपेक्ष भाव से मूल्यांकन करना ज़रूरी हो जाता है कि इससे क्या नुक़सान होंगे और टकराव बढ़ा तो कौन-कौन से जोख़िमों का सामना करना पड़ सकता है. भारत को इस बात का पूरा हक़ है कि वो पाकिस्तान को उसकी करनी की सज़ा दे और पाकिस्तान की इच्छाशक्ति का जवाब देने के मामले में जोख़िम बर्दाश्त करने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन करे. पाकिस्तानी फ़ौज को आतंकवाद का बेरोक-टोक समर्थन करने से देने से बेहतर विकल्प उसको इसका दंड देना है. हालांकि, इस रणनीति में दुश्मन की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो जाती है और पाकिस्तान कोई औना-पौना देश नहीं है और हर संकट की प्रतिक्रिया का चक्र भविष्य में टकराव बढ़ाने की आशंका को गहरा कर देता है.
1980 के मध्य से ही भारत के तमाम नेताओं को इस दुविधा का सामना करना पड़ा है और इसका कोई आसान उपाय उन्हें नहीं मिल सका है. 1990 के दशक में भारत ने रणनीतिक संयम का विकल्प अपनाया और ख़ामोशी से इसकी क़ीमत बर्दाश्त की. दोनों देशों का खुलकर परमाणु शक्ति होने का एलान करने से चुनौती और बढ़ गई, जिसके बाद भारत को और सतर्कता का रुख़ अपनाना पड़ा, तो पाकिस्तान का दुस्साहस बढ़ गया. हालांकि, ऑपरेशन पराक्रम जैसे बड़े पैमाने पर किए गए सैन्य अभियानों की योजना बनाकर सैनिकों को मोर्चे पर तैनात तो किया गया, लेकिन उस पर अमल कभी नहीं किया गया. जब आतंकवाद एक वैश्विक समस्या बन गया तो भारत ने पाकिस्तान को कूटनीतिक और आर्थिक तौर पर अलग थलग करने पर काम करना शुरू किया, जिसमें अमेरिका के साथ मज़बूत रिश्तों ने काफ़ी मदद की. 2008 का मुंबई हमला भारत की मुख्य भूमि पर आम लोगों पर हुआ अंतिम बड़ा आतंकवादी हमला था.
परमाणु हथियारों के साये तले भारतीय कश्मीर में हिंसा को बढ़ावा देने की अपनी क्षमता और प्रतिबद्धता की वजह से पाकिस्तान प्रासंगिक बना रहा, ताकि वो भारत को बातचीत की मेज़ पर आने को मजबूर कर सके और कश्मीर के मसले को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठा सके. उसको अप्रासंगिक बनाने के लिए, जैसा कि विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा कि, ‘न सिर्फ़ खेल खेलना था, बल्कि उसे अपने मुताबिक़ बदलना भी ज़रूरी था.’ भारत को जोख़िम उठाते हुए रणनीतिक धैर्य के बजाये सोच-समझकर टकराव बढ़ाने की दिशा में चलना था, ताकि पाकिस्तानी फ़ौज को ये संकेत दिया जा सके कि अब वो बिना नुक़सान के आतंकवाद को समर्थन देना नहीं जारी रख सकती है. भारत के सोच-समझकर जोख़िम लेने का आग़ाज़ सितंबर 2016 की सर्जिकल स्ट्राइक से हुआ जब कश्मीर में 19 सैनिकों के मारे जाने के बाद उसके विशेष बलों के सैनिकों ने नियंत्रण रेखा के पार जाकर आतंकवादियों के छिपने के ठिकानों को निशाना बनाया. सर्जिकल स्ट्राइक, भारत की आतंकवाद निरोधक रणनीति में आए एक बड़े बदलाव का संकेत था. इस गोपनीय मगर हल्की घुसपैठ ने पाकिस्तान को बच निकलने का अच्छा मौक़ा मुहैया कराया जब उसने इस अभियान की सच्चाई से ही इनकार कर दिया. सैन्य अभियान से आम लोगों के जज़्बात तो भड़कते हैं. लेकिन, इससे शोर मचने की लागत भी बढ़ती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने से पहले ही भारत पाकिस्तान विरोधी आतंकवाद के शिकार के तौर पर इसका बदला लेने को बेक़रार था. मोदी ने इस जज़्बात को और उभार दिया और ऐसी मिसाल सामने रखी, जिसमें ये तय हो गया कि हर टकराव पहले से कहीं ज़्यादा घातक होगा.
सैन्य अभियान से आम लोगों के जज़्बात तो भड़कते हैं. लेकिन, इससे शोर मचने की लागत भी बढ़ती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने से पहले ही भारत पाकिस्तान विरोधी आतंकवाद के शिकार के तौर पर इसका बदला लेने को बेक़रार था. मोदी ने इस जज़्बात को और उभार दिया और ऐसी मिसाल सामने रखी, जिसमें ये तय हो गया कि हर टकराव पहले से कहीं ज़्यादा घातक होगा.
2019 में अर्धसैनिक बलों के काफ़िले पर बमबारी के जवाब में भारत की कार्रवाई टकराव को एक नए स्तर पर ले गई, जब भारत की वायुसेना ने पाकिस्तान में तथाकथित आतंकवादी शिविरों को निशाना बनाया. ये 1971 के बाद पाकिस्तान की सीमा के भीतर पहला हवाई हमला था. भारत के खुलकर ऐसे हमले करने की वजह से पाकिस्तान ने भी भारतीय सेना के एक ठिकाने पर हवाई हमला करके पलटवार किया. इसके बाद हुए आसमानी युद्ध के दौरान भारत को एक लड़ाकू विमान गंवाना पड़ा और उसका पायलट पकड़ा गया. वो संकट पर्दे के पीछे अमेरिका के कूटनीतिक प्रयासों की वजह से टला, जिसके बाद भारत के पायलट की सुरक्षित स्वदेश वापसी हुई और दोनों देशों ने अपनी अपनी जीत के दावे भी किए.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से मुक़ाबला करने के भारत के तरीक़े को दो अहम तरीक़ों से नई परिभाषा दी है. पहला, केवल पाकिस्तान की जोख़िम से भरी रणनीतियों को स्वीकर करने के बजाय अब भारत टकराव को बढ़ाकर जोखिमों को सक्रियता से अपने मुताबिक़ ढालता है. दूसरा, मोदी ने भारत के राजनीतिक वर्ग के लिए ये निर्धारित कर दिया है कि अगर वो पाकिस्तान के उकसावे वाले क़दमों पर ख़ामोश रहते हैं,तो उन्हें इस बात का सियासी नुक़सान बहुत अधिक होगा. लोकतांत्रिक देशों में ऐसे नुक़सान मज़बूत इच्छाशक्ति का प्रदर्शन तो करते हैं, मगर प्रतिबद्धताओं के जाल में भी फंसा देते हैं, जिससे नेताओं को कोई न कोई क़दम उठाने को मजबूर होना पड़ जाता है. भारत की चुनौती, भय क़ायम रखकर रोकने, बेवजह के भड़कावे से बचने और पाकिस्तान को उसकी करनी का फल देने के बीच संतुलन बनाने की है. ये सब कुछ अब भारत को बदले हुए घरेलू और वैश्विक राजनीतिक मंज़र में करना है, जो 2019 से बहुत तब्दील हो चुका है, जब बालाकोट के हवाई हमलों का आदेश दिया गया था.
मोदी अपने समर्थकों के सामने उस जोख़िम को उठा सकते हैं, जो उन्हें अपनी प्रतिबद्धताओं के मुताबिक़ घेरता है. उनकी लोकप्रियता उल्लेखनीय रूप से बहुत सहनशील रही है और राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में तो उनकी विश्वसनीयता उनके राजनीतिक विरोधियों से कहीं ज़्यादा है. इस वजह से वो दूसरों की तुलना में कहीं ज़्यादा आसानी से संकटों से पार पा सकते हैं.
टकराव बढ़ाने से परमाणु संघर्ष का डर बढ़ तो जाता है, लेकिन इसके जोख़िम को कुछ ज़्यादा ही बढ़ा चढ़ाकर पेश किया जाता रहा है. जहां तक पाकिस्तान की बात है, तो वो एटम बम की घुड़कियां देकर भारत की इच्छाशक्ति का इम्तिहान लेता है और अंतरराष्ट्रीय ताक़तों का ध्यान खींचता है. लेकिन, पाकिस्तान की एटमी क्षमता विश्वसनीयता के मामले में बहुत ही कम है. मिसाल के तौर पर पाकिस्तान ने धमकी दी है कि अगर सिंधु जल समझौते (IWT) का पानी रोका गया तो वो चौतरफ़ा हमला करेगा, जिसमें परमाणु हथियार भी शामिल होंगे. रोज़-रोज़ ऐसी धमकियां देकर पाकिस्तान ख़ुद अपनी ही विश्वसनीयता को गंवाता है.
मौजूदा संकट के दौरान पाकिस्तान की सैन्य और सियासी दोनों ही नेतृत्वों ने बार बार परमाणु संघर्ष की आशंका की बात की है. लेकिन, उनका वास्तविक बर्ताव कुछ और ही इशारा करता है. जब 2019 में भारत का पायलट पाकिस्तान में पकड़ा गया था, तब मोदी सरकार ने धमकी दी थी कि अगर पायलट को कुछ हुआ तो भारत मिसाइल से पाकिस्तान पर हमला करेगा. ये चेतावनी भारत की बाहरी ख़ुफ़िया एजेंसी रिसर्च ऐंड एनालिसिस विंग (RAW) के प्रमुख ने सीधे पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी ISI के चीफ को 27 फरवरी 2019 को दी थी. बाद में भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन के साथ बातचीत में भी यही चेतावनी दोहराई थी. तब भारत ने राजस्थान में ब्रह्मोस मिसाइलें भी तैनात कर दी थीं, और उस वक़्त पाकिस्तान की जवाबी धमकी पारंपरिक हथियारों वाली ही थी, एटमी हथियारों वाली नहीं. अगर भारत ने 9 मिसाइलें लॉन्च करने की तैयारी की थी, तो पाकिस्तान ने 13 मिसाइलें दाग़ने की तैयारी की थी. तब पाकिस्तान का रवैया परमाणु हमले की धमकी देने का नहीं, बल्कि भारत को उसी की तर्ज़ पर जवाब देने का था.
मौजूदा संकट के दौरान पाकिस्तान की सैन्य और सियासी दोनों ही नेतृत्वों ने बार बार परमाणु संघर्ष की आशंका की बात की है. लेकिन, उनका वास्तविक बर्ताव कुछ और ही इशारा करता है. जब 2019 में भारत का पायलट पाकिस्तान में पकड़ा गया था, तब मोदी सरकार ने धमकी दी थी कि अगर पायलट को कुछ हुआ तो भारत मिसाइल से पाकिस्तान पर हमला करेगा.
इस बार, टकराव पहले की तुलना में अलग दिशा में जा सकता था और इसकी दो अहम वजहें थीं. इसमें से पहली पाकिस्तान की अपनी अंदरूनी सियासी उथल पुथल थी. जनरल आसिम मुनीर के सामने कई चुनौतियां खड़ी हैं और भारत के साथ इस संकट ने फ़ौज के इर्द गिर्द जनता के समर्थन का माहौल बनाया है. पाकिस्तान में अप्रैल 2022 को फ़ौज और आम जनता के बीच अब तक का सबसे बुरा संघर्ष देखने को मिला था, जब उस वक़्त प्रधानमंत्री रहे इमरान ख़ान को शहबाज़ शरीफ़ की अगुवाई वाले सियासी गठबंधन ने अविश्वास प्रस्ताव के ज़रिए सत्ता से अपदस्थ कर दिया था. इमरान ख़ान को सत्ता से हटाने का ये जाल फ़ौज ने ही बुना था. 1971 के युद्ध में बांग्लादेश को गंवाने के बाद से पाकिस्तानी फ़ौज को अपनी वैधता को लेकर पहले कभी इतना बड़ा संकट नहीं झेलना पड़ा था. जनरल मुनीर को सेनाध्यक्ष नियुक्त करने के फ़ैसले का इमरान ख़ान ने कड़ा विरोध किया था. वो अपने वफ़ादार को आर्मी चीफ बनाकर फ़ौज के भीतर दरार डालने की कोशिश कर रहे थे. इन तनावों की वजह से फ़ौज ने 2024 के आम चुनाव में बड़े पैमाने पर धांधली की और शहबाज़ शरीफ़ के गठबंधन को दोबारा सत्ता सौंप दी. इस उठा-पटक भरे सियासी मंज़र में जनरल मुनीर और पाकिस्तान का सत्ता तंत्र भारत की किसी भी कार्रवाई का फ़ायदा उठा सकते थे और फ़ौज ही नहीं, पाकिस्तान के समाज के भीतर से उठ रही विरोध की आवाज़ों को कुचल सकते थे और सत्ता पर अपना शिकंजा और मज़बूत कर सकते थे.
दूसरा, दुनिया का मौजूदा भू-राजनीतिक मंज़र अमेरिका के पीछे हटने और चीन के बढ़ते दबदबे वाला है. पिछले दो दशकों के दौरान भारत की पाकिस्तान नीति में अमेरिका के समर्थन ने बहुत अहम भूमिका निभाई है. करगिल के युद्ध के बाद से ही अमेरिका के तमाम नेता कश्मीर में आतंकवाद को लेकर भारत के रुख़ का समर्थन करते आए हैं. जहां तक मौजूदा अमेरिकी नेतृत्व का सवाल है, तो वो भारत की शिकायतों और पलटवार करने के उसके अधिकार को तो स्वीकार करते हैं. लेकिन अंदरूनी सत्ता संघर्ष और सीमित रूप से इस इलाक़े पर ध्यान देने की वजह से पाकिस्तान पर दबाव डालने की अमेरिकी क्षमता अब सीमित रह गई है. 2019 के उलट इस वक़्त अमेरिका की बयानबाज़ी कमज़ोर और अलग-थलग रहने की दिखती है.
भारत के नेतृत्व के लिए एक अहम सबक़ ये है कि चीन के साथ हाल में बढ़े कूटनीतिक संवाद के बावजूद, पाकिस्तान का समर्थन करने की अपनी पुरानी नीति में चीन कोई बदलाव नहीं करने वाला है.
इसके उलट, चीन अब पाकिस्तान के अधिक मुखर सहयोगी के तौर पर उभरा है. चीन ने पाकिस्तान की संप्रभुता की रक्षा करने का वादा किया है और आतंकवादी हमले की ‘निष्पक्ष जांच’ की उसकी मांग का समर्थन भी किया है. पाकिस्तान और चीन के बीच बढ़ते सैन्य सहयोग और पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर (PoK) समेत पूरे पाकिस्तान में चीन के भारी निवेश से भी उसको चीन का संरक्षण मज़बूत होता है.
इसके साथ ही साथ, भारत अपनी उत्तरी सीमा पर भी उथल-पुथल में काफ़ी फंसा हुआ है. भारत के नेतृत्व के लिए एक अहम सबक़ ये है कि चीन के साथ हाल में बढ़े कूटनीतिक संवाद के बावजूद, पाकिस्तान का समर्थन करने की अपनी पुरानी नीति में चीन कोई बदलाव नहीं करने वाला है. इससे इस इलाक़े में भारत के लिए चुनौती बढ़ जाती है. जैसे जैसे चीन का प्रभाव बढ़ रहा है, वैसे वैसे भारत को अमेरिका की ताक़त और मक़सद का अधिक प्रभावी तरीक़े से इस्तेमाल करना होगा.
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Professor Harsh V. Pant is Vice President – Studies and Foreign Policy at Observer Research Foundation, New Delhi. He is a Professor of International Relations ...
Read More +Yogesh Joshi is Indian Community Endowed Assistant Professor and Director, India Center. His research focuses on military technological diffusion among rising powers, conventional military and ...
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