Published on May 09, 2022 Updated 1 Days ago

विकासशील देश कार्बन से छुटकारा दिलाने की नीतियों को लागू करने में पिछड़ रहे हैं क्योंकि उन्हें उपयुक्त जलवायु वित्त और हरित तकनीक नहीं दी जा रही है.

जलवायु से जुड़ी पटकथा, और उसके पीछे छिपे राज़?

ये लेख व्यापक ऊर्जा निगरानी: भारत और विश्व श्रृंखला का हिस्सा है.


जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की छठी मूल्यांकन रिपोर्ट (एआर6) के लिए पहले, दूसरे और तीसरे कामकाजी समूह की रिपोर्ट, जो समस्या का समाधान पेश करने के लिए जलवायु परिवर्तन के वैज्ञानिक आधार और असर का आकलन करती है, को पिछले छह महीनों में मीडिया ने विस्तृत रूप से जगह दी है. इन ख़बरों में सबसे ज़्यादा जगह मिलीजलवायु विनाशको जिसमें सबसे ख़राब परिस्थिति में जलवायु के असर पर ध्यान दिया गया. इसके ज़रिए जो प्रमुख संदेश दिया गया वो ये है कि अगर व्यापक तकनीकी, आर्थिक और सामाजिक कायापलट तुरंत नहीं हुआ तो जलवायु की तबाही तय है. जलवायु परिवर्तन में राहत को लेकर मीडिया में कामकाजी समूह तीन की रिपोर्ट की कवरेज कुछ हद तक उम्मीदों से भरी थी क्योंकि इसमें 2030 तक कार्बन उत्सर्जन आधा किया जा सकता है के संदेश के साथ तकनीकी आशावाद के बारे में बताया गया है. दोष उन देशों और नेताओं पर मढ़ा गया था जो तकनीकी समाधान मौजूद होने के बावजूद कोई क़दम उठाने में नाकाम रहे थे.  

एआर6 में एक ध्यान देने योग्य टिप्पणी, जो मीडिया का ध्यान खींचने में नाकाम रही, ये है कि 2010 से 2019 के बीच शुद्ध मानवजनित जीएचजी (ग्रीन हाउस गैस) के विकास की दर 2000 से 2009 के बीच की दर से कम थी. लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि कुल उत्सर्जन में कमी आई है.

कार्बन उत्सर्जन

हाल के अध्ययन बताते हैं कि विकसित देशों ने कार्बन की कमी के मामले में महत्वपूर्ण बढ़त हासिल की है लेकिन ये जानकारी जलवायु की तबाही के शोरगुल में दब गई. एआर6 में एक ध्यान देने योग्य टिप्पणी, जो मीडिया का ध्यान खींचने में नाकाम रही, ये है कि 2010 से 2019 के बीच शुद्ध मानवजनित जीएचजी (ग्रीन हाउस गैस) के विकास की दर 2000 से 2009 के बीच की दर से कम थी. लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि कुल उत्सर्जन में कमी आई है. 2010-2019 की अवधि के दौरान कुल उत्सर्जन में बढ़ोतरी जारी रही. इसी तरह 1850 से कुल शुद्ध CO2 (कार्बन डाइऑक्साइड) उत्सर्जन भी बढ़ता रहा है. 2010-2019 के दौरान औसत सालाना जीएचजी उत्सर्जन किसी भी पिछले दशक के मुक़ाबले ज़्यादा था. लेकिन उत्सर्जन की वृद्धि के दर में कमी गई है

कमसेकम 18 देशों ने 10 वर्षों से ज़्यादा समय तक उत्पादन आधारित जीएचजी और खपत आधारित CO2 उत्सर्जन में कमी की है. इस कमी को ऊर्जा की आपूर्ति में कम कार्बन, ऊर्जा दक्षता में बढ़त, और ऊर्जा की मांग में कमी से जोड़ा गया था, जो कि नीतियों और आर्थिक संरचना में बदलावदोनों का नतीजा है. कुछ देशों ने उत्पादन आधारित जीएचजी उत्सर्जन की चरम स्थिति के मुक़ाबले एक-तिहाई (जिसमें उनके आयात में शामिल जीएचजी को नज़रअंदाज़ किया गया है) या उससे ज़्यादा की कमी की है तो कुछ देशों ने लगातार कई वर्षों तक क़रीब 4 प्रतिशत प्रति वर्ष की कमी के दर को हासिल किया है जो वैश्विक आधार पर 2 डिग्री सेल्सियस या उससे कम की ग्लोबल वॉर्मिंग तक सीमित रखने की स्थिति से तुलना के योग्य है

उत्सर्जन की दर में कमी वैश्विक कार्बन परियोजना (जीसीपी) के अध्ययन में रिकॉर्ड हुई है. जीसीपी के द्वारा 2021 के एक दस्तावेज़ में 2019 और 2020 में ज़मीन के उपयोग में बदलाव से शुद्ध उत्सर्जन के अनुमान को क़रीब आधा और पिछले एक दशक के दौरान औसतन 25 प्रतिशत कम कर दिया गया है. ये बदलाव ज़मीन के इस्तेमाल के बुनियादी आंकड़ों में सुधार से आते हैं जो फसल की भूमि के विस्तार के अनुमान को कम करते हैं, ख़ास तौर पर उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में. जीसीपी के नये आंकड़ों में ज़मीन के उपयोग में परिवर्तन से उत्सर्जन में पिछले एक दशक के दौरान लगभग 4 प्रतिशत प्रति वर्ष की कमी रही है जबकि जीसीपी के पिछले आंकड़ों में ये 1.8 प्रतिशत प्रति वर्ष के हिसाब से बढ़ रहा था

जीसीपी का ये भी मानना है कि जीवाश्म CO2 उत्सर्जन में वृद्धि की दर में वैश्विक स्तर पर जो कमी आई है, उसकी वजह जलवायु नीति का उत्थान और ओईसीडी देशों  में उत्सर्जन में कमी है. 23 ओईसीडी देशों में से 15 में खपत आधारित उत्सर्जन में भी काफ़ी कमी आ रही है.

पहले के आंकड़ों में कोविड की वजह से उत्सर्जन में कमी से पहले 2011 से 2019 के बीच वैश्विक CO2 उत्सर्जन में औसतन 1.4 GtCO2eq/y (गीगा टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर प्रति वर्ष) बढ़ोतरी हो रही थी. नया संशोधित आंकड़ा दिखाता है कि वैश्विक CO2 उत्सर्जन वास्तव में सपाट थाइसमें 2011 से 2019 के बीच सिर्फ़ 0.1 GtCO2eq/y बढ़ोतरी हुई थी. जब 2020 और 2021 को शामिल किया जाता है तो नया जीसीपी आंकड़ा वास्तव में पिछले दशक के दौरान वैश्विक उत्सर्जन में मामूली कमी दिखाता है. वैसे इसकी वजह 2020 और 2021 में महामारी से जुड़े लॉकडाउन की वजह से उत्सर्जन में आई नाटकीय गिरावट है. नये जीसीपी के आंकड़े 2020 से पहले के आंकड़े के मुक़ाबले ऐतिहासिक (1750-2020) कुल उत्सर्जन में क़रीब 19 GtCO2eq/y कमी बताते हैं जो कि मौजूदा वैश्विक उत्सर्जन के क़रीब आधे वर्ष के बराबर है. ज़मीन के इस्तेमाल से उत्सर्जन में होती कमी ने जीवाश्म CO2 उत्सर्जन में बढ़ोतरी को संतुलित कर दिया है और इस तरह पिछले एक दशक में उत्सर्जन में बढ़ोतरी सपाट रही है. जीसीपी के लेखक सावधान करते हैं कि इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि ये रुझान भविष्य में भी जारी रहेगा और ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव से उत्सर्जन में अनिश्चितता ज़्यादा बनी हुई है

2019 में विश्व की लगभग 48 प्रतिशत आबादी ऐसे देशों में रहती है जो औसतन 6 tCO2eq प्रति व्यक्ति से ज़्यादा उत्सर्जन करते हैं. इसमें ज़मीन के इस्तेमाल, ज़मीन के उपयोग में बदलाव और वानिकी से CO2 उत्सर्जन शामिल नहीं है.

जीसीपी का ये भी मानना है कि जीवाश्म CO2 उत्सर्जन में वृद्धि की दर में वैश्विक स्तर पर जो कमी आई है, उसकी वजह जलवायु नीति का उत्थान और ओईसीडी देशों (आर्थिक सहयोग और विकास संगठन) में उत्सर्जन में कमी है. 23 ओईसीडी देशों में से 15 में खपत आधारित उत्सर्जन में भी काफ़ी कमी आ रही है. कम आर्थिक विकास और जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में ऊर्जा के इस्तेमाल में कमी ने भी CO2 उत्सर्जन की वृद्धि दर में कमी में छोटा सा योगदान दिया है. वैश्विक जीवाश्म CO2 उत्सर्जन में वृद्धि की दर में कमी के बावजूद उत्सर्जन अभी भी बढ़ रहा है और महत्वाकांक्षी जलवायु लक्ष्य को पूरा करने के लिए आवश्यक कमी से बहुत दूर है

समानता

एक और प्रमुख मुद्दा जिस पर एआर6 की रिपोर्ट में ध्यान दिया गया है और जिसे मीडिया की कवरेज में पर्याप्त जगह नहीं मिली है, वो है जलवायु परिवर्तन के लिए ज़िम्मेदारी में असमानता, जलवायु परिवर्तन की कोमलता में असमानता और जलवायु परिवर्तन का समाधान करने की क्षमता में असमानता. एआर6 रिपोर्ट में बताया गया है कि एआर5 के समय से वैश्विक आधार पर प्रति व्यक्ति शुद्ध मानवजनित औसत जीएचजी उत्सर्जन 7.7 से बढ़कर 7.8 tCO2eq (टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर प्रति वर्ष) हो गया जो अलगअलग क्षेत्रों में 2.6 tCO2eq से लेकर 19 tCO2eq तक है. सबसे कम विकसित देशों और छोटे द्वीपीय विकासशील देशों में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन (क्रमश: 1.7 tCO2eq, 4.6 tCO2eq) वैश्विक औसत (6.9 tCO2eq) के मुक़ाबले काफ़ी कम है. इसमें ज़मीन के इस्तेमाल, ज़मीन के उपयोग में बदलाव और वानिकी से CO2 उत्सर्जन शामिल नहीं है. 1.8 tCO2eq प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के साथ भारत सबसे कम विकसित देशों के समूह में है. हालांकि संपूर्ण रूप से भारत विकासशील देशों की श्रेणी में आता है

जैसा कि तीसरे कामकाजी समूह द्वारा बताया गया है, 2019 में विश्व की लगभग 48 प्रतिशत आबादी ऐसे देशों में रहती है जो औसतन 6 tCO2eq प्रति व्यक्ति से ज़्यादा उत्सर्जन करते हैं. इसमें ज़मीन के इस्तेमाल, ज़मीन के उपयोग में बदलाव और वानिकी से CO2 उत्सर्जन शामिल नहीं है. 6 tCO2eq प्रति व्यक्ति से ज़्यादा उत्सर्जन करने वाली आबादी की हिस्सेदारी अधिक इसलिए है क्योंकि 7.35 tCO2eq प्रति व्यक्ति CO2 उत्सर्जन के साथ चीन को इस समूह में शामिल किया गया है. 35 प्रतिशत लोग ऐसे देशों में रहते हैं जो 9 tCO2eq प्रति व्यक्ति से ज़्यादा उत्सर्जन करते हैं. 41 प्रतिशत लोग ऐसे देशों में रहते हैं जो 3 tCO2eq प्रति व्यक्ति से कम उत्सर्जन करते हैं. भारत इसी समूह का हिस्सा है. कम उत्सर्जन वाले देशों में रहने वाली आबादी के एक बड़े हिस्से की पहुंच आधुनिक ऊर्जा सेवाओं तक नहीं है. वैश्विक रूप से सबसे ज़्यादा प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वाली 10 प्रतिशत जनसंख्या 34-45 प्रतिशत वैश्विक खपत आधारित घरेलू जीएचजी उत्सर्जन में योगदान देती है जबकि बीच की 40 प्रतिशत जनसंख्या 40-53 प्रतिशत का योगदान देती है और नीचे की 50 प्रतिशत जनसंख्या 13-15 प्रतिशत योगदान देती है

तीसरे कामकाजी समूह के एसपीएस में टिप्पणी की गई है कि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सहयोग में तेज़ी कम जीएचजी और न्यायसंगत परिवर्तन के लिए बेहद महत्वपूर्ण है और ये वित्त तक पहुंच में असमानता और जलवायु परिवर्तन के असर की लागत और कमज़ोरी का समाधान कर सकता है. 

इन असमानताओं पर ध्यान देते हुए तीसरे कामकाजी समूह की रिपोर्ट में बाज़ार आधारित समाधानों जैसे कि कार्बन टैक्स और कार्बन क़ीमत की सिफ़ारिश की गई है. रिपोर्ट में कहा गया है कि इस तरह के साधनों की हिस्सेदारी और वितरण से जुड़े प्रभाव का समाधान कार्बन टैक्स या उत्सर्जन व्यापार से मिलने वाले राजस्व का इस्तेमाल कर किया जा सकता है ताकि कम आमदनी वाले घरों को समर्थन मिल सके. वैसे ये कहना तो आसान है लेकिन करना मुश्किल. भारत सरकार जीवाश्म ईंधन पर भारी टैक्स (अप्रत्यक्ष कार्बन टैक्स) लगाकर जो भारीभरकम राजस्व हासिल करती है, उससे कम आमदनी वाले घरों को समर्थन मिले ये ज़रूरी नहीं है. एआर6 की रिपोर्ट निरर्थक तर्क देती है जिसमें प्रभावशाली ढंग से ये कहा गया है किनीति निर्माण में समानता पर ध्यान देने से असमानता का समाधान हो सकता हैया फिर ये किनिरंतरता की तरफ़ रास्ता अस्थिरता का समाधान करेगाजो कि संभवत: जलवायु के विमर्श में समानता की महत्वहीनता के बारे में बताता है. जैसा कि तीसरे कामकाजी समूह के एसपीएम (समरी फॉर पॉलिसीमेकर्स या नीति निर्माताओं के लिए सार) के लाइन-बाइ-लाइन को मंज़ूर करने वाले विश्लेषकों द्वारा बताया गया है, मूल मसौदे मेंविकसित देशोंऔरविकासशील देशोंके संदर्भ, जिसकी वजह से समानता का मुद्दा बना, को अमेरिका की ज़िद पर हटा लिया गया. जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में असमान देशों को समान बनाना अन्याय के सबसे ख़राब रूपों में से एक है. लेकिन ये कोशिश 2015 में पेरिस में पक्षों के 21वें सम्मेलन (कॉप21) के समय से लगातार तेज़ हुआ है

जलवायु वित्त

मीडिया में जलवायु वित्त के अपर्याप्त प्रवाह के मुद्दे को भी उतनी जगह नहीं दी गई जितना मिलना चाहिए था. जलवायु परिवर्तन और राहत पर दूसरे कामकाजी समूह के एसपीएम में कहा गया है कि नुक़सानों और क्षति का अलगअलग प्रणालियों, क्षेत्रों और सेक्टर में असमान वितरण किया गया है और मौजूदा वित्तीय, शासन व्यवस्था एवं संस्थागत व्यवस्था, ख़ास तौर पर कमज़ोर विकासशील देशों, में व्यापक रूप से समाधान नहीं किया गया है. इसमें ये भी जोड़ा गया है कि ग़रीब कमज़ोर आबादी के बीच मज़बूती से केंद्रित बढ़ते ग्लोबल वॉर्मिंग के साथ नुक़सान और क्षति में बढ़ोतरी होती है और इससे परहेज करना काफ़ी मुश्किल हो गया है. इसमें ये भी बताया गया है कि अनुकूलता के लिए मौजूदा वैश्विक वित्तीय प्रवाह, जिसमें सार्वजनिक और निजी वित्तीय स्रोत भी शामिल हैं, अपर्याप्त है, ख़ास तौर से विकासशील देशों में अनुकूलता के विकल्पों को लागू करने के लिए. रिपोर्ट में बताया गया है कि वैश्विक जलवायु वित्त के एक बड़े हिस्से का इस्तेमाल जलवायु परिवर्तन की गंभीरता को कम करने के लिए किया गया जबकि एक छोटे हिस्से का इस्तेमाल अनुकूलन के लिए किया गया. रिपोर्ट में स्वीकार किया गया है कि अनुकूलन वित्त का एक बड़ा हिस्सा सार्वजनिक स्रोतों से आया है. तीसरे कामकाजी समूह के एसपीएस में टिप्पणी की गई है कि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सहयोग में तेज़ी कम जीएचजी और न्यायसंगत परिवर्तन के लिए बेहद महत्वपूर्ण है और ये वित्त तक पहुंच में असमानता और जलवायु परिवर्तन के असर की लागत और कमज़ोरी का समाधान कर सकता है. लेकिन रिपोर्ट के उसी पन्ने के फुटनोट में कहा गया है कि मॉडल मात्रा निर्धारण (क्वॉन्टिफिकेशन) लागत प्रभावी निवेश के लिए उच्च प्राथमिकता वाले क्षेत्रों की पहचान में मदद करता है लेकिन इस बात का कोई संकेत नहीं प्रदान करता है कि क्षेत्रीय निवेश का वित्त पोषण कौन करेगा

ओईसीडी के जिन देशों ने कार्बन उत्सर्जन को कम किया है, उनका ऊर्जा इस्तेमाल या तो स्थिर है या कम हो रहा है. ये कम होते या स्थिर जनसंख्या के विकास दर के साथ पूरी तरह औद्योगीकरण के बारे में बताता है.

एसपीएम के लाइनबाइलाइन की मंज़ूरी प्रक्रिया में अमेरिका के नेतृत्व में विकसित देशों ने विकसित और विकासशील देशों के वर्गीकरण पर सवाल उठाए. इसका उद्देश्य विकासशील देशों के प्रति जलवायु वित्त के भार को कमज़ोर करना था. विकसित और विकासशील देशों के बीच अंतर संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पर रूपरेखा के समझौते (यूएनएफसीसीसी) और इसके पेरिस समझौते (पीए) में मज़बूती से शामिल है. वैसे तो विकसित देशों ने अधूरे 100 अरब अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष के वित्तीय लक्ष्य (विकसित देशों ने जिसको लेकर 2020 तक यूएनएफसीसीसी के तहत प्रतिबद्धता जताई थी) के संदर्भ का विरोध किया है, लेकिन विकासशील देशों की ज़िद पर तीसरे कामकाजी समूह के एसपीएम में इसका ज़िक्र है

मुद्दे

जलवायु विनाश और तकनीकी आशावाद की पटकथाएं समानता और जलवायु वित्त जैसे प्रमुख मुद्दों को नज़रअंदाज़ करने की तरफ़ ले जाती हैं जो विकासशील देशों के लिए महत्वपूर्ण है. जलवायु विनाश इस समस्या की तुलना पृथ्वी की तरफ़ बढ़ते क्षुद्रग्रहों से करता है जो तुरंत क़दम उठाने की समझ मुहैया कराती है. इससे समानता और वित्त, प्राथमिकता की सूची में नीचे जाते हैं. तकनीकी आशावाद उन देशों को दोषी के रूप में ठहराता है जो तकनीकी भरोसे के बावजूद कथित रूप से क़दम उठाने से इनकार करते हैं. यूक्रेन पर रूस के आक्रमण की वजह से शुरू ऊर्जा संकट दिखाता है कि इन एकतरफ़ा पटकथाओं की तुलना में वास्तविक विश्व बहुत ज़्यादा जटिल है. ओईसीडी के जिन देशों ने कार्बन उत्सर्जन को कम किया है, उनका ऊर्जा इस्तेमाल या तो स्थिर है या कम हो रहा है. ये कम होते या स्थिर जनसंख्या के विकास दर के साथ पूरी तरह औद्योगीकरण के बारे में बताता है. इसने उन देशों को मौजूदा जीवाश्म ईंधन के बुनियादी ढांचे को औद्योगीकरण से उत्पन्न अतिरिक्त ऊर्जा के साथ बदलकर कार्बन कम करने की नीति को लागू करने की अनुमति दी है. विकासशील देश विकसित देशों से आवश्यक वित्तीय प्रवाह के बिना इस रास्ते की उपेक्षा नहीं कर सकते हैं, वो इस मामले में समानता की चिंताओं की वजह से सही हैं

स्रोत: वैश्विक कार्बन परियोजना

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Authors

Akhilesh Sati

Akhilesh Sati

Akhilesh Sati is a Programme Manager working under ORFs Energy Initiative for more than fifteen years. With Statistics as academic background his core area of ...

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Lydia Powell

Lydia Powell

Ms Powell has been with the ORF Centre for Resources Management for over eight years working on policy issues in Energy and Climate Change. Her ...

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Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar, Assistant Manager, Energy and Climate Change Content Development of the Energy News Monitor Energy and Climate Change. Member of the Energy News Monitor production ...

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