Author : Trisha Ray

Published on Jan 15, 2021 Updated 0 Hours ago

हम एक नए दशक में दाखिल हो चुके हैं और कई उभरती हुई तकनीक हमारे सामने हैं, जो बड़े बदलाव की क्षमता रखती हैं. इनकी इस ताकत को राष्ट्रों और समुदायों को पहचानना होगा

टेक@2021: गूगल ‘क्रोम’ युग का सबसे कमज़ोर बिंदु

उभरती हुई तकनीकों का ज्यों-ज्यों विस्तार होगा, सत्ता और शक्ति को लेकर एक नया असंतुलन उभरेगा. जिस वर्चुअल पाथवेज़ से डेटा गुजरता है, जिस फिज़िकल इंफ्रास्ट्रक्चर की बदौलत इंटरनेट काम करता है या हमारे डिवाइसेज़ में जिन मिनरल्स (खनिजों) का इस्तेमाल होता है, वे सब सत्ता के इसी पैटर्न से बंधे हैं. 2020 को समुदायों और देशों के इन सबसे तालमेल बिठाने के संघर्ष के लिए याद किया जाएगा और उन चुनिंदा देशों के लिए भी, जो खुद को ‘वर्ल्ड लीडर’ के रूप में पेश कर रहे हैं. कई जानकारों को लगता है कि इन उभरती हुई तकनीक की बदौलत छोटे देश भी छलांग लगाकर चौथी औद्योगिक क्रांति में दाखिल हो सकते हैं.

क्या उनकी यह सोच सही है, क्या सचमुच ऐसा हो सकता है? सच तो यह है कि ऐसे सवालों के जवाब इतने सरल नहीं होते. टेक्नोलॉजी की एक दिशा तय हो चुकी है, उसका रास्ता बन चुका है. यह खासतौर पर उन नई और उभरती हुई तकनीकों पर लागू होता है, जिनकी लोगों, इकॉनमी, समाज और सरकार के लिए काफी अहमियत है. असल में कोविड-19 महामारी ने हम सबको अच्छे-खासे वक्त तक ऑनलाइन होने पर मजबूर कर दिया है.

अब क्लाउड सर्विसेज को लीजिए. ये अलग-अलग देशों के बीच मुकाबले का एक और मैदान बनकर सामने आई हैं. इसे दुनिया भर में फिज़िकल सर्वरों में होस्ट किया जाता है और इस पर गिने-चुने क्लाउड सर्विसेज प्रोवाइडर्स (CSPs) का दबदबा है. इनमें एमेजॉन वेब सर्विसेज (AWS), माइक्रोसॉफ्ट ऐजर, अलीबाबा क्लाउड और गूगल क्लाउड शामिल हैं. 2019 में ग्लोबल क्लाउड मार्केट में इनकी हिस्सेदारी 76 फीसदी थी.[1] और इससे नई समस्या खड़ी हो रही है.

टेक्नोलॉजी की एक दिशा तय हो चुकी है, उसका रास्ता बन चुका है. यह खासतौर पर उन नई और उभरती हुई तकनीकों पर लागू होता है, जिनकी लोगों, इकॉनमी, समाज और सरकार के लिए काफी अहमियत है

हम आम ग्राहक हैं. हमें कुछ कंपनियों के एकाधिकार का अहसास तभी होता है, जब सेवाएं मिलनी बंद हो जाती हैं. 25 नवंबर 2020 को ऐसा ही हुआ. तब AWS की सेवा बंद हो गई, जिससे क्लाउड पर चलने वाले हजारों ऐप्स की सेवा बाधित हुई. पिछले साल 19-20 अगस्त को गूगल की क्लाउड सर्विस 6 घंटे तक बंद हो गई, जिससे भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान, मलेशिया और यूरोप के एक बड़े हिस्से के यूजर्स प्रभावित हुए.

टेक्नोलॉजी पर एकाधिकार

इस सर्विस पर कुछ कंपनियों के एकाधिकार का क्या मतलब है, इसे एक रिपोर्ट में बिल्कुल साफ-साफ बताया गया है. रिपोर्ट कहती है, ‘ये दिग्गज कंपनियां जिस टेक्नोलॉजी को खरीदने, बनाने और ऑपरेट करने का फैसला करती हैं, उससे ज्य़ादा से ज्य़ादा सरकारों और संवेदनशील कंपनियों के कामकाज का तकनीकी तौर-तरीका तय होता है.’ तौर-तरीके का मतलब यहां टेक्नोलॉजी और दो देशों में मुख्यालय रखने वाले CSPs की प्रोटोकॉल चॉइस होती हैं. ये दूरदराज़ से अपने यूजर्स को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं.

ये दिग्गज कंपनियां जिस टेक्नोलॉजी को खरीदने, बनाने और ऑपरेट करने का फैसला करती हैं, उससे ज्य़ादा से ज्य़ादा सरकारों और संवेदनशील कंपनियों के कामकाज का तकनीकी तौर-तरीका तय होता है.

उभरती हुई तकनीक को लेकर असंतुलित रिश्ते की एक मिसाल खनिजों को लेकर भी है, जिसमें यूरोपियम जैसे रेयर अर्थ मिनरल्स शामिल हैं, जिनका इस्तेमाल इलेक्ट्रॉनिक डिसप्ले तैयार करने में होता है. इसी तरह से निकेल, कोबाल्ट और लिथियम जैसे खनिज भी हैं, जो 5जी हार्डवेयर, इलेक्ट्रॉनिक और इलेक्ट्रिकल्स गाड़ियों के लिए रिचार्जेबल बैटरी बनाने में इस्तेमाल होते हैं. इन क्षेत्रों की तरक्की के कारण अगले एक दशक में रेयर अर्थ मिनरल्स की मांग दोगुनी होने का अनुमान है.

कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स के साथ इलेक्ट्रिक गाड़ियों की मांग बढ़ने से यह तेजी आएगी. लिथियम और कोबाल्ट की वैश्विक मांग 2017 की तुलना में 2025 तक तीन गुना बढ़ने की उम्मीद है, इसमें भी इलेक्ट्रिक गाड़ियों और कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स का अहम योगदान होगा. इनमें से कई ‘कॉनफ्लिक्ट मिनरल्स’ हैं यानी इनका खनन जबरन कराया जाता है और यह इस तरह से होता है, जिससे पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है. इंडोनेशिया दुनिया में सबसे अधिक निकेल की सप्लाई करता है, लेकिन इसकी माइनिंग के लिए वहां जंगल काटे जा रहे हैं और इससे समुद्री जैवक्षेत्र (मरीन बायोम) को भी नुकसान पहुंच रहा है.

रेयर अर्थ एलिमेंट्स (REE) की माइनिंग से रेडियोएक्टिव कचरा भी पैदा होता है, जिससे खनन करने वाले और खान के आसपास रहने वालों की सेहत को नुकसान पहुंच सकता है. उदाहरण के लिए, चीन में REE माइनिंग से आसपास के जलाशय और जमीन प्रदूषित हो गए हैं. यूं तो इन इलाकों की साफ-सफाई का काम शुरू हो चुका है, लेकिन माइनिंग से पर्यावरण को जितना नुकसान पहुंच चुका है, उसकी भरपाई में 100 बरस लग सकते हैं. चीन जैसा ही हाल कांगो का है, जो कोबाल्ट का दुनिया में सबसे बड़ा सप्लायर है. इस खनिज की वैश्विक आपूर्ति में उसका योगदान 60 फीसदी है.

मानवाधिकार के क्षेत्र में काम करने वाले संगठन यह साबित कर चुके हैं कि इन खनिजों की माइनिंग में बाल मजदूरी का करीब पांच साल से धड़ल्ले से इस्तेमाल होता आया है, इसके बावजूद दिसंबर 2019 तक माइक्रोसॉफ्ट, डेल, गूगल, टेस्ला और एपल जैसी दिग्गज टेक्नोलॉजी कंपनियों और ग्लेनकोर (यूके) और झीजियांग हुआयू कोबाल्ट (चीन) पर ‘बच्चों की सेहत को गंभीर नुकसान पहुंचाने और उनकी मौत में भागीदार होने को लेकर’ मुकदमा किया गया था. इसका मतलब यह नहीं है कि जिन देशों में ऐसे खनिज या डेटा आधारित उद्योग खड़े हुए हैं, उन्हें इससे अच्छा-खासा आर्थिक फायदा नहीं हो रहा. सच तो यही है कि वे विकासशील और पिछड़े देशों को वैश्विक व्यापार में (फिजिकल ट्रेड और अब डिजिटल)  संसाधनों के सप्लायर और उनकी टेक्नोलॉजी को अपनाने वाले के तौर पर देखते हैं.

चौथी औद्योगिक क्रांति में भी वे उनसे यही उम्मीद कर रहे हैं. हालांकि, इसके खिलाफ कुछ असंतोष की आवाजें सामने आने लगीं हैं. ‘साइबर संप्रुभता’ और ‘डिजिटल उपनिवेशवाद’ जैसे शब्दों के केंद्र में कहीं न कहीं चौथी औद्योगिक क्रांति को लेकर चल रहा पावर गेम भी है. साइबरस्पेस में सरकारों का दखल, देश की सीमा के अंदर डेटा स्टोर किए जाने की बात, देश में ही प्रोडक्शन करने पर जोर इसकी मिसाल हैं.

ग्लोबल सप्लाई चेन में इनक्लूज़न

इसके बावजूद अगर इस मामले की गहरी पड़ताल की जाए तो यह बात साफ हो जाती है कि इन्हें लेकर किस तरह के रिश्ते पहले ही बन चुके हैं. चौथी औद्योगिक क्रांति के संदर्भ में राष्ट्रीय सुरक्षा की दलील लुभाती है, जो राष्ट्रीय अस्मिता और डर की बिनाह पर खड़ी की गई है. लेकिन जरूरत समावेशी डिजिटल ग्रोथ पर ज़ोर देने की है. इसके लिए देशों और समुदायों के पास नई इकोनॉमी में तरक्की के लिए कौशल, शिक्षा और इंफ्रास्ट्रक्चर सुनिश्चित करना होगा. इसके साथ यह भी पक्का करना होगा कि कुछ देशों के फायदे के लिए ज्य़ादातर मुल्कों और समुदायों का शोषण न किया जाए.

चौथी औद्योगिक क्रांति के संदर्भ में राष्ट्रीय सुरक्षा की दलील लुभाती है, जो राष्ट्रीय अस्मिता और डर की बिनाह पर खड़ी की गई है. लेकिन जरूरत समावेशी डिजिटल ग्रोथ पर ज़ोर देने की है. इसके लिए देशों और समुदायों के पास नई इकोनॉमी में तरक्की के लिए कौशल, शिक्षा और इंफ्रास्ट्रक्चर सुनिश्चित करना होगा. 

इस क्षेत्र में बदलाव का जिम्मा सिर्फ उन पर न हो, जिनका शोषण किया जा रहा है. दिग्गज टेक्नोलॉजी कंपनियां इस बात से बेपरवाह नहीं हो सकतीं कि इंसानों और कुछ देशों की कीमत पर जो संसाधन पैदा किए जा रहे हैं, उससे उन्हें फायदा नहीं हो रहा है. मिसाल के लिए, स्टेकहोल्डर कैपिटलिजम (ऐसा पूंजीवाद, जिसमें सभी पक्षों की भागीदारी हो) का चलन बढ़ रहा है. इसमें निवेशक,  कामगार और ग्राहक गलत चीजों की तरफ ध्यान दिलाते हैं और बदलाव की मांग करते हैं.

शायद, अब टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में सुधार के लिए वही करने का वक्त आ गया है, जो यूरोपियन इन्वेस्टमेंट बैंक क्लीन एनर्जी के लिए कर रहा है. बैंक धीरे-धीरे पेट्रोलियम प्रॉडक्ट्स में निवेश घटा रहा है. अभी तक विविधता, इनक्लूजन और टिकाऊ ग्रोथ को लेकर जो खोखले वादे किए जाते रहे हैं, उनकी जगह ग्लोबल सप्लाई चेन के सभी चरणों में समुदायों की ताकत बढ़ाने की कोशिश करनी होगी.

आज जब हम नए दशक में दाखिल हो चुके हैं तो एक देश और समुदाय के नाते हमें उभरती हुई तकनीक की बदलाव लाने की ताकत को समझना होगा. यह बदलाव इस तरह से हो ताकि शॉर्ट टर्म ग्रोथ और लंबी अवधि में उसके असर के बीच तालमेल बना रहे. चौथी औद्योगिक क्रांति के लिए वैश्विक रास्ता तैयार हो रहा है, ऐसे में सबको मिलकर यह कोशिश करनी होगी कि मौजूदा रास्ते पर ही नई राह की परत न चढ़ाई जाए.

[1] These numbers refer to Infrastructure-as-a-service (IaaS) cloud services only. For SaaS cloud services, refer to: https://www.idc.com/getdoc.jsp?containerId=US46646419

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.