Published on Feb 27, 2024 Updated 0 Hours ago
भारतीय एविएशन उद्योग: वित्तीय सुधारों के ज़रिये इसे कैसे दिवालिया होने से बचाएं?

साल 2019 की तुलना में भारत में नागरिक विमानों के बेड़े में चार गुना की बढ़ोत्तरी हो चुकी है. अगले 20 साल में भारत को 2,210 विमानों की जरूरत पड़ेगी. 2041 तक भारत गिनती दुनिया के तीन सबसे बड़े विमानन उद्योगों में होगी लेकिन भारत के 80 फीसदी व्यवसायिक विमान पट्टे पर हैं जबकि इसका वैश्विक औसत 53 फीसदी है.

भारतीय विमानन उद्योग और इससे जुड़े साजोसामान का क्षेत्र बड़ी तादाद में उन विदेशी कंपनियों पर निर्भर है जो इन्हें पट्टे पर देती हैं लेकिन विमानों की आपूर्ति में लगने वाले लंबे वक्त की वजह से अब भारतीय कंपनियां विमानों को पट्टे (लीज बैक) पर लेने के व्यापार मॉडल को अपना रही हैं, जिससे भारतीय विमानन कंपनियों को 1.2 से 1.3 अरब डॉलर ज़्यादा खर्च करना पड़ रहे हैं. इसकी एक वजह भारत के दिवालिया कानून और केपटाउन कन्वेंशन (सीटीसी) के बीच टकराव भी है.

चीन ने 2007 में अपनी विमानन नीति का उदारीकरण किया. इसके बाद चीन के कई बैंकों ने इसके लिए अलग विभाग बनाए. इसका नतीजा ये हुआ कि दो साल के भीतर ही शंघाई मुक्त व्यापार क्षेत्र में विमान पट्टे में देने वाली 600 कंपनियां खुल गईं. 

विदेशी कंपनियों पर निर्भरता कैसे कम करें?

विमानों को पट्टे पर लेने-देने को एक वित्तीय उत्पाद के रूप में अधिसूचित किया गया है जिसकी निगरानी एक वित्त नियामक करता है.लेकिन विमान पट्टे पर देने के कारोबार में अभी बहुत ही कम स्थानीय कंपनियां हैं, जिसकी वजह से भारतीय विमानन कंपनियां विदेशी कंपनियों से सही सौदेबाजी नहीं कर पाती. अगर भारतीय कंपनियां भी विमान उत्पादन के क्षेत्र में होती तो वो मुद्रा के जोखिम को तो कम करती ही साथ ही परिचालन में स्थिरता आती इतना ही नहीं इनका रखरखाव-मरम्मत और संचालन भी भारत में होने से बराबरी का मुकाबला करने का मौका मिलता, टैक्स से होने वाली आय बढ़ती और विमान पट्टे पर देने के उद्योग के साथ-साथ इससे जुड़े दूसरे उद्योगों को भी बढ़ावा मिलता. 

आयरलैंड और चीन से क्या सीखें? 

आयरलैंड ने 74 से ज़्यादा ऐसे समझौते किए हैं जिससे उस पर दोहरे टैक्स की मार नहीं पड़ती. इसके अलावा अपने लिए अनुकूल नियम बनाकर आयरलैंड आज पट्टे पर विमान देने वाला अग्रणी देश बना चुका है. विमान उपकरण बनाने वाली कई बड़ी विमानन कंपनियों ने वहां अपने मुख्यालय बनाए हैं.

चीन ने 2007 में अपनी विमानन नीति का उदारीकरण किया. इसके बाद चीन के कई बैंकों ने इसके लिए अलग विभाग बनाए. इसका नतीजा ये हुआ कि दो साल के भीतर ही शंघाई मुक्त व्यापार क्षेत्र में विमान पट्टे में देने वाली 600 कंपनियां खुल गईं. इसमें से 8 कंपनियां दुनिया की 20 प्रमुख कंपनियों में शामिल हो चुकी हैं, जिन्होंने 2,500 से ज़्यादा विमान पट्टे पर दिए हुए हैं. चीन ने ये दिखाया कि अगर इसे लेकर आक्रामक नीतियां बनाई जाएं तो घरेलू विमानन उद्योग को बहुत फायदा हो सकता है..भारत में भी ऐसे ही वित्तीय सुधारों की जरूरत है. इसके लिए ज़रूरी है कि विमान उद्योग मांग और आपूर्ति का सही हिसाब लगाए. कम लागत में बेहतरीन उत्पाद दे और पट्टे पर दिए गए हर विमान से अधिकतम मुनाफा मिले.

 

'गिफ्ट' का फायदा उठाएं

गुजरात में स्थापित गिफ्ट (गुजरात इंटरनेशनल फाइनेंस टेकसिटी) शहर भारत का पहला अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्र है. विमानन उद्योग में आने की योजना बना रही कंपनियों के लिए ये बेहतरीन जगह हो सकती है. सरकार यहां स्थापित कंपनियों को विमानन पट्टे से होने वाली आय पर 10 साल तक कई तरह के टैक्स से छूट देती है. जीएसटी, सीमा शुल्क और स्टांप ड्यूटी में भी छूट मिलती है. गिफ्ट शहर में अब तक विमानन उद्योग से जुड़े 26 सौदे हो चुके हैं. इनमें से 12 सौदे हवाई जहाज और हेलीकॉप्टर से, 1 सौदा इंजन और 13 सौदे एयरपोर्ट पर काम आने वाले उपकरणों से जुड़े हैं. विदेशी कंपनियों को भी ये शहर आकर्षित कर सकता है. एअर इंडिया और इंडिगो के हालिया सौदों को लेकर बैंक और वित्तीय संस्थाओं ने जिस तरह की रुचि दिखाई है, वो शुभ संकेत हैं.

 

जेट एयरवेज़ और गो फर्स्ट के दिवालिया होने का क्या असर?

विमानन कंपनियों के दिवालिया होने की सूरत में इन्हें ऋण देने वाले संस्थानों के पास अपने पैसे वसूलने के सीमित विकल्प हैं. गो फर्स्ट को दिवालिया घोषित किए जाने की प्रक्रिया के दौरान ये देखा गया कि ऋण देने वाले इसे लेकर निराश थे. इस पूरी प्रक्रिया के दौरान विमान एयरपोर्ट पर ही खड़े रहते हैं. उन्हें किसी दूसरी कंपनी को पट्टे पर नहीं दिया जा सकता. साथ ही इनकी कीमत भी कम होती जाती है. इसलिए ऋण देने वाले बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के लिए ये विमान सफेद हाथी की तरह होते हैं. यही वजह है कि राष्ट्रीय कंपनी कानून प्राधिकरण ने दिवालियापन की प्रक्रिया के दौरान भी इन विमानों के संचालन की मंजूरी दी, जिससे कम से कम इससे जुड़े लोगों का रोजगार चलता रहे लेकिन इस तरह के कदम ऋण देने वालों पर ज़्यादा भरोसा नहीं जगा पाते क्योंकि उन्हें ना तो इनका निरीक्षण करने का अधिकार होता है, ना ही वो अपनी परिसम्पत्तियां वसूल पाते हैं.

जेट एयरवेज के मामले में ऋण देने वाली कंपनियों ने 14,400 करोड़ रूपये की क्षतिपूर्ति का दावा किया था लेकिन उनके नुकसान का आंकलन 2,290 करोड़ रूपये का ही किया गया और उसका भी अब तक भुगतान नहीं हो पाया है.

इतना ही नहीं उन्हें इस बात का भी डर होता है कि कहीं दूसरे लेनदार भी, जैसे कि तेल कंपनियां और एयरपोर्ट संचालित करने वाली कपनियां भी दिवालिया हो चुकी विमानन कंपनी से अपना ऋण वसूलने ना आ जाएं. कई बार तो उन्हें अपने डूब चुके ऋण का मुआवजा भी नहीं मिल पाता. ऐसे में इन कंपनियों की चिंताओं को भी बेबुनियाद नहीं कहा जा सकता. किंगफिशर एयरलाइंस और जेट एयरवेज के मामले में ये हो चुका है. जेट एयरवेज के मामले में ऋण देने वाली कंपनियों ने 14,400 करोड़ रूपये की क्षतिपूर्ति का दावा किया था लेकिन उनके नुकसान का आंकलन 2,290 करोड़ रूपये का ही किया गया और उसका भी अब तक भुगतान नहीं हो पाया है. गो फर्स्ट एयरलाइंस के मामले में लेनदारों को 2,660 करोड़ रूपये के नुकसान का अनुमान जताया जा रहा है. यही वजह है कि ऋण देने वाले अब गो फर्स्ट एयरलाइंस के विमानों को अपंजीकृत करने की मांग कर रहे हैं. वित्तीय मुश्किलों का सामना कर रही एक और एयरलाइंस, स्पाइस जेट, के लेनदार भी इसके विमानों का पंजीयन रद्द करने की मांग कर रहे हैं. इन सब मामलों का असर ये होगा कि अब इन्हें ऋण देने वाले संस्थान इन कंपनियों से अत्यधिक जोखिम वाली दर से किश्त वसूलेंगे, जिससे विमान पट्टे पर लेने का किराया भी बढ़ेगा. 

 

भारतीय कानूनों के साथ CTC की विसंगतियां

सीटीसी और उसके मसौदे विमान, उसके इंजन और हेलीकॉप्टर्स से जुड़े सौदों को पूरी दुनिया में कानूनी सुरक्षा देते हैं. सीटीसी की पंजीयन प्रक्रिया और नियम-कायदे उस समय से शुरू हो जाते हैं जब कोई कंपनी (कर्जदार या विमान पट्टे पर देने वाली) विमानन से जुड़े किसी मामले को भारतीय नागरिक उड्डयन महानिदेशालय में पंजीकृत कराती है. सीटीसी उस सूरत में लेनदारों, खासकर विमान पट्टे में देने वालों, को राहत प्रदान करता है जब दिवालिया विमानन कंपनी के विमानों को अपंजीकृत या हस्तांतरित करने की प्रक्रिया चल रही हो.

सीटीसी और भारतीय दिवालिया संहिता, 2016 (IBC) में सबसे बड़ी विसंगति निषेधकाल को लेकर दिखती है. आईबीसी के नियम के मुताबिक किसी विमानन कंपनी को दिवालिया घोषित किए जाने की प्रक्रिया के दौरान उसकी सम्पत्तियों को 330 दिन तक ज़ब्त नहीं किया जा सकता जबकि सीटीसी के मसौदे के मुताबिक लेनदार को 60 दिन के भीतर उस कंपनी की परिसम्पत्तियां लेने का अधिकार है. भारत ने 2008 में सीटीसी समझौते को स्वीकार किया था लेकिन इसे कानूनी रूप से लागू करवाने का विधेयक अब तक पारित नहीं हुआ है. इसकी वजह से सीटीसी और विशिष्ट राहत कानून (1963), कंपनी कानून (2013) और आईबीसी (2016) के बीच टकराव देखने को मिलता है. सीटीसी विधेयक 2018 का जो प्रारूप संसद की मंजूरी के लिए लंबित है, उसमें भी इस विसंगति को स्वीकार किया गया है.

 

प्रस्तावित विमानन बिल में विसंगतियों को दूर करने के क्या उपाय?

मई 2022 में नागरिक उड्डयन मंत्रालय ने सीटीसी बिल, 2018 के ड्राफ्ट में संशोधन कर इस पर जनता की राय मांगी, हालांकि ये विधेयक अभी तक संसद में पेश नहीं किया गया है. जब ये विधेयक संसद में पास हो जाएगा तो सीटीसी और आईबीसी में टकराव की स्थिति में सीटीसी के नियमों को प्राथमिकता मिलेगी. अगर लेनदार को भुगतान नहीं किया हुआ तो उसे ये अधिकार होगा कि वो 5 दिन के अंदर डीजीसीए के पास विमान को अपंजीकृत करने के लिए आवेदन कर सकेगा. भुगतान नहीं होने के सबूतों के साथ सम्बंधित क्षेत्र के हाईकोर्ट में अपील कर सकता है.

दिवालिया घोषित होने पर विमानन कंपनी को 2 महीने के अंदर अपने विमान लेनदार को देने होंगे. ऐसा नहीं करने की सूरत में लेनदार को ये अधिकार होगा कि वो खुद इन सम्पत्तियों को अपने कब्ज़े में ले.

दिवालिया घोषित होने पर विमानन कंपनी को 2 महीने के अंदर अपने विमान लेनदार को देने होंगे. ऐसा नहीं करने की सूरत में लेनदार को ये अधिकार होगा कि वो खुद इन सम्पत्तियों को अपने कब्ज़े में ले. फिर चाहे वो इसे बेचे, पट्टे में दे या फिर उनसे कोई मुनाफा कमाए.

 

एमसीए की अधिसूचना: एक ज़रूरी लेकिन अधूरा कदम

अक्टूबर 2023 में कंपनी मामलों के मंत्रालय ने एक अधिसूचना जारी की. इसके मुताबिक दिवालिये की प्रक्रिया के दौरान भी सीटीसी समझौते के तहत लेनदार विमानों को अपने कब्जे में ले सकता है लेकिन ये स्पष्ट नहीं है कि क्या ये नियम उन मामलों में भी लागू होगा जहां दिवालिया घोषित करने की प्रक्रिया चल रही है. जैसे कि ये सीटीसी के तहत तय अन्तर्राष्ट्रीय ब्याज दरों को कंपनी एक्ट के तहत शुल्क लगाने की सुविधा नहीं देता. यही वजह है कि गोफर्स्ट के दिवालियापन की प्रक्रिया के दौरान इस अधिसूचना पर कड़ा एतराज़ जताया गया. विमान पट्टे पर देने वाले ने कहा कि आईबीसी की तरफ से लगाया जाने वाला निषेधकाल उसे सीटीसी की तरफ से मिले अधिकारों की राह में रुकावट पैदा करता है. इसलिए इसमें कुछ औऱ सुधार की जरूरत है, साथ ही संशोधित सीटीसी बिल को भी जल्दी संसद में पेश करना ज़रूरी है.

ऐसा होने से ऋण सम्बंधी उनकी चिंताएं दूर हो सकेंगी. अब एमसीए के नोटिफिकेशन में पट्टे की लागत में कमी करने की सकेत मिले हैं, जिससे इस पर भरोसा बढ़े लेकिन दिवालियेपन की जो प्रक्रियाएं अभी चल रही हैं. उनमें ये अधिसूचना लागू होगी या नहीं, इसे लेकर अभी अनिश्चितता बनी हुई है. इन विसंगतियों को दूर करके जल्द से जल्द एक सुनिश्चित कानून बनाए जाने की जरूरत है जिससे विमानन कंपनियों की पट्टे देने और लेने की लागत कम हो और स्वदेशी कंपनियों का भी विकास हो सके.

 

 

 

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