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2024 में जो एक और बड़ा चलन देखने को मिला, वो तानाशाही ताक़तों द्वारा चुनाव में दख़लंदाज़ी और झूठी ख़बरों के प्रचार का था.
Image Source: Getty
वर्ष 2024 को इतिहास का सबसे बड़ा चुनावी साल कहा गया था. दुनिया की आधी से भी अधिक आबादी वाले 70 से ज़्यादा देशों में 2024 में चुनाव हुए थे. दुनिया की सबसे बड़ी चुनावी प्रक्रिया कहे जाने वाले सात चरणों में हुए भारत के आम चुनावों से लेकर, इंडोनेशिया में राष्ट्रपति चुनाव, अमेरिका में राष्ट्रपति के चुनाव जिनमें बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ था और फिर ब्रिटेन के लिए बहुत अहम रहे आम चुनावों तक, 2024 में हमने दुनिया के अलग अलग कोनों में ज़बरदस्त चुनाव प्रचार होते देखा. सबसे अहम बात तो ये रही कि लगभग दर्जन भर देशों में ऐसे वक़्त चुनाव हुए, जब वहां संघर्ष तेज़ हो रहे थे और ये सभी चुनाव गंभीर होती भू-राजनीतिक चुनौतियों के बीच हुए. ताइवान ने चीन के भारी दबाव और उकसावे वाली हरकतों के बीच राष्ट्रपति के चुनाव कराए, तो वहीं यूक्रेन के साथ युद्ध लड़ रहे रूस में पिछले साल मार्च में राष्ट्रपति के चुनाव हुए. इसी तरह, दक्षिण अफ्रीका, अल्जीरिया, घाना, नामीबिया, मोज़ांबिक़, सेनेगल और संघर्ष के शिकार साउथ सूडान समेत कई अफ्रीकी देशों में भी चुनाव हुए. इनमें से कई देशों में संघर्ष चल रहा है, या फिर उन्होंने ज़बरदस्त तनाव के बीच चुनाव कराए.
2024 के चुनावों में सत्ताधारी दलों को भारी नुक़सान उठाना पड़ा. बहुत से नए लोगों और हाशिए पर पड़े दलों ने चुनाव में स्थापित दलों को शिकस्त देकर ज़बरदस्त चुनावी सफलता प्राप्त की.
2024 के चुनावों में सत्ताधारी दलों को भारी नुक़सान उठाना पड़ा. बहुत से नए लोगों और हाशिए पर पड़े दलों ने चुनाव में स्थापित दलों को शिकस्त देकर ज़बरदस्त चुनावी सफलता प्राप्त की. इसकी एक मिसाल श्रीलंका है. जापान, फ्रांस, दक्षिण अफ्रीका और ब्रिटेन जैसे देशों में मतदाताओं ने सत्ताधारी दल के प्रति अपने ग़ुस्से का इज़हार किया और आर्थिक सुस्ती, महंगाई, बेरोज़गारी और बढ़ते वैश्विक संघर्षों के लिए जवाबदेही तय करते हुए उनके ख़िलाफ़ जनादेश दिए. जापान में दूसरे विश्व युद्ध के बाद से सत्ता में बनी रही लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी को संसद के चुनावों में हैरान करने वाली शिकस्त मिली. इसी तरह, 1994 से दक्षिण अफ्रीका में सरकार चला रही अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस को पहली पूर्ण बहुमत नहीं मिला. भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका में बहुत कम जाने-माने नेता अनुरा कुमारा दिसानायके ने राष्ट्रपति और संसदीय दोनों ही चुनावों में अपनी पार्टी जनता विमुक्ति पेरामुना को ऐतिहासिक जीत दिलाई. ब्रिटेन में भी चुनाव के ज़रिए ऐतिहासिक मोड़ आया, जब मतदाताओं ने 14 साल बाद कंज़रवेटिव पार्टी को सत्ता से हटाकर, लेबर पार्टी को ज़बरदस्त जनादेश दिया.
फिर भी, सबसे बड़ी और दूरगामी असर दिखाने वाली चुनावी शिकस्त तो अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी को मिली. नाराज़ मतदाताओं (जिनमें बहुत से डेमोक्रेटिक पार्टी के कट्टर मतदाता भी थे) ने रिपब्लिकन पार्टी के पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप का चुनाव किया. पूरी दुनिया और उदारवादी लोकतंत्र के लिए इसके परिणाम दूरगामी होंगे.
वैसे तो यूरोप में कट्टर दक्षिणपंथी दलों का उभार उल्लेखनीय है. लेकिन, अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी डॉनल्ड ट्रंप की अभूतपूर्व चुनावी जीत की चर्चा ज़्यादा रही.
दुनिया भर में चली इस सत्ता विरोधी लहर में भारत ने एक अलग उदाहरण पेश किया. यहां सत्ताधारी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) ने लगातार तीसरी बार सरकार बनाई. हालांकि, इस बार सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा में पूर्ण बहुमत नहीं मिला. लेकिन, उसके गठबंधन ने 543 में से 293 सीटें हासिल करके सरकार बना ली.
70 देशों के चुनाव के दौरान, यूरोप के कई देशों में कट्टर दक्षिणपंथी दलों को अभूतपूर्व चुनावी सफलता मिलती देखी गई. वैसे तो 2010 में हंगरी में विक्टर ओरबान की जीत के बाद से ही ज़्यादातर यूरोपीय देशों में कट्टर दक्षिणपंथी दलों का उभार देखने को मिल रहा है. लेकिन, 2024 में इन दलों को ज़बरदस्त चुनावी सफलताएं हासिल हुईं. अप्रवासियों के ख़िलाफ़ ग़ुस्से से भरे और आर्थिक उठा-पटक से नाख़ुश मतदाताओं ने दक्षिणपंथी जनवादी नेताओं में असाधारण रूप से अपना भरोसा जताया. सितंबर महीने में ऑस्ट्रिया में हर्बर्ट किकल की धुर दक्षिणपंथी फ्रीडम पार्टी ने 29 प्रतिशत वोट के साथ संसद के चुनाव जीत लिए. वहीं, बेल्जियम और पुर्तगाल में भी 2024 में दक्षिणपंथी दलों ने काफ़ी सफलता प्राप्त की. चेक गणराज्य, क्रोएशिया, फिनलैंड, हंगरी, इटली, नीदरलैंड्स और स्लोवाकिया जैसे यूरोपीय संघ के देशों में कट्टर दक्षिणपंथी दल, सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा बन गए हैं. फिर भी, जहां तक दक्षिणपंथी दलों के उभार का सवाल है, तो सबसे निर्णायक पल तो उस वक़्त देखने को मिला, जब यूरोपीय संघ के दो सबसे बड़े देशों जर्मनी औऱ फ्रांस में दक्षिणपंथी दल ताक़तवर बनकर उभरे.
2024 में 70 से ज़्यादा देशों में ऐसे माहौल में चुनाव हुए, जब पूरी दुनिया में लोकतंत्र कमज़ोर हो रहा है. इसके संकेत हमें कई बड़े लोकतांत्रिक देशों में कमज़ोर होते लोकतांत्रिक संस्थानों के रूप में दिख रहे हैं.
धुर दक्षिणपंथी दलों की जीत का असर हाल ही में हुए यूरोपीय संघ (EU) के चुनाव में भी देखने को मिले हैं. अप्रवास विरोधी दक्षिणपंथी मध्यमार्गी यूरोपियन पीपुल्स पार्टी (EPP) ने यूरोपीय संसद की 720 में से 180 सीटों पर जीत हासिल कर ली. वैसे तो यूरोप में कट्टर दक्षिणपंथी दलों का उभार उल्लेखनीय है. लेकिन, अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी डॉनल्ड ट्रंप की अभूतपूर्व चुनावी जीत की चर्चा ज़्यादा रही. ट्रंप दुनिया के सबसे जाने माने दक्षिणपंथी लोकवादी नेता हैं. ट्रंप की चौंकाने वाली जीत का साया उदारवादी लोकतांत्रिक परियोजना पर तो मंडराता ही रहेगा, पर इससे दुनिया भर में दक्षिणपंथी दलों को भी हौसला मिलेगा.
2024 में जो एक और बड़ा चलन देखने को मिला, वो तानाशाही ताक़तों द्वारा चुनाव में दख़लंदाज़ी और झूठी ख़बरों के प्रचार का था. ये तो अब बहुत आम बात है कि रूस, चीन और ईरान जैसे तानाशाही देशों द्वारा सूचना को प्रभावित करने और साइबर हमले करने के अभियान तमाम लोकतांत्रिक देशों की चुनावी प्रक्रिया के लिए बड़ा ख़तरा बन गए हैं. पर, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के औज़ारों, ख़ास तौर से जेनेरेटिव AI की आमद की वजह से ग़लत सूचना के प्रसार का दायरा और चुनाव में हेरा-फेरी की आशंकाएं 2024 में बहुत नुक़सान करती देखी गईं. फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हाट्सऐप जैसे बड़े तकनीकी मंचों के मुताबिक़, रूस, ईरान और चीन से अमेरिका यूरोप और एशिया (भारत समेत) और मध्य पूर्व में चुनाव से जुड़े 20 गोपनीय अभियान चलाए गए. हालांकि, अच्छी बात तो ये रही कि चुनाव की देख-रेख करने वाले संस्थानों और तकनीकी मंचों को विदेशी किरदारों और उनके हेरा-फेरी वाले औज़ारों से निपटने के समाधान तलाशने और इस विदेशी दख़लंदाज़ी का असर सीमित रखने में काफ़ी सफ़लता मिली. फिर भी रोमानिया और जॉर्जिया के चुनावों में रूस की दख़लंदाज़ी के इल्ज़ामों को देखते हुए, लोकतंत्र पर नज़र रखने वालों को सावधान रहना चाहिए.
2024 में 70 से ज़्यादा देशों में ऐसे माहौल में चुनाव हुए, जब पूरी दुनिया में लोकतंत्र कमज़ोर हो रहा है. इसके संकेत हमें कई बड़े लोकतांत्रिक देशों में कमज़ोर होते लोकतांत्रिक संस्थानों के रूप में दिख रहे हैं. वहीं, अप्रवास, रोज़गार और आर्थिक सुस्ती जैसी वजहों से मतदाताओं में भारी नाराज़गी भी है. बहुत से लोकतांत्रिक देशों में देखा जा रहा है कि ख़ास तौर से युवा मतदाताओं का चुनाव से मोह भंग हो रहा है. जनवादी नेताओं ने इन कारणों को ख़ूब भुनाया और चुनाव में जीत हासिल की, ताकि लोकतांत्रिक संस्थाओं (और मूल्यों पर भी!) पर अपना शिकंजा और कस सकें. चुनौतियों के बीच, लोकतंत्र की सहनशक्ति की सबसे बड़ी उम्मीद दक्षिण एशिया से ही उभरी. ज़्यादातर युवाओं की अगुवाई में श्रीलंका और बांग्लादेश की सड़कों पर जनता के विरोध प्रदर्शन ने अधिक लोकतांत्रीकरण के लिए दरवाज़े खोले हैं. कुल मिलाकर अगर 2024 का साल चुनावों का था, तो इस बात की संभावना काफ़ी प्रबल है कि यूरोप से लेकर अमेरिका तक दक्षिणपंथी ताक़तों की बढ़ती चुनौती के बावजूद, 2025 का साल, यूरोप से आगे लोकतंत्र को मज़बूत बनाने का होगा.
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Niranjan Sahoo, PhD, is a Senior Fellow with ORF’s Governance and Politics Initiative. With years of expertise in governance and public policy, he now anchors ...
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