Published on Feb 21, 2022 Updated 0 Hours ago

क्या श्रीलंका घरेलू अस्थिरता के साथ-साथ विदेश नीति संबंधी बेहद गंभीर चिंताओं का सामना कर पाने में सक्षम होगा? 

श्रीलंका: राजनीतिक आर्थिक अस्थिरता के बीच वांग यी की ‘सतही कूटनीति’

बीजिंग से पड़ रहे दबाव को कम करने के लिए, चीनी विदेश मंत्री वांग यी के श्रीलंका दौरे से एक दिन पहले, किंगदाओ सीविन बायोटेक ग्रुप को 69 लाख अमेरिकी डॉलर का भुगतान कर दिया गया. कुछ महीने पहले, चीनी खाद कंपनी ने स्थानीय श्रीलंकाई बैंक को काली सूची में डाल दिया था. मामला शांत करने के कोलंबो के प्रयास ने चीनी दबाव को कम किया, ख़ासकर वांग यी के द्विपक्षीय एजेंडे से. विदेश मंत्री की यात्रा के दौरान, श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने अनुरोध किया कि ‘आर्थिक संकट के समाधान के बतौर अगर क़र्ज़ भुगतान के पुनर्गठन पर ध्यान दिया जा सके तो यह देश के लिए बड़ी राहत होगी’, जो बीजिंग को इस द्वीप में अपने प्रभाव के दायरे के विस्तार के लिए पर्याप्त और सहज स्थान प्रदान करेगा.

विदेश मंत्री की यात्रा के दौरान, श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने अनुरोध किया कि ‘आर्थिक संकट के समाधान के बतौर अगर क़र्ज़ भुगतान के पुनर्गठन पर ध्यान दिया जा सके तो यह देश के लिए बड़ी राहत होगी’, जो बीजिंग को इस द्वीप में अपने प्रभाव के दायरे के विस्तार के लिए पर्याप्त और सहज स्थान प्रदान करेगा.

वांग यी के यात्रा के मायने 

आर्थिक संकट ने इस तरह के क़दमों के अदृष्ट भावी प्रभावों को अपनी छाया तले ढक लिया. श्रीलंका को 2022 में 4.5 अरब अमेरिकी डॉलर का क़र्ज़ चुकाना है; गिरते विदेशी मुद्रा भंडार के साथ बीमार अर्थव्यवस्था दिन-ब-दिन बदतर होते जा रहे आर्थिक संकट का सामना कर रही है. आर्थिक संकट और बढ़ती देशव्यापी बिजली कटौती में कमी लाने के लिए, श्रीलंका के वित्त मंत्री बासिल राजपक्षे ने भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर से 1.5 अरब अमेरिकी डॉलर की उधार सुविधा के ज़रिये मदद का अनुरोध किया. चीनी क़र्ज़ 5 अरब अमेरिकी डॉलर से ज़्यादा है, जो बुनियादी ढांचे में निवेश किया गया था, लेकिन दुर्भाग्य से, यह उम्मीद के मुताबिक राजस्व पैदा करने में विफल रहा, हालांकि इसमें ऋणदाताओं की कोई ग़लती नहीं थी. क़र्ज़ चुकाने की ऊंची लागत के साथ ही घरेलू भ्रष्टाचार और गैर-उत्पादक परियोजनाओं में निवेश जैसे कई मुद्दों ने इस बोझ को पैदा किया है. वांग यी ने कोलंबो पोर्ट सिटी का दौरा किया, जो एक विशाल बुनियादी ढांचा परियोजना है और बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव का हिस्सा है. फ़िलहाल, इस परियोजना में कुछ ही विदेशी निवेशक हैं और विदेशी निवेशकों ने बहुत कम रुचि दिखायी है, जबकि पोर्ट सिटी के प्रबंध निदेशक हुलियांग जियांग ने 2019 में इस लेखक के साथ एक इंटरव्यू में कहा था कि ‘विदेशी निवेशक आयेंगे, ख़ासकर भारत और कई अन्य देशों से’. मगर, इस मोर्चे पर बहुत थोड़ी प्रगति हुई है.

चीनी परियोजना के लक्ष्यों को हासिल करना एक चुनौती 

बीमार श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था को संबल देने के लिए चीनी परियोजना के लक्ष्यों को हासिल करना एक मुश्किल चुनौती होगी, ख़ासकर मौजूदा राजनीतिक हालात और राजपक्षे की विदेश नीति के उस रुख के तहत, जो नयी दिल्ली और बीजिंग के बीच हेजिंग (एक से हुए नुक़सान से बचाव के लिए दूसरे का इस्तेमाल) करती है. चीनी विदेश मंत्री के दौरे के तीन हफ़्ते पहले, चीनी राजदूत ची झेंगहोंग ने कोलंबो की मंज़ूरी से उत्तरी प्रांत की यात्रा की. दूसरे देशों के साथ गुट बनाने की रणनीति के संदर्भ में श्रीलंका की हेजिंग वाली विदेश नीति – भारत और चीन से एकसाथ संरक्षण के रिश्ते बनाना – साफ़ दिखायी पड़ती है. ‘इंडिया फर्स्ट’ रुख के ज़रिये भारत के प्रति जताये गये पूरे समर्थन के बावजूद, उत्तर तमिल समुदाय को चीनी मदद का स्वागत करना कोलंबो द्वारा हेजिंग की क़वायद का एक उदाहरण है. कुछ विश्लेषक जो यह आकलन करते हैं कि छोटे राष्ट्र ज़्यादा टिकाऊ निवेश और क़र्ज़-के-जाल की कूटनीति से कुछ मोहलत पाने की उम्मीद में दोनों देशों का एक दूसरे के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करते हैं, वे चीन के गुप्त सुरक्षा आयाम को देख पाने से चूक गये हैं. चीन ने जिस उत्तरी प्रांत के विकास में अपनी दिलचस्पी का संकेत दिया है, वह दक्षिण में भारत की ठीक परिधि से सबसे क़रीबी भौगोलिक क्षेत्र है.

‘इंडिया फर्स्ट’ रुख के ज़रिये भारत के प्रति जताये गये पूरे समर्थन के बावजूद, उत्तर तमिल समुदाय को चीनी मदद का स्वागत करना कोलंबो द्वारा हेजिंग की क़वायद का एक उदाहरण है.

दक्षिण भारतीय भौगोलिक क्षेत्र श्रीलंका के उत्तरी हिस्से को सीधे प्रभावित करता है. नयी दिल्ली तमिलों की शिकायतों को आवाज़ दे चुकी है, जिसमें 1987 में भारत-श्रीलंका समझौते के ज़रिये एक राजनीतिक समाधान भी शामिल है. फ़िलहाल, पहली बार, चीन ने बहुसंख्यक सिंहली और अल्पसंख्यक तमिल समुदाय को एक ही समय में संतुष्ट करने के लिए दोहरे दृष्टिकोण वाली रणनीति बनायी है. चीनी राजदूत की यात्रा और उत्तरी प्रांत को चीन की ओर से अच्छी ख़ासी मदद चीन की मौजूदगी के विस्तार के लिए एक रणनीतिक क़दम है. इसके लिए शुरू में वह एक महत्वपूर्ण हितधारक मछुआरा समुदाय को लक्ष्य बना रहा है, जो दक्षिण भारत से दबाव में है.

बीजिंग द्वारा दिल्ली को संकेत

राजदूत की यात्रा की पूरी योजना बीजिंग की रणनीतिक मंडली ने तैयार की. इस पहल की संवेदनशील प्रकृति के चलते, यह कोई ऐसी चीज़ नहीं थी जिस पर कोलंबो में चीनी दूतावास अकेले फ़ैसला ले सकता था. एक प्रसिद्ध मंदिर में हिंदू अनुष्ठानों को संपन्न करना, श्रीलंकाई नौसेना के साथ उत्तरी समुद्री क्षेत्र का मुआयना करना, और यह बयान कि ‘यह बस शुरुआत है’ – यह सब नयी दिल्ली को संकेत भेजने के लिए बीजिंग द्वारा पटकथाबद्ध क़वायद है. इस दौरे के लिए समय का चुनाव अच्छे से हिसाब-किताब बैठा कर किया गया. वित्त मंत्री बासिल राजपक्षे के नयी दिल्ली में द्विपक्षीय आर्थिक सहयोग को पक्का करने, और चीनी दूषित खाद की खेप ख़ारिज किये जाने, जहां रिक्ति को भारत ने भरा, फिर उसके बाद तीन उत्तरी द्वीपों में चीनी अक्षय ऊर्जा परियोजना रद्द किये जाने के कुछ दिनों के पश्चात ही यह यात्रा हुई. इन तीन तथ्यों ने बीजिंग पर दबाव बनाया कि वह श्रीलंका में भारत के बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिए कोई वैकल्पिक रणनीति तलाशे. भारत की सुरक्षा चिंताओं के चलते उत्तरी द्वीपों में चीन की अक्षय ऊर्जा परियोजना रद्द करके, कोलंबो ने बीजिंग को याद दिलाया कि वह उसके नियंत्रण से परे है. भारत ने अपने निष्क्रिय (पैसिव) विदेश नीति रुख के चलते अपने दक्षिण की ओर ख़ास ध्यान नहीं दिया है. दुर्भाग्य से, मौजूदा संदर्भ में ज़मीनी हक़ीक़त बदल चुकी है, और भारत को उस अहम सुरक्षा ख़तरे को समझने की ज़रूरत है जो उसकी ठीक समुद्री परिधि के पास है. चीनी राजदूत की उत्तर की यात्रा श्रीलंका और भारत दोनों के लिए यह संदेश है कि चीन तमिल भूगोल तक पहुंचने और भारत के दक्षिणी दायरे में दख़ल देने के लिए अतिरिक्त जोखिम लेने को तैयार है. बीजिंग ने नयी दिल्ली और कोलंबो को अच्छी तरह पढ़ा है, और वह भारत व श्रीलंका की हदों तथा राजदूत की यात्रा के बाद के परिणामों को जानता है.

चीनी राजदूत की उत्तर की यात्रा श्रीलंका और भारत दोनों के लिए यह संदेश है कि चीन तमिल भूगोल तक पहुंचने और भारत के दक्षिणी दायरे में दख़ल देने के लिए अतिरिक्त जोखिम लेने को तैयार है.

अमूमन, चीन इस पर क़ायम रहता है कि वह श्रीलंका के आंतरिक मामलों पर ‘कोई टिप्पणी नहीं’ करेगा. उसने श्रीलंका में तमिल समुदाय की मानवाधिकार संबंधी चिंताओं के समाधान के लिए यूएनएचआरसी की प्रक्रिया का समर्थन नहीं किया. चीनी राजदूत की यात्रा यह शुरुआती चेतावनी भी है कि वह यूएनएचआरसी में राजपक्षे को समर्थन देने के रुख से हटते हुए वैकल्पिक रणनीति अपना सकता है और तमिल समुदाय के ख़िलाफ़ वीटो का इस्तेमाल नहीं भी कर सकता है. यह भारत के लिए भी सीधा संदेश है कि चीन तमिल समुदाय को आवाज़ देने और समर्थन करने को तैयार है. चीनी ‘रणनीतिक जाल’ में फंसे शासन के चलते कोलंबो में चीनी दांव-पेच के लिए गुंजाइश आसान हो गयी है. इस जाल को राजपक्षे का भी समर्थन है, जो आर्थिक मदद के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के पास जाने को तैयार नहीं हैं. डॉ गणेशन विग्नराजा का अवलोकन है कि ‘आईएमएफ की मदद लेने के लिए श्रीलंका का आह्वान करने में चीन उपयोगी रूप से अपनी शक्तिशाली आवाज को शामिल कर सकता है’, लेकिन इसके बजाय चीन ने लोकतांत्रिक मॉडल की जगह एक वैकल्पिक मॉडल को प्रोत्साहित करने के लिए श्रीलंका में अर्द्ध-एकतंत्रीय राजनीतिक वातावरण का फ़ायदा उठाने और अपनी आर्थिक मदद का विस्तार करने का चुनाव किया है.

भारत को ज्य़ादा सक्रिय विदेश नीति की ज़रूरत 

इस तरह के होड़ भरे माहौल में, चीनी विदेश मंत्री की कोलंबो यात्रा चीन द्वारा अपनी पकड़ दिखाने और राजपक्षे की चीन के प्रति प्रतिबद्धता को आश्वस्त करने का एक स्पष्ट संकेत है. चीनी विदेश मंत्री ने श्रीलंका आने से पहले चार और देशों की यात्रा की जिनमें इरीट्रिया, केन्या, कॉमरोस और मालदीव शामिल हैं. ये सभी क़र्ज़ संकट से गुज़र रहे हैं जो धीरे-धीरे ‘रणनीतिक जाल’ में बदल रहा है. वांग यी को चीनी कूटनीति में ‘रुपहली लोमड़ी’ (सिल्वर फॉक्स) के रूप में जाना जाता है. उनके पास चीन के पास-पड़ोस में क्षेत्रीय प्रभुत्व को सुदृढ़ करने के लिए परिधीय कूटनीति का काफ़ी अनुभव है. यह प्रभुत्व एक रणनीति है, जिसका लक्ष्य है ‘साझी नियति वाला समुदाय’ बनाने के राष्ट्रपति शी के विजन को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़ना. वांग यी अब भारत के पास-पड़ोस में परिधीय कूटनीति का इस्तेमाल कर रहे हैं. हिंद महासागर द्वीप राष्ट्रों के लिए एक नये मंच का हालिया डिजाइन भारत के हिंद महासागर के मौजूदा समुद्र तटवर्ती नेटवर्क के ख़िलाफ़ एक काउंटर ग्रुपिंग रणनीति है, जो भारत की परिधि को प्रभावित करती है. श्रीलंका के भूगोल और राजपक्षे शासन द्वारा चीन को स्पष्ट प्राथमिकता को देखते हुए, बीजिंग ने अपने आइडिया को आगे बढ़ाने के लिए श्रीलंका का एक आदर्श लॉन्चपैड के रूप में चुनाव करने के ज़रिये अपनी रणनीति बनायी है. इस बृहत् भूराजनीतिक दृष्टिकोण का आकलन कोलंबो की विदेश नीति के लिए एक अतिआवश्यक तत्व है; लेकिन दुर्भाग्य से, इसे अक्सर सही ढंग से नहीं आंका जाता. दिसंबर की शुरुआत में हुई भारत, मालदीव और श्रीलंका की त्रिपक्षीय सुरक्षा वार्ता जैसी पहलकदमियां महत्वपूर्ण हैं, लेकिन ये भारत के पास-पड़ोस में उभरती ताक़त से निपटने के लिए अपर्याप्त हैं. भारत-चीन के बीच और चीन-श्रीलंका के बीच रिश्ते की गतिकी हाल के दिनों में पूरी तरह बदल चुकी है- चीन रक्षा पर भारत का चार गुना ख़र्च करता है और चीन की जीडीपी भारत की जीडीपी के पांच गुना से ज़्यादा है. अपनी ठीक परिधि पर चीनी मौजूदगी को भोथरा करने के लिए, भारत को ज्यादा सक्रिय विदेश नीति की ज़रूरत होगी और अपनी पहुंच में रणनीतिक आयाम का विस्तार करना होगा. 

वांग यी को चीनी कूटनीति में ‘रुपहली लोमड़ी’ (सिल्वर फॉक्स) के रूप में जाना जाता है. उनके पास चीन के पास-पड़ोस में क्षेत्रीय प्रभुत्व को सुदृढ़ करने के लिए परिधीय कूटनीति का काफ़ी अनुभव है.

जब विदेश नीति को सही रास्ते पर लाने की ज़रूरत है, राजपक्षे की राजनीतिक मंडली में अंदरूनी दरार उभर रही है. विधायिका और न्यायपालिका में दशकों का अनुभव रखने वाले निष्कासित मंत्री ने आगाह किया कि ‘संविधान-निर्माण के लिए समावेशी दृष्टिकोण के अभाव, लोकतांत्रिक मानदंडों से हटने, और एक कमज़ोर विदेश नीति के साथ आंतरिक स्तर पर कमज़ोर नीतिगत फ़ैसले देश की संप्रभुता के लिए बड़े ख़तरे को न्योता देंगे’. राष्ट्रपति गोटाबाया ने अपने अत्यधिक एकतंत्रीय शासन को वरिष्ठ मंत्रियों की उस आंतरिक मंडली के लिए खोला है, जो सीधे प्रधानमंत्री से संबंधित होगी. और, प्रधानमंत्री अपने वरिष्ठ राजनीतिक साथियों के साथ दशकों से राजनीति में हैं. दरारें गहरी होंगी और आगामी महीनों में पूरे शासन के केंद्र में फैल जायेंगी. यह एकतंत्रीय शासन की आक्रामक शैली के चलते होगा. आंतरिक राजनीति की कामकाजी विफलता को पूर्व राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना के रुख से भी समझा गया, जिन्होंने गठबंधन सरकार से श्रीलंका फ्रीडम पार्टी (एसएलएफपी) के हटने की संभावना का संकेत दिया. आनेवाले महीनों में घरेलू राजनीति मुख्य फोकस में होगी, लेकिन अंतर्निहित अहम विदेश नीति चिंताओं को भी प्राथमिकता दी जायेगी. कोलंबो को व्यापक भूराजनीतिक संदर्भ को देखना चाहिए तथा द्वेषपूर्ण विदेशी प्रभावों के ख़िलाफ़ प्रतिरोध और विदेश नीति में संतुलन बनाये रखने के लिए सही साझेदारियां करने में ज़्यादा निवेश करना चाहिए. 

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