Published on Jun 10, 2022 Updated 0 Hours ago

भारत या तो श्रीलंका के साथ, या फिर कोलंबो सिक्योरिटी कॉन्क्लेव (CSC) के तहत कच्चातिवु द्वीप की साझा गश्त की व्यवस्था पर विचार कर सकता है. क्योंकि, इससे कच्चातिवु के आस-पास मछुआरों के विवाद से भी छुटकारा पाया जा सकेगा.

तमिलनाडु ने की श्रीलंका से कच्चातिवु द्वीप ‘वापस’ लेने की मांग: बेवक्त़ उठी मांग से संबंध तनावपूर्ण होने का डर!

आज जब भारत के दक्षिणी राज्य तमिलनाडु में राज्य के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन द्वारा, एक आधिकारिक कार्यक्रम के दौरान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने, राज्य की मांगों की लंबी फ़ेहरिस्त गिनाने के औचित्य और नैतिकता पर राजनीतिक बहस छिड़ी हुई है, तो इसमें सबसे ज़्यादा वो मुद्दा कांटे की तरह चुभ रहा है, जो भारत की बड़ी सावधानी से बनाई गई ‘नेबरहुड फर्स्ट’ नीति की हवा निकालने वाला है. कच्चातिवु का जज़ीरा श्रीलंका से वापस लेने की तमिलनाडु की बरसों पुरानी मांग दोहराते हुए मुख्यमंत्री स्टालिन ने ये कहा कि, ‘ऐसा करने का ये बिल्कुल सही वक़्त है’. तमिलनाडु की ये मांग न सिर्फ़ बेवक़्त की बांसुरी है, बल्कि ये बिना सोचे-समझे उठाई गई मांग है.

कच्चातिवु का जज़ीरा श्रीलंका से वापस लेने की तमिलनाडु की बरसों पुरानी मांग दोहराते हुए मुख्यमंत्री स्टालिन ने ये कहा कि, ‘ऐसा करने का ये बिल्कुल सही वक़्त है’. तमिलनाडु की ये मांग न सिर्फ़ बेवक़्त की बांसुरी है, बल्कि ये बिना सोचे-समझे उठाई गई मांग है.

जिस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी ने केंद्र के पैसे से शुरू की गई 31,530 करोड़ लागत की योजनाओं की शुरुआत की, उस कार्यक्रम में बोलते मुख्यमंत्री स्टालिन ने कहा कि कच्चातिवु द्वीप को श्रीलंका से वापस लेने से तमिलनाडु के मछुआरों द्वारा झेली जाने वाली समस्याओं का समाधान हो जाएगा और इससे वहां मछली मारने के उनके पारंपरिक अधिकारों की भी रक्षा हो सकेगी. जैसी कि उम्मीद थी, मुख्यमंत्री के बाद जब प्रधानमंत्री ने भाषण दिया, तो उन्होंने न तो कच्चातिवु के मुद्दे पर कुछ कहा और न ही वो उन दूसरे घरेलू मसलों पर बोले, जिनका ज़िक्र मुख्यमंत्री ने किया था.

मुख्यमंत्री के बाद दिए गए अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने श्रीलंका का ज़िक्र उसके आर्थिक और राजनीतिक हालात तक सीमित रखा और उनके बारे में कोई टिप्पणी नहीं की. भारत इस मुश्किल वक़्त में श्रीलंका की जनता के साथ मज़बूती से खड़ा रहेगा और उन्हें लोकतंत्र स्थिरता और अर्थव्यवस्था को पटरी में लाने में पूरी मदद करेगा. प्रधानमंत्री ने कहा कि, ‘एक क़रीबी दोस्त और पड़ोसी देश होने के नाते भारत, श्रीलंका को हर मुमकिन मदद कर रहा है. इसमें वित्तीय सहायता, ईंधन, खान-पान के सामना, दवाएं और दूसरे ज़रूरी सामान शामिल हैं.’ प्रधानमंत्री ने याद दिलाया कि श्रीलंका को आर्थिक मदद देने की बात, भारत ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी मज़बूती से उठाई है.

अलग तरह के नेता

मुख्यमंत्री स्टालिन की कच्चातिवु द्वीप वापस लेने की मांग ऐसे मौक़े पर आई है, जब उनके नेतृत्व में तमिलनाडु, केंद्र सरकार के अलावा अपनी तरफ़ से भी श्रीलंका के सभी लोगों को खाना और दवाएं दान में दे रहा है. स्टालिन की इस पहल का श्रीलंका में सभी तबक़ों ने स्वागत किया था. ख़ासतौर से तब और जब उन्होंने तमिलनाडु से भेजी जा रही मदद को तमिल समुदाय के साथ-साथ सभी वर्गों को देने के लिए कहा था. श्रीलंका के दो प्रधानमंत्रियों, पहले महिंदा राजापक्षे और फिर रनिल विक्रमसिंघे ने स्टालिन को चिट्ठी लिखकर वक़्त पर मदद भेजने के लिए शुक्रिया अदा किया.

स्टालिन की पहल का नतीजा ये निकला कि सिंहला- बौद्ध राष्ट्रवादी कट्टरपंथियों को भी एक अलग तरह का द्रविड़ नेता देखने को मिला, जो अपने देश के जातीय मुद्दे और गृह युद्ध के चलते उनकी बनी बनाई छवि से कहीं अलग दिखा.

सिंहला राजनीति में कट्टर भारत विरोधी तत्वों ने भी अपना रुख़ तब नरम कर लिया, जब उन्होंने देखा कि इस मुश्किल घड़ी में भारत के अलावा, चीन समेत कोई और देश उनकी मदद के लिए आगे नहीं आया है. स्टालिन की पहल का नतीजा ये निकला कि सिंहला- बौद्ध राष्ट्रवादी कट्टरपंथियों को भी एक अलग तरह का द्रविड़ नेता देखने को मिला, जो अपने देश के जातीय मुद्दे और गृह युद्ध के चलते उनकी बनी बनाई छवि से कहीं अलग दिखा.

क्रिया की प्रतिक्रिया

इसी संदर्भ में ये कहा जा राह है कि स्टालिन का केंद्र सरकार से कच्चातिवु द्वीप ‘वापस लेने’ की मांग, बिल्कुल ग़लत और बेवक़्त उठाई गई है. मुख्यमंत्री स्टालिन की इस मांग को श्रीलंका के तमिल मछुआरों को भी रास नहीं आई है. क्योंकि वो भी कच्चातिवु को एक द्विपक्षीय मुद्दा मानते हैं. हालांकि, दोनों ही देशों के मछुआरों को इस बात का एहसास है कि अब ये इलाक़ा मछली मारने के लिहाज़ से वैसा समृद्ध नहीं रहा, जैसा कुछ दशक पहले के दौर में था. जाफ़ना के श्रीलंकाई तमिल सांसदों जैसे कि सेल्वम अदाइकलानानाथन ने पहले ही ये ऐलान कर दिया है कि वो कच्चातिवु द्वीप पर किसी भी सूरत में अपना क़ब्ज़ा नहीं छोड़ेंगे.

चूंकि सिंहलों की सोच बरसों से वैसी ही बनी हुई है, तो उन्होंने अपने आप ही ये मान लिया कि स्टालिन का इशारा उनके देश के बेहद ख़राब आर्थिक हालात की तरफ था और वो शायद इस हाथ ले उस हाथ दे के सौदे की तरफ़ इशारा कर रहे थे.

इसी तरह ‘सिंहला- बौद्ध राष्ट्रवादियों’ को भी मुख्यमंत्री स्टालिन का ये कहना बहुत खटका है कि कच्चातिवु द्वीप वापस लेने का ये ‘बिल्कुल सही समय’ है. चूंकि सिंहलों की सोच बरसों से वैसी ही बनी हुई है, तो उन्होंने अपने आप ही ये मान लिया कि स्टालिन का इशारा उनके देश के बेहद ख़राब आर्थिक हालात की तरफ था और वो शायद इस हाथ ले उस हाथ दे के सौदे की तरफ़ इशारा कर रहे थे. उनकी नज़र में कच्चातिवु का बेआबाद जज़ीरा, जहां दोनों ही देशों के मछुआरे सिर्फ़ हर साल होने वाले दो दिन के सेंट एंथनी चर्च फेस्टिवल के लिए जमा होते हैं. ये बात श्रीलंका की संस्थागत व्यवस्थाओं के बारे में भी कही जा सकती है, जिसकी याददाश्त कोई कमज़ोर नहीं है.

जिस वक़्त श्रीलंका में आर्थिक संकट की शुरुआत ही हुई थी, उसी वक़्त राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे सरकार में शामिल मंत्रियों समेत उसके आलोचकों ने दावा किया था कि भारत उनके देश पर तय समय-सीमा के भीतर दस्तख़त करने का ‘दबाव’ बना रहा था. बाद में विपक्ष के नेता सजित प्रेमदासा समेत तमाम आलोचकों ने दावा किया था कि भारत सिर्फ़ इसलिए श्रीलंका को मदद भेज रहा था, ताकि वो सत्ताधारी राजपक्षे परिवार की गर्दन बचा सके और इस तरह से ‘प्रधानमंत्री मोदी के उद्योगपति मित्रों के हितों की रक्षा कर सके’. हालांकि बाद में अपना बयान सुधारते हुए सजित प्रेमदासा ने श्रीलंका की ‘अधिकतम संभव’ मदद करने के लिए मोदी से खुली अपील की थी.

जब बदली गई थी लकीर

कच्चातिवु द्वीप का मुद्दा मुख्य रूप से 1974 के द्विपक्षीय समझौते से पैदा हुआ है, जब दोनों ने सीमा रेखा की लकीर थोड़ी टेढ़ी करने पर सहमति जताई थी, जिससे 163 एकड़ में फैला ये बंज़र द्वीप पहली बार खींची गई अंतरराष्ट्रीय समुद्री सीमा रेखा (IMBL) में श्रीलंका के हिस्से में आ गया था. तमिलनाडु की तमाम सरकारों की तरफ़ से दबाव के बावजूद, केंद्र की सभी सरकारें उस वक़्त लिए गए इस फ़ैसले के साथ खड़ी रही हैं, जिसके तहत इसे समुद्र के क़ानूनों से जुड़ी संयुक्त राष्ट्र की संधि (UNCLOS) के पहले संस्करण के तहत अधिसूचित किया गया था. इसके चलते द्वीप पर हुए समझौते को वैधानिकता मिली और फिर कच्चातिवु को लेकर किसी भी देश द्वारा इकतरफ़ा फ़ैसला ले पाना क़रीब क़रीब नामुमकिन हो गया.

भारत ने ये समझौता क्यों किया था, ये बात साफ़ नहीं है. लेकिन, सीमा रेखा में इस बदलाव के चलते 53 किलोमीटर लंबी पाक जलसंधि की झील, सिर्फ़ दोनों देशों के इस्तेमाल की जगह बनी हुई है- जो संयुक्त राष्ट्र के समुद्र के क़ानून संबंधी संधि के तहत आने वाला इकलौता उदाहरण है- इस जलसंधि में किसी तीसरे देश को घुसने की मनाही है. इस इलाक़े में अन्य देशों ने दिलचस्पी तब दिखाई- जब भारत ने सेतु समुद्रम नहर परियोजना पर काम शुरू किया था, तब अमेरिका ने एलान किया था कि अगर वहां पर जहाज़ों की आवाजाही मुमकिन होगी, तो वो भी उस इलाक़े से अपने जहाज़ों के आने-जाने की इजाज़त मांगेगा. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने सेतु समुद्रम परियोजना पर रोक लगा दी थी.

लेकिन, ये विवाद इसलिए बना हुआ है क्योंकि श्रीलंका, भारत के मछुआरों को वहां पर सुस्ताने और अपने जाल सुखाने से लगातार रोकता आया है. जबकि 1974 के समझौते के तहत भारत के मछुआरों को इसकी छूट मिली हुई है. पहले तो श्रीलंका ने ऐसा करने के पीछे LTTE के युद्ध का बहाना बनाया. फिर उन्होंने बहाना किया कि भारत के मछुआरे अब नायलॉन का बना जाल इस्तेमाल करने लगे हैं और उन्हें इसे सुखाने की ज़रूरत ही नहीं है. कुछ लोगों ने 1976 में हुए एक और समझौते का हवाला भी दिया जिसमें भारतीय मछुआरों को ये रियायत देने का ज़िक्र ही नहीं है. कुल मिलाकर श्रीलंका, जाफना ज़िले के राजस्व के पुराने रिकॉर्ड का हवाला देकर कच्चातिवु द्वीप पर अपना अधिकार जताता रहा है. वहीं, तमिलनाडु में तमाम सरकारें अपना अधिकार जताने के लिए, रामनद के राजा और शिवगंगा ज़मीन के बीच द्वीप पर अधिकार के तबादले के तमाम दस्तावेज़ों का हवाला देती आई हैं.

केंद्र सरकार लगातार ये कहती आई है कि 1974 का समझौता न तो भारत के किसी क्षेत्र से अधिकार छोड़ने का मामला था और न ही इससे देश की सीमा में किसी तरह का बदलाव किया गया, जिसके लिए संसद की मंज़ूरी लेनी ज़रूरी थी. ये तो अंतरराष्ट्रीय समुद्री सीमा रेखा (IMBL) तय करने की शुरुआत थी. 

सुप्रीम कोर्ट के सामने अपना पक्ष रखने की होड़ में तमिलनाडु के धुर सियासी विरोधियों, पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता और करुणानिधि ने ये दावा भी किया था कि 1974 का भारत और श्रीलंका का समझौता संविधान के अनुच्छेद 3 के ख़िलाफ़ है, जिसके तहत केंद्र सरकार को देश के किसी भी हिस्से पर अपना अधिकार छोड़ने के लिए संसद से मंज़ूरी लेने की शर्त है. केंद्र सरकार लगातार ये कहती आई है कि 1974 का समझौता न तो भारत के किसी क्षेत्र से अधिकार छोड़ने का मामला था और न ही इससे देश की सीमा में किसी तरह का बदलाव किया गया, जिसके लिए संसद की मंज़ूरी लेनी ज़रूरी थी. ये तो अंतरराष्ट्रीय समुद्री सीमा रेखा (IMBL) तय करने की शुरुआत थी. इस विवाद के बीच केंद्र की तमाम सरकारें, श्रीलंका की नौसेना के हमलों और गिरफ़्तारी से भारत के मछुआरों की रक्षा के लिए पूरी मज़बूती से खड़ी रही हैं. हालांकि, द्वीप पर बनी जेल से भारतीय मछुआरों की रिहाई, 2017 के एक संसदीय क़ानून के चलते मुश्किल हो गई है. इस क़ानून के तहत समुद्री क्षेत्र के हर घुसपैठिए पर तगड़ा जुर्माना लगाने और ज़मानत के लिए भारी रक़म तय की गई है.

पूर्व के मुख्यमंत्रियों के लिये ज़रूरी मुद्दा

हालांकि, मुख्यमंत्री स्टालिन ने ये मुद्दा ग़लत वक़्त पर उठाया और इसे बिल्कुल ही ग़लत तरीक़े से पेश भी किया. मगर कच्चातिवु द्वीप को ‘वापस लेने’ की बात करने वाले वो पहले नेता नहीं हैं. इससे पहले 15 अगस्त 1991 को मुख्यमंत्री के तौर पर स्वतंत्रता दिवस पर अपने पहले भाषण में दिवंगत मुख्यमंत्री जयललिता ने भी यही बात कही थी. उन्होंने यही बात विधानसभा के अंदर और बाहर भी यही बात दोहराई थी और इस मुद्दे को व्यक्तिगत तौर पर सुप्रीम कोर्ट तक लेकर गई थीं. इसके बाद, मुख्यमंत्री स्टालिन के पिता और डीएमके के नेता एम. करुणानिधि ने भी सभी मोर्चों पर कच्चातिवु का मसला उठाया था.

स्टालिन को कच्चातिवु द्वीप का मुद्दा इसलिए उठाना पड़ा, क्योंकि हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी की केंद्र में सत्ताधारी पार्टी बीजेपी के तमिलनाडु के कई नेताओं ने भी यही बात दोहराई थी. बीजेपी के नेताओं ने कच्चातिवु द्वीप का ज़िक्र करते हुए कई बार ये बयान दिया है कि मोदी सरकार या तो कच्चातिवु द्वीप को श्रीलंका से ‘वापस छीनेगी’ या फिर लंबे समय के लिए पट्टे पर ले लेगी, जिससे तमिलनाडु के मछुआरे इसका इस्तेमाल कर सकें. राजनीतिक फ़ायदे के लिए दिए गए ऐसे बयान, ख़ास तौर से केंद्र में राज कर रही बेहद ताक़तवर पार्टी के नेताओं द्वारा दिए गए बयान, श्रीलंका पर कई तरह से असर डालने वाले हो सकते हैं.

>राजनीति और सियासी मांगों से अलग, भारत के कई सामरिक विशेषज्ञों को भी इस बात की आशंका लगती है कि भारत की मुख्यभूमि के बेहद क़रीब स्थित द्वीप तक कहीं चीन किसी तरह से अपनी पहुंच न बना ले. क्योंकि, चीन और श्रीलंका के बीच नज़दीकी लगातार बढ़ती जा रही है.

राजनीति और सियासी मांगों से अलग, भारत के कई सामरिक विशेषज्ञों को भी इस बात की आशंका लगती है कि भारत की मुख्यभूमि के बेहद क़रीब स्थित द्वीप तक कहीं चीन किसी तरह से अपनी पहुंच न बना ले. क्योंकि, चीन और श्रीलंका के बीच नज़दीकी लगातार बढ़ती जा रही है. हो सकता है कि इस द्वीप को भारत को पट्टे पर देने पर श्रीलंका में सहमति न बने. मगर दोनों देश इस द्वीप की मिलकर गश्त लगाने के प्रस्ताव पर विचार कर सकते हैं. ख़ुद श्रीलंका ने ये प्रस्ताव पहले दिया था. इससे दोनों देश मिलकर इस इलाक़े पर नज़र रख सकेंगे. किसी तीसरे देश द्वारा अवैध रूप से मछली पकड़ने की कोशिश नाकाम कर सकेंगे और ड्रग की तस्करी की बढ़ती तादाद पर भी लगाम लगा सकेंगे.

इस संभावना पर विचार करते हुए दोनों देश, इस इलाक़े में साझा गश्त लगाने को एक पायलट प्रोजेक्ट की तरह चला सकते हैं. कामयाब रहने पर साझा गश्त की ये व्यवस्था, कोलंबो सिक्योरिटी कॉनक्लेव (CSC) के बाक़ी दो देशों- बांग्लादेश और मालदीव के साथ मिलकर भी लागू की जा सकती है. साझा निगरानी की ये व्यवस्था अगर अन्य सदस्य देशों के समुद्री क्षेत्रों में गश्त के लिए अपनाई जाती है, तो सभी देश मिलकर सुरक्षा की साझा चुनौतियों से भी निपट सकेंगे.

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