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इस क्षेत्र पर अनिश्चितता के बादल गहराते जा रहे हैं. दक्षिण एशिया का यह ‘वसंत’ या तो लोकतंत्र और समृद्धि को पुष्ट कर सकता है, या फिर क्षेत्र को नई अनिश्चितता, अस्थिरता, हिंसा और लोकतांत्रिक क्षरण की लहरों में धकेल सकता है.
साल 2022 में श्रीलंका में हुए अरागालया, 2024 में बांग्लादेश के ‘दूसरे मुक्ति’ आंदोलन और फिर नेपाल में पिछले दिनों हुए जेन-जी विरोध-प्रदर्शनों से दक्षिण एशिया में बड़े पैमाने पर पनप रही एक प्रवृत्ति का संकेत मिलता है- कि यहां भी अब ‘स्प्रिंग’ (वसंत) आ गया है. इन आंदोलनों से पता चलता है कि युवा पीढ़ी मौजूदा राजनीतिक संस्कृति को चुनौती ही नहीं दे रही, बल्कि सांविधानिक व राजनीतिक सुधारों को बढ़ावा देने, बेहतर बेहतर जीवन अपनाने और आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए सरकारों को गिरा भी रही है. इससे पता चलता है कि पुराने अभिजात वर्ग और खोखली हो चुकी राजनीतिक व आर्थिक संस्थाओं के प्रति यहां कितनी गहरी नाराज़गी है. हालांकि, इस ‘वसंत’ अथवा लहर से जो परिणाम निकल रहे हैं, वे अनुमानों से अधिक गंभीर हो सकते हैं. विशेष रूप से, जब अनिश्चितता के बादल मंडरा रहे हों, तब इस तरह की अस्थिरता इस क्षेत्र को कहीं अधिक परेशान कर सकती है.
अपनी आज़ादी के बाद से, दक्षिण एशिया के देशों पर आमतौर पर इन्हीं पारंपरिक कुलीन वर्ग का प्रभुत्व रहा है. उदाहरण के लिए, श्रीलंका की राजनीति में 2000 के दशक तक सिर्फ़ दो पार्टियों- यूनाइटेड नेशनल पार्टी (UNP) और श्रीलंका फ्रीडम पार्टी (SLFP) का ही दबदबा रहा. और, इसके बाद अगले 15 वर्षों के लिए महिंदा राजपक्षे व उनके परिवार ने उनकी जगह ले ली. बांग्लादेश में भी, शेख हसीना और खालिदा ज़िया की, जो दो पूर्व राष्ट्रपतियों की क्रमशः बेटी और पत्नी हैं, राजनीतिक क्षेत्र में पकड़ बनी हुई है. नेपाल की बात करें, तो वहां पिछले एक दशक में सात से ज़्यादा बार सरकारें बदलीं ज़रूर, लेकिन प्रधानमंत्री की कुर्सी नेपाली कांग्रेस के एसबी देउबा, नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी लेनिनवादी) के केपी शर्मा ओली और नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के प्रचंड के बीच ही घूमती रही.
इन सरकारों के पास सत्ता में बने रहने की अपनी-अपनी रणनीतियां थीं. नस्लवादी राजनीति व बढ़ते जातीय मतभेद ने हमेशा श्रीलंकाई सरकारों को सिंहली राष्ट्रवादी मतदाताओं का समर्थन पाने और सत्ता में बने रहने में मदद पहुंचाई. जबकि, बांग्लादेश में, चुनाव अक्सर हिंसा और धांधली का शिकार होते रहे. नेपाल में, ‘म्यूजिकल चेयर का खेल’ लगातार जारी रहा और सरकार बनाने के लिए ज़रूरी बहुमत न मिल पाने के कारण पार्टियां और नेतागण नई सरकारें बनाने व मौजूदा सरकारों को गिराने के लिए जैसे-तैसे गठबंधन बनाते रहे. सत्ता पर उनकी इस पकड़ ने नई पार्टियों और सक्रिय नागरिक भागीदारी, ख़ासकर युवाओं के लिए बहुत कम जगह छोड़ी थी.
नौजवानों में बेरोज़गारी का यह संकट आने वाले दिनों में और बढ़ सकता है, क्योंकि नेपाल में 86 लाख से ज़्यादा, श्रीलंका में करीब 51 लाख और बांग्लादेश में 4.88 करोड़ लोग निकट भविष्य में रोज़गार और आर्थिक अवसरों की खोज में जुटेंगे.
यह स्थिति तब थी, जब दक्षिण एशिया दुनिया के सबसे युवा क्षेत्रों में एक है. यहां के नौजवानों की मध्यम उम्र 28 साल है और दुनिया की 30 प्रतिशत युवा आबादी इसी क्षेत्र में बसती है. युवाओं की यह संख्या इस क्षेत्र की एक बहुमूल्य संपत्ति है. राजनीति, रोज़गार, बाज़ार, अर्थव्यवस्था और विकास के अवसरों में उनकी भागीदारी से इस क्षेत्र के देशों को महत्वपूर्ण लाभ मिल सकता है. साल 2023 तक (तालिका 1 देखें), श्रीलंका की 29 प्रतिशत से अधिक आबादी और बांग्लादेश व नेपाल की 36 प्रतिशत जनसंख्या वयस्क नौजवानों (15 वर्ष से 35 वर्ष वाले युवाओं की) की थी. वे इस देशों के श्रम-बल का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और उनकी हिस्सेदारी श्रीलंका में 39 प्रतिशत से लेकर बांग्लादेश में 45 प्रतिशत व नेपाल में 47 प्रतिशत तक है. इन देशों की जनसांख्यिकी का विस्तृत विवरण नीचे दिए गए ग्राफ 1 है.
Table 1. Demographics of Sri Lanka, Bangladesh, and Nepal
| Demographics | Sri Lanka | Bangladesh | Nepal |
| Total Population in million | 23 | 171 | 29.7 |
| Population (15-34) in million | 6.7 | 61.3 | 10.7 |
| Age group (15-34) of the total population (in percent) | 29.1% | 35.8% | 36% |
| Age group (15-34) Percent of the total working population | 39.4% | 45.2% | 47% |
Source: World Health Organization (WHO) ; Authors’ compilation from World Bank
Graph 1. Demographics of Sri Lanka, Bangladesh, and Nepal (in millions)

Source: WHO
इसके बावजूद, इस युवा आबादी की क्षमता का पूरा इस्तेमाल नहीं हो पाया है. तमाम सरकारें रोज़गार पैदा करने और नौजवानों की महत्वाकांक्षाओं व अपेक्षाओं पर खरा उतरने में नाकाम रही हैं. नीचे दी गई तालिका 2 में बताया गया है कि इन तीनों देशों में किस तरह युवा बेरोज़गारी समग्र बेरोज़गारी से अधिक है. नौजवानों में बेरोज़गारी का यह संकट आने वाले दिनों में और बढ़ सकता है, क्योंकि नेपाल में 86 लाख से ज़्यादा, श्रीलंका में करीब 51 लाख और बांग्लादेश में 4.88 करोड़ लोग (14 वर्ष से कम उम्र वाले) निकट भविष्य में रोज़गार और आर्थिक अवसरों की खोज में जुटेंगे. (ग्राफ 1 देखें)
Table 2. Unemployment in Sri Lanka, Bangladesh and Nepal
| Country | Total Unemployment | Youth Unemployment |
| Sri Lanka | 5 % | 22.3% |
| Bangladesh | 4.7 % | 16.8% |
| Nepal | 10.7 % | 20.8% |
Source: Authors’ compilation from the World Bank
भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद ने भी नौजवानों की हताशा काफ़ी हद तक बढ़ाई है. नीचे ग्राफ 2 में साल 2018 के बाद से श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल की भ्रष्टाचार धारणा रैंकिंग दी गई है, जिससे पता चलता है कि हाल के वर्षों में कुछ उतार-चढ़ाव के बावजूद, तीनों देशों की रैंकिंग 180 देशों में 100 से ऊपर ही है. यह बताता है कि यहां भ्रष्टाचार लगातार कायम है. सत्ता द्वारा कुछ ख़ास लोगों को संरक्षण दिए जाने से आम लोग उपलब्ध अवसरों का प्रभावी ढंग से लाभ नहीं उठा पाए, विशेष रूप से श्रीलंका और बांग्लादेश में, जहां हालिया आंदोलनों से पहले सरकारी नौकरियां और सामाजिक कल्याणकारी योजनाएं, सत्तारूढ़ दलों के परिवारों, समर्थकों या मतदाता-आधारों को ही दी जाती थीं. इन दोनों देशों में सरकारी पैसों की हेराफेरी और दुरुपयोग के साथ-साथ निविदाएं और खरीद में भी बड़े पैमाने पर गड़बड़ियां देखी गई हैं. बांग्लादेश में तो सरकार संरक्षित पूंजीपति तबका बैंकों से लगातार उधार लेता रहा, जिसके कारण अंततः बैंकिंग प्रणाली ही बैठ गई.
Graph 2. Corruption Perception of Sri Lanka, Bangladesh and Nepal

Source: Authors' compilation using Transparency Corruption Index (2018-2024)
इन सबके अलावा, तीनों ही देश सरकारी नौकरियों के प्रति सामाजिक पूर्वाग्रह से निपटने में भी नाकाम रहे. यहां निजी क्षेत्र और शिक्षा तंत्र के बीच भी एक बड़ा अंतर है. शिक्षा में नाममात्र या बिल्कुल भी सुधार नहीं हुआ है, और जिस कौशल की ज़रूरत युवाओं को है और जो उनको मिल रहा है, उनके बीच भी अंतर लगातार बढ़ता जा रहा है. यही स्थिति नौजवानों की अपेक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं को लेकर है. राष्ट्रवादी और लोकलुभावन नीतियां निवेशकों को लुभाने और रोज़गार पैदा करने में काफ़ी हद तक विफल रही हैं. हालांकि, इसकी वज़हें तीनों देशों में सीमित आर्थिक विविधीकरण, श्रीलंका में विदेशी निवेश का विरोध और नेपाल में अस्थिरता भी हैं. इन कारकों ने बड़े पैमाने पर पलायन को बढ़ावा दिया है और पिछले तीन दशकों में 70 लाख से ज़्यादा नेपाली नागरिक काम की तलाश में दूसरे देश (भारत को छोड़कर) जा चुके हैं. करीब 10 लाख श्रीलंकाई नागरिक तो सिर्फ़ 2022 (यहां) और 2025 की पहली छमाही के बीच काम के सिलसिले में विदेश गए हैं.
चूंकि युवा पीढ़ी को राजनीतिक ढांचे और रोज़गार के अवसरों में अपनी उपेक्षा लगातार बढ़ती हुई महसूस हो रही थी, इसलिए ये देश विरोध-प्रदर्शनों की आग में जलने के लिए सिर्फ़ एक छोटी सी घटना का ही इंतज़ार कर रहे थे. कोविड-19, रूस-यूक्रेन युद्ध और आपूर्ति शृंखला में पैदा हुई रुकावटों जैसे बाहरी झटकों ने आर्थिक चुनौतियां के साथ-साथ अशांति की जमीन को उपजाऊ बना दिया. श्रीलंका की अर्थव्यवस्था का राजपक्षे द्वारा लगातार कुप्रबंधन, बांग्लादेश में मुक्ति आंदोलन के सेनानियों (इसे अवामी लीग समझें) के लिए नौकरी के कोटे में वृद्धि और नेपाल में सोशल मीडिया ऐप पर लगाए गए प्रतिबंध ने अंततः ताबूत में आखिरी कील ठोक दी.
इन तीनों देशों में विरोध-प्रदर्शनों के रुझान एकसमान ही हैं. तीनों देशों में नागरिक समाज, छात्रों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और ट्रेड यूनियनों ने मिलकर एक विकेंद्रीकृत व नेतृत्वविहीन विरोध किया. उनका असंतोष पूरी राजनीतिक व्यवस्था के प्रति था और उन्होंने राजनीतिक दलों से दूरी बनाए रखी. उनका मुख्य उद्देश्य ढांचागत बदलाव की मांग करना, अभिजात वर्ग व सरकारों को जवाबदेह ठहराना और बेहतर जीवन की परिस्थितियां तैयार करना था. हालांकि, सुधारों के उपायों और देश के भविष्य की दिशा क्या हो, इसको लेकर उनमें बहुत ज़्यादा स्पष्टता नहीं दिखी है, मगर भीड़ जुटाने, सरकार व अभिजात वर्ग विरोधी बातों को फैलाने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल (या हथियार के रूप में) खूब किया गया. बदहवासी में सरकारें जैसे-जैसे हिंसा का प्रयोग करती गईं, प्रदर्शनकारियों को और अधिक सहानुभूति मिलती गई और नाराज़ भीड़ ने सरकारी संस्थानों व पार्टी कार्यालयों को जलाना शुरू कर दिया. उन्होंने राजनीतिक दलों के नेताओं पर भी हमले किए और सरकार को इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर कर दिया.
श्रीलंका की अर्थव्यवस्था का राजपक्षे द्वारा लगातार कुप्रबंधन, बांग्लादेश में मुक्ति आंदोलन के सेनानियों के लिए नौकरी के कोटे में वृद्धि और नेपाल में सोशल मीडिया ऐप पर लगाए गए प्रतिबंध ने अंततः ताबूत में आखिरी कील ठोक दी.
सरकारें जब कमज़ोर होती गईं, तब शून्यता की स्थिति पैदा होती गई, और अवसरवादी व राजनीतिक दलों ने विरोध-प्रदर्शनों पर क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया. उन्होंने न सिर्फ़ आंदोलनों पर अधिकार जमा लिया, बल्कि अपनी गैर-मुख्यधारा (कभी-कभी हाशिये) की राजनीति व विचारधारा को वैधता दिलाने की कोशिश भी की. श्रीलंका में ही, माना जाता है कि वामपंथी तत्व (जिनमें जनता विमुक्ति पेरामुना (JVP) भी शामिल है, जो अब सत्तारूढ़ है, लेकिन कभी यह मार्क्सवादी उग्रवादी पार्टी थी) अरागालया में शामिल हुए. बांग्लादेश में भी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (BNP) व जमात-ए-इस्लामी (JeL) और नेपाल में राजशाही समर्थक तत्वों ने इसी तरह घुसपैठ की है.
वास्तव में, श्रीलंका में JVP के नेतृत्व वाले वामपंथी गठबंधन के राष्ट्रपति अनुरा दिसानायके ने लोगों में यह भरोसा पैदा करके चुनाव जीता कि वे अभिजात वर्ग वाले राजनीतिक ढांचे का हिस्सा नहीं हैं. बेशक, उन्हें सुधारों को लागू करने के लिए जनादेश मिला हुआ है, लेकिन वहां ‘बदले की राजनीति’ को लेकर चिंताएं अब भी बनी हुई हैं. बांग्लादेश में और भी परेशान करने वाले नतीजे देखने को मिले हैं. संसद भंग होने के बाद, राजनीतिक दल सुधारों पर चर्चा करते रहे हैं, लेकिन उन्हें लोगों की सहमति उस तरह नहीं मिल सकी है. अवामी लीग के समर्थकों, नेताओं और अल्पसंख्यकों पर हमले बढ़े हैं. हाल ही में एक विश्वविद्यालय के चुनाव में जमात-ए-इस्लामी समर्थित संगठन की जीत ने इसलिए चिंता बढ़ा दी है, क्योंकि इससे ऐसा लग रहा है कि राजनीतिक शून्यता को कट्टरपंथी भरने लगे हैं. और रही बात नेपाल की, तो वहां संसद भंग होने के बाद अंतरिम प्रधानमंत्री के रूप में सुशीला कार्की को सुधारों के कामों को आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है.
विरोध-प्रदर्शनों ने लोकतंत्र व जीवन को बेहतर बनाने के लिए ज़िम्मेदार पुराने नेताओं और उनकी राजनीतिक संस्थाओं को चुनौती दी है, लेकिन इस राजनीतिक शून्य को गैर-निर्वाचित नेता और गैर-मुख्यधारा की पार्टियां व विचारधाराएं भर रही हैं.
इसके अलावा, इन तीनों देशों में राजनीतिक बदलाव की प्रक्रिया में सेना ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. प्रदर्शनकारियों पर कार्रवाई करते समय उसने बहुत संयम बरता और नेताओं को इस्तीफ़ा देने के लिए मनाकर व उन्हें सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाकर खून-खराबा होने से बचा लिया. अच्छी बात यह भी है कि घरेलू मामलों में दख़ल देने में उसकी बहुत ज़्यादा रुचि नहीं है, फिर भी, यहां की सेनाएं पहले की तुलना में अधिक मज़बूत हुई हैं, ख़ासकर बांग्लादेश और नेपाल में, जहां संसद भंग हैं.
कुल मिलाकर, इन देशों की नई सरकारों पर अब सुधारों को आगे बढ़ाने और बेहतर जीवन व शासन-व्यवस्था मुहैया कराने की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी है. बेशक, विरोध-प्रदर्शनों ने लोकतंत्र व जीवन को बेहतर बनाने के लिए ज़िम्मेदार पुराने नेताओं और उनकी राजनीतिक संस्थाओं (जिनका पतन हो भी रहा था) को चुनौती दी है, लेकिन इस राजनीतिक शून्य को गैर-निर्वाचित नेता और गैर-मुख्यधारा की पार्टियां व विचारधाराएं भर रही हैं. स्पष्ट है कि इस क्षेत्र पर अनिश्चितता के बादल गहराते जा रहे हैं. दक्षिण एशिया का यह ‘वसंत’ या तो लोकतंत्र और समृद्धि को पुष्ट कर सकता है, या फिर क्षेत्र को नई अनिश्चितता, अस्थिरता, हिंसा और लोकतांत्रिक क्षरण की लहरों में धकेल सकता है.
(आदित्य गौड़ा शिवमूर्ति ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में एसोसिएट फेलो हैं)
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Aditya Gowdara Shivamurthy is an Associate Fellow with the Strategic Studies Programme’s Neighbourhood Studies Initiative. He focuses on strategic and security-related developments in the South Asian ...
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